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कहानी- नई नज़र (Short Story- Nai Nazar)

मीनू त्रिपाठी

“तू दिल्ली आया है, तो नीतीश से मिल लेता. यहीं गोलचक्कर पर ऑफिस है.”
“मिल लिया आज सुबह.“ उसने छोटा-सा जवाब बिना अमन को देखे दिया.
“दरअसल, बहुत व्यस्त है वो. होगा ही… पूरे शहर की ज़िम्मेदारी है.” अमन ने हमेशा की तरह तर्क दिया, तो वह दंग रह गया. महसूस हुआ वो अलग है, सबसे अलग और ख़ास भी. मन में उपजा नैराश्य बहकर बाहर निकलने लगा. आज पहली बार उससे ढेर सारी बातें करने को जी हो रहा था.

रह-रह कर मोहित सामने टंगी घड़ी देख रहा था. बेचैनी से पहलू बदलते हुए उसने रिसेप्शनिस्ट से पूछा, “कितनी देर है, मेरा नाम तो बताया है न अपने सर को?”
“हां सर, उन्होंने कहा है बुला लेंगे.” रिसेप्शनिस्ट के आश्‍वासन पर अनायास खीज हो आई.
पिछले डेढ़ घंटे में नीतीश के शानदार ऑफिस का दरवाज़ा छह बार खुला और बंद हुआ. दो बार कॉफी भी गई. पक्का नीतीश के जेहन में सामने उसका अक्स नहीं उभरा होगा.
रिसेप्शनिस्ट से कह तो दिया था, मोहित सक्सेना इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का उसका एम.ए. का दोस्त. वो तो ये भी कहलवाना चाहता था कि वही मोहित जिसके साथ कैंटीन में ख़ूब चाय पी गई थी, पर सही नहीं लगा. रिसेप्शनिस्ट से उसके बॉस को कहलवाना. लखनऊ यूनिवर्सिटी से एम.ए. ही तो साथ किया है. उसके बाद तो नीतीश अपने पिता के साथ उनके सिक्किम तबादले पर चला गया था.
काफ़ी साल हो गए. पूरे आठ साल. एस.डी.एम. है. तमाम उलझनें, ज़िम्मेदारियां होंगी.
ग़लती हुई, आने से पहले नीतीश से फोन पर बात करनी चाहिए थी. पर नंबर कहां से पता करता. करियर, परिवार में नीतीश दिमाग़ से पूरा नहीं, तो आंशिक रूप से तो निकल ही गया था. नंबर तो बदले गए मोबाइल से ही इधर-उधर हो गए.
फेसबुक व इंस्टा पर भी नहीं है. वो तो तीन साल पहले अमन घर आया था, उसी से सब दोस्तों के बारे में पता चला. वह सबकी ख़बर रखता है. उसकी कोई रखे न रखे.
नीतीश दिल्ली एस.डी.एम. बनकर आ रहा है ये उसी से पता चला था. उस वक़्त तो अमन के पास नीतीश का नंबर नहीं था, अभी ज़रूर होगा. वह तो दिल्ली में है मिल चुका होगा, तो नंबर भी होगा.
अमन से मिलकर नंबर ले लेता, पर मिलने की भी ज़रूरत क्यों थी. फोन पर ही पूछ लेता, पर उसके दस सवाल, “क्यों मिलना है… कोई काम है क्या, मैं भी चलता हूं…”
उसकी चिपकने की आदत से ही उसने उसकी कॉल डायवर्ट कर रखी है. दुमछल्ला, पिछलग्गू, लप्पू, इरिटेटिंग क्या-क्या नाम नहीं दिए हैं दोस्तों ने उसे, पर उसे क्या फ़र्क़ पड़नेवाला था.
कोई उपेक्षा भी करे, तो तर्क ढूंढ़ लेता है, “बिज़ी होगा… कोई समस्या रही होगी… तनाव होगा.” या सबसे कॉमन, “सबका स्वभाव एक सा नहीं होता…”
उसे वाक़ई किसी की बेरुखी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता या वह फ़र्क़ पड़वाना ही नहीं चाहता. सब उसे मतलबी बोलते थे. चाय का बिल उसने कभी नहीं चुकाया. दिखावे में भी कभी जेब में हाथ नहीं डाला. शायद उसकी मुफ़्तखोरी ही कुढ़न की वजह रही होगी.
अभी छह महीने पहले ही वह अचानक घर आ गया था, वह भी बैग के साथ.
“यार, कल सुबह आठ बजे इंटरव्यू है यहीं इंदिरा नगर में. तेरे घर से बस दस मिनट की दूरी पर. आज तो तुझे तंग करूंगा.“
इस ज़माने में बिन बताए कौन आता है. होटलों की भी कमी नहीं, पर वजह वही मुफ़्तखोरी… उसे देखते ही यह पहला ख़्याल आया.
“यार ये कहां से आ गया. बड़ा चिपकू है, दोस्त जैसा दोस्त नहीं है और अब झेलो.” उसने दिशा से कहा, तो उसने भी अमन को उसी की नज़रों से देखा और चिढ़कर कह दिया, “फिर चलता करो न कोई बहाना बनाकर.”


