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कहानी- मंज़िल तक (Short Story- Manzil Tak)

“जीवन केवल वह नहीं, जो अपनी इच्छित आकांक्षा को पूर्ण करने में ख़र्च किया जाए, जीवन वह है जो दूसरों को ख़ुश देखने, दूसरों को सहारा देने के लिए जीया गया हो. जीवन-पथ पर बहुत कुछ पीछे छूट जाता है.., कुछ छोड़ देना पड़ता है, जो स्वयं के लिए बोझ साबित हो… आगे बढ़ने के लिए बाधक साबित हो, उसे छोड़कर आगे बढ़ना ही जीवन है. उसी मोड़ पर बैठ जाना तो कर्महीनता है. मंज़िल तो आगे… बहुत आगे बढ़ने पर ही मिलती है. यह तो इंसान को स्वयं तय करना होता है कि उसकी मंज़िल क्या है, उसके जीवन का उद्देश्य क्या है?”

‘दक्षा तिवारी…’

नाम की घोषणा होते ही दक्षा आत्मविश्‍वास से भरी हुई अपनी कुर्सी से उठकर मंच की ओर चल पड़ी. मंच पर अतिथि महोदय से दक्षा ने अपना प्रशस्ति-पत्र और पी.एच.डी. की थिसिस थाम ली व गर्वित मुस्कान से अभिवादन कर मंच से नीचे उतरने लगी.

दो-तीन कैमरामैन नीचे से लगातार कार्यक्रम की फ़ोटो खींचने में व्यस्त थे. मंच से उतरते व़क़्त चेहरे पर पड़ी फ्लैश की चमक से सहसा दक्षा की नज़र कैमरामैन पर पड़ी. वह भी कुछ चकित, कुछ सहमा, कुछ लज्जित-सा नज़र चुराते एक तरफ़ चला गया.

दक्षा ने देखते ही पहचान लिया था उसे. यह वही शख़्स है, जो आज से क़रीब आठ वर्ष पूर्व बीए करने के बाद पहली बार दक्षा को वर के रूप में देखने पहुंचा था.

दक्षा अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गई व पुनः उसकी नज़रें कैमरामैन को खोजने लगीं. कहीं नज़र न आने पर वह मन ही मन बुदबुदाई. “कायर कहीं का…” एक व्यंग्यात्मक मुस्कान इसके चेहरे पर फैल गई.

दक्षा को देखते ही विवाह के लिए मना कर दिया था इसने. कारण था- लड़की का रंग दबा है. सुनकर दक्षा कितनी रोई थी. क्या है इस इंसान में? मामूली-सा कैमरामैन! किसी के यूं ही कह देने भर से क्या कोई योग्य-अयोग्य हो जाता है?

लेकिन उस व़क़्त उन्नीस वर्ष की अल्हड़ दक्षा में कहां थी इतनी समझ? यदि ‘मां’ जैसी मां न होती तो कहां जान पाती दक्षा ज़िंदगी के मायने… कार्यक्रम की गमगमाहट से दूर दक्षा का मन अतीत में विचरने लगा.

बीए करते-करते आम लड़की की तरह दक्षा भी अपने राजकुमार के सपने संजोने लगी थी. मां-पिताजी तो दक्षा की पूर्ण उच्च-शिक्षा के पश्‍चात ही विवाह के पक्ष में थे, पर बिस्तर पर पड़ी दादी दिन-रात पिताजी के कान खाती- “मेरे जीते जी दक्षा को ब्याह दो, वरना दामाद का मुंह नहीं देख पाऊंगी, अब गिनती के दिन शेष हैं मेरे…”

तभी दक्षा के मामाजी ने आकर रिश्ते की बात चलाई. किसी मित्र का भाई है, कैमरामैन है, अपना स्टूडियो है, प्रायवेट वीडियो शूटिंग करता है, ग्रेजुएट है, सुंदर है, गोरा है… और न जाने क्या-क्या.

हालांकि मां-पिताजी इन बातों से प्रभावित न हुए थे, पर दादी की ज़िद पर वर-दिखलाई का कार्यक्रम तय हुआ.

लड़का अपने मां-बाप व भाई के साथ दक्षा को देखने पहुंचा. दूसरे ही दिन ख़बर भिजवा दी कि लड़की नापसंद है, काली है.

