Close

कहानी- मौसम बदल गए (Short Story- Mousam Badal Gaye)

“किस जॉब में है तुम्हारी वाइफ?” लंबे पॉज के बाद उसने पूछा.
ये वो सवाल था जिससे मैं बचना चाह रहा था क्योंकि इससे मेरी और खिंचाई संभव थी, “वो एयर होस्टेस हैं, एक प्राइवेट एयरलाइन में…’ उसने मुझे ठहरी हुई विजयी नज़रों से देखा. होंठों पर तैर आई हंसी जैसे मेरी हार का मखौल उड़ा रही थी.
“फिर तो घर से बाहर भी रहना पड़ता होगा…?”
“हां… कभी-कभी.”
“तब बेटे को कौन संभालाता है… तुम?” स्वर व्यंगात्मक हो चला था.

आज सुबह ऑफिस आकर जब कैंटीन में चाय पीने गया तो कुछ अप्रत्याशित घट गया. एक लड़की पास से गुज़री, यकायक लगा कहीं स्वाति तो नहीं… धड़कनें तेज हो गई… मैं उसे जाते देखता रहा… हेयर स्टाइल तो डिफरेंट है… बदन भी कुछ भारी है… स्वाति कैसे हो सकती है… चेहरा नहीं देख पाया… मैंने ख़ुद को समझाया- कहां वो कर्ली हेयर, मॉडर्न लुक, लहराती-बलखाती चाल वाली पतली दुबली-सी लड़की और कहां ये सधे कदमों से चली जा रही स्ट्रेट हेयर वाली, भरी-भरी, टिपिकल सूट वाली लड़की… नहीं नहीं… लेडी. बस एक ही चीज़ कॉमन थी उस इत्र की महक जिसको मैंने चार साल भरपूर सूंघा था. शायद इसीलिए वो पास से गुज़रते हुए स्वाति का एहसास छोड़ गई. ख़ैर जो भी हो पर इसमें कोई शक नहीं कि धड़कनें जो बढ़ी थी अभी तक नॉर्मल नहीं हुई थी.
जाकर सीट पर बैठा तो काम में मन नहीं लगा. नज़रों के आगे स्वाति के संग बिताए वो ख़ूबसूरत चार साल घूमने लगे, कॉलेज में हम दोनों साथ थे और प्यार में भी थे. हमारी सोच विपरीत ध्रुवों की तरह थी फिर भी हमारी रिलेशनशिप चार साल तक खिंची और फिर… हम अलग हो गए. उससे अलग होते हुए पहले पहल तो बुरा नहीं लगा, बल्कि एक तरह के रिलीफ का एहसास हुआ जैसे कोई उलझाने वाला बंधन कटने पर होता है, मगर बाद में बहुत दुखा, लगा जैसे शरीर का कोई अंग कट गया हो, आदत-सी जो हो गई थी उसकी.
मैं सीट से उठ खड़ा हुआ और कम्पनी में चहलकदमी करने लगा. पार्किंग, कैंटीन, गलियारे, दूसरे डिपार्टमेंट्स… नज़रें दौड़-दौड़ कर उसी को खोज रही थी. वो पीले सूट वाली एक बार देख कर तसल्ली कर लूं. तब शायद शांति पड़े. फाइनली अकाऊंट डिपार्टमेंट में वो बैठी दिखाई दी. अरे! शक सही निकला. वो स्वाति ही थी. पर इतना कैसे बदल गई. मन किया दौड़ कर उसके पास पहुंच जाऊं, हालचाल पूछूं. ढेर सारी बातें करूं. कभी पक जाता था मैं उसकी बकबक से. मगर आज कान जैसे तरस रहे थे उसकी आवाज़ सुनने को. अगल-बगल उसके कलीग्स बैठे हैं और उसने मेरा यूं अचानक से सामने आ जाना सामान्य रूप से न लिया तो… सिचुएशन कहीं आकवर्ड ना हो जाए. बहुत सोच-विचार करके इस बारे में मैंने धैर्य रखना ही उचित समझा.
