कहानी- महकता एहसास (Short Story- Mahakta Ehsaas)

“ऐसा कैसे हो सकता है, तुम्हारे साथ गुज़रे वे दिन, जो गर्मी की तपिश में ठंडी बयार, बारिश में गीली मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू और सर्दी में गुनगुनी धूप का एहसास देते थे. इस नीरस जीवन में उसी के सहारे तो ख़ुश रहता हूं… उन्हें कैसे भूल सकता हूं…” पहली बार रितेश का मौन इतनी बेबाक़ी से मुखरित होते देख मुझे सुखद आश्चर्य हो रहा था. इतने समय के अंतराल और दूरियों के बावजूद उसने मेरी यादों को अपने मनमंदिर में दीये की लौ की तरह सहेज कर रखा है, सुनकर मैं भावविभोर हो उठी.

रातभर रिमझिम-रिमझिम बारिश होने के कारण पूना का मौसम बहुत ख़ुशगवार हो गया था और पूरा वातावरण रूमानियत से भरा हुआ महसूस हो रहा था, जिसका आनंद लेने के लिए मैं अपनी बालकनी में लगे झूले पर बैठकर प्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम के उपन्यास ‘रसीदी टिकट’ को पढ़ने में डूबी हुई थी कि अचानक पास में रखा मेरा मोबाइल फोन बज उठा. उसके स्क्रीन पर ‘रितेश’ नाम पढ़कर मैंने लपक कर उसको उठा लिया.
रितेश ने मुझे बताया कि वह जल्दी ही मुझसे मिलने लखनऊ से पूना आ रहा है. यह सुनते ही मैं रोमांच से भर उठी. एक अजीब-सी गुदगुदी और सिहरन मेरे मन में होने लगी, लेकिन तुरंत उसी समय मैं गहन सोच में पड़ गई कि अपने पति हर्षित से रितेश का किस रिश्ते से परिचय करवाऊंगी! आज की नई पीढ़ी के समान बड़े अधिकार से ‘मेरा दोस्त’ या ‘मेरा सहपाठी’ कहकर परिचय करवाने की, तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. तुरंत कब, क्यों, कैसे और कहां..? प्रश्नों के कटघरे में मुझे खड़ा कर दिया जाएगा. थोड़ी देर आत्ममंथन करने के बाद मैंने मन ही मन निर्णय ले लिया और उसके आने के दिन का बेसब्री से इंतज़ार करने लगी.
वह दिन भी आ गया, जब रितेश ने मेरे घर के दरवाज़े पर दस्तक दी. दरवाज़ा खोलते समय मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं. चेहरा भी ख़ुशी से आरक्त हो गया. मैंने अपने पर थोड़ा संयम रखते हुए दरवाज़ा खोला और उसे देखते ही बोली, “अरे रितेश! तुम! बिना सूचना के अचानक यहां कैसे…? इतने वर्षों बाद मिले हो… लेकिन बिल्कुल नहीं बदले… मेरा ऐड्रेस किससे मिला? अच्छा… हां, भाभी से मिला होगा…!” उसे देखते ही घबराहट में एक सांस में ही मैंने अनजान बनने का नाटक करते हुए इतने सारे प्रश्न पूछ डाले.
“अब अन्दर भी आने दोगी कि दरवाज़े पर ही सब पूछ लोगी..?” रितेश ने भी चेहरे पर सामान्य भाव लाते हुए अनौपचारिकता से कहा.
उसके अन्दर आते ही मैंने अपने चेहरे पर तटस्थ भाव लाते हुए, हर्षित से उसका परिचय करवाया, ”यह रितेश, मेरी भाभी का भाई. इससे 22 वर्ष पहले रमेश भैया के विवाह में ही मिलना हुआ था, तभी भाभी के भाई के रिश्ते के नाते आपस में काफी हंसी-मज़ाक हुआ था.”
“आइए… आइए… यह तो तुम लोगों की बातों से ही अंदाज़ा हो रहा है, तभी तो इतने वर्षों बाद भी इतने सहज रूप से बातें हो रही हैं…”
“एक क्लाइंट से मिलने के लिए पूना आना हुआ, तो दीदी से यह तो मालूम था ही कि तुम यहां रहती हो, इसलिए उनसे तुम्हारा एड्रेस लेकर तुमसे मिलने के लिए आ गया. मैंने तुम्हें सरप्राइज़ देने के लिए पूर्व सूचना नहीं दी…” रितेश ने सफ़ाई देते हुए सहजता से बताया.
“अच्छा भई मुझे तो काम पर जाने में देर हो रही है, शाम को मिलता हूं… तब तक तुम लोग आपस में बातें करो… आज तो यहीं रुकेंगे ना..?”
“नहीं रात को आठ बजे की फ्लाइट है. मैं शाम को छह बजे निकल जाऊंगा…”
”ठीक है. मैं उससे पहले आने की पूरी कोशिश करूंगा…” यह कहकर हर्षित चला गया.
एकांत पाते ही मैं और रितेश थोड़ी देर के लिए इस अप्रत्याशित मिलन के कारण अचंभित मूक दर्शक बने एक-दूसरे को देखते रहे. शरीर के बाहरी आवरण में तो हमारी उम्र की छाप दिखाई दे रही थी, लेकिन दिल की हालत में हम दोनों के कोई अंतर नहीं आया था. हमारी वही स्थिति थी, जब प्यार के इज़हार के बाद दो प्रेमियों के पहली बार मिलने पर होती है. फोन पर इतने समय से संपर्क में रहने के बाद भी बातों का सूत्र जोड़ने में हम दोनों की परिस्थितियां आड़े आ रही थीं. शब्द ढूंढ़ने से भी नहीं मिल रहे थे. रितेश तो संयम के साथ मूक योगी की तरह बैठा था, लेकिन मुझे लगा कि इतने वर्षों बाद मिलने पर मैं अपने को रितेश की आगोश में जाने से नहीं रोक पाऊंगी, इसलिए असमंजस की स्थिति को टालने के लिए मैं चाय बनाने के बहाने उठकर जाने लगी. मेरे उठते ही रितेश ने मेरा हाथ पकड़ लिया, मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गईं. मैं अपने को रोक नहीं पाई और उसके क़रीब बैठ कर उससे लिपट गई. रितेश ने भी मुझे अपने बाहुपाश में बांधकर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी. सागर में सरिता का विलय हो गया. हम दोनों काफ़ी देर तक ऐसे ही मौन रहकर प्यार की गहराई को महसूस करते रहे. मौन स्पर्श में आत्मिक प्यार का एहसास शब्दों की अभिव्यक्ति से भी गहरा था.

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हमने पूरा समय एक साथ बहुत सारी पिछली बातें याद करके तथा एक-दूसरे की हर गतिविधि में रुचि लेकर बिताया. शाम को हर्षित के ऑफिस से लौटने के पहले ही रितेश ने एक बार फिर मुझे आगोश में लेकर विदा ली.
मैं सोच में पड़ गई. मुझे जीवन के इस पड़ाव में रितेश से मिलाने की शायद ईश्वर की ही योजना थी. कहते हैं ना, ‘अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो, तो सारी कायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश में लग जाती है’. जब हमारा समाज मानता है कि विवाह के लिए जोड़े भगवान के घर से ही बन कर उतरते हैं, तो फिर यह क्यों अमान्य है कि प्रेमी युगल भी वहीं से बन कर उतरते हैं… यह प्रेम की अनुभूति भी तो ईश्वर की ही देन है. राधा ने भी तो कृष्ण से प्रेम किया था. उनको तो हमारा सारा हिन्दू समाज पूजता है. पुरुष और स्त्री के रिश्तों के बीच सीमाओं का निर्णायक भी तो हमारा रचयिता न होकर हमारा समाज ही है. फिर सारी वर्जनाएं स्त्रियों के लिए ही क्यों..!” आत्मसंतुष्टि के साथ मैं बुदबुदाई.
और मैं अतीत की गहराइयों में खो गई.आज से लगभग बाइस-तेइस वर्ष पहले मैं और रितेश दिल्ली के एक बैंक में जॉब कर रहे थे.धीरे-धीरे हम दोनों एक-दूसरे का साथ पसंद करने लगे और कब हम दोनों के मन में प्यार का बीज प्रस्फुटित होने लगा पता ही नहीं चला. लेकिन रितेश अपने अंतर्मुखी स्वभाव के कारण और मैं इस संकोच में कि पहल रितेश ही करे, समय बीत रहा था.
ख़ामोशी जुबां से भी अधिक मुखरित होती है. मौन रह कर भी एक-दूसरे के हाव-भाव से यह तो स्पष्ट हो ही गया था कि हम दोनों ही आगे का जीवन एक साथ बिताना चाहते थे, लेकिन इससे पहले कि हम अपनी भावनाओं को शब्दों का जामा पहनाते, अचानक रितेश अपने पिता की हृदयाघात की ख़बर सुनकर अपने घर लखनऊ चला गया.
जीवन भी कैसे-कैसे रंग दिखाता है. कभी-कभी जब हम ख़ुशी की चरमसीमा पर होते हैं, तभी उसी के समानांतर हमें ऐसा आघात लगता है कि हम हिल जाते हैं और हमारे जीवन के पर्दे पर मंज़र बदल जाता है. मेरे साथ भी यही हुआ.
उस समय पत्र ही एकमात्र संपर्क का साधन था, लेकिन यह सोचकर कि पता नहीं वहां वह किस स्थिति में होगा और पत्र किसी के हाथ ना लग जाए मेरी हिम्मत ही नहीं हुई उसको पत्र लिखने की. और उसका भी कोई पत्र नहीं आया.
वह अध्याय वहीं समाप्त हो गया. काश! उस समय भी मोबाइल की सुविधा होती… मैंने एक आह भरी.
मेरा विवाह तो होना ही था, उसके बिना उस ज़माने में लड़कियों के जीवनयापन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. जब हर्षित मुझे देखने आया, तो क़ीमती सूट और गले में मोटी सोने की चेन में सजा उसका व्यक्तित्व उसके धनाढ्य होने की गवाही तो दे रहे थे, लेकिन मेरी चाहत के फ्रेम में जो एक बुद्धिजीवी पुरुष था. उसके व्यक्तित्व से वह बिल्कुल मेल नहीं खा रहा था, लेकिन उस समय लड़की को अपनी पसंद-नापसंद बताने का अधिकार ही कहां दिया जाता था! अभिभावक का ही एकाधिकार होता था और नापसंद करने का कोई कारण भी तो नहीं था, क्योंकि हर्षित में वे सभी गुण थे, जो माता-पिता अपने दामाद में चाहते हैं. सुदर्शन, पढ़ा-लिखा और पिता के फलतेफूलते व्यवसाय का एकमात्र वारिस. लड़का-लड़की में मानसिक अनुरूपता है या नहीं, इससे अभिभावकों को कोई मतलब नहीं होता था. वे नहीं जानते थे कि इसके बिना विवाह मात्र समझौता बन कर रह जाता है. उस समय की परिस्थिति के अनुसार मैं अपने भाग्य से समझौता करने के अतिरिक्त कर भी क्या सकती थी!..
मेरा विवाह हो गया और सप्तपदी के समय रितेश की यादों को हवनकुंड की भेंट करके मैंने नए सिरे से जीना आरम्भ कर दिया. विवाह तय होते समय ही मुझे कह दिया गया था कि ससुराल में पैसे की कमी नहीं है, इसलिए मैं नौकरी नहीं कर सकती. उनकी नज़र में नौकरी करने का एकमात्र उद्देश्य पैसे कमाना ही था. मेरी पढ़ाई, मेरी काबिलियत की उनकी नज़र में कोई अहमियत नहीं थी. मेरे मायके और ससुराल दोनों परिवारों की जीवनशैली में दिन-रात का अंतर था, इसलिए विवाह होते ही मेरी सास और विवाहित ननद ने मुझे आलोचनाओं के कटघरे में खड़ा कर दिया. मेरी एक-एक गतिविधि पर क़ैदी के समान प्रतिक्रिया होती थी और मौक़ा मिलते ही तानों की बौछार शुरू हो जाती थी.
हर्षित यह सब मूक दर्शक बना देखता रहता था. जब कभी मैं उससे कुछ कहना चाहती, तो वह उनका पक्ष तो नहीं लेता था, लेकिन सांत्वना के दो शब्द भी मेरे लिए उसकी डिक्शनरी में नहीं होते थे. उसका मानना था कि यह सब तो बहू को ससुराल में झेलना ही पड़ता है. वैसे भौतिक सुखों की तो मुझे कोई कमी नहीं थी. एक पत्नी को अपने पति से आर्थिक सुरक्षा के साथ सामाजिक और भावनात्मक सुरक्षा की भी अपेक्षा होती है, यह तो उसने कभी सोचा ही नहीं और भौतिक सुख देने के बदले वह मेरे पूरे अस्तित्व पर ही अपना अधिकार समझता था, जैसे मैं हाड़-मांस की नहीं बनी, बल्कि एक बेजान कठपुतली हूं, जिसको जैसे चाहो नचा लो. सब सुख होते हुए भी मेरा मन अतृप्त ही रहता था, इसलिए विवाह के बाद भी रितेश के साथ बिताए पलों की यादों ने मेरा कभी पीछा नहीं छोड़ा.
समय अपनी गति से बीत रहा था. जब मेरा इकलौता बेटा कानपुर आईआईटी में पढ़ने चला गया, तो मुझे खालीपन ने घेर लिया. तब मैंने मन ही मन ठान लिया कि अभी तक सबकी ज़िम्मेदारी पूरी करने में समर्पित अपने अभिशप्त नीरस जीवन के खालीपन को सरस बनाने के लिए कोई विकल्प अवश्य ढूंढूंगी. मेरा अपना भी तो कोई अस्तित्व है. विवाह के पहले मैं क्या थी और अब मैं क्या हूं..! कितना अंतर आ गया है मेरी जीवनशैली में. अब मैं पुनः अपने मूल्यों के अनुसार जिऊंगी. जब आज की युवापीढी की महिलाएं अपने आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए विद्रोह कर रही हैं, तो मैं क्यों नहीं कर सकती..! मेरा मन चीत्कार कर उठा.
मैंने किताबें पढ़ने के अपने बचपन के शौक को पुनर्जीवित करने की ठान ली. विवाह के बाद घर के वातावरण के कारण मुझे इसके बारे में सोचने का ख़्याल ही नहीं आया. उन प्रसिद्ध लेखकों की रचनाओं को मैंने फिर से पढ़ना आरम्भ किया, जिनको स्त्रियों के अधिकारों के पक्ष में लिखे जाने के कारण उनके काल में सामाजिक आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था, लेकिन उसका असर देर-सबेर समाज की सोच में और क़ानून के बनने में दिखाई देने के साथ मेरी सोच पर भी गहरा असर पड़ा.
उन्हीं दिनों जब संपर्क करने के लिए मोबाइल की सुविधा आरम्भ हुई, तो मैंने अपनी पुरानी बैंक सहकर्मियों से, जो अभी तक पत्र द्वारा मेरे संपर्क में थीं, मोबाइल से बातें करके उनके द्वारा अन्य बहुत सारे पुराने मित्रों से जुड़ गई. उनकी बातों में रितेश के साथ बिताए सुनहरे पलों की यादें भी शामिल होती थीं, जिनका ज़िक्र मैं उनसे पत्रों में नहीं कर पाती थी. अचानक मेरे मन में रितेश से बात करने की भी इच्छा जागृत हुई और धीरे-धीरे मैंने किसी ना किसी तरह रितेश का मोबाइल नंबर भी प्राप्त कर ही लिया.
बदलते ज़माने में कुछ भी तो असंभव नहीं था.
मैंने झिझकते हुए उसके नंबर पर कॉल किया, तो उधर से आवाज़ आई, ”हेलो आप कौन..?” उसकी आवाज़ सुनकर पैतालीस वर्ष की परिपक्व अवस्था में भी नवयौवना की तरह मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं, ”मैं राशि…” मैंने सकुचाते हुए कहा.
“राशि तुम! राशी पांडे..? ओह… मैं भी सोच रहा था कि किसी तरह तुम्हारा नंबर मिले, तो मैं तुमसे बात करूं… तुम कहां हो..? कितनी ज़बर्दस्त टेलीपैथी है..! मैं सोच ही रहा था और तुमने कॉल भी कर दिया…” रितेश ने विस्मित और उल्लसित होकर कहा.
“अरे, तुम्हें मैं याद हूं… मैं तो सोच रही थी कि तुम मुझे भूल गए होगे…” मैं हर्षातिरेक से बनावटी आश्चर्य प्रकट करते हुए बोली.
“ऐसा कैसे हो सकता है, तुम्हारे साथ गुज़रे वे दिन, जो गर्मी की तपिश में ठंडी बयार, बारिश में गीली मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू और सर्दी में गुनगुनी धूप का एहसास देते थे. इस नीरस जीवन में उसी के सहारे तो ख़ुश रहता हूं… उन्हें कैसे भूल सकता हूं…” पहली बार रितेश का मौन इतनी बेबाक़ी से मुखरित होते देख मुझे सुखद आश्चर्य हो रहा था. इतने समय के अंतराल और दूरियों के बावजूद उसने मेरी यादों को अपने मनमंदिर में दीये की लौ की तरह सहेज कर रखा है, सुनकर मैं भावविभोर हो उठी.
“ओह, तुम अभी भी कविता लिखते हो..!”
“कहां यार… मेरी प्रेरणा तो तुम थीं, अब तुमसे संपर्क हुआ है, तो फिर से लिखना आरम्भ करूंगा… और तुम्हारी भी तो कुछ कहानियां छपी थीं… तुम्हारी इस कला का क्या प्रोग्रेस है..? मैं तो तुम्हारा नाम पत्रिकाओं में ढूंढ़ा करता हूं…”
उसकी इस बात ने मुझे भावविभोर कर दिया और अपने आप पर गर्व के एहसास ने मेरे तन-मन को सराबोर कर दिया. अभी तक तो मैंने जो कुछ भी किसी के लिए किया, उसे मेरा कर्तव्य समझकर कभी किसी ने मेरी सराहना ही नहीं की.
“छोड़ो, विवाह के बाद परिवार की ज़िम्मेदारी संभालने में इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं…” मैंने टालने के अंदाज़ में बोला.
“किसी भी काम को करने के लिए उम्र की सीमा नहीं होती और अब तो बच्चे बड़े हो गए होंगे..?” वह साधिकार अपनी बात पर अड़ा रहा.
“मेरी सास दो वर्ष पहले ही गुज़र गईं. एक बेटा है, कानपुर आईआईटी में प्रथम वर्ष में पढ़ रहा है और मेरे पति….”
“बस तो अब तो समय ही समय है…” मेरी बात पूरी होने से पहले ही रितेश उत्साहित होकर बोला.
“हां, अब तुम कह रहे हो, तो इसके बारे में भी सोचूंगी..!” मैंने उसे आश्वस्त करने के लिए बोला.
“मेरी भी एक बेटी है, जो पांच महीने पहले ही विवाह के बाद अमेरिका जाकर बस गई है. घर में मैं और मेरी पत्नी हैं. पापा के हार्टअटैक की ख़बर मिलते ही जब लखनऊ आया, तो पता चला कि वे इस दुनिया से जा चुके थे. उस समय तो मेरे सामने अंधेरा ही अंधेरा था. अचानक दो छोटी बहनों का विवाह और मां की ज़िम्मेदारी मेरे कंधे पर आ गई, इसलिए अपने पापा का व्यवसाय संभालने के अतिरिक्त मेरे पास कोई चारा नहीं था. उस समय अपने लिए तो कुछ सोच भी नहीं सकता था. अपनी ज़िम्मेदारियों से थोड़ी मुक्ति मिली, तो मैंने तुमसे संपर्क करने की कोशिश की. तब तक तुम किसी और की हो चुकी थी. मेरा विवाह करने का मन न होने के बावजूद मुझे मां की ख़ुशी के साथ समझौता करना पड़ा. लेकिन तुमको कभी भूल नहीं पाया.” उसने सफ़ाई देते हुए कहा. मैं बहुत ध्यान से उसकी बात सुन रही थी.
“बहुत जल्दी बेटी का विवाह कर दिया तुमने..!” मेरे पास शिकायत करने को कुछ था ही नहीं, क्योंकि रितेश ने मुझसे कोई वादा तो किया नहीं था, इसलिए मैंने बात बदलने की कोशिश करते हुए कहा.
“हां, वह अपने सहपाठी रवीश से प्यार करती थी, ऐसे में रुकने का कोई मतलब नहीं था… बहुत अंतर है हमारे ज़माने में और आज के ज़माने में. पहले हम अपने माता-पिता की मानते थे और आज अपने बच्चों की माननी पड़ रही है.” यह कहकर वह हंसने लगा.
मैं थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गई, तो रितेश बोला, ”क्या सोच रही हो, इस ज़माने के अनुसार आज हम बात कर रहे हैं, यह क्या कम है..!” बिना बताए रितेश मेरी मनोस्थिति समझ गया.

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“अच्छा बाद में बात करते हैं…” मैंने सामने से हर्षित को आते देखा, तो यह कहकर फोन काट दिया.
“किससे बात कर रही थी..?” हर्षित ने हमेशा की तरह पूछा.
“अपनी एक सहेली से..” मैंने लापरवाही से उत्तर दिया.
“हुंह..!”
‘मैंने रितेश से बात करके कुछ भी तो अनैतिक नहीं किया. तुम्हें मेरे लिए फ़ुर्सत ही कहां है..! मुझे भी तो कोई चाहिए,जो मुझे समझे, मुझे अपने लिए भी तो जीने का अधिकार है. मैं क्यों अपराध भावना से ग्रसित होऊं..! फिर अपराध भावना जैसी मानसिक बीमारी बिना कोई अपराध किए अधिकतर महिलाओं को ही क्यों घेरे रहती है! पुरुष तो बड़े से बड़ा अपराध करके भी इस बीमारी को अपने आसपास भी फटकने नहीं देता…’ मैं आत्म-संतुष्टि के लिए बुदबुदाई.
मैं रितेश से फोन पर संपर्क में रहने के बाद से अपने में बहुत बदलाव महसूस करने लगी थी. हर समय बुझा-बुझा-सा खालीपन लिए हुए मेरा मन उसकी बातें याद करके रोमांच और उमंग से भरा रहने लगा. उसकी प्रेरणा से मैंने पहला प्यार शीर्षक से अपने अनुभव पर एक कहानी लिख कर किसी पत्रिका में भेजी, तो उसके छपने पर मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. उसके बाद मैं आत्मविश्‍वास से भरकर और भी कहानियां लिखने लगी.
मेरी परिस्थितियों को ध्यान में रखने के साथ रितेश के संजीदगीपूर्ण और सम्मानपूर्ण भाषा से मैं बहुत प्रभावित होती थी और आत्मविश्‍वास और सुरक्षा की भावना सुदृढ़ होने के साथ मुझे रिश्ते में स्थायित्व का आभास होने लगा था. तभी हर्षित के ऑफिस से लौटने पर डोरबेल की आवाज़ से मेरे अतीत की गहराइयों में डुबकी लगाने पर विराम लग गया.
रितेश चला गया, लेकिन हमेशा मेरे साथ अपने होने का महकता एहसास छोड़ गया, जिसके कारण हमारे बीच की भौगोलिक दूरी बेमानी हो गई थी. मैं अपने अनुभव के आधार पर सोच में पड़ गई कि आख़िर प्यार विवाह के सामाजिक मुहर के बिना अधूरा या असफल क्यों माना जाता है..! साथ होने का एहसास ही काफ़ी है, इसकी सफलता और पूर्णता की प्राप्ति के लिए शायर गुलज़ार ने भी तो अपने गीत में प्यार को परिभाषित करते हुए यही कहा है- सिर्फ़ एहसास है ये, रूह से महसूस करो.. प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो…

सुधा कसेरा

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