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कहानी- ओस में ढका चांद (Story- Oos Main Dhaka Chand)

मुझे ही ख़ुद को प्यार करना होगा. तसल्ली देनी होगी. क्या सच में वैवाहिक बन्धन एक थोपा हुआ बन्धन है. आपसी सामंजस्य न बिठा पाने पर जीवनसाथी एक साथी कम, बल्कि एक दुश्मन ज़्यादा लगता है, मृणाल की आंखों में विवशता के आंसू उमड़ आए थे.

मृणाल बहुत ग़ुस्से में थी. आज वास्तव में उसका दिमाग़ स्थिर नहीं था. वो स्वयं के ही पल-पल बदलते मूड को समझ नहीं पा रही थी. उसे बस इतना ही पता था कि उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. अपने आस-पास की हर चीज़, हर जगह उसे बासी और बदरंग प्रतीत हो रही थी. एक लंबी सांस छोड़कर वो किचन में चाय बनाने लगी. शायद इससे ही मन बदल जाए.

संजीव जल्दी-जल्दी अपने ब्रीफकेस में इधर-उधर पड़े पेपर समेट रहा था. साढ़े आठ बजे तक वो ऑफिस के लिए निकल जाता था. सुबह उठकर भी वो अपने लैपटॉप पर ही व्यस्त रहता था. अभी भी उसे यह आभास नहीं था कि मृणाल आंखों में मोटे-मोटे आंसू भरे उसे शिकायतभरी निगाह से तक रही है, “शायद तुमको स़िर्फ अपने काम की और अपने फॉरेन ऑर्डर की ही चिंता है.” मृणाल उलाहना देने से स्वयं को रोक नहीं पायी. संजीव ने उसकी ओर उड़ती हुई निगाह से देखते हुए अनसुना कर दिया था. उसने ब्रीफकेस बंद करते हुए कहा, “अरे मृणाल! ज़रा मेरा वो चेकवाला कोट तो लाना.” मृणाल फिर भी जस-की-तस खड़ी रही थी.

“तुम्हारे पास अपनी पत्नी और बच्चों के लिए भी समय है या नहीं.” इस बार संजीव को भी तेज़ ग़ुस्सा आ गया. उसे यूं लगा जैसे मृणाल लड़ने का बहाना ढूंढ़ रही है. “तुम एक बार डॉक्टर को दिखा लो.” उसने फिर भी अपने ग़ुस्से पर काबू रखने की कोशिश की थी. लेकिन मृणाल पर अभी भी इसका उल्टा ही असर हुआ था. “तुम्हारा मतलब है कि मैं पागल हूं.” मृणाल लगभग बदहवास-सी चीख पड़ी थी. “नहीं, तुम पागल नहीं हो. दरअसल, तुम्हारे पास कोई काम नहीं है और तुम्हारे ख़्याल से इस दुनिया के सभी लोग फालतू हैं.” संजीव बोल ही रहा था कि उसका फोन बज उठा था. शायद क्लाइंट का था. “आई एम जस्ट कमिंग.” संजीव तेज़ी से घर से निकल पड़ा था. “तुम्हारा मतलब है कि मैं मूर्ख हूं, जिसे पता नहीं है कि क्या सही है? क्या ग़लत?” मृणाल अब ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगी थी. अचानक उसे लगा कि पूरे शान्त घर में उसकी ही आवाज़ गूंज रही है. मृणाल को लगा जैसे कि उसका सिर घूम रहा है. सूरज अपनी पूरी व्यस्तता से आसमान में चमक रहा था. मृणाल को एकबारगी लगा जैसे ये घर, ये जगह एक बंजर रेगिस्तान है, जहां निर्दयी सूरज की प्रखर किरणें उसकी मानसिक शान्ति को ही भंग करने लपलपा रही हैं.

किसी को मेरी परवाह नहीं है. मुझे ही ख़ुद को प्यार करना होगा. तसल्ली देनी होगी. क्या सच में वैवाहिक बन्धन एक थोपा हुआ बन्धन है. आपसी सामंजस्य न बिठा पाने पर जीवनसाथी एक साथी कम, बल्कि एक दुश्मन ज़्यादा लगता है, मृणाल की आंखों में विवशता के आंसू उमड़ आए थे. न जाने कितने अरमानों को संजोए वह संजीव के घर आयी थी, पर अब तो बाहर लगे बोगेन विलिया के पीले-गुलाबी फूल भी उसे उमंग से नहीं भरते. फूल जैसे उसके दोनों बच्चे तुषार और तराना भी तो पिता की उपेक्षा के शिकार होते जा रहे हैं.