दक्षा ने सुना तो रो-रोकर बुरा हाल बना लिया था. लड़के के मना करने का दुख कम, अपनी अवहेलना का ज़्यादा था.

मां पिताजी पर झल्ला पड़ी थी- “मैंने तो पहले ही मना किया था. न लड़की की पढ़ाई पूरी हुई है, न उम्र. बेवजह की तमाशाई हुई… लड़की का दिल दुखा सो अलग.”

पिताजी कम आहत नहीं थे, पर चुप ही रहे और मन-ही-मन तय किया कि जब तक बिटिया की पढ़ाई पूरी नहीं होगी, विवाह की चर्चा नहीं होगी.

समय के मरहम से दक्षा पूर्ववत हो गयी थी व फिर से पढ़ाई-खेल, साथी-सहेलियों की गतिविधियों में व्यस्त हो गई.

उन्हीं दिनों एमए के दौरान दक्षा का वंदन से परिचय हुआ. कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यकम में वंदन दक्षा के साथ ही नाटक में काम कर रहा था. तीव्र बुद्धि, हंसमुख स्वभाव, लुभावनी काया-कुल मिलाकर एक चुंबकीय व्यक्तित्व का स्वामी था वंदन.

कुछ उम्र का असर, कुछ अनुकूल परिस्थितियां… दोनों का साथ-साथ हर गतिविधि में सम्मिलित होना धीरे-धीरे दक्षा व वंदन को क़रीब ले आया, इसका दोनों को ही भान न था. दोनों ही एक-दूसरे के आकर्षण में बंधे जा रहे थे.

हालांकि दक्षा का वंदन के प्रति व्यवहार केवल मित्रवत ही होता था, पर मां की पारखी नज़रों ने दक्षा के मन में छिपे चोर को ताड़ लिया था. मां आख़िर मां ही होती है.

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मां स्वभावगत चिंतित हो गई थी. वैसे दक्षा की पसंद उनकी अपनी पसंद थी. वंदन उन्हें भी भाता था. परंतु केवल लड़के-लड़की की आपसी पसंद से क्या होता है? “क्या वंदन के परिवारवाले भी दक्षा को पसंद करेंगे? यदि नहीं, तो क्या वंदन में इतना हौसला है कि घरवालों के विरोध के बावजूद दक्षा का हाथ थाम सके? यदि ऐसा न हुआ तो दक्षा एक बार फिर घायल होगी, टूटेगी, बिखरेगी… कैसे संभालूंगी बेटी को…?” आदि बहुत-सी चिंताएं जो हर मां को बेटी के प्रति होती हैं, दक्षा की मां को भी सताने लगीं.

मां ने दक्षा व वंदन से इस संबंध में बात करने का मन बनाया ही था कि उसके पूर्व ही एक शाम दक्षा कॉलेज से लौटते ही अपने कमरे में जाकर लेट गई. जो कभी न होता हो, उसके होने पर मन में आशंका उठना स्वाभाविक है. रोज़ आते ही कॉलेज की बातें सुनाना दक्षा की दिनचर्या का हिस्सा था.

शंकित मन से मां दक्षा के कमरे में दाख़िल हुई व दक्षा से कारण जानना चाहा, पर तबीयत ख़राब होने का बहाना बनाकर दक्षा ने स्वयं को चादर में छिपा लिया.

जिसकी आशंका थी, आख़िर वही हुआ. दूसरे ही दिन मां को दक्षा की सहेली से पता चला कि वंदन की सगाई तय हो गयी है.

एकबारगी मन हुआ कि बुलाकर भला-बुरा कहे वंदन को… कहे कि प्रेम की पेंगें बढ़ाना जितना आसान है, उतना ही कठिन है हाथ थामना. हिम्मत चाहिए, हौसला चाहिए, आत्मविश्‍वास चाहिए उसके लिए. जिसमें ये सब नहीं, वह दक्षा के काबिल नहीं. पर पराई संतान को भला क्या कहा जा सकता है. अतः वंदन का ख़याल झटके से मन के बाहर कर दिया मां ने.

उन्हें चिंता थी तो केवल दक्षा की… उसके टूटे मन की… उसकी दरकती भावनाओं की.

