लघुकथा- नज़रिया (Short Story- Nazriya)

“मां, हां मैं ठीक से उतर गई…” अपनी आवाज़ को बुलंद बनाने की कोशिश कर ज़ोर से बोली, “कोई पहली बार थोड़े ही आई हूं…” और चोर नज़रों से ड्राइवर को देखा कि उस तक बात पहुंच गई होगी,
पर वो कान में ईयरफोन डाले स्टेयरिंग घुमा रहा था. अपना शहर अपना ही होता है… बाहर देखती वह सोच रही थी. कितनी भागती-दौड़ती ज़िंदगी है यहां.. ठहराव तो कहीं नहीं दिखता…

“अनजान शहर है.. लोग तो क्या हवा भी ज़हरीली… अकेले कभी रही नहीं कैसे करोगी मैनेज? कितना समझाया तुम्हें पर नहीं !”
मां की झल्लाहट भरी आवाज़ अभी भी कानों में सुनाई दे रही थी.
“तुम बेकार परेशान हो रही मां… मैं कोई पहली लड़की हूं, जो जॉब के लिए घर से बाहर निकल रही.” मुस्कुराकर गले में बांहें डाल मां को आश्वस्त करने की कोशिश की तो उसने, पर फिर भी उनके चेहरे से चिंता की लकीरें कम नहीं हुई. नसीहतों का पिटारा लिए निकल पड़ी अपने सपनों को पूरा करने… मन घबरा रहा था, फिर भी ख़ुद को संयत कर रही थी.
स्टेशन पहुंचकर सामान को संभाले इधर-उधर देख ही रही थी कि पहुंच गए टैक्सी चालक, “आइए मैडम, कहां जाना है?”
पीछे से किसी दूसरे ने पूछा, “अरे, मैं चलता हूं सामान लेते हुए…” एक और ने कहा… एकदम से घबराकर उसने कहा, “नहीं.. नहीं.. मैंने कैब बुक कर लिया है आता ही होगा.” सामने से आती गाड़ी का नंबर देख राहत की सांस ले वह जल्दी से दरवाज़ा खोल बैठ गई. सामान रखता ड्राइवर उसे गहरी नज़रों से देख रहा था.. तभी मोबाइल की ओर ध्यान दिया. मां के दस मिस्ड कॉल… अरे, फोन साइलेंट पर था.
“मां, हां मैं ठीक से उतर गई…” अपनी आवाज़ को बुलंद बनाने की कोशिश कर ज़ोर से बोली, “कोई पहली बार थोड़े ही आई हूं…” और चोर नज़रों से ड्राइवर को देखा कि उस तक बात पहुंच गई होगी, पर वो कान में ईयरफोन डाले स्टेयरिंग घुमा रहा था. अपना शहर अपना ही होता है… बाहर देखती वह सोच रही थी. कितनी भागती-दौड़ती ज़िंदगी है यहां.. ठहराव तो कहीं नहीं दिखता… सोचते-सोचते ही उसे झपकी आ गई. तभी हाॅर्न की आवाज़ से पता चला उसका गंतव्य आ गया.

गेस्ट हाउस में सामान रख आज ही ज्वाइन करना था. तेजी से गाड़ी से निकल वो आगे बढ़ गई. रिसेप्शन पर जानकारी दे सामान रखवाने लगी. अचानक ब्लू बैग नहीं दिखा. फिर से चेक किया- एक, दो, तीन, छोटा हैंड बैग और ब्लू बैग, जिसमें लैपटॉप के साथ ज़रूरी ज्वाइन करने के काग़ज़, एटीएम कार्ड और कुछ कैश अलग से निकाल रखे थे, वो तो गायब थे.
हताश आंखों में आंसू लिए बाहर दौड़ देखी, कैब तो जा चुका था. कुछ समझ नहीं आया सिर पकड़ बैठ गई धम्म से…
‘क्या करूं घर फोन करूं?.. नहीं.. नहीं.. बेकार परेशान हो जाएंगे. पहले ही सब बोलते थे बाहर की दुनिया में ये होता है, वो होता है.. फौरन उसे लौटने को कहेंगे.

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अब कुछ सोचना पड़ेगा… ख़ुद को समझाते हुए कहा उसने और बैठ गई वहीं.
“मैडम, ये बैग उस लड़की का है, जो थोड़ी देर पहले यहां आईं थी. गाड़ी में रह गया, मैं जल्दी में था. तीस किलोमीटर आगे जाने के बाद नज़र पड़ी. उसका जॉब इंटरव्यू है मैंने सुना था, फोन पर कह रही थी किसी से, प्लीज़ उस तक पहुंचा देना.”
कहकर तेज़ी से निकल गया वो कैब ड्राइवर.
आश्चर्य से वो देखती रह गई, पलटकर धन्यवाद कहने का भी समय नहीं मिला! बैग हाथ में लेते ही सामने नज़र होर्डिंग पर गर्ई- इस शहर में आपका स्वागत है! एक बदले नज़रिए के संग वो मुस्कुरा पड़ी.

भावना झा

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Usha Gupta

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