मृणाल संजीव से परेशान थी. आख़िर कितना पैसा कमाना है उसे? पलंग पर नौ महीने की तराना बेसुध सुख की नींद में सो रही थी. दो घंटे बाद तुषार भी स्कूल से लौट आएगा. भारी मन से मृणाल उठ गई थी. इसमें कोई शक नहीं कि संजीव वास्तव में बहुत व्यस्त रहता था. दरअसल उसने अपनी लगी-लगाई नौकरी छोड़कर अपने मित्र के साथ एक एक्सपोर्ट कंपनी शुरू की थी और बस उस दिन से वो जैसे उसकी अदृश्य परछाई ही देख पाती थी. संजीव का नाम मात्र अस्तित्व. कपड़ों को आलमारी में रखते-रखते उसे अपनी शादी के शुरू के दिन याद आ गए, जब वो दोनों चांदनी रात में घंटों ओस से भीगा चांद देखते रहते थे. घने पेड़ों से झांकते, शीतल चांद की गम्भीरता, उसकी शान्त उज्जवलता उन्हें मंत्रमुग्ध कर देती. धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व बदलते चले गए या फिर वो अब ही एक-दूसरे को अच्छे से जान पाए थे.

संजीव की घंटों बिना कुछ बोले अपने ही काम में व्यस्त रहने की आदत मृणाल को अंदर तक ऊबा डालती. संजीव का ज़रूरत से ज़्यादा महत्वाकांक्षी होना, इसके पीछे अपना घर, जीवन, अपने बच्चे भूलकर दिन-रात एक करना मृणाल को भी उससे स्वाभाविक रूप से बात करने से रोक रहा था. तराना की आवाज़ ने उसे ख़्यालों की दुनिया से बाहर फेंक दिया था. वह किचन में खाना बनाने चली आई थी कि फोन की घंटी बज उठी. दूसरी तरफ़ की आवाज़ सुन मृणाल ख़ुशी से उछल पड़ी थी, “नंदिता! तुम कैसे?” वो उसकी कॉलेज की पुरानी मित्र थी और उससे अभी घर मिलने आ रही थी. मृणाल के तो जैसे पंख लग गए थे. वो अपनी प्यारी-सी दोस्त के लिए ख़ास व्यंजन बनाने में लगी थी कि दरवाज़े की घंटी बज उठी. नंदिता आ गई थी. दोनों सखियां एक-दूसरे के गले लग गईं. नंदिता बहुत ख़ुश लग रही थी. अपने जीवन से, अपने भविष्य से. मृणाल को लगा इस तरह की सहज ख़ुशी को तो जैसे वो भूल ही चुकी है.

“शादी न करके मुझे कोई अफ़सोस नहीं है मृणाल. ऐसा नहीं कि मैं कोई महिला मोर्चावाली हूं या मुझे शादी से च़िढ़ है. बस काम की व्यस्तता, दोस्तों-सहयोगियों के साथ घूमने-फिरने और अपने फूलों की देखभाल में ही समय निकल जाता है.” मृणाल विस्मित-सी उसे देखती रह गई थी. कितना फ़र्क़ था दोनों के जीवन में. वो तो जैसे संजीव के ‘मूड’ को ही देख कर जी रही थी. ये चारदीवारी ही उसकी दुनिया थी. इस जीवन से तालमेल बिठाते-बिठाते जैसे वो भूल गई थी कि उसका भी कोई अस्तित्व है.

नंदिता की खट्ठी-मीठी बातों को सुनते-सुनते कब पूरा दिन बीत गया, पता ही नहीं चला. नंदिता के ख़ुशी और नित नये अनुभव का उत्साह उसके चमकते गालों पर झलक रहा था. मृणाल को लगा शायद संजीव की उदासीन, व्यस्त आंखों में उसके चेहरे को पढ़ने-देखने के लिए न कोई उत्साह है और न चाहत. एक शुष्कता में मृणाल की आंखें नम हो आई थीं. नंदिता को वापस जाना था. अगली बार जल्द मिलने का वायदा कर भारी मन से दोनों सखियों ने एक-दूसरे से विदा ली. मृणाल घर में दाख़िल हुई थी कि फ़ोन की घंटी बज उठी. फोन तुषार के स्कूल से था. उसकी टीचर की घबराई हुई आवाज़ आई, “आप तुषार की मम्मी बोल रही हैं?”

