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हिंदी कहानी- केबीसी (Story- KBC)

उसका भावहीन सपाट चेहरा देखकर कई बार मैं डर जाता था. लगता था एक ज़िंदा लाश के संग रह रहा हूं, जिसमें न कोई स्पंदन है, न कोई संवेदना. अपने भविष्य से आशंकित मैं कई बार पत्रिकाओं में छपी वैवाहिक जीवन संबंधी प्रश्‍नावली लेकर बैठ जाता. यह जानने के लिए कि मेरे वैवाहिक जीवन का भविष्य क्या है?

गहराती रात के साथ हवा में और भी ठंडक घुलती जा रही थी. मैंने हल्का-सा पर्दा सरकाकर देखा. बाहर हल्की-हल्की बर्फ गिरनी शुरू हो गई थी. देखने मात्र से ही तीखी ठंडी हवा का झोंका मानो सीने के आर-पार हो गया था. मैंने तुरंत पर्दा खींच दिया था. अंजलि गहरी नींद में डूबी हुई थी. बिल्कुल मासूम गुड़िया-सी. उसकी भोली सूरत पर मुझे ढेर सारा प्यार उमड़ आया. मैंने हौले-से उसका माथा चूमकर अपना कंबल भी उसे ओढ़ा दिया. फिर टेबल लैंप ऑन करके अपने पोस्ट डॉक्टरेट के रिसर्च पेपर उलटने-पुलटने लगा. यह मेरा अत्यंत पसंदीदा पास टाइम है, जिसे मैं आधी रात को भी करने को तत्पर रहता हूं, लेकिन आश्‍चर्य, आज मेरा उसमें भी मन नहीं लगा. पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम ने मेरी ज़िंदगी में भयंकर उथल-पुथल मचा डाली थी. मन एकाग्रचित्त नहीं हो पाया, तो मैंने टेबल लैंप बुझा दिया और मन की धारा को उधर प्रवाहित होने दिया, जिधर वह बहना चाहती थी.
क्यों भागकर आया हूं मैं इस दुर्गम पहाड़ी स्थल पर? ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसा बड़ा गेम शो जीतकर मैं लाइमलाइट में आ गया था. आस-पास पत्रकारों, रिश्तेदारों, दोस्तों के जमावड़े से दो ही दिन में मेरा दम घुटने लगा था. हर चेहरा मुझे एक मुखौटा लगाए नज़र आता था, जिसके पीछे एक चाटुकार का चेहरा झांक रहा होता था. उनके सवाल-जवाब का सिलसिला जब मेरी व्यक्तिगत ज़िंदगी पर आक्रमण करने पर उतारू हो गया, तो मैं घबरा गया. लोग अंजलि यानी मेरी पत्नी के बारे में जानना चाहते थे. अपनी चांद-सी उजली छवि के इसी धब्बे को छुपाने के लिए मुझे भूमिगत होना पड़ा. दुनिया को कैसे बताता कि करोड़पति का ख़िताब जीतनेवाला इंसान एक अच्छा पति साबित नहीं हो सका. उसकी पत्नी उसकी वजह से गहरे मानसिक अवसाद में है. अंजलि का डॉक्टर तो मुझे बहुत पहले उसे लेकर किसी पहाड़ी स्थल पर चले जाने की राय दे चुका था, पर मैंने इसे डॉक्टर का ही मानसिक फ़ितूर करार देकर सिरे से नकार दिया था. ज़िंदगी का गेम शो खेलने के लिए ‘एक्सपर्ट एडवाइज़’ ले सकते हैं, पर उसे मानना ही है, यह कहां लिखा है?
