मौसम सुहाना था, लेकिन न जाने उसे क्यों घुटन महसूस हो रही थी. मन के बंद दरवाज़ों को न खोल पाने की घुटन थी शायद या यादें पहाड़ की तरह सामने आ हवा को भीतर आने से रोक देती थीं. शॉल लपेटा हुआ था, फिर भी उसने पंखा चला दिया. कुर्सी पर बैठ कुछ पल सुकून के गुज़ारने के लिए आंखें बंद करने ही लगी थी कि पंखे की हवा से कैलेंडर के पन्ने फड़फड़ाए. फड़फड़ाए भी कुछ ज़ोर से ही थे, या उसे ही उनका हिलना झिंझोड़ गया था?
उसे महसूस हुआ मानो उसे कुछ याद दिलाना चाहते हों. वही बात जिसे वह याद नहीं याद करना चाहती. न यह तारीख़, न यह दिन और न ही गुज़रे लम्हों को. पर समय को वह नहीं रोक सकती, इसलिए कैलेंडर के पन्ने तो बदलने ही पड़ते हैं हर महीने. हर साल नया कैलेंडर इसी दीवार पर टांगना भी पड़ता है, किसी परंपरा की तरह. लेकिन बीती बातों का बवंडर-सा उठ जाता है हर बार, जब भी यह तारीख़ आती है और वह उस बवंडर के सामने शिथिल-सी हो
गोल-गोल घूमने लगती है. अपना संतुलन ही खो बैठती है बिलकुल.
लेकिन कैलेंडर पर वह बड़े आकार में उभरे अंक… नज़र बार-बार उस पर ही जा रही थी. आधे हिस्से में रंग-बिरंगे चित्रों वाला वह आयातकार कैलेंडर न भी याद दिलाए, तो भी टीवी, अख़बार के पन्ने और कामवाली का घर का काम खत्म कर अपनी साड़ी से हाथ पोंछते हुए मुंह बनाते हुए कहना कि “आज 2 तारीख़ है मैडम, पैसे अभी देंगी या शाम को?” इस तारीख़ को याद दिला ही देता है. कितनी बार कहा कि एक को ही पैसे ले लिया कर, लेकिन जब भी वह उसे एक तारीख़ को पैसे थमाती तो वह कहती है, “कल लूंगी. महीने के पहले दिन लेती हूं पैसे, तो जल्दी ख़त्म हो जाते हैं. टोटका समझ लीजिए. अपने मर्द को भी कह रखा है कि मैडम पैसे लेट देती हैं. इस बहाने उससे भी कुछ दिन पैसे बचाकर रख पाती हूं. करना पड़ता है मैडम हमें यह सब.” वह ऐसे समझाने लगती, मानो कोई राज़ की बात बता रही हो.
2 तारीख हर महीने आती है.
साल-दर-साल गुज़र जाएं, पर यह तारीज़ तो हर महीने अपना वजूद जताती हुई आती भी है और गुज़रती भी है. एक बार तो उसने नया कैलेंडर टांगते हुए 2 तारीख़ पर काला टेप चिपका दिया था, लेकिन टेप तो आंखों को चुभते हुए एकदम एहसास दिला देता था कि उसके पीछे 2 तारीख़ छिपी है. हर महीने जब भी पन्ना पलटती है, दुआ करती है कि काश ऐसा कोई चमत्कार हो जाए कि अगस्त के बाद सीधे अक्तूबर आजाए. 2 सितंबर न आए. वह चाहती है कि रोक ले, उसे आने से. आने ही न दे. 1 तारीख़ से सीधे 3 तारीख़ हो जाए. बीच का एक दिन किसी तरह लोप हो जाए या किसी शून्य में जाकर अटक जाए. कोई ध्यान ही न दे. कामवाली भी 3 को ही पैसे मांगे, लेकिन हर साल नया कैलेंडर अपनी पूरी कलात्मकता के साथ एक से एक ख़ूूबसूरत डिज़ाइन के साथ दीवार पर टंग जाता है, पर तारीख़ कभी नहीं बदलती.