“जी हां!” दूसरी तरफ़ की घबराई आवाज़ सुनकर मृणाल भी किसी आशंका से भयभीत हो गई. “आप का बेटा फर्स्ट फ्लोर से नीचे गिर गया है. आप फौरन डॉक्टर भार्गव क्लिनिक पहुंचें.” फोन से निकले शब्द मृणाल की कनपटी पर हथौड़े-से बजने लगे. तराना को पड़ोस में सौंप वो डॉक्टर भार्गव के क्लिनिक की ओर भागी थी. आंखों से आंसू थम ही नहीं रहे थे. ‘क्या हो रहा होगा तुषार का?’ टैक्सी की बढ़ती गति के साथ ही उसके विचारों की गति भी बढ़ती जा रही थी. घबराहट में मृणाल ने कई नंबर मिला लिए थे. कर्नल जोशी, उनके पारिवारिक मित्र भी सपत्नी हॉस्पीटल पहुंच गए. तुषार की तबियत वास्तव में बहुत ख़राब थी. संजीव के फ़ोन लगातार आ रहे थे. वो कह रहा था कि वो जल्द से जल्द आने की कोशिश कर रहा है. मृणाल को एकबारगी विश्‍वास नहीं हो रहा था. उसे मालूम था कि संजीव आज अत्यंत महत्वपूर्ण मीटिंग में है, उसे ‘फॉरेन’ एसाइनमेन्ट भी मिलनेवाला था. मृणाल अपना दिमाग़ झटक कर डॉक्टर की बताई दवाइयां, इंज़ेक्शन जुटाने में लग गई. बीच-बीच में उसे तराना का भी ख़्याल आ जाता था. उसका मोबाइल भी लगातार बज रहा था. सभी उसे तसल्ली दे रहे थे. “कहां है तुषार?” संजीव की आवाज़ सुनकर वो चौंक पड़ी. ‘संजीव यहां कैसे?’ मृणाल सामने खड़े संजीव को देख हतप्रभ रह गई.

दरअसल, आज तो मिस्टर त्रिवेदी ने उसे फॉरेन डेलीगेट्स संभालने का काम दे रखा था. कितने दिनों से संजीव इस प्रोजेक्ट को सफल बनाने के लिए दिन-रात एक किए था. यह एसाइनमेन्ट न स़िर्फ उसके लिए, बल्कि कम्पनी के लिए भी कई मामलों में महत्वपूर्ण था. दवाइयों की महक और प्रस्तर प्रतिमा-सी चलती-फिरती नर्सों के बीच विस्मित मृणाल के सामने संजीव ही खड़ा था. कर्नल जोशी भी विदा ले रहे थे और रात को दुबारा आने का आश्‍वासन दे रहे थे. संजीव ने मृणाल के हाथों से दवाइयां ले ली थी. “आप तो… आप तो बाहर जानेवाले थे.” मृणाल कह रही थी.

“मैं सब कुछ भूल गया हूं, मृणाल! तुषार की तबियत के बारे में सुनते ही मैं सब कुछ भूल गया हूं. अब तुम आराम कर लो.” वो वास्तव में बहुत चिंतित लग रहा था.

‘क्या यह वही संजीव है, जिसे अपने काम, अपने करियर, पैसे और महत्वाकांक्षाओं के बीच बच्चे कब बड़े हुए, यह भी नहीं ध्यान रहा या वही नहीं समझ पाई थी संजीव को.’

ख़्यालों में डूबी, मृणाल तुषार के कमरे में चली आई थी. खिड़की के बाहर चांदनी रात छिटक आई थी. तुषार का हाथ पकड़े धीर-गंभीर संजीव पलंग के कोने पर बैठा था. मृणाल उसके सिरहाने खड़ी थी. तुषार ने आंखें खोल दी थीं. वह उन्हें देखकर मुस्कुरा रहा था. मृणाल ने खिड़की से बाहर देखा था, आज चांद पर ओस नहीं थी. स़फेद निर्मल चांद उसके छोटे से संसार जैसा ही था. मृणाल को लगा, आज उससे ज़्यादा ख़ुश कोई और नहीं है. प्यार की सच्ची डोर से बंधा उसका छोटा-सा परिवार.

– राखी कौशिक

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Usha Gupta

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