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कहानी- परख (Short Story- Parakh)

अंकी की परख क्षमता पर उसे हमेशा संदेह रहा है. उसके लिए गए फैसले को वह अजीबो-ग़रीब और दुनिया से अलग मानकर टोकती थी. आज अंकी की दूरदर्शिता और परख ने, मंज़िल पाने के लिए सब कुछ दांव पर लगानेवाले जज़्बे ने वह सब कुछ दिया, जिसकी वह हक़दार थी. जिसके सपने वंदना ने बेटी के लिए देखे थे.

“वंदना, ओ वंदना, कहां हो भई?” केतन की चहकती आवाज़ को वंदना नज़रअंदाज़ नहीं कर पाई. हाथ में पकड़ा हुआ चाय का पतीला वहीं रखकर भागी आई.

“क्या हुआ?”

“अरे भई, कुछ मीठा बनाओ, तो एक ख़ुशख़बरी सुनाऊं.” वंदना की उत्सुकता से ताकती नज़रों को और इंतज़ार नहीं करवाया केतन ने… हंसकर बोल दिया, “बधाई हो, एनआरआई को अपना दामाद तो नहीं बना पाई, पर हां, बेटी-दामाद ने कनाडा जाने की तैयारी कर ली है.”

“क्या…? मतलब शोभित का सिलेक्शन…” हर्ष से चहकती वंदना की आवाज़ में कंपन था.”

“भई उसके सोशल नेटवर्किंग साइट पर तो कुछ ऐसा ही लिखा है. एक-दो बधाई के कमेंट भी आ गए हैं. क़रीब दस मिनट पहले की पोस्ट है.”

“इसका मतलब है पूरी दुनिया को पता है, स़िर्फ हमें ही नहीं बताया है अंकी ने… कहीं उस दिन की बात से नाराज़ तो नहीं?” वंदना के स्वर में आशंका थी. “केतन ज़रा उससे बात करो फोन पर…” कहते हुए वंदना ने पलटकर केतन को देखा, तो वह फोन कान में लगाए बैठे थे.

“शोभित फोन नहीं उठा रहा है और अंकी का व्यस्त आ रहा है. क्या करें? घर चलें क्या?” “नहीं, अभी कुछ देर इंतज़ार कर लेते हैं.”

“मुझे लगता है कि हम लोगों को अंकी ख़ुद ही बताएगी. इंतज़ार कर लो.” केतन को अभी भी इत्मीनान था. पर वंदना कुछ और ही सोच रही थी… छह महीने पहले अंकी और शोभित घर आए थे, तो खाना खाते वक़्त कैसे अंकी ने यह बोलकर कि शोभित तुम ये जॉब छोड़कर फेलोशिप की तैयारी करो. वंदना की सांस अटका दी थी. अंकी की बात पर वंदना ने नाराज़गी जताते हुए लगभग अंकी को डांट दिया था. “मम्मी, मैंने ही इसे एमएस रिसर्च के लिए टोरेंटो यूनिवर्सिटी जाने का आइडिया दिया है. शोभित को मेरा सुझाव अच्छा लगा है, पर इसके लिए थोड़ा रिस्क तो लेना होगा. अगर ऐसा हुआ, तो उसका और मेरा फ्यूचर सिक्योर हो जाएगा.” वंदना शोभित के सामने बात बढ़ाना नहीं चाहती थी. ख़ुद को भरसक सामान्य दिखाते हुए बोली, “अभी खाना एंजॉय करो, बाद में सोचना.”

“सच मम्मी, मलाई-कोफ्ते बहुत अच्छे बने हैं, बिल्कुल अवॉर्ड-गिविंग हैं.” शोभित की चुहल माहौल में गर्मी नहीं ला पाई. मौक़ा देखते ही वंदना ने अंकी को आड़े हाथों लिया.

“आजकल के बच्चे शादी और करियर जैसी चीज़ों को गंभीरता से नहीं लेते हैं.”

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“ओ मम्मी प्लीज़…! अब इसमें सीरियस होने की क्या बात है. सीरियस होने से क्या काम बन जाएगा? अब शोभित कनाडा जाना चाहता है, तो रिस्क तो उठाना पड़ेगा. ऐसे में मैं हेल्प नहीं करूंगी, तो कौन करेगा? फिर उसके साथ मेरा भी फ़ायदा है. बाद में मैं भी ऐश करूंगी. अभी तो मेरा जॉब है. फाइनेंशियल