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“अमन, यार तुम बता कर आते तो हम प्रोग्राम न बनाते. दरअसल, कल सुबह डॉक्टर की अप्वॉइंटमेंट ली है. दिशा की तबियत कुछ सही नहीं है.” उसके कहते ही अमन तुरंत बोला, “अरे नहीं, भाभी का स्वास्थ्य सबसे पहले. चाचा कृष्णा नगर में हैं, वहां चला जाता हूं.”
“हां पर चाय पीकर.” ग्लानि भाव पनप गया. उसने भी नाटकीय अंदाज़ में स्वीकारा, “जो हुकुम.”
चाय पीकर वह टल गया, तो सबने चैन की सांस ली. फोन नंबर की अदला-बदली ज़रूर हुई, पर उसकी कॉल को ब्लॉक कर दिया.
“सर, नीतीश सर बुला रहे है.” रिसेप्शनिस्ट की आवाज़ कानों में पड़ी, तो वह आते-जाते विचारों को झटक कर उठ खड़ा हुआ. सुंदर चमचमाते दरवाज़े से ही बड़ा-सा कमरा और सामने रिवॉल्विंग कुर्सी पर बैठा नीतीश दिखा.
कमरे में घुसने से पहले घूमती कल्पनाएं अलग-अलग बिंब दिखा रही थीं. नीतीश खड़ा होकर किस तरह उसका स्वागत करेगा… भावातिरेक में लिपट जाएगा. कुर्सी पर बैठे-बैठे ही उसका स्वागत करेगा. हैरानी से उछल पड़ेगा या शर्मिंदगी से बोलेगा, “यार, माफ़ करना तुझे इतनी देर इंतज़ार करना पड़ा. क्या कहूं, इतने झमेले हैं…” वगैरह… पर हुआ कुछ अलग ही.
फाइलों में डूबा देख ही नहीं पाया कि उसका दोस्त सामने खड़ा उसके सिर उठाने का इंतज़ार कर रहा है. आख़िरकार कुछ सेकंड बाद उसने उसे देखा और नपी-तुली मुस्कान के साथ हल्का-सा सिर हिलाकर बैठने का इशारा किया.
मोहित ने ज़रूरत से ज़्यादा भीतर उमड़ पड़े दोस्तियाना आवेग पर काबू करते हुए बस इतना कहा, “कितने समय बाद मिलना हो रहा है. यहां कैसे?” उसने हल्की सी मुस्कुराहट के साथ पूछा.
“बस दिल्ली आया, तो सोचा तुझसे मिल लूं. दरअसल, जिस कंपनी में काम करता हूं उन्होंने भेजा है. कॉन्ट्रेक्ट के सिलसिले में एक प्रेजेंटेशन देकर. सीधा यहीं चला आया.”
“ओके-ओके, कब निकल रहे हो?”
“निकल तो जाता, पर कल शनिवार है. तुझसे मिलना भी था और दिल्ली भी तो घूमना था.”
“हां-हां बिल्कुल. बस सर्विस बढ़िया है.”
‘कहां रूके हो’ जैसे प्रश्‍न उसने नहीं पूछे, तो उसने स्वयं बताया, “गेस्ट रूम तो छोड़ना होगा. वो तो बस आज…”
“हां-हां वो तो है, पर क्या दिक़्क़त है. यहां तो कदम-कदम पर होटल, गेस्ट हाउस और लॉज हैं, जैसा बजट हो वैसा मिलेगा.”
भावनाओं के बजट में तो उसके दोस्त का घर आता था, पर वह शायद उपलब्ध नहीं होगा. मन ने ज़ोर से कहा, तो वह चौंक उठा.
“कुछ चाय वगैरह या कॉफी?”
उसने पूछा और फिर बिना किसी भूमिका के फोन मिलाकर धीमे से फुसफुसाया.
चंद मिनटों में बिस्किट और कॉफी का कप उसके सामने आ गया.
बस एक कप! उसने नीतीश को देखा, जो वहां होकर भी वहां नहीं था. इधर-उधर बेचैनी से देखते नीतीश ने फोन उठा लिया.
इधर कॉफी ठंडी हो रही थी. दोस्त से मिलने का उत्साह भी. सो कप उठा ही लिया. नीतीश भी फोन पर बात करता रहा, तब तक जब तक कॉफी ख़त्म नहीं हो गई.
“बड़ा काम रहता है यार!” नज़र मिलने पर वह बोला.
“इतनी बड़ी पोस्ट पर है, तो काम तो होगा ही.”
“वही तो, लोग समझते नहीं…” कहते-कहते वह रुका या शायद ख़ुद को रोक लिया.


“दोस्त से मिलकर भूल मत जाना. मुझे हालचाल बताते रहना. इतनी बातें करते हो उसकी, तो कम से कम बात तो करवा देना… उसकी वाइफ से भी बात करवाना…” दिशा की कही बातें कानों में गूंज रही थीं, पर यहां तो सब गड्डमड्ड सा हो गया.
सहसा टेबल पर लगी घंटी ने विचारों की लहरों से उसे वर्तमान के तट पर फेंका. उसकी लंबी-सी कांच की टेबल पर रखी घंटी चीखी और अर्दली दौड़कर आया.
“सोमनाथ ग्रुप के चेयरमैन आनेवाले थे.” आवेशित स्वर सुनते ही वह चेयर से उठ खड़ा हुआ.
“चलता हूं, कभी लखनऊ आना हो तो…” उसने हाथ बढ़ाया, फिर खींच लिया. नीतीश के एक हाथ में रिसीवर और एक में पास ही रखा नोटपैड था. शायद कोई प्वॉइंट याद आया हो.
हाथ हिलाकर मोहित बोला, “चलता हूं, मिलकर अच्छा लगा.” जवाब में उसका भी नोटपैड हिला.
बाहर निकलकर वह कुछ देर यूं ही खड़ा रहा, फिर एक ऑटो को हाथ देकर रोक लिया.
गेस्ट हाउस के रिसेप्शन में बैग रख आया था. सोचा था… खैर छोड़ो. उसने विचार झटके, पर वह चुंबक की तरह फिर चले आए…
सड़कों पर जितनी तेज़ ऑटो दौड़ रहा था, उतनी तेज़ विचार भी. क्या करे, निकल चले लखनऊ
फिर कभी दिल्ली घूमेगा. दिशा साथ होगी तब. पर दिल्ली आने की क्या वाक़ई दोबारा कोई वजह होगी. सोच-विचार में ही रास्ता कट गया. गेस्ट हाउस के सामने ऑटो रुका, तो वह उतरते हुए बोला, “सुनो, तुम रुकना. मैं बैग लेकर आता हूं. फिर स्टेशन छोड़ देना.” रिक्शेवाले ने सिर हिला दिया और ऑटो घुमा लिया.
बैग ऑटो में रखकर वह बैठा, तो आगे के कार्यक्रम की रूपरेखा बनने लगी. मन ही मन उसने निश्‍चय कर लिया, कल की टिकट कैंसिल करवाकर तत्काल से आज की करवा लेगा. दिल्ली की भरी सड़कें देख मन भर सा आया था. किनारे पर लगे ठेलों, छोटे-छोटे ढाबों पर नज़रें ठहरती रहीं.
रेलवे स्टेशन के बाहर ही ऑटो रुक गया. निर्विकार भाव से वह उतरा, जेब से रुपए निकालकर बंधा नोट ऑटोवाले को पकड़ाया कि तभी किसी की आवाज़ आई, “अबे तू…” इस अपनेपन पर वह चौंका. सामने अमन खड़ा था.
“ऑटो से उतर रहा है या जा रहा है.” उसकी बात सुनकर वह सकपकाया.
“चोर की चोरी पकड़ी ही जाती है, देख पकड़ लिया. वैसे एक बात कहूं… दोस्त से मिले बगैर जाना पाप है.”
“अरे नहीं, ऐसा कुछ नहीं. बस काम से आया था.”
“भले आदमी काम के बहाने ही सही, मुझे संपर्क तो करता और कैसा नंबर दिया तूने… कभी लगता ही नहीं.” गले में कुछ अटक गया था, सो जवाब देते न बना.

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चाहता तो था कि अमन टले, तो वह आगे की रूपरेखा बनाए, पर अमन कहां टलनेवाला.
ऑटोवाले को छुट्टा पकड़ाते देख वह बोला, “क्या जा रहा है?.. कहां रुका था?.. कब आया था?” उसके प्रश्‍न पर प्रश्‍न बरस रहे थे और वह पसीना पोंछ रहा था.
“दरअसल, ऑफिस के प्रेज़ेंटेशन के चक्कर में आया था, हो गया तो…”
“कौन सी ट्रेन है.”
“लखनऊ एक्सप्रेस.” मुंह से निकला, तो वह चौंका.
“आज कहां, वो तो कल… शनिवार की रात निकलती है.”
“हां हां वो जानता हूं. कैंसिल करवाकर तत्काल का टिकट लेना है.” पसीना पोंछते वह बोला.
“तत्काल से क्यों, कोई इमरजेंसी तो नहीं.”
“नहीं यार! काम हो गया, तो सोचा निकल चलूं. पहले शनिवार रात का करवाया. क्योंकि…”
“क्योंकि मुझसे मिलना था. ऐसी प्यारी ग़लतियां भगवान भूल सुधार के लिए ही करवाता है. चल, घर चल.” मोहित का बैग हाथ से लेते हुए उसने उसी ऑटोवाले से पूछा, “सरकार रोड चलोगे?”
ऑटोवाला अपनी हंसी छिपा न पाया और हां में सिर हिलाकर ऑटो मोड़ने लगा.
जाने क्या हुआ आज मोहित को कि उसने अमन को गले लगाकर भींच लिया मानो पाना चाहता हो कुछ.
“बिना मिले जा रहा था. वो तो अच्छा हुआ किसी को छोड़ने आया था, सो मुलाक़ात हो गई. ऑफिस में हाफ डे बोला था. अब पूरी छुट्टी लगा दूंगा.” मोहित चुप था, पर अमन उत्साहित था.
ऑटो एक तंग सी सड़क में घुसा और एक घर के सामने रुक गया.
“किराए का छोटा-सा घर है.” कहते हुए वह दरवाज़े की ओर बढ़ा, पर वहां ताला देख असहज हो गया.
“अंकल, आंटी हॉस्पिटल गई है.” मकान मालिक का लड़का फाटक की आवाज़ सुनकर फुर्ती से आया और चाभी पकड़ाते हुए बोला, तो कुछ खिसियाते हुए उसने धीरे से कहा, “वो दरअसल, प्रेग्नेंट है. कल जाना था, पर जा नहीं पाई. गांव से चाचा की पहचानवाला आया था. दिल्ली में इंटरव्यू था सो.”
“तू भी हद करता है. कल कोई पहचानवाला आया और आज मुझे ले आया. कुछ सोचा भी कर.”
“यार आपाधापी वाली ज़िंदगी है. ऐसे मौ़के तो लपक लेने चाहिए. इससे रिश्तों को ऑक्सीजन मिलती है.”
दरवाज़ा खुला, तो डेढ़ कमरोंवाले घर की ओर नज़र दौड़ाई. बैठक और डाइनिंग रूम एक में ही था. उसी से लगा एक छोटा-सा बेडरूम.
“हाथ-मुंह धो लो, मैं चाय चढ़ाता हूं.” कहकर वह रसोई की ओर बढ़ गया. मोहित हाथ धोकर आया, तो देखा वह कटोरियो में सब्ज़ी निकाल रहा था.
“सुबह केतन के लिए बनाया था, ठंडी हो गई.” कटोरदान से पूरी निकालते वह बोलता जा रहा था.
“पहली बार आया और ठंडी पूरियां खिला रहा हूं. नंदिनी कभी माफ़ नहीं करेगी.”
पूरी देखकर उसे महसूस हुआ कि वह बहुत भूखा है. अनौपचारिक से माहौल में भूख भड़क उठी. पूरी और आलू की सब्ज़ी में प्रसाद जैसा स्वाद आ रहा था.
“तू दिल्ली आया है, तो नीतीश से मिल लेता. यहीं गोलचक्कर पर ऑफिस है.”
“मिल लिया आज सुबह.” उसने छोटा-सा जवाब बिना अमन को देखे दिया.
“दरअसल, बहुत व्यस्त है वो. होगा ही… पूरे शहर की ज़िम्मेदारी है.” अमन ने हमेशा की तरह तर्क दिया, तो वह दंग रह गया. महसूस हुआ वो अलग है, सबसे अलग और ख़ास भी. मन में उपजा नैराश्य बहकर बाहर निकलने लगा. आज पहली बार उससे ढेर सारी बातें करने को जी हो रहा था.
नंदिनी घर आई, तो मोहित को देख हड़बड़ा-सी गई. खुले कटोरदान और जूठे बर्तन देख उसने अमन को कोने में बुलाकर झिड़की दी, “हद है, यह खिलाया आपने? अपनी नहीं, तो कम से कम मेरी इज़्ज़त का तो ख़्याल किया होता. चाय बना लेते. नमकीन-बिस्किट खिलाते तब तक मैं आ ही जाती.”
“अरे, तो अब बना लेना कुछ अच्छा, कल तक रुकेगा. जी भरकर खिला लेना. किसने रोका है.”
कमरे के घर की पतली-सी दीवारों से आवाज़ हल्की-हल्की आ रही थी. मोहित कसमसा रहा था… भूला-बिसरा याद आया और बोझ-सा लदने लगा, तो वह छटपटा कर उठ गया.
“अमन…” उसने आवाज़ लगाई.
“सुन खा पी लिया, बातें भी हो गईं. अब बस स्टैंड छोड़ दे यार.”
“सवाल ही नहीं उठता. कल शाम रेलवे स्टेशन ख़ुद छोड़कर आऊंगा. फिर अभी तो दिल्ली भी घूमना है.”
“नहीं यार, भाभी की हालत देख रहा हूं. मेरे आने से वह बहुत कॉन्शियस हो गई हैं. फॉर्मेलिटी करेंगी तो…”
“नहीं करूंगी फॉर्मेलिटी. इतना क्यों सोच रहे हैं मोहित भैया. प्रेग्नेंट हूं बीमार नहीं. वैसे भी दोस्त के घर हैं किसी पराए के यहां नहीं.” नंदिनी की इस बात का प्रतिकार करे इतनी सामर्थ्य नहीं थी उसके पास.
दिल्ली भ्रमण के दौरान अमन ने कॉलेज के समय की चाय-कचौरी की सारी उधारी चुका दी.
रात को नंदिनी ने दाल-बाटी खिलाई. अमन उसके साथ ही बैठक में गद्दा डालकर गपियाते हुए सोया.
सुबह नाश्ता करके वह दोनों फिर दिल्ली घूमने निकल गए. लोटस टेंपल में थे, तब दिशा का फोन आने लगा. एक-दो बार नज़रअंदाज़ करने पर अमन ने टोका.

“तुम फोन क्यों नहीं उठा रहे?”
“दोस्त के साथ हूं.” वह बोला तो उसने उलाहना दिया, “अरे, ये तो तुम्हारे मैसेज से पता चल गया, पर फोन पर बात भी तो करो. मैं करती हूं तो उठाते नहीं.”
जवाब में मोहित कुछ कहता, उससे पहले ही अमन ने मोबाइल ले लिया.
“भाभीजी, बड़ी मुश्किल से पकड़ में आए हैं. चिंता न करें, सलामत ट्रेन में बैठाकर आऊंगा. अभी दिल्ली घूम रहे हैं.”
दिशा कुछ कहती, उससे पहले ही मोहित ने अमन से फोन लेकर कहा, “दिल्ली दिलवालों के साथ घूम रहा हूं. शेष बातचीत मिलने पर.”


फोन कट गया. यूं कहो जान-बूझकर काट दिया गया, क्योंकि जानता था मोहित कि दिशा विस्मय में होगी.
जानना चाहती होगी कि अमन से वह कैसे और क्यों मिला. अमन से वह क्यों और कैसे मिला इस बात में क्या रखा था, अमन से मिलकर क्या मिला, यह बताने को वह बेताब था पर फोन पर नहीं. फोन पर शायद वह अमन के प्रति उसकी संवेदना, कृतज्ञता और बदले नज़रिए को न भांप पाए. वह नई नज़र न दे पाए, जिस नई नज़र से उसने अमन को इन चंद पलों में देखा.

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