कहानी- क्रंदन (Short Story- Krandan)

‘‘शर्म नहीं आती. एहसान दिखा रहे हो. सच तो यह है, आज की युवा पीढ़ी में इंसानियत और संवेदनाएं बची ही नहीं हैं.’’ कहते हुए सीमा का गला भर्रा गया.
“मैडम मैं जानता हूं बच्चे की चोट से आप दुखी हैं, किंतु अगर मुझमें संवेदनाएं न होती, तो मैं भाग खड़ा होता. बच्चे को लेकर हॉस्पिटल न आया होता.’’ मुझे उस युवक के कथन में सच्चाई नज़र आ रही थी.

शाम का समय था. मैं और आरव लॉन में बैठे चाय पी रहे थे. तभी मेरा मोबाइल बज उठा.
‘‘हैलो,’’ मैं बोली.
‘‘दीदी, आप और भइया जल्दी से सिटी हास्पिटल आ जाइए. रिंकू का एक्सीडेंट हो गया है.’’ मेरी पड़ोसन सीमा का बदहवास-सा स्वर कान में पड़ा.
‘‘अरे कैसे?” मैंने पूछा, किंतु तब तक फोन कट चुका था. मैं और आरव घबरा गए. चाय यूं ही छोड़ कार से हम सिटी हास्पिटल पहुंचे. सीमा हमारे पड़ोस में रहती है. उसका हमारे घर काफ़ी आना-जाना है. उसके पति मर्चेंट नेवी में हैं और पिछले चार माह से शिप पर हैं. सीमा हमें ऑपरेशन थिएटर के बाहर दिखाई दी. वह एक युवक से उलझ रही थी. हमारे पहुंचते ही वह मेरे गले लग सिसक पड़ी.
‘‘कैसा है रिंकू?” उसे दिलासा देते हुए मैंने पूछा.
“माथे और घुटने में काफ़ी चोट लगी है. डॉक्टर टांके लगा रहे हैं.’’ ‘‘यह सब हुआ कैसे?” आरव के पूछने पर सीमा बोली, ‘‘रिंकू ट्यूशन जाने के लिए साइकिल पर घर से निकला. ज्योंहि वह सोसायटी के गेट से बाहर आया, इसने अपनी कार से उसे धक्का दे मारा.’’ सीमा ने वहां खड़े युवक की ओर इशारा किया.
आरव ने उस युवक को आड़े हाथों लिया, ‘‘इतना बड़ा बच्चा दिखाई नहीं दिया तुम्हें?”
“सर, आप मेरी बात सुनिए.’’
‘‘अरे क्या सुनूं? तुम जैसे नवयुवकों को मैं अच्छी तरह जानता हूं. हर वक़्त जल्दी में रहते हो. भले ही तुम्हारी जल्दबाज़ी में किसी का कितना नुक़सान हो जाए. तुम्हें तो पुलिस में दे देना चाहिए.’’
‘‘अरे सर, आप सुन तो लीजिए.’’ युवक उत्तेजित हो उठा.
‘‘मैं तो राइट साइड से जा रहा था. बच्चा यकायक कार के सामने आ गया. मैंने तेजी से ब्रेक न लगाए होते, तो अनर्थ हो जाता. आप अपनी सोसायटी के बाहर जनरल स्टोर वाले से पूछ सकते हैं. वह वहीं खड़ा था. उसी ने इन मैडम को सूचित किया और मैं इनके साथ तुरंत बच्चे को लेकर हास्पिटल आ गया.’’
‘‘शर्म नहीं आती. एहसान दिखा रहे हो. सच तो यह है, आज की युवा पीढ़ी में इंसानियत और संवेदनाएं बची ही नहीं हैं.’’ कहते हुए सीमा का गला भर्रा गया.

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“मैडम मैं जानता हूं बच्चे की चोट से आप दुखी हैं, किंतु अगर मुझमें संवेदनाएं न होती, तो मैं भाग खड़ा होता. बच्चे को लेकर हॉस्पिटल न आया होता.’’ मुझे उस युवक के कथन में सच्चाई नज़र आ रही थी. सीमा के मुख से निकले शब्दों ने मुझे दो माह पूर्व की घटना का स्मरण करवा दिया.
उस दिन दुपहर में मैं किचन में खाना बना रही थी. यकायक बाहर शोर होने लगा. कुछ लोगों की तेज आवाज़ें और कुत्तों के रोने के स्वर कानों में पड़कर कुछ अप्रिय होने का संकेत दे रहे थे. मैं बाहर की ओर भागी. पड़ोस के कई लोग वहां खड़े सीमा की निंदा कर रहे थे. पता चला, सीमा ने अपनी कार से एक कुत्ते के बच्चे को घायल कर दिया था. लोगों ने उसे रोकना चाहा, तो “जल्दी में हूं”’ कहकर वह चली गई. कुछ देर पश्चात् ही उस पपी ने दम तोड़ दिया. मेरा मन बेहद ख़राब हो गया था. सीमा की निश्ठुरता पर रह-रहकर क्रोध आ रहा था. सारी रात उस कुत्ते के बच्चे का घायल शरीर मेरी नज़रों में तैरता रहा. उसकी मां का रोना मेरे मन को द्रवित कर रहा था. बेचैनी में मैं रातभर सो न सकी.
अगली सुबह मैं सीमा के घर पहुंची और पिछले दिन की घटना का ज़िक्र करते हुए मैंने पूछा, ‘‘आख़िर ऐसा कौन सा आवश्यक काम था जो तुम रुकी नहीं और उस पपी को तुमने मर जाने दिया.”
‘‘दीदी, मैं किटी पार्टी में जा रही थी. पहले ही लेट हो गई थी. मैंने हॉर्न दिया था, किंतु वह रास्ते से हटा ही नहीं.’’ फिर मुस्कुराते हुए वह बोली, ‘‘आप इतनी भावुक क्यों हो रही हो दी. देखती नहीं आजकल सोसायटी में कितने स्ट्रीट डॉग्स हो गए हैं. एक मर भी गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा.’’ सीमा की संवेदनहीनता पर मेरा मन खिन्न हो उठा था. कई दिनों तक उससे बोलने का भी मन नहीं हुआ. और आज जब उसके अपने बच्चे को चोट लगी, तो उसे इंसानियत और संवेदनाएं जैसे भारी भरकम शब्द याद आ गए.

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मैं सोच रही थी, परिस्थिति के अनुसार इंसान अपना रुप और विचार दोनों बदल लेने में किस कदर माहिर होता है. कुछ देर बाद रिंकू को बाहर लाया गया. अपने बच्चे को पट्टियों में लिपटा देख सीमा की रुलाई फूट पड़ी. न जाने क्यों उसके क्रंदन में मुझे उन बेज़ुबान प्राणियों का क्रंदन भी सुनाई दे रहा था, जिनका बच्चा उस दिन सीमा की कार से मरा था.

रेनू मंडल

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Photo Courtesy: Freepik

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