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कहानी- मां! तुम कैसी हो (Short Story- Maa! Tum Kaisi ho)

  कहानी- मां! तुम कैसी हो इस तस्वीर ने भावना के हृदय में बचपन से चुभ रही एक फांस के दर्द को फिर से जागृत कर दिया था. ‘कभी मैं भी तो नन्हीं-सी बच्ची थी न... मासूम-सी... कैसी रही होगी मेरी मां?’ उसकी आंखें डबडबा आईं. घर का काम पूरा करके भावना बाहर चली आई. गेट पर लगा बॉक्स खोलकर देखा तो कुछ ऑफ़िशियल पत्रों के साथ एक बड़ा-सा लिफ़ाफ़ा भी पड़ा था. उठाकर देखा तो लिखावट अनजानी-सी लगी, पर लिफ़ा़फे के ऊपर लिखे एक शब्द ने ध्यान आकर्षित कर लिया. पीले रंग के लिफ़ा़फे पर लाल रंग से बड़े अक्षरों में लिखा था, ‘सरप्राइज़’. क्या होगा इसमें? किसी भूली-बिसरी सहेली का पत्र? या किसी स्नेहिल रिश्तेदार द्वारा भेजा गया कोई शुभकामना कार्ड? सोचते हुए भावना ने लिफ़ाफ़ा खोला तो एक तस्वीर सामने थी. ‘कितनी सुंदर तस्वीर है...’ तस्वीर देखते ही वो एक विलक्षण अनुभूति से सराबोर हो उठी. तस्वीर में एक मां की ममता मुखर हो उठी थी. एक सुंदर स्त्री अपने गाल से एक शिशु को सटाए ममत्व का गर्व मुख पर लिए भावविभोर हुई जा रही थी. तस्वीर लिए भावना भीतर चली आई. बार-बार लिफ़ाफ़ा पलटती वो भेजनेवाले का सूत्र पाना चाहती थी, पर नाकाम रही. किसकी होगी ये तस्वीर? बिटिया धरा स्कूल से लौटी तो वो भी तस्वीर देखकर ख़ुश हो गई और उसने ध्यान से निहारते हुए कहा, “मम्मी! किसी ने कार्ड भेजा होगा ‘मदर्स डे’ पर... कल मदर्स डे है न?” “पर किसने? अपना नाम पता भी तो नहीं लिखा.... और फिर ये कार्ड नहीं है धरा. ये तो एक पुरानी तस्वीर लगती है, जिसे कलर करवाकर छोटी तस्वीर से बड़ा रूप दे दिया गया है. सच बता, ये तूने ही मुझे भेजा है न, सरप्राइज़ देने के लिए?” “ओह मम्मी! तुम भी न... मैं तो कल ही तुम्हें अपना ग़िफ़्ट दूंगी न. मैं क्यों भेजूंगी भला?” अपना बैग उठाकर आठ वर्ष की धरा अपने कमरे में चली गई. इस तस्वीर ने भावना के हृदय में बचपन से चुभ रही एक फांस के दर्द को फिर से जागृत कर दिया था. ‘कभी मैं भी तो नन्हीं-सी बच्ची थी न... मासूम-सी... कैसी रही होगी मेरी मां?’ उसकी आंखें डबडबा आईं. मात्र दो दिन की ही तो थी वो, जब उसकी मां ने उससे मुख मोड़ इस नश्‍वर संसार से विदा ली थी. छोटी-सी गुड़िया को सीने से लगाए दुख के अगाध सागर में डूबे उसके पापा भास्कर ने भी जैसे दुनिया से मुख ही मोड़ लिया था. भावना का मातृविहीन बचपन बीतने लगा. जैसे-जैसे वो बड़ी होने लगी, उसके मन में प्रश्‍नों के अंबार खड़े होने लगे. “पापा! सबके घर में कितने लोग होते हैं, दादा-दादी... चाचा... मामा... बहन-भाई... हमारे यहां कोई क्यों नहीं?” “सबके यहां सब नहीं होते बेटा.” “पर मां तो होती ही है न?” “कभी-कभी वो भी नहीं होती.” “क्यों पापा?” “क्योंकि ईश्‍वर नहीं चाहते.” “ईश्‍वर क्यों नहीं चाहते पापा?” “ये तो वही जानें...” पापा का मायूस चेहरा देखकर नन्हीं भावना चुप हो जाती. पर प्रश्‍नों की शृंखला बढ़ती ही जाती. “तुम्हारी मां को ईश्‍वर ने अपने पास बुला लिया है. जिन्हें वो प्यार करते हैं न, उन्हें सदा के लिए अपने पास बुला लेते हैं.” पापा की कही इस बात को भावना ने हृदय में गहरे तक उतार लिया था और ऊपर से सागर की तरह शांत दिखने लगी थी. भावना भी कम उम्र में परिपक्व होने लगी थी, पर मां सदा उसकी सोच में जीवंत रहती. कैसी होगी मां? रात के घने अंधकार में अपने बिस्तर पर करवटें बदलती वो अक्सर अपनी कल्पना में मां के कई चित्र बनाती-मिटाती. “पापा! मां की एक भी तस्वीर हमारे पास क्यों नहीं है?” पूछा भी था उसने एक दिन. पापा का चेहरा गहरी पीड़ा से भर उठा था. उसके सिर पर हाथ फेरते हुए विह्वल स्वर में उन्होंने बताया था. “बेटा! जब वो हम दोनों को छोड़कर गई तो मैं ग़ुस्से में पागल-सा हो गया. पूरी एलबम ही फाड़कर जला डाली. न जाने कैसा जुनून सवार हो गया था. सच कहता हूं भावना, अगर तू नहीं होती तो मैं भी उसी के साथ...” “नहीं... पापा! आप मुझे छोड़कर नहीं जा सकते.” पापा से लिपटकर वो फूट-फूट कर रो पड़ी थी. बचपन की सीमा लांघकर भावना किशोरावस्था में पांव धरने लगी तो आस-पड़ोस के लोगों में ही रिश्ते तलाशती जीवन के रस में घुलने लगी, पर ‘मां’ क्षण भर के लिए भी मन-मस्तिष्क से नहीं हटी. जैसे-जैसे वो बड़ी होती गई, पापा ने टुकड़ों-टुकड़ों में स्वयं अपना अतीत बेटी के सम्मुख रख दिया. माता-पिता का विगत जानकर वो जड़-सी हो गयी. भास्कर का बचपन एक अनाथालय में बीता था. प्रताड़नाएं, अभाव और मानसिक संत्रास सहकर किसी तरह कॉलेज की पढ़ाई पूरी की और ईश्‍वर की कृपा से प्रथम प्रयास में ही वो बैंक की नौकरी में आ गए थे. एक दिन अचानक उनकी मुलाक़ात अपनी एक सहकर्मी वंदना से हुई और उन्हें लगा जैसे अब क़िस्मत उन पर मेहरबान होने लगी है... सारी सृष्टि ही मानो उनकी मुट्ठी में समाहित होने को उतावली हो उठी है. इस मुलाक़ात ने धीरे-धीरे प्रगाढ़ रूप ले लिया और दोनों ने विवाह के अटूट बंधन में बंध जाने का निर्णय ले लिया, पर वंदना के परिवारवालों ने इस रिश्ते को स्वीकार नहीं किया. उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार की बड़ी बेटी थी वंदना और अनाथालय में पले-बढ़े भास्कर. न जात-कुल का पता और न धर्म का. पहले तो वंदना ने भी परिवार और समाज के सामने आजीवन अविवाहित रहने का प्रण लेकर इस विवाह से इन्कार कर दिया था, लेकिन अन्ततः भास्कर की निश्छल वेदनापूरित आंखों के सामने अपना हृदय हार बैठी थी और इस विवाह ने मायके से हमेशा के लिए उसके संबंधों पर विराम लगा दिया था. भास्कर ने अथक प्रयास किया था इस नाते को जोड़ने का, पर असफल रहे थे. “तुम अब हमारे लिए जीवित नहीं रही. तुम्हारा श्राद्धकर्म हम सम्पन्न कर चुके हैं लड़की...” वंदना के पिता और दोनों बड़े भाइयों का क्रोध सातवें आसमान पर था. देहरी पर बिलखती मां और छोटी बहन को पीछे छोड़कर वंदना पति के साथ हृदय पर भारी घाव लिए लौट आई थी. भास्कर के प्रेम ने ख़ुशियों से उसका दामन भर दिया था, पर नियति तो कुछ और ही चाल चलने वाली थी. बच्ची के जन्म का उल्लास भी दोनों अच्छी तरह मना नहीं पाए थे कि अचानक अत्यधिक रक्तस्राव के कारण दूसरे ही दिन संध्याकाल में वंदना भास्कर के जीवन में अंधकार छोड़कर चली गई. नन्हीं बेटी को कलेजे में अमूल्य निधि की भांति सहेजे भास्कर पाषाण प्रतिमा में बदल गए थे. वंदना गई तो वो शहर ही छोड़ दिया भास्कर ने. तबादला करवाकर पटना चले आए. बनारस से कोसों दूर. भावना को पिता का इतना प्यार मिला कि उसकी मुट्ठी छोटी पड़ने लगी. उसकी हर इच्छा का उत्तर ‘हां’ होता था. “क्या मैं एक बार भी ननिहाल नहीं जा सकती पापा?” उसके इस भावपूर्ण प्रश्‍न का उत्तर भी पापा ने पहली गाड़ी से बनारस ले जाकर दिया था. ननिहाल के वैभव का सूचक भवन का द्वार खुला तो संवेदना की अपार भेंट मन में समेटे आनन्दमग्न भावना जैसे आकाश से गिरी. “तुम यहां क्यों आए हो?” उसके नाना का कठोर स्वर वातावरण को भी जड़ बना गया था. तभी पीछे से आकर एक युवती ने भावना को कलेजे में भींच लिया था. “भीतर चलो अर्चना! हमारा इनसे कोई रिश्ता नहीं...!” एक कठोर स्वर और गूंजा था. मन पर भारी बोझ लिए पिता-पुत्री लौट आए थे और मां की एक तस्वीर मांगकर लाने की भावना की मासूम इच्छा धूमिल हो गयी थी. मात्र आठ वर्ष की उम्र में उसे गहरा धक्का मिला था. फिर समय अपनी गति से अविराम चलता रहा. स्नातक की पढ़ाई पूरी करने पर उसका विवाह विजय के साथ सम्पन्न हो गया और वो पिता का घर छोड़कर पति के घर आ गई. ममतामयी सास और दो बड़ी स्नेहमयी ननदों के प्यार से उसका रिक्त दामन भर उठा. पर मन में से फांस नहीं निकली... न जाने कैसी होगी मेरी मां? वो कई बार बचपन में आईना देखकर सोचती ‘क्या वो मेरे जैसी ही थी?’ “तुम तो बिल्कुल मुझ पर गई हो भावना! कहते हैं न, पितृमुखी सदा सुखी...” पिता और उससे जुड़े सभी लोगों की इस बात ने उसके मन में बन रहे मां के बिंब को पुनः धुंधला कर दिया था. पति विजय एक सुलझे हुए इंसान थे. ईश्‍वर ने सुख की हर किरण से भावना का अंतर्मन आलोकित किया था. धरा का जन्म हुआ तो उसे लगा वो परिपूर्ण हो गई है, पर नन्हीं धरा को सीने से लगाकर अक्सर वो धरा में स्वयं को और स्वयं में अपनी अनदेखी मां को जी उठती थी. “मैं तुम्हारी हर इच्छा पूरी कर सकता हूं भावना, पर मैं समझ नहीं पा रहा कि तुम्हारी इस पीड़ा का क्या उपाय करूं?” कभी-कभी विजय भी बेहद दुखी हो जाते थे. उसने तो इस दर्द को सहेजना सीख लिया था, पर आज इस तस्वीर को देखकर न जाने क्यों उसकी वेदना फिर मुखर हो उठी थी. “मम्मी! आज खाना नहीं मिलेगा क्या?” धरा उसके कंधे पर झूल गई तो वो वर्तमान में लौटी. खाना खाकर धरा तो सो गई, पर भावना रातभर करवटें ही बदलती रही. दूसरी सुबह धरा को स्कूल भेजकर वो घर के कामों में लग गई. विजय शाम को लौटने वाले थे. उसे पति का मनपसंद खाना भी बनाना था. तभी फ़ोन की घंटी बज उठी. “हैलो!” उसने कहा. “मुझे भावना से बात करनी है.” दूसरी ओर से एक नारी स्वर उभरा. “मैं भावना ही बोल रही हूं. आप कौन?” “तुम मुझे नहीं जानतीं, पर मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानती हूं.” “कैसे...?” “एक ऐसे व्यक्ति के माध्यम से, जो तुम्हें बहुत प्यार करता है.” वो हंसी. कहीं रॉन्ग नंबर तो नहीं लग गया? भावना सोच में पड़ गई, फिर बोली, “शायद आपने ग़लत नंबर डायल किया है.” “नहीं भावना! मुझे तुम से ही बात करनी है. कभी-कभी ख़ून के रिश्ते भी कितने बेमानी हो जाते हैं न...? गैरों से भी ़ज़्यादा पराये अपने लगने लगते हैं और कभी-कभी एक ऐसा व्यक्ति जिससे रक्त संबंध नहीं होता, वो अचानक परायेपन की पीड़ा झेल रहे ख़ून के दो अटूट रिश्तों को फिर से जोड़ देता है, है न आश्‍चर्य की बात?” उस स्त्री ने कहा तो भावना हतप्रभ रह गई. “आप पहेलियां क्यों बुझा रही हैं? अपना परिचय दीजिए, अन्यथा मैं फ़ोन रख रही हूं.” भावना आपा खोने लगी थी. “मैं आ रही हूं. मेरा इंतज़ार करना... और हां, तुम्हें एक ‘सरप्राइज़’ तो मिला ही होगा न?” उधर से कहा गया और फ़ोन कट गया. सरप्राइज़? क्या वो तस्वीर? पर ये हैं कौन? भावना पशोपेश में पड़ गई थी. शाम को विजय दौरे से लौटे तो उन्हें सारी बातें बताकर भावना ने वो तस्वीर दिखाते हुए पूछा, “किसने भेजी होगी ये तस्वीर?” “मुझे तो लगता है किसी ने मज़ाक किया है. अगर नहीं तो प्रतीक्षा करो शायद कोई सचमुच आ जाए.” विजय हंस पड़े थे. सुबह कॉलबेल बजी तो भावना ने दरवाज़ा खोला. सुंदर, सौम्य व्यक्तित्व की धनी, लगभग पचास वर्ष की स्त्री स्निग्ध वात्सल्यमयी मुस्कान लिए द्वार पर खड़ी थी. “तुम भावना हो न?” उन्होंने आगे बढ़कर उसे गले से लगा लिया तो भावना ठगी-सी खड़ी रह गई. “जी. आप कौन?” “अरे! मौसीजी आप आ गईं?” तभी विजय ने कमरे में आते हुए कहा और उनके चरण-स्पर्श किए. भावना की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, पर जैसे-जैसे सत्य सामने आता गया, संशय की परतें हटने लगीं. वो आश्‍चर्यमिश्रित ख़ुशी से खिल-सी गयी. “आप मेरी मां की सगी बहन हैं?” “हां बेटी! वंदना दीदी की मृत्यु के बाद जीजाजी ने अचानक ही शहर छोड़ दिया था. मुझे लगा था इस रिश्ते की डोर अब कभी जुड़ नहीं पाएगी. पर किसी ने सहसा इस खंडित डोर को फिर से जोड़ दिया.” मौसी ने भावविह्वल होकर कहा, तो भावना ने पूछा, “किसने?” “सब बताऊंगी. पहले ये तो बता वो तस्वीर कैसी लगी? वो सरप्राइज़...?” “तस्वीर!” “हां, तेरी और वंदना दीदी की तस्वीर, जो मैंने भेजी थी?” मौसी ने कहा तो अचानक भागकर वो तस्वीर उठा लाई. “मां! तुम कितनी अच्छी थी.” वो बिलख-बिलख कर रो पड़ी थी. मौसी यादों का पिटारा खोल रही थी. “मां-बाबूजी और भाइयों के लिए तो दीदी मर चुकी थीं, पर मेरे लिए वे बहुत ख़ास थीं. मैं अपनी बहन से बहुत प्यार करती थी. तभी तो उनके एक फ़ोन कॉल पर घर में बिना किसी को बताए अस्पताल दौड़ी चली आई थी. ‘अर्ची! तू एक गुड़िया की मौसी बन गई है... क्या उसे देखने का तेरा जी नहीं कर रहा?’ बस दीदी के शब्द कानों में गूंज रहे थे... बाकी सब कुछ मैं भूल गई थी. पालने में लेटी बिटिया को निहारती दीदी ममता की प्रतिमूर्ति लग रही थीं. “अर्ची! क्या इसे देखकर भी मां-बाबूजी मुझे क्षमा नहीं करेंगे?” दीदी रो पड़ी थीं. तुम्हें पालने से उठाकर कलेजे से लगा लिया था. और मैंने इस अद्भुत क्षण को साथ लाए कैमरे में उतार लिया था. उस क्षण ली गई तस्वीर एक दिन तुझे सौंपकर इतना आनंद पाऊंगी कभी सपने में भी नहीं सोचा था.” “मैंने भी तो सपने में नहीं सोचा था कि मां की एक झलक भी कभी देख पाऊंगी. अरे हां, आप मुझ तक पहुंचीं कैसे?” भावना ने उत्कंठित होकर पूछा. “उसके माध्यम से जो तुमसे बहुत प्यार करता है. जो मां के प्रति तुम्हारी निष्ठा और उनको देखने की तुम्हारी उत्कंठा का साक्षी रहा है. वही जिसने सप्तपदी के समय लिए गए इस वचन का अक्षरशः पालन किया है कि वो तुम्हारी हर ख़ुशी का ख़याल रखेगा.” “क्या विजय ने ये रिश्ता पुनः जोड़ा है? पर कैसे?” भावना का अंतर्मन आह्लाद की नई फुहारों से भीग उठा. ओह! तभी वो बार-बार उसकी ननिहाल के बारे में पूछते रहते थे. पिछले वर्ष पापा की मृत्यु के बाद भी उन्होंने वहां सूचना भेजनी चाही थी, पर भावना ने ही मना कर दिया था कि पापा के साथ ही वो रिश्ता भी मर गया. भावना ने प्रश्‍नवाचक स्निग्ध दृष्टि पति पर डाली तो विजय ने पूछा, “माणिक के कारण मैं मौसी तक पहुंच पाया.” “माणिक? वही न जो आपके सहकर्मी हैं. एक-दो बार घर पर भी आ चुके हैं?” “हां वही माणिक... एक दिन बातों ही बातों में उसने बताया कि वो जिनके मकान में रहता है, वो लोग नारायणपुर के रहनेवाले हैं तो मैं चौंक पड़ा. नारायणपुर? यानी तुम्हारा ननिहाल? जब मैंने माणिक को बताया कि वहां मेरी पत्नी का ननिहाल है और मैं उसके मकान मालिक से मिलना चाहता हूं, तो वो मुझे अपने साथ अपने घर ले गया. “नारायणपुर में किसके घर आपकी पत्नी का ननिहाल है.” माणिक के मकान मालिक डॉ. विश्‍वजीत ने पूछा तो मैंने बता दिया, “पंडित विश्‍वम्भरनाथ पांडे जी भावना के नाना हैं.” “क्या?” अब चौंकने की बारी विश्‍वजीत जी की थी. “क्या वो वंदनाजी की बेटी हैं?” उन्होंने पूछा. फिर तो आश्‍चर्यजनक रूप से टूटी कड़ियां जुड़ने लगीं. “विजयजी! पंडित विश्‍वम्भर नाथजी मेरे भी नाना हैं.” उन्होंने स्नेह से मेरा हाथ थामते हुए बताया. विश्‍वजीतजी तुम्हारी अर्चना मौसी के बड़े बेटे निकले.” “और जिस दिन विश्‍वजीत और माणिक के साथ दामादजी मेरे घर आए, वो दिन मेरे जीवन का एक अद्भुत दिन था. और मेरे दामाद ने मांगा भी तो क्या... अपनी पत्नी के लिए उसकी मां की एक तस्वीर? और कहे आत्मा की गहराइयों तक उतरनेवाले शब्द... ‘रक्त संबंध की जड़ें आत्मा से जुड़ी होती हैं मौसीजी! ये कभी टूट ही नहीं सकतीं.’ विजय ने ही बताया कि तुम्हें हर बात में सरप्राइज़ देने की, लोगों को चौंका देने की आदत है. सोचा क्यों न इस बार हम सब मिलकर तुम्हें बड़ा-सा सरप्राइज़ देकर चौंका दें? बस, बन गया प्लान. तुम्हें पता भी नहीं चला और मैं सरप्राइज़ बनकर आ गई तुम्हारे घर.” मौसी ने हंसते हुए बताया तो भावविभोर भावना बोली, “सरप्राइज़ नहीं... सरप्राइज़ ग़िफ़्ट कहिए मौसीजी. आपका आना मेरे जीवन में किसी उपहार से कम है क्या?” “अभी और सरप्राइज़ बाकी है, लीजिए अपने भाई-भाभी से भी मिल लीजिए.” कहते हुए माणिक ने विश्‍वजीत और उनकी पत्नी के साथ कमरे में प्रवेश किया तो भावना की प्रसन्नता का पारावार न रहा. वो सबसे मिलकर भावविभोर हो उठी. “मैं हृदय से आपकी आभारी हूं. आपके कारण ही मुझे फिर से परिवार का सुख मिल सका.” भावना ने भीगे कंठ से कहा तो माणिक बोल पड़ा, “नहीं भावनाजी! जब मन में किसी भी बात को लेकर दृढ़ निश्‍चय कर लिया जाता है न, तो मार्ग ज़रूर मिलता है. विजय की दृढ़ इच्छाशक्ति और आपके प्रति उसके स्नेह ने इस रिश्ते को जोड़ा है. मैं तो केवल माध्यम बना.” “केवल माध्यम नहीं, आज से आप मेरे बड़े भाई भी हैं.” भावना ने कहा. “बाप रे! अचानक दो-दो भाई? मैं तो गया काम से. वो कहावत है न, सारी ख़ुदाई एक तरफ़ पत्नी का भाई एक तरफ़.” विजय ने कहा तो सभी हंस पड़े. रिश्तों की सोंधी सुगंध से कमरा भर उठा. एकांत के क्षणों में विजय ने पूछा, “अब तो ख़ुश हो न?” “बहुत ख़ुश. बचपन से ही मैं जिस प्रश्‍न को लेकर जूझती रही हूं, उसका उत्तर इतना मनोहर... स्नेहिल... अद्भुत और आनंददायक होगा, मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था.” कहती हुई भावना ने पति के कंधे पर सिर टिका दिया था. नव प्रभात की प्रतीक्षा में रात ढल रही थी. डॉ. निरुपमा राय
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