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कहानी- मैं अपूर्ण नहीं हूं… (Story- Main Apurn Nahi Hoon…)

मेरा अन्तर्मन चीत्कार कर रहा था. ऐसा लग रहा था कि मैं एक जीवित लाश बन कर रह गयी हूं. शरीर है, पर स्पन्दन नहीं. नारी की गरिमा से पूरी तरह अपूर्ण हो गयी हूं मैं. मेरी आंखें डबडबा आयीं.

न चाहते हुए भी मेरे मुंह से कराह निकल गयी. राहुल चौंक कर उठ बैठे, “क्या हुआ मधु? तकलीफ़ ज़्यादा है क्या?”
“नहीं…” मैं शर्म से गड़ गयी. दिनभर का थका-हारा आदमी रात में चैन से सो भी न पाये.
“थोड़ा पानी…” मैं धीमे से बोली. पानी पीकर मैं लेट गयी. राहुल भी लेट गये. मैं शान्त पड़ी रही, ताकि राहुल को लगे कि मैं सो गयी हूं. लेकिन मेरा अन्तर्मन चीत्कार कर रहा था. ऐसा लग रहा था कि मैं एक जीवित लाश बन कर रह गयी हूं. शरीर है, पर स्पन्दन नहीं. नारी की गरिमा से पूरी तरह अपूर्ण हो गयी हूं मैं. मेरी आंखें डबडबा आयीं. कमरे की खिड़की के बाहर लगे रातरानी की ख़ुशबू भी आज मुझे अपनी-सी नहीं लग रही थी. यह पेड़ राहुल ने ख़ास मेरे लिए लगवाया था. उन्हें पता चल गया था कि मुझे इस फूल की ख़ुशबू बहुत पसंद है. रात का सन्नाटा किसी अबोले जानवर की पीठ पर लगाये जा रहे चाबुक की तरह प्रतीत हो रहा था. राहुल गहरी नींद सो चुके थे. मैंने आंखें बन्द कीं तो दो बूंद आंसू गालों पर ढुलक गये.
क़रीब एक साल से मेरी तबीयत ज़्यादा बिगड़ गई थी. इन दिनों मैं बहुत-ही उदास और सुस्त रहने लगी थी. थोड़ी-थोड़ी देर पर बाथरूम जाना पड़ता. मेरी हमउम्र महिलाओं ने इसे स्वाभाविक प्रक्रिया बतलाया. मेरे दोनों बच्चे भौमिक और अदिति बड़े हो गये थे. अदिति का हाईस्कूल था और भौमिक का बी.कॉम का अन्तिम वर्ष. राहुल की नौकरी भी अच्छी थी. कुल मिलाकर ज़िन्दगी अच्छी चल रही थी. किटी पार्टी, शॉपिंग और राहुल का साथ, मैं बहुत ख़ुश थी. लेकिन अचानक इस उम्र में आकर मुझमें एक खालीपन-सा भर गया था. ऊपर से इस बीमारी ने मुझे तोड़ कर रख दिया. मैंने काफ़ी दिनों तक दवा खाई, पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ. डॉक्टर ने दवा दी, पर साथ ही ये भी कहा कि यदि 3 माह तक इस दवा से लाभ नहीं हुआ तो गर्भाशय को ऑपरेशन द्वारा बाहर निकालना होगा.
मैंने काफ़ी दिनों तक दवा खाई, पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ तो डॉक्टर ने साफ़ कह दिया कि ऑपरेशन ही इसका एकमात्र इलाज है. यदि इसमें देर की या लापरवाही बरती तो गर्भाशय का कैंसर भी हो सकता है. राहुल तो परेशान हो उठे. मैं भी घबरा गयी. मेरे शुभचिन्तकों ने मुझे ऑपरेशन करवा लेने की सलाह दी.
ऑपरेशन के दिन पूरा घर और हमारे आत्मीय वहां मौजूद थे. मायके में कोई ऐसा नहीं था जिसे कुछ दिनों के लिये बुला लेती. अम्माजी का देहान्त दो वर्ष पूर्व हो चुका था. राहुल ने ऑफ़िस से छुट्टी ले ली थी. वे मेरी नींद सोते और मेरी ही नींद से जागते. खाना बनाने के लिए एक बाई रख दी थी. पूरे सप्ताह लोग मुझसे मिलने आते रहे. मैं ऊपर से हंसने का प्रयास करती, पर अन्दर से टूट रही थी. क्या राहुल अब भी मुझे वैसे ही प्यार करते रहेंगे, ये प्रश्‍न बार-बार मेरे जेहन में उभर रहा था. जिस दिन मैं घर आयी, उस दिन भौमिक और अदिति बहुत ख़ुश थे, “मम्मा, अब आप आराम करेंगी. घर के किसी काम का टेंशन आप नहीं लेंगी. हम दोनों ने मिलकर ये तय कर लिया है कि घर कैसे चलाना है. डॉक्टर ने पूरे तीन महीने आपको आराम करने को कहा है.” मैं मुस्कुरा दी. अतीत में विचरते हुए जाने कब मेरी आंख लग गयी.