पूरी रात सो नहीं सका. स्वाति के साथ गुज़ारे लम्हें भूत की तरह पीछे पड़े थे. वो रिश्ता जो प्यार और पैशन से शुरू हुआ था. धीरे-धीरे झल्लाहटों और झुंझलाहटों में तब्दील हो गया था. उसमें कुछ बातें थी, जो मुझे ज़रा भी पसंद नहीं थी. मैं उसे अपनी सोच के हिसाब से बदलना चाहता था और कुछ मेरी ख़ास आदतों से उसे चिढ़ हो चली थी. वही सब सोचते-सोचते आंख लग गई. सुबह जल्दी ही ऑफिस के लिए तैयार होने लगा. पता नहीं क्यूं हाथ उन्हीं चीजों की ओर बढ़ रहे थ, जो उसे पसंद थी. उसके फेवरेट कलर की शर्ट, डीयो, टाई. क्या कर रहे हो जतिन साहब, अब कोई स्कोप नहीं. मुझे ख़ुद पर ही हंसी आ गई, गुजरा पीछे छोड़ आगे बढ़ने का दम भरने वाला दिल, कहीं तो जैसे अटका है शायद.
कैंटीन में नज़रें उसे खोज रही थी. वो टी-काउंटर पर खड़ी थी, मगर चाय तो उसे पसंद नहीं थी, कॉफी ही पीती थी. क्या वक़्त इंसान को इतना बदल देता है. ख़ैर अब ख़ुद को उस पर ज़ाहिर करने का वक़्त आ गया था, मैं उसकी तरफ़ बढ़ने लगा.
“हैलो स्वाति…” जैसे ही कहा उसने मुझे जोर देते हुए घूरा… लगा शायद पहचानने की कोशिश कर रही थी. क्या मैं भी बहुत बदल गया हूं इन सात सालों में या ये मुझे बिल्कुल ही भूल बैठी है, मन ने सवाल खड़े किए. उसके चेहरे के भाव बदल गए. लगता है पहचान गई. मुझे उसके होंठों से एक परिचित मुस्कुराहट की उम्मीद थी, मगर उसकी नज़रों ने ऐसा तिरस्कार किया क्या बताऊं. वो इतनी असहज, इतनी परेशान हो चली जैसे कि मैं उसका कोई पुराना प्रेमपत्र लेकर उसे ब्लैकमेल करने चला आया हूं.
“जतिन… तुम… यहां…” शब्द हलक से रूक-रूक कर निकल रहे थे और चेहरे पर हवइयां उड़ गई थी.
“हां, मैं तो पिछले पांच साल से यहीं नौकरी करता हूं, पर तुम्हें कल पहली बार देखा. तुम्हें देख कर बहुत खुशी हुई.” उसकी असहजता देख कर मैंने औपचारिक रुख़ अपना लिया.
“ओह… मैंने तो अभी ज्वॉइन किया है. अच्छा मैं चलती हूं, देर हो रही है.” कह कर वो ऐसी सरपट निकली जैसे कि मैं उसका ऐक्स नहीं बल्कि कोई भूत हूं. वैसे तो ऐक्स का मतलब ही भूत होता है यानी गुज़रा हुआ कल. मगर क्या मैं इतना गया गुज़रा हो गया कि अब दो मिनट बात करने के लायक भी नहीं रहा. यह बात मुझे गवारा नहीं थी मैंने उसे दोबारा पकड़ने की कोशिश की, मगर उस मुलाक़ात के बाद वो कैंटीन में कभी नज़र नहीं आई.