लेखा अनमनी हो उठी. ध्यान बांटने के लिए वह बगीचे में जाकर फूल-पत्तियों को तराशने लगी. थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद अगर पौधों की काट-छांट न की जाए, तो वे बेतरतीब से उगने लगते हैं. झाड़-झंखाड़ से लगने लगते हैं. सच ही तो है कि जैसे इनकी काट-छांट करने की ज़रूरत होती है, जैसे चीज़ों को व्यवस्थित करने की ज़रूरत होती है, साफ-सफाई करने की आवश्यकता होती है, वैसे ही तो यादों की बीच-बीच में छंटाई करते रहना चाहिए. कड़वी यादों को विस्मृति की कैंची की पैनी धार से इस तरह काट देना चाहिए कि वे जब नीचे बिखरें भी तो आपस में उलझे नहीं. और आसानी से उन्हें उठा किसी काग़ज़ में लपेट फेंका जा सके. तराशने के बाद फूल और पौधे संवर गए थे मानो अब सांस ले पा रहे हों. वह क्यों नहीं काट-छांट कर पा रही है. अपनी यादों की गर्भनाल की तरह उन्हें अभी भी लपेटे हुए अपने मन की नाभि में. दबा क्यों नहीं देती गहरा गड्ढा खोदकर यहीं कहीं बगीचे में किसी कोने में. उसके ऊपर ढेर सारी मिट्टी डाल एक बड़ा सा पत्थर रख दे, जिससे वह फिर मिट्टी से फुदक कर बाहर आने की कोशिश तक न करें. बहुत प्रयत्न करती है वह सब भूलने की. कभी-कभी अपने मन को इस भ्रम में रहने भी देती है कि उसे कुछ याद नहीं है, लेकिन हर महीने की 2 तारीख़ को देखते और जनवरी से कैलेंडर के पन्ने फाड़ते-फाड़ते जब सितंबर आता है, तो वह अपने आपको किसी ऐसी अंधेरी गुफा में खड़ा पाती है, जिससे बाहर निकलने के सारे रास्ते यकायक बंद हो गए हैं.
पौधों में पानी डालना छोड़ वह अंदर कमरे में आ गई. थकान मन की मुंडेर को पार करते हुए पूरे शरीर पर हावी होने लगी थी. मन तो फिर भी कुछ समय के लिए बोझिलता को संभालने की क्षमता रखता है, पर शरीर बहुत जल्दी थक जाता है. सोचा नींबू पानी पी लेती है. कामवाली को कहने ही वाली थी कि नींबू पानी बना दे कि तभी वह अपनी साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछती हुई रसोई से निकली और घोषणा सी करती हुई बोली, “मैडम कल नहीं आऊंगी.” और बिना जवाब सुने ही फुर्ती से दरवाज़े से बाहर हो गई. लेखा कुर्सी से उठी. बड़ी मुश्किल से अपने शरीर को घसीटते हुए दरवाज़ा बंद किया. शरीर का बोझ इतना क्यों लग रहा है. उसकी काया तो स्थूल भी नहीं है, तो क्यों बोझ महसूस कर रही है? तो क्या मन का भारीपन शरीर पर भी हावी हो जाता है? लेखा की नज़र फिर कैलेंडर पर चली गई. आज रविवार नहीं होता, तो इस तारीख़ की वजह से होने वाली बेचैनी से थोड़ा तो बच जाती. ऑफिस में काम में लगी रहती, तो ध्यान नहीं जाता. वैसे भी वह जिस विज्ञापन की दुनिया का हिस्सा है, उसमें हर समय गहमागहमी रहती है. काम हमेशा व्यस्त रखता है.
इस दुनिया में काम करनेवालों की महत्वाकांक्षा इतनी तीव्र होती है कि हमेशा सब ऊर्जा से भरे रहते हैं. वह भी उत्फुल्ल रहती है उस माहौल में, काम के दबाव के बावजूद. घर आते ही जो ठंडा सन्नाटा उसे लीलने को आतुर रहता है, उससे बचने के लिए वह छुट्टी भी कम लेती है और घर भी देर से आती है, पर रविवार को तो घर पर रहना ही पड़ता है. शाम को निकल जाएगी. बेवजह ही सही, कहीं किसी मॉल में घूम लेगी. जानती है शाम को सड़कों पर कारों की लंबी कतारें लगी होती हैं और लाल बत्ती पर देर तक खड़े रहना पड़ता है, लेकिन उसे आते-जाते वाहनों और लोगों को देखना पसंद है. भूल जो जाती है वह उस शोर में खुद को.