समय धीरे-धीरे खिसकने लगा. अदिति की बोर्ड की परीक्षा क़रीब आ गयी थी. वो पढ़ाई में जुट गयी थी. भौमिक भी घर में ज़्यादा समय नहीं दे पा रहा था. पूरे एक महीने की छुट्टी के बाद राहुल ने भी ऑफ़िस ज्वॉइन कर लिया था. घर पर रह गयी थी मैं और सूनी दीवारें.
मेरी सहेलियां और क्लब की मित्र कितना व़क़्त मेरे पास बितातीं. किसके पास इतना व़क़्त था? सबकी अपनी-अपनी गृहस्थी थी. शाम को राहुल आये तो बड़े अच्छे मूड में थे. मेरी कमर को अपनी बांहों के घेरे में लेकर उन्होंने प्यार से पूछा, “क्या किया सारे दिन? बोर तो नहीं हुई?”
“क्या करती, अब करने को रह ही क्या गया है?” मेरे स्वर की निराशा राहुल से छुपी न रही. उन्होंने प्यार से मुझे पलंग पर बिठाया, फिर मेरा चेहरा ऊपर उठा कर बोले, “देखो मधु, तुम ख़ुद को बीमार मत समझो. बस थोड़ी कमज़ोर हो गयी हो, पर अपने ऊपर ध्यान देने से क़मजोरी भी दूर हो जायेगी. तुम वही हो जो पहले थी. तुम्हारे कई शौक़ ऐसे होंगे, जिन्हें तुम पिछले दिनों पूरा नहीं कर पाई. अब तुम उन्हें लेटे-लेटे या बैठे-बैठे पूरा कर सकती हो.”
एक दिन शाम को भौमिक कई सारी सीडी लेकर आ गया. “मम्मा, आपको देवानन्द की फ़िल्में पसन्द हैं न, इन्हें देखिये और अपना व़क़्त बिताइये.”
धीरे-धीरे दो माह बीत गये. भारी चीज़ उठाने को डॉक्टर ने मना किया था. ग्वालियर से एक दिन सरला बुआ का फ़ोन आया कि उनकी बेटी रश्मि आजकल दिल्ली में है. उन्होंने कहा कि तुम्हारा नम्बर दे दिया है, वो स्वयं बात कर लेगी. दूसरे दिन ही रश्मि का फ़ोन आ गया. हम दोनों का बचपन का बहुत साथ था. बहनों से ज़्यादा हम सहेलियों की तरह थे. ‘चलो कुछ तो अकेलापन कटेगा’ मैंने सोचा. रश्मि को राहुल लेने गये. काफ़ी मोटी हो गयी थी रश्मि. मुझसे लिपट कर पहले तो गिले-शिकवे हुए, “तेरा ऑपरेशन था मम्मी ने बताया. बता अब कैसी है?”
“ठीक नहीं हूं… शरीर से नहीं मन से.”
“मधु, मन को तो तुझे बांधना ही होगा.”
मैंने न समझ पाने के अन्दाज़ में उसे देखा.
“मेरा मतलब राहुल से है. जीवन के इस परिवर्तन को तुझे बर्दाश्त करना ही होगा.”
“तू कहना क्या चाहती है? खुलकर बता न.” मैंने हैरान होकर पूछा.
“इस दौर से मैं भी गुज़र चुकी हूं. मेरा ऑपरेशन आज से दस साल पूर्व हुआ था. मेरी बेटी गुड़िया मात्र सात साल की थी. मुझे कुछ महसूस नहीं हुआ. मैं सोच रही थी ज़िन्दगी यूं ही गुज़र जायेगी. पंकज मुझे ऐसे ही प्यार करते रहेंगे. लेकिन कुछ दिनों बाद ही मैंने महसूस किया कि पंकज बुझे-बुझे और उदास रहते हैं. मुझे आत्मग्लानी होती. आज दस साल हो गये, पर वो अपनी ख़ुशी बाहर तलाशते हैं. मैं चाहकर भी उन्हें रोक नहीं पाती. मैं नहीं चाहती कि तेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हो, इसलिए तेरा दिल करे न करे, पर तू अपनी तरफ़ से अपनी उदासीनता राहुल पर ज़ाहिर न करना, उसे प्यार करती रहना.”