यह भी पढ़ें: रिश्तों में स्पेस कितना ज़रूरी, कितना ग़ैरज़रूरी… स्पेस के नाम पर कहीं छल तो नहीं रहा आपको पार्टनर? (Relationship Goals: How Much Space Is Too Much Space… Know How Much Space In A Relationship Is Normal?)

मैं उसके डिपार्टमेंट के आसपास मंडराने लगा. सोचा कभी तो सामने टकराएगी और वाक़ई मेरा यह प्रयास व्यर्थ नहीं गया. उसने बच कर निकलना चाहा, मगर मैंने रास्ता रोक लिया.
“स्वाति तुम मुझको यूं अवॉइड क्यों कर रही हो. मैं तुमसे थोड़ी देर बैठ कर बात करना चाहता हूं.”
“क्या फ़ायदा जतिन…” वो रुकने को तैयार ना थी.
“अरे… क्या फ़ायदे-नुक़सान को साइड में रख कर हम दो पुराने परिचितों की तरह बैठकर बात नहीं कर सकते.”
वो अभी भी असहज थी, “मैं अब शादीशुदा हूं और तुमसे किसी भी तरह की बात…”
“शादीशुदा तो मैं भी हूं और फॉर योर काइंड इंफोर्मेशन बेहद सुखी शादीशुदा. एक तीन साल का बेटा भी है मेरा. तो क्या तुम्हें शादीशुदा लोगों से बात करने की मनाही है.” मेरे शादीशुदा होने की ख़बर सुनकर शायद उसे कुछ राहत मिली. चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे कोई बड़ा ख़तरा छूकर गुज़रा हो. उसने गहरी सांस ली.
“कहो क्या बात करनी है?” अभी भी बेरुख़ी धुली नहीं थी.
“ऐसे ही खड़े-खड़े? चलो कैंटीन में बैठते हैं.” थोड़ी ना-नुकुर… काम के बहाने के बाद आख़िरकार वो तैयार हो गई.
“क्या लोगी?”
“चाय.” संक्षिप्त-सा उत्तर थमा कर उसकी नज़रें इधर-उधर डोल रही थी. शायद आई टू आई कॉन्टेक्ट से बच रही थी.
उसकी असहजता को देख मैंने विशेष सावधानी बरतते हुए बात शुरू की- “उस दिन कैंटीन में तुम्हें देखा तो मुझे लगा कि हमें बात करनी चाहिए. आख़िर हम इतने साल अच्छे दोस्त (वो मुझे घूरती है. दोस्त शायद ग़लत शब्द था, मगर जो थे वो बोलना अब बेमानी था. मैं रुक गया.) दरअसल यूं ही तुम्हारे बारे में जानने की इच्छा थी… कैसी हो, क्या कर रही हो आजकल… हमारे ब्रेकअप के बाद (वह पुनः घूरती है. मैं रुक जाता हूं. अब इतना तो समझ ही गया हूं कि वो पास्ट का एक कतरा भी छूना नहीं चाहती.)”
चाय आ जाती है. वो सिप लेती है. मुझे याद आता है कि उसे चाय बिल्कुल पसंद नहीं थी और मुझे बेहद पसंद. तब ये बात मुझे गंवारा नहीं थी कि वो मेरी पसंद को पसंद ना करे. मैं चाहता था कि वो भी मेरे साथ बैठ चाय पिये. एक बार तो मैंने यहां तक कह दिया था कि अगर मुझे वाक़ई प्यार करती हो तो तुम्हें चाय पीनी ही पड़ेगी, मगर वो तैयार नहीं हुई… देखो मुझ पर यूं चीज़ें थोपने की कोशिश मत करो. मुझे नहीं पीनी तो नहीं पीनी…
“तुमने चाय पीनी कब से शुरू कर दी?”
उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट छा गई.
“शादी के बाद… दरअसल सोमेश को बहुत पसंद हैं, उन्हीं के साथ रहते-रहते आदत हो गई. अब लगता है पहले क्यों पसंद नहीं थी.” कहकर वो हड़बड़ा-सी गई. शायद कुछ पिछला याद आ गया.
“सोमेश..?”
“माय हसबैंड, दिसम्बर में तीन साल हो जाएंगे हमारी शादी को.”
“कोई…?”
“अभी नहीं. नेक्स्ट ईयर प्लान करने की सोच रहे हैं.” उसने मुस्कुराकर जवाब दिया. मुस्कुराहट बता रही थी कि अब तक वो थोड़ी कम्फर्टेबल हो चुकी है. फिर कम्पनी, करियर से लेकर शहर, सड़क, ट्रैफिक तक ना जाने कितनी फॉर्मल बातें हुई. मुझे ख़ुशी थी कि वो अब नॉर्मल हो कर बात कर पा रही है.
“तुम्हारी वाइफ… तो हाउसवाइफ ही होगी?” उसने जवाब के साथ सवाल दागा.
मैंने ठंडी सांस भरी, “नहीं. शी इज़ वर्किंग.”
“ओह… (अफ़सोस जताने के बाद संभलते हुए) आई मीन… इट्स गुड.” वो नीची नज़रें किए चाय के खाली कप में चम्मच घुमा रही थी. शायद भीतर हो रहे मंथन की बॉडी लैंग्वेज थी. मुझे पता है क्या सोच रही होगी वो… कितनी बहस हुई थी इस बारे में हमारे बीच. मैं चाहता था कि वो शादी के बाद हाउसवाइफ बन कर घर संभाले. सच पहले मुझे लड़कियों का बाहर नौकरी करना ज़रा भी पसंद नहीं था. मुझे लगता था इससे घर और घर के लोग, ख़ासकर बच्चे इग्नोर होते हैं. भाभी ने करियर के चक्कर में भईया और घर की जो दुर्गति की थी शायद उसी से ऐसे बीज पड़े थे मन में. मगर स्वाति बेहद ऐम्बीशियस थी और मेरे ऐसा कुछ कहने पर काट खाने को दौड़ती थी. तब मुझे लगता था कि मेरा प्यार स्वाति को बदल देगा… या मेरी शर्तें उसे झुकने पर मजबूर कर देगी, पर ना वो बदली और ना ही झुकी.
“किस जॉब में है तुम्हारी वाइफ?” लंबे पॉज के बाद उसने पूछा.
ये वो सवाल था जिससे मैं बचना चाह रहा था क्योंकि इससे मेरी और खिंचाई संभव थी, “वो एयर होस्टेस हैं, एक प्राइवेट एयरलाइन में…’ उसने मुझे ठहरी हुई विजयी नज़रों से देखा. होंठों पर तैर आई हंसी जैसे मेरी हार का मखौल उड़ा रही थी.