एक बार पिताजी ने कहा,“हम ख़ुद चलकर वंदन के मां-बाप से बात करते हैं.” पर मां नहीं मानी. जो लड़का अपने अधिकार के लिए ज़ुबान तक नहीं खोल सकता, ऐसे लड़के से ब्याहकर दक्षा को कौन से सुख मिल पाएंगे?

“नहीं…नहीं, बिल्कुल नहीं,” मां ने निर्णयात्मक स्वर में कहा, “वह कायर दक्षा के लायक नहीं है. रही दक्षा की बात तो वह आप मुझ पर छोड़ दीजिए, मैं उसे संभाल लूंगी.” आठ… दस… पंद्रह दिन हो गए… आख़िर महीना हो गया. दक्षा ने कॉलेज जाना बंद कर दिया था. यंत्रवत-सी वह दिनभर के आवश्यक काम निपटाती, खाने के नाम पर दो-चार निवाले मुंह में ठूंसती व उठकर फिर कछुए की तरह अपनी खोल में स्वयं को छिपा लेती.

मां ने दक्षा को कुछ दिन बिल्कुल नहीं टोका. वह जानती थी कि जब कभी हर उपदेश, समझाइश जवाब दे जाते हैं तब केवल ‘समय’ ही वह उपाय रह जाता है जो सब कुछ बदलने का सामर्थ्य रखता है. ऐसी स्थिति में दक्षा को सामान्य होने के लिए उसके हाल पर यथावत् छोड़ देना ही अंतिम उपाय था.

माह-दो माह पश्‍चात भी दक्षा की रुचि किसी कार्य में नहीं जाग रही थी. न टी.वी., न गाना, न सहेली, न फ़िल्म.. दक्षा को देख पिताजी भी स्वयं को बेबस पाते, उसकी हालत देख स्वयं तिल-तिल मर रहे थे.

आख़िर एक दिन मौक़ा देखकर खाने की मेज़ पर मां ने चर्चा छेड़ी. संबोधन पिताजी के लिए था, पर बात दक्षा के लिए उद्येशित थी. “आपने सुना, पड़ोस की निशी की वर्मा साहब ने ज़बरदस्ती शादी तय कर दी. वह भी उसकी इच्छा के विरुद्ध.”

“अच्छा.., लेकिन क्यों?” पिताजी बोले.

“क्यों क्या? उनकी मर्ज़ी! हर पिता तुम्हारी तरह नहीं होता, जो लड़की की भावनाओं का ख़याल कर पल-पल घुटता रहे. लड़की भूखी रहे तो ख़ुद भी भूखे उठ जाएं.” कनखियों से दक्षा पर नज़र डालते हुए मां ने अपनी बात ज़ारी रखी. “निशी को भी तो देखो. मज़ाल है कि विरोध में मुंह से दो शब्द भी निकल जाएं.”

आज दो माह में पहली बार दक्षा का ध्यान पिताजी पर गया. उसे देख-देखकर कितने चिंतित, कितने उदास, कितने दुर्बल लग रहे हैं, शायद पिताजी ने भी इतने दिनों से ठीक से खाना नहीं खाया. सोचते हुए दक्षा अपने कमरे में आ गई व रातभर मां की बातों का विश्‍लेषण करती रही. उसका मन ग्लानि से भर उठा. किसी की सज़ा किसी को क्यों दे? और ख़ासकर उन्हें, जो हर व़क़्त उसके भले की सोचते हैं. मां-पिताजी को अनजाने ही उसने दुःखी कर दिया, इस ख़याल से वह पछता उठी.

सुबह नहा-धोकर दक्षा किचन में आकर मां के काम में हाथ बंटाने लगी, “मां, आज पिताजी की पसंद का खाना मैं बनाऊंगी.”