रश्मि चली गयी, पर मुझे अन्दर तक हिला गयी. तो क्या अब मैं राहुल के लायक नहीं रही? अब मैं उसे पहले की तरह प्यार नहीं कर पाऊंगी? शारीरिक तौर पर मैं राहुल को ख़ुश नहीं कर पाऊंगी? रश्मि चली गयी, पर मेरे मन में शक का एक बीज बो गयी. मेरे मन में शक का एक कीड़ा कुलबुलाने लगा. अब जब राहुल मुझे प्यार करते तो उनका प्यार मुझे दिखावटी लगता, जैसे किसी अपाहिज पर दया कर दी जाए, तो कितना मानसिक संताप होता है उसे. कुछ ऐसी ही स्थिति मेरी भी हो रही थी. मैं धीरे-धीरे राहुल से कटने लगी. किसी से बात करने का दिल ही न करता. एक बार रूटीन चेकअप के लिए राहुल मुझे डॉक्टर के पास ले गए. मैंने डॉक्टर को अकेला पाकर उनसे पूछा, “डॉक्टर, क्या इस ऑपरेशन के बाद पति-पत्नी के बीच शारीरिक दूरियां हो जाती हैं? मेरा मन अब बहुत उचाट रहता है. ये बदलाव उम्र का है या ऑपरेशन के कारण?”
डॉक्टर ने मुझे समझाया, “ये स़िर्फ आपका वहम है. दूरी न शारीरिक होती है, न मानसिक. मुझे लगता है आप ख़ुद को एक सामान्य महिला नहीं समझ रही हैं. इस ऑपरेशन का पति या पत्नी के संबंध से कोई मतलब नहीं है. आपकी उम्र तो 45 साल है. कुदरत की दया से आपके बच्चे बड़े हो गये हैं. मैंने कई ऑपरेशन ऐसे भी किए हैं, जिनके बच्चे बहुत छोटे थे और आज वो सामान्य जीवन जी रहे हैं. मधु, अपने मन से ये भ्रम निकाल दो. मैं मानती हूं कि पति-पत्नी का रिश्ता स़िर्फ भावनाओं से ही नहीं चलता. उसमें शारीरिक सुख बहुत मायने रखता है. लेकिन अगर तुम ख़ुद को बीमार समझोगी, तो रिश्ते की रेत मुट्ठी से फिसल जायेगी.”
मैं बाहर आयी तो राहुल बाहर इंतज़ार कर रहे थे.
“एवरीथिंग इज़ नॉर्मल?” राहुल के प्रश्‍न का मैंने धीरे से सिर हिलाकर जवाब दे दिया.
किसी भी बात को समझने के दो पहलू होते हैं. एक व्यावहारिक दूसरा भावनात्मक. डॉक्टर के भी समझाने का मुझ पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा. मैंने बी.एस.सी. किया था. किसी भी चीज़ को समझने के लिए उसका प्रैक्टिकल करना ज़रूरी होता है. डॉक्टर तो कितनों को रोज़ ऐसे ही समझाती होंगी. डॉक्टर ने मुझे पूरा आराम और कम से कम तीन महीने तक कोई भी वज़नी सामान उठाने को मना किया था. दस महीने बीत गए. इस बीच राहुल दो महीने के लिए जर्मनी भी हो आये. अदिति का हाई स्कूल हो गया और भौमिक ने एम.बी.ए. ज्वॉइन कर लिया. मैं भी अब कभी-कभी क्लब पार्टी में जाने लगी थी. लेकिन शक का एक कांटा, जो रश्मि मेरे मन में बो गयी थी, उसने धीरे-धीरे नागफनी का रूप ले लिया था. राहुल अपने काम में बहुत ज़्यादा व्यस्त रहने लगे थे. दो महीने बाद ही हमारी शादी की 22वीं वर्षगांठ थी. कितना होहल्ला और धूम-धड़ाका हम हर साल मचाते थे. मैं और राहुल मिलकर शॉपिंग करते. टाई और सूट के मैचिंग पर ख़ूब झिक-झिक होती. किसको बुलाना है, कहां फंक्शन करना है, इस पर चर्चा चलती. लेकिन इस बार एकदम सन्नाटा था. बच्चे भी ख़ामोश और राहुल भी कुछ नहीं बोल रहे थे. एनिवर्सरी के दो दिन पहले जब राहुल ऑफ़िस से लौटे, तो बड़े बेमन से एक लिफ़ाफ़ा मेरी तरफ़ बढ़ा दिया. “ये लो, तुम्हारा कुछ मेरे ऑफ़िस में आया है.”