अपने बुद्धिजीवी होने पर मुझे आरंभ से ही गर्व रहा है. एक के बाद एक डिग्री, एक के बाद एक सफलता से यह गर्व क्रमशः कब घमंड में तब्दील होता चला गया, मुझे ख़ुद पता नहीं चला. कॉलेज में व्याख्याता की नौकरी के साथ-साथ मेरा शोधकार्य भी जारी था. कोई मुझे सिविल सर्विसेज़ में जाने के लिए उकसा रहा था, तो कोई केबीसी में जाने के लिए. उस पर नित नए शादी के प्रस्ताव. मेरा दिमाग़ सातवें आसमान पर था. तभी किसी रिश्तेदार ने अंजलि का रिश्ता सुझाया था. अंजलि उसकी भी दूर की रिश्तेदार थी. अंजलि के माता-पिता गुज़र चुके थे. भाई-बहन कोई थे नहीं. नाते-रिश्तेदारों के रहमोकरम और छात्रवृत्ति के बलबूते पर वो अपनी पढ़ाई पूरी कर एक कन्या महाविद्यालय में व्याख्याता थी.
अनाथ कन्या के रिश्ते के नाम पर माता-पिता की तरह एकबारगी तो मैंने भी मुंह बिचकाया था, क्योंकि दहेज के नाम पर कुछ भी मिलनेवाला नहीं था, लेकिन मेरी तीक्ष्ण बुद्धि ने तुरंत सुझाया कि रोज़ सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी किसी भी मायने में सोने की खान से कम नहीं होती. फिर बराबर कमानेवाली जीवनसंगिनी लाऊंगा, तो समाज में रुतबा भी बढ़ेगा. पर मेरे बराबर बुद्धि, मुझ जितना ही कमानेवाली जीवनसंगिनी को मेरे सामने झुकना मंज़ूर नहीं हुआ तो? दिमाग़ का तराज़ू स्थिर हो ही नहीं पा रहा था. कभी इधर झुकता, तो कभी उधर. फिर मैंने, ‘ऑडियंस पोल’ लेने का निर्णय लिया था. पहले लड़की की डिग्रियों की वैधता की जांच-पड़ताल करवाई गई, फिर चाल-चलन की खोज-ख़बर ली गई. उसकी एक-दो अंतरंग सहेलियों से पता चला कि वह स्वावलंबी, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और शांतिप्रिय लड़की थी, इसलिए न तो स्वार्थी रिश्तेदारों को तवज्जो देती थी और न रस चूसनेवाले मतलबी भौरों को. मेरे बुद्धिचातुर्य ने उनके तर्क को पकड़ लिया. एक औपचारिक मुलाक़ात हुई और रिश्ता तय हो गया. अंजलि मेरी पत्नी बनकर मेरे संग रहने आ गई. मेरा शोधकार्य समाप्ति की ओर था और इसने न केवल मेरी व्यस्तता दुगुनी कर दी थी, बल्कि एक के बाद एक शोध में आ रही अड़चनों ने झुंझलाहट भी बढ़ा दी थी. पर अंत में मेरा शोधकार्य स्वीकृत हो गया. मैं सांतवें
आसमान पर था.
अंजलि के भरपूर धैर्य और सहयोग के बावजूद मैंने बड़ी बेशर्मी से सारा श्रेय स्वयं ले लिया था. थीसिस में उसके नाम का उल्लेख तक करना मुझे ज़रूरी नहीं लगा. अभी-अभी तो वह मेरी ज़िंदगी में आई है, जबकि मैं तो तीन साल से लिख रहा हूं, यही सोचकर मैंने अपने पुरुषोचित अहं को संबल दिया था. यहां तक कि दोस्तों द्वारा इस ख़ुशी में दी गई पार्टी में उसे शामिल करना भी मुझे ज़रूरी नहीं लगा. अंजलि स्तब्ध थी, पर मौन रही. मेरे शोधकार्य के दौरान वह अत्यंत संयमित और सहनशील बनी रही थी. मेरे तानों और झल्लाहट को उसने पढ़ाई का दबाव समझकर झेल लिया था, यह सोचकर कि इसके बाद मेरा प्यार मुखरित होगा. मैं उसे, उसके दिल को समझने का प्रयास करूंगा, पर मैंने उसकी सारी आशाओं पर तुषारापात करते हुए पोस्ट डॉक्टरेट के लिए अपना नाम रजिस्टर करवा लिया. अंजलि से पूछना तो दूर, मैंने उसे सूचित करना भी आवश्यक नहीं समझा. मेरे इस व्यवहार ने अंजलि को परिस्थितियों से समझौता करना सिखा दिया था. उसे मेरी तरक़्क़ी से रोष नहीं था, पर अवहेलना का दंश उस स्वाभिमानी लड़की को अंदर ही अंदर साल रहा था. मुंह खोलने की बजाय उसने मुंह सिल लेना बेहतर समझा. उसकी चुप्पी ने मेरे घमंड को फलने-फूलने का मौक़ा दिया. इससे पूर्व कि मैं उसे और भी नज़रअंदाज़ करता, घर में इधर-उधर बिखरी प्रशासनिक प्रतियोगिता की तैयारी की पुस्तकों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया. मैं तो अभी तक मानस ही बना रहा था, फिर ये पुस्तकें? मैंने अंजलि से पूछा, तो उसने सहजता से बता दिया कि ये पुस्तकें वह अपने लिए ख़रीदकर लाई है.