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दक्षा में आए इस अप्रत्याशित परिवर्तन से मां का हृदय सुखानुभूति से भर गया. यही व़क़्त है दक्षा को कुछ कहने का… सही बात सही समय पर कही जाए तभी उसका सकारात्मक असर होता है… सोचते हुए मां ने दक्षा से कहा, “दक्षा, जीवन केवल वह नहीं, जो अपनी इच्छित आकांक्षा को पूर्ण करने में ख़र्च किया जाए, जीवन वह है जो दूसरों को ख़ुश देखने, दूसरों को सहारा देने के लिए जीया गया हो. जीवन-पथ पर बहुत कुछ पीछे छूट जाता है.., कुछ छोड़ देना पड़ता है, जो स्वयं के लिए बोझ साबित हो… आगे बढ़ने के लिए बाधक साबित हो, उसे छोड़कर आगे बढ़ना ही जीवन है. उसी मोड़ पर बैठ जाना तो कर्महीनता है. मंज़िल तो आगे… बहुत आगे बढ़ने पर ही मिलती है. यह तो इंसान को स्वयं तय करना होता है कि उसकी मंज़िल क्या है, उसके जीवन का उद्देश्य क्या है?”

“तुम तो भाग्यशाली हो जो तुम्हारे पिताजी आम इंसानों से हटकर तुम्हारी ऊंचाइयों के ख़्वाब देखते हैं, आम पिताओं की तरह तुम्हें ब्याहकर बोझ उतारने की भावना उनमें नहीं है. इन सबके बावजूद तुम ही हारकर रुक जाओगी तो क्या पिताजी के प्रति अन्याय नहीं करोगी?”

मां की एक-एक बात यथार्थ के पाठ की तरह दक्षा के मन-मस्तिष्क में बैठ गई. मां सच ही तो कहती है कि जीवन में उन कष्टप्रद यादों व पीड़ादायक बातों को दुःस्वप्न मानकर भूलना आवश्यक है. बीती बातों में उलझकर आने वाले उज्ज्वल ‘कल’ को अंधकारमय बना देना कहां की बुद्धिमानी है? विचारों में आए इस परिवर्तन के साथ ही दक्षा के मन से अवसाद और निराशा धुल गई व भविष्य का मार्ग प्रशस्त हो उठा. अब उसकी नज़र भविष्य-पथ पर स्थिर हो गयी… सीधे मंज़िल तक.

“मैडम, आज यहीं रुकने का इरादा है क्या?” प्रोफेसर शरद की आवाज़ पर दक्षा जैसे नींद से जाग उठी व हड़बड़ाहट में उठकर खड़ी हो गयी.

प्रोफेसर शरद को अपनी ओर मुस्कुराते देख कुछ झेंप-सी गई. कार्यक्रम संपन्न हो चुका था. लोग हॉल से बाहर निकल रहे थे.

“चलिए, मैं आपको रास्ते में ड्रॉप कर दूंगा और वैसे भी आपने आज मेरे प्रस्ताव का जवाब देने का वादा किया है. कहते हुए एक गहरी नज़र शरद ने दक्षा पर डाली.

दोनों आगे बढ़े ही थे कि कैमरामैन सामने आ गया- “एक्सक्यूज़ मी..” कहते हुए दक्षा से बोला “आपने शायद मुझे पहचाना नहीं, मैं…”

दक्षा बात काटते हुए आत्मविश्‍वास से भरे लहज़े में बोली “जी नहीं, मैंने आपको अच्छी तरह से पहचान लिया है. इनसे मिलिए प्रोफेसर शरद… मेरे होनेवाले पति…” कहकर दक्षा ने शर्माते हुए शरद की आंखों में झांका व उनके साथ आगे बढ़ गई.

 

स्निग्धा श्रीवास्तव

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कहानी- मंज़िल तक (Short Story- Manzil Tak)
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जीवन केवल वह नहीं, जो अपनी इच्छित आकांक्षा को पूर्ण करने में ख़र्च किया जाए, जीवन वह है जो दूसरों को ख़ुश देखने, दूसरों को सहारा देने के लिए जीया गया हो. जीवन-पथ पर बहुत कुछ पीछे छूट जाता है.., कुछ छोड़ देना पड़ता है, जो स्वयं के लिए बोझ साबित हो... आगे बढ़ने के लिए बाधक साबित हो, उसे छोड़कर आगे बढ़ना ही जीवन है. उसी मोड़ पर बैठ जाना तो कर्महीनता है. मंज़िल तो आगे... बहुत आगे बढ़ने पर ही मिलती है. यह तो इंसान को स्वयं तय करना होता है कि उसकी मंज़िल क्या है, उसके जीवन का उद्देश्य क्या है?”
Author
Usha Gupta

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