यह भी पढ़ें: हैप्पी रिश्तों के लिए बनें इमोशनली इंटेलिजेंट कपल, अपनाएं ये 7 आदतें (7 Habits Of Emotionally Intelligent Couple Which Will Make You Happy Couple)

“फिर तो घर से बाहर भी रहना पड़ता होगा…?”
“हां… कभी-कभी.”
“तब बेटे को कौन संभालाता है… तुम?” स्वर व्यंगात्मक हो चला था.
“दरअसल उसके पैरेंट्स पास में ही रहते हैं. मेरे टायमिंग्स का तो कोई भरोसा नहीं, तब वो उनके पास ही रहता है.”
“गुड…" मुस्कुराहट व्यंग्य भरे विजयी भाव बरक़रार थे. नज़रें जैसे कह रही थी. देखा तुम्हें बदलना ही पड़ा. आख़िरकार तुम ही ग़लत सिद्ध हुए.
“फिर तो…”
“कुछ और लोगी. कुछ स्नैक्स या फिर एक कप चाय और हो जाए?” मैंने बात बदल कर बंदूक की नली अपनी तरफ़ से हटाने की कोशिश की, मगर उसे तो अब मेरी बखिया उधेड़ने में रस आने लगा. उसने अधूरा छूटा सवाल पूरा किया.
“फिर तो मिनीज भी पहनती होगी. एयर होस्टेस की तो बड़ी ग्लैमरस जॉब होती है. ख़ूब टिपटॉप में रहना पड़ता है.” व्यंगात्मक हंसी थोड़ी और खिली. मैं चुप रहने के सिवा और कुछ ना कर सका.
“यानी काफ़ी बदल गए हो तुम… तुम्हें तो ये सब बिल्कुल पसंद नहीं था…” हमारे बीच फिर एक पॉज उभरा. मैं कहीं खो-सा गया, यक़ीनन… पहले वाले जतिन से काफ़ी बदल गया हूं मैं, पर यह बदलाव इतना धीरे-धीरे, स्मूथली हुआ कि पता ही नहीं चला. स्वाति से मेरी बहुत सी अपेक्षाएं थी. मुझे उसका मिनीज, बिद आउट स्लीवज पहन कर बाहर घूमना बिल्कुल पसंद नहीं था. मैं जानता था वो शुरू से ही ऐसी थी, ऐम्बीशियस, आधुनिक ग्लैमरस पहनावे को पसंद करनेवाली… चुलबुली-चहकती, उन्मुक्त. उसे ऐसी ही पसंद किया था मैंने, मगर जल्दी ही मैं चाहने लगा कि मेरी गर्लफ्रेंड होने के नाते ये उसका फर्ज़ है कि वो ऐसे रहे जैसे मैं रखना चाहूं. ऐसी दिखे जैसे मैं देखना चाहूं. पता नहीं ऐसा क्यों होता है, हम एक इंसान को चाहने लगते हैं, उस अलग इंसान को जिसके पास अपना दिमाग़, अपनी सोच, अपनी इंडीविजुअलिटी होती हैं जिस कारण हम उसकी ओर खिंचते हैं, लेकिन जल्द ही हम उस इंसान का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में ले लेना चाहते हैं, ताकि वो अपना दिमाग़, अपनी सोच, अपनी इंडीविजुअलिटी साइड में रख हमारी कमांड पर चलने लगे. जो ऐसा करने लगता है उसे हम सच्चे प्यार का नाम देते हैं और जो नहीं करता उसे बेवफ़ा का.
“क्या सोचने लगे?” वह अब मेरी सोच के दायरे में भी ऐंटर करना चाह रही थी.
“कुछ नहीं (मैंने भीतरी उमड़-घुमड़ को छिपा लिया) बस यही सोच रहा हूं कि तुम भी कितनी बदल गई हो, मसलन- चाय पीने लगी हो. मिनीज, कैप्री छोड़ सूट और साड़ी पहनने लगी हो. वैसे अच्छी लग रही हो आज साड़ी में, बिल्कुल एक ब्याहता के गेटअप में हो. सिंदूर, बिंदी, मंगलसूत्र…”