“तुम ये परीक्षाएं दे रही हो?” मेरी आवाज़ में प्रश्‍न कम, यह आक्रोश ज़्यादा था कि अभी तक मैं इन परीक्षाओं में सम्मिलित नहीं हुआ, तो तुम कैसे हो सकती हो? पर जब यही प्रश्‍न प्रत्यक्ष अंजलि के मुख से सुना, तो मैं बौखला उठा. “हां, मैं दे रही हूं, क्यों? नहीं दे सकती?” अंजलि ने बेहद सहजता से पूछा था. “नहीं, दो ना. मैंने कब मना किया? पर बताया तो होता?” मैं अपनी खिसियाहट छुपा नहीं पा रहा था.
“बता ही तो रही हूं. दरअसल, आप इतने व्यस्त रहते हैं कि हमारी बात ही नहीं हो पाती.” अंजलि ने बेहद मासूमियत से स्पष्टीकरण रख दिया था. मैं चाहकर भी उसे कुछ नहीं सुना पाया था. चोट गरम लोहे पर की जाती है. हिमशिला तो वैसे ही पिघलने को तत्पर थी. मैंने अंजलि को अवहेलना के कितने ही दंश दिए थे और वह हमेशा सामान्य बनी रही थी, पर उसके अनजाने में छोड़े इस तीर ने मुझे अंदर तक बेध डाला था. मैं अपमान का प्रत्युत्तर देने के लिए उपयुक्त अवसर तलाशने लगा.
एक आवश्यक सेमीनार के सिलसिले में मुझे कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर जाना पड़ा. सेमीनार के दौरान अंजलि का दो बार कॉल आया, जिसे मैंने काट दिया. बाद में भी मैं किसी आवश्यक कार्य में उलझा रहा. ट्रेन का वक़्त हो गया, तो मैंने सोचा अब सुबह घर पहुंच ही रहा हूं. घर पहुंचा, तो अंजलि को सामान पैक करते देख चौंक उठा.
“कहां जा रही हो अंजलि?”
“हम दोनों जा रहे हैं.” उसने संशोधन किया. “मुझे हॉस्टल वॉर्डन बनाया गया है. मकान, फोन सब सुविधाएं अलॉट हुई हैं. दो दिन के अंदर शिफ्ट करना है.” वह बेहद ख़ुश थी. इतनी कि ख़ुशी के मारे मुझसे लिपट गई. शायद वह पिछले सब दंश भुला चुकी थी. मुझे उसका लिपटना अच्छा लगा, पर जिस वजह से वह ख़ुश हो रही थी, वह वजह मुझे हज़म नहीं हो रही थी. कारण, अपने कॉलेज में मैं स्वयं दो वर्षों से इसी सबके लिए प्रयत्नरत था और अंजलि को ये सब इतनी आसानी से मिल गया.
मतलब वो मुझसे ज़्यादा योग्य है? मुझे अब वहां ‘अंजलि का पति’ बनकर रहना होगा? नहीं, यह कैसे हो सकता है? “अंजलि, मैं तुम्हारे संग वहां नहीं जा सकता. मेरा कॉलेज वहां से बहुत दूर हो जाएगा.” मैंने मुंह दूसरी ओर घुमा लिया था.