“मेरा…!” मैंने चौंककर देखा. लिफ़ा़फे पर मेरा ही नाम लिखा था. खोला तो अन्दर एक और लिफ़ाफ़ा था. अन्दर मनाली हिल स्टेशन के लिए प्लेन के दो टिकट थे. “ये टिकट.”
“हां.” राहुल कनखियों से मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराकर बोले, “इस बार हम अपनी एनिवर्सरी मनाली में मनाएंगे.”
“लेकिन राहुल…”
“ओ मम्मा.” पीछे से अदिति और भौमिक दोनों ने आकर मेरे कंधे पर अपना सिर टिका दिया. “आप मना नहीं करेंगी. यहां का सब हम देख लेंगे…” ओह तो ये सरप्राइज़ ग़िफ़्ट था तीनों की तरफ़ से. ये तीनों की मिली-भगत थी. मैं मुस्कुरा दी.
मनाली पहुंचकर वहां की हसीन वादियों में मैं खो-सी गयी. ऐसा लग रहा था मानो मेरा बचपन फिर से लौट आया है. मैंने सबके लिए शॉपिंग की. राहुल बस मुझे शॉपिंग करते हुए देखते रहे.
“ऐसे क्या देख रहे हो?” मैंने मुस्कुराकर पूछा.
“देख रहा हूं आज तुम कितने दिनों बाद फिर पहले-सी दिखी हो. इस बीच तुम बहुत उदास रहने लगी थी.”
क्या बोलती मैं, राहुल सच ही तो कह रहे थे. शायद मैं इतनी दुखी न होती, पर रश्मि ने मेरे मन में जो एक कीड़ा डाल दिया था, वही निकलने का नाम नहीं ले रहा था.
रात में राहुल ने खाना कमरे में ही मंगवा लिया. खाने के बाद वो टीवी लगाकर बैठ गए और मैं वहीं बिस्तर पर लेट गयी. अचानक राहुल पलटे और मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर प्यार से बोले, “मधु… मुझे लगता है तुम कुछ कहना चाहती हो और कह नहीं पा रही हो. आज कह दो जो मन में हो…”
“राहुल, मुझे लगता है मैं तुम्हारी गुनहगार हूं. तुम्हें कोई सुख नहीं दे पा रही हूं. अधूरी हो गयी हूं मैं.”
“मधु, जीवन की हर उम्र एक मोड़ लेकर आती है. इसे हमेशा ग्रहण कर लेना चाहिए. मैं तुम्हारी मनोदशा समझता हूं. यदि पत्नी की उम्र बढ़ती है तो पति की भी तो बढ़ती है. क्या वो हमेशा युवा ही रहता है? पति-पत्नी के बीच एक व़क़्त ऐसा भी आता है, जब वो शरीर के स्तर से ऊपर उठकर निश्छल प्रेम में ही जीते हैं. फिर एक मामूली से ऑपरेशन ने तुम्हारे मन में ये डर बैठा दिया है कि तुम अब अधूरी हो गयी हो. ये तुम्हारा भ्रम है मधु, तुम कहीं से भी अपूर्ण नहीं हो, न उम्र से न शरीर से…” कहते हुए राहुल ने मुझे अपनी बांहों में भर लिया. मैंने अपना सिर राहुल के सीने पर टिका दिया. मन में अब भी एक शंका थी. पता नहीं मेरा साथ आज भी राहुल को वही प्रेमभरी संतुष्टी दे पायेगा या नहीं.
एक अर्से के बाद आज मुझे सुख की नींद आयी.
मनाली की पहाड़ियों से जब सूर्य ने अपनी किरणें बिखेरीं, उस समय मैं होटल की खिड़की से खड़ी उसे ही निहार रही थी. अचानक मुझे लगा कोई कह रहा है, जीवन की हर सुबह की शुरुआत एक बालक की तरह करें तो हर दिन, तन और मन युवा ही रहता है. बिस्तर पर राहुल तकिये को सीने से लगाये एक बच्चे की तरह सो रहे थे. उनके चेहरे पर एक संतुष्टी का भाव था, जो मैंने शादी के बाद अन्तरंग क्षणों में देखा था. सामने लगे शीशे में मेरा प्रतिबिंब पड़ रहा था. मेरे खुले हुए बाल, माथे से पुछा हुआ रोली का बड़ा-सा टीका. दो बच्चों के बाद भी नाइटी से झांकती मेरी ख़ूबसूरत काया… कौन कहता है मैं पूर्ण नहीं हूं.
मन का कांटा कब बाहर निकल गया, मैं जान ही न पायी. मेरा अंतर्मन बोल पड़ा, ‘मैं अपूर्ण नहीं हूं…’

       साधना राकेश

 

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