“दरअसल इन-लॉज साथ ही रहते हैं, इसीलिए टिपीकल बहू की तरह रहना पड़ता है.” झेंपते हुए.
“तो तुम्हें उलझन नहीं होती उनके साथ टिपीकल बहू बन कर रहने से.” बड़ी देर बाद सवालों के गोले दागने की मेरी बारी आई.
“उलझन कैसी… वैसे अब तो आदत भी हो गई. वो बहुत अच्छे हैं. मुझे बहुत प्यार और सपोर्ट करते हैं. वैसे उन्होंने कभी कोई रोक-टोक नहीं की. मगर मुझे पता है कि वो अपनी बहू को ऐसे ही देखना पसंद करते हैं इसलिए…” कहकर वो पल भर को ख़ुद ही सकपका गई जैसे कोई चोर पकड़ा गया हो. अब विजयी भाव से घूरने की मेरी बारी थी, तसल्ली हुई. मैं बदला तो क्या उसे भी तो आख़िर बदलना ही पड़ा.
“तुमको पार्टीज… डिस्को का बहुत शौक था. इन-लॉज के साथ रहते जा पाती हो क्या…” दिल कुछ और राज़ भी जानना चाह रहा था. हमारे मतभेदों का यह भी एक कारण रहा था.
“कहां… सोमेश को तो बिल्कुल पसंद नहीं. (फिर बात संभालते हुए) वैसे भी सारा दिन वो भी काम से थक कर आते हैं और मैं भी, फिर इतनी एनर्जी ही नहीं बचती आउटिंग के लिए.”
“वीकेंड तो हैं…” मैंने बात की गहराई में जाने की कोशिश की.
“वीकेंड तो घर और बाहर के पैंडिंग कामों को निपटाने में ही चला जाता है, फ़ुर्सत में सब साथ बैठ कुछ अच्छा खाते हैं या फिर टीवी एंजॉय करते हैं.”
“बस…” मैंने स्वाति के नज़रों में झांकते हुए पूछा.
“बस और क्या…” इतना ही जवाब आया पर आश्‍चर्य, आंखों में लाचारी नहीं, बल्कि संतुष्टी तैर रही थी.
“तुम भी बिल्कुल बदल गई हो.” मैंने हंसते हुए कहा. वो भी मुस्कुरा उठी.
“अगर हम पहले ही बदल जाते तो…” पता नहीं, यूं निकल पड़ा मुंह से.
“ज़ोर-ज़बरदस्ती से इंसानी फ़ितरत नहीं बदलती जतिन. हमारे जैसे इंसान टूट जाते हैं, मगर झुकते नहीं और वैसे भी ट्रांसफोर्मेशन प्रोसेस की अपनी एक साइकिल होती है उसे पूरा किए बगैर ट्रांसफोर्मेशन संभव नहीं. हमारे एक-दूसरे के साथ हुए अनुभवों से निकल कर ही हमने दूसरों की ख़ुशी के लिए ख़ुद को बदलना सीखा. (कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद) काफ़ी देर हो गई है. अब चलना चाहिए.” स्वाति उठते हुए बोली.
“तुमसे बात करके अच्छा लगा.”
“मुझे भी.”
“अब मुझसे कतराओगी तो नहीं…”
“नहीं…” मुस्कुराते हुए उसने विदा ली. मैं स्वाति को जाते देखता रहा. अपनी ऐक्स से इस शॉर्ट एंड स्वीट मुलाक़ात में रोमांस जैसा तो कुछ नहीं था, फिर भी कुछ तो था जिसने दिल को अजीब-सी मिठास से भर दिया था.

- दीप्ति मित्तल

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

Photo Courtesy: Freepik


अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹399 और पाएं ₹500 का कलरएसेंस कॉस्मेटिक्स का गिफ्ट वाउचर.

Share this article