भीड़ किसे अच्छी लगती है, पर लेखा को पसंद है भीड़ का हिस्सा बनना. वह स्वयं को गुम होने देती है अपरिचित चेहरों के बीच. कोलाहल में वह भूल जाती है गुज़रे हुए वर्षों को, उस तारीख़ को भी, जो उसे छलकर आज भी कैलेंडर पर किसी अभिमानी की तरह, किसी ज़िद्दी की तरह उभरी उसे टीस देती रहती है.
पैंतीस की उम्र भाई-बहन को पढ़ाने और उनकी शादी करने में निकल गई. जब चालीस की ओर कदम रखने लगी, तो पिता गुज़र गए और मां नम आंखों में अपराधबोध लिए उससे शादी करने को कहने लगीं.
“अब क्यों मां? जब उम्र थी तब तो आपने ज़िम्मेदारियां के नाम पर मुझे अपने बारे में सोचने तक से रोका. कहा मैं अगर अपना घर बसा लूंगी, तो इसका मतलब है मैं स्वार्थी हूं. थोड़ा रुक जाऊं. मैं रुक गई. तब से आगे कहां बढ़ पाई हूं, कदम जो शिथिल हो गए हैं. शरीर जो बोझ उठाते-उठाते थक गया है.”
“मुझसे सवाल कर और दोषी मत बना. मैं ही स्वार्थी हो गई थी, पर अब ढूंढ़ ले कोई अपने लिए साथी और अपना घर बसा ले.”
क्या कहती लेखा. मां की वेदना को महसूस कर सकती थी. नहीं चाहती थी कि मां ज़िंदगी भर ग्लानि के रेगिस्तान में स्वयं को जलाती रहे. पर क्या किसी को यूं ही साथी बना लेना इस उम्र में आसान था…कहां ढूंढ़े जाकर वह… मां से कई बार कहना चाहा, लेकिन कह न सकी.
अचानक भास्कर घोष उसकी ज़िंदगी में किसी मंद-मंद चलती बयार की तरह आया और उसके प्यार के झोंके लेखा को सिहराने लगे. विज्ञापन एजेंसी में ही मुलाक़ात हुई थी. खादी का कुर्ता और ब्लू जींस ही हमेशा पहनता था. लंबा क़द, घुंघराले बाल. पान खाने का शौकीन. विज्ञापन को अपनी रचनात्मकता से एक नया आयाम देने की काबिलियत थी उसमें. व्यवसायिकरण में पर्सनल टच था. निजी व सरकारी कंपनियां, आभूषण विक्रेता, अलग-अलग चीज़ें बेचने वाले दुकानदारों के कैलेंडर पर ग्राफिक डिज़ाइनिंग से लेकर तारीख़ों को अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत करना, क्लाइंट की मांग के अनुसार उन पर स्लोगन, सूक्तियां या कविताएं लिखना, यह सब वह बहुत मनोयोग से करता था.
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लोग कहते, “क्या भास्कर दा, आपके जैसे जीनियस को कैलेंडर डिज़ाइनिंग का काम नहीं लेना चाहिए. यह तो आपका कोई भी जूनियर कर सकता है.” तो वह हंसते हुए अपने घुंघराले बालों में उंगली लपेट कहता, “जानते नहीं कि ज़िंदगी में कैलेंडर कितना महत्वपूर्ण होता है. इन तारीख़ों के साथ हम कितने एहसासों और यादों को जीते हैं. हर महीने 1 से 30 या 31 की तारीख़ ही आती है, पर हर महीने यही तारीख़ेेंं कुछ नया और अलग हमें देती हैं. हर दिन कुछ घटता है, कुछ बनता है, कुछ बिगड़ता है. ये तारीख़ें कभी कुछ छीनती हैं, तो कभी हमारे उसी दिन को यादगार बना देती हैं. हमारे सुख-दुख जुड़े होते हैं कैलेंडर के साथ. समझ लो यादें जुड़ी होती हैं हमारी कैलेंडर के साथ. तो हुआ न यह बहुत खास? और अगर खास काम भास्कर नहीं करेगा तो कौन करेगा?”
हो गया लेखा को उससे जुड़ाव. उसका केयर फ्री एटीट्यूड और काम के प्रति लगन, दोनों ही लेखा को अच्छे लगने लगे. भास्कर ने जल्दी ही जान लिया था उसके मन को.
“मैं 45 साल का हो गया हूं. मनमौजी ज़िंदगी जीता हूं. अच्छा दोस्त बनने का वादा कर सकता हूं. पर जीवनसाथी मुश्किल नहीं होगा क्या? इतनी ज़िंदगी अकेले गुज़ारने के बाद आदतें बदलना असहज नहीं लगेगा क्या? मन मानेगा क्या? मैं नहीं चाहता कि मुझसे शादी करके कुछ महीनों बाद तुम्हें लगे कि साथ रहना मुश्किल है और तुम मुझे कैलेंडर के पन्ने की तरह फाड़कर बाहर फेंक दो. बेचारे कैलेंडर की जगह छिन जाएगी और दीवार पर बस उसका एक निशान छूट जाएगा.” गंभीर बात को भी सहजता से कह जाना भास्कर की ख़ास पहचान थी.
“तुम तो ऐसे कैलेंडर हो, जो पूरे साल मेरे पास रहोगे. बरस दर बरस. चाहे कितने नए साल आ जाएं, कितने नए कैलेंडर दीवार पर टंग जाएं, पर तुम जो मेरे दिल के दरवाज़ेे की खूंटी पर टंग गए हो न, तो वहां से तुम्हें कोई नहीं हटा सकता.” लेखा ने उसी की शैली में उत्तर दिया था.
“तुम्हारे साथ बीता हर पल मैं अपने मन की गुल्लक में सहेज कर रखूंगी. वादा करती हूं वह गुल्लक कभी नहीं तोडूंगी.”
सच में नहीं तोड़ी गई उससे वह गुल्लक. चार महीने की शादी, भास्कर के प्यार में सराबोर हर पल. आज से ठीक साढ़े चार साल और दो दिन पहले 2 सितंबर को भास्कर तारीख़ बन गया. विज्ञापन तैयार करते हुए उसका हंसी-मज़ाक चल रहा था. सीने में दर्द हुआ. उसने कुर्सी पर सिर टिका दिया और आंखें मूंद गईं. भयानक मौत के सामने भी होंठों पर मुस्कान थी उसके. मानो उसे चुनौती दे रहा हो भास्कर.
भूल तो क्षण भर को भी नहीं पाती लेखा उसे. लेकिन जब भी 2 सितंबर आता है, वह विचलित हो जाती है. भास्कर की यादों को वह काट-छांट कर नहीं फेंक सकती. चाहती भी नहीं कि उसके मन की नाभि से गर्भनाल की तरह लिपटी उसकी यादें ढीली हों. वादा जो किया था भास्कर से कि वह कभी नहीं तोड़ेगी वह गुल्लक, जिसमें उसकी यादें सहेज कर रखी हुई हैं.
मॉल में घूमते हुए थक गई थी वह. लौटने लगी, तो एक ज्वेलरी की दुकान पर लटकते कैलेंडर पर नज़र गई. भास्कर ही डिज़ाइन करता था इनका कैलेंडर. उसके जाने के बाद एजेंसी बस हर बार आभूषण की पिक्चर बदल देती है, लेकिन नीचे उसकी लिखी कविता एक टैगलाइन की तरह वहीं रहती है-
इश्क़ की बालियां
प्यार के कंगन
चाहत की पायल
प्रेम के नवरत्न
पहनकर मैं ऐसे इतराऊं
जैसे हो वह तेरी छुअन.
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“आज 2 तारीख़ है. भूल गई क्या?” दुकान के पास खड़ा एक लड़का साथ खड़ी लड़की से कह रहा था.
लेखा को याद आया भास्कर अक्सर ठहाका लगाते हुए कहता था, “2 सितंबर मेरे जीवन का सबसे शुभ दिन है.”
नहीं डरेगी वह भी इस तारीख़ से. मन की गुल्लक में शुभ दिन की तरह सहेज कर रखेगी, तो भास्कर को भी ख़ुशी होगी!
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