“पर एकाध कि.मी. का ही तो फ़र्क़ पड़ेगा. फिर तुम्हारी स्टाफ बस तो उधर भी आती है और मेरा तो पूरा ही समय बच जाएगा, तो बाज़ार का सारा काम भी मैं कर दिया करूंगी.” अंजलि के उत्साह में तनिक भी कमी नहीं आई थी.
“नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. कल को मुझे भी कॉलेज में क्वार्टर मिल गया तब?”
“तब हम वहां शिफ्ट कर लेंगे, पर तब तक तो चलो. यहां क्यों व्यर्थ किराया लगाया जाए?”
“ऐसे बार-बार शिफ्टिंग मेरे बस की बात नहीं.”


“तुम्हें अभी नहीं अलॉट हो रहा राजीव. दो साल से तुम कोशिश कर तो रहे हो.” अनजाने में ही अंजलि के मुख से कड़वा सच निकल गया था. मैं बुरी तरह भड़क उठा था. हीनभावना ने मेरी सोचने-समझने की शक्ति छीन ली थी. ग़ुस्से में बड़बड़ाता हुआ मैं घर से निकल गया था. पार्क में बैठे-बैठे मैंने कई दोस्तों को फोन लगाए. अपनी समस्या का समाधान जानने का प्रयास किया. ज़िंदगी का गेम शो खेलने की यह मेरी एक और लाइफलाइन थी- ‘फोनो फ्रेंड’. दोस्तों की राय से मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि मैं जो कर रहा हूं, वही सही है. देर रात गए मैं घर लौटा, तो सारा बंधा हुआ सामान खुलकर व्यवस्थित हो चुका था. अपनी जीत से संतुष्ट मैं खाना खाकर सो गया था. पर अफ़सोस, जिसे मैं जीत समझ रहा था, वह मेरे पराभव का आरंभ था. एक अघोषित शीतयुद्ध का शंखनाद था. अंजलि जाग रही है मुझे एहसास था. उस पर क्या बीत रही है, मैं समझ रहा था. पर अभी कुछ कहना या करना मेरा झुकना हो जाएगा, इसलिए मैं करवट बदलकर लेट गया था. अपने कर्त्तव्यों से मेरा यह पलायन हमारे वैवाहिक संबंधों के ताबूत में अंतिम कील साबित हुआ, क्योंकि अंजलि की ओर से यह संबंध अब दुनिया को दिखाने मात्र का औपचारिक बंधन रह गया था. वह मेरी ओर से पूर्णतः उदासीन हो गई थी. उसका भावहीन सपाट चेहरा देखकर कई बार मैं डर जाता था. लगता था एक ज़िंदा लाश के संग रह रहा हूं, जिसमें न कोई स्पंदन है, न कोई संवेदना. अपने भविष्य से आशंकित मैं कई बार पत्रिकाओं में छपी वैवाहिक जीवन संबंधी प्रश्‍नावली लेकर बैठ जाता. यह जानने के लिए कि मेरे वैवाहिक जीवन का भविष्य क्या है? तीन-चार प्रश्‍न हल करते-करते ही मेरी विलक्षण बुद्धि भांप लेती कि यह विकल्पवाले उत्तर देनेवाला ही सबसे अच्छा पति साबित होगा और मैं इसलिए उन्हीं विकल्पों पर निशान लगा देता.
आज यहां की शांत वादियों में बैठकर सोचता हूं, तो ख़ुद पर बेहद हंसी आती है. मैं किसे गुमराह करने का प्रयास कर रहा था? दुनिया को? अंजलि को? या अपने आपको?
अंजलि के असामान्य व्यवहार की शिकायतें जब कॉलेज से भी आने लगीं, तब मेरे दिमाग़ की घंटी बजी थी. लोग दबी ज़ुबान से उसकी ओर ‘पागल-पागल’ कहकर इशारा करने लगे थे. शुभचिंतकों ने इसे मानसिक अवसाद की अवस्था बताकर मनोचिकित्सक से मिलने की सलाह दी थी. डॉक्टर ने न केवल दवा आरंभ कर दी थी वरन् उसे शांत, एकांत स्थल पर ले जाने की सलाह भी दे डाली थी. अंजलि का कॉलेज जाना बंद हो गया था. मैं दिल से चाहता था कि अंजलि अच्छी हो जाए, क्योंकि ज़िंदगी में उस जैसी सच्चे साथी की कमी अब मुझे खलने लगी थी. उसकी चुप्पी मेरे लिए असहनीय हो गई थी. मैंने कॉलेज से छुट्टियां लेकर उसका पूरा इलाज कराने की ठानी, तो कई दोस्तों, रिश्तेदारों ने दावा किया कि अंजलि का पागलपन कभी ठीक नहीं होगा. उनके अनुसार, मुझे उससे इस ग्राउंड पर तलाक़ लेकर दूसरी शादी कर लेनी चाहिए. एक अन्य मित्र का सुझाव था कि यह विकल्प तो बाद में भी अपनाया जा सकता है. पहले मुझे उसका पूरा इलाज करवाकर तो देखना चाहिए कि वह ठीक हो सकती है या नहीं? मैंने ज़िंदगी के गेम शो की अंतिम लाइफलाइन ली- डबल डिप.
अंजलि की सेवा में मैंने दिन-रात एक कर दिया था. अब वह जागी रहती, तो उसे जूस पिलाता, खाना खिलाता, बातें करता, घुमाने ले जाता. इस दौरान अंजलि या तो मूर्ति बनी रहती या कठपुतली. लगता था उसका मुझ पर से विश्‍वास उठ गया है. पर मैं हार मानने को तैयार नहीं था. जब वह सो जाती, तो मैं उसकी लाई सामान्य ज्ञान की पुस्तकें पढ़ता रहता.
इसी दौरान देर रात जागकर पढ़ने के बीच ही केबीसी में फोन भी मिलाता रहता. एक दिन मेरा नंबर लग गया. अंजलि को उसकी एक सहेली की देखरेख में छोड़ मैं गेम खेलने मुंबई चला गया. हॉटसीट पर भी पहुंच गया. अपने दिमाग़ और चारों लाइफलाइन के सहयोग से मैं करोड़पति बन गया था. पार्टी कर रहा था, खिलखिला रहा था, पर यह हंसी खोखली थी. मैं जानता था कि मैं अंदर से ख़ुश नहीं हूं. अपने दिमाग़ से यह शो जीतकर मैं करोड़पति बन सकता हूं, पर यह असली जीत नहीं है. जल्द ही मैं अंजलि को लेकर यहां इन पहाड़ियों की शरण में आ गया. यह शांत, सुरम्य, डाकबंगला और यहां का पहाड़ी नौकर बदलू हम जैसे कई शरणार्थियों की ज़िंदगी बदलने का तजुर्बा रखते हैं.
आश्‍चर्य! हिम से ढंके इन पर्वतों के बीच आकर अंजलि के दिल में जमा हिमखंड पिघलने लगा है. बर्फ से ढंकी झील पर गिरती सूरज की रश्मियां उसके दिल में हलचल मचाने लगी हैं. नयन नयनों की मौन भाषा पढ़ने लगे हैं. आज पिघले बर्फ की झील में उसने हंसों के एक जोड़े को किल्लोल करते, एक-दूसरे पर पानी उछालते देखा, तो वह भी किलक उठी. उसने अंजुरी भर मुझ पर पानी उछाल दिया. मैं हतप्रभ-सा कुछ प्रतिक्रिया दे पाता, इससे पूर्व ही वह मुझसे लिपट गई और मुझ पर पानी उछालने लगी. मैं भीग रहा था. उसके द्वारा उछाले पानी से भी और आंखों से बहती गंगा-जमुना से भी. हां, आज मैं सही मायने में जीत गया हूं, ज़िंदगी का गेम शो केबीसी यानी कौन बनेगा सच्चा पति.

  संगीता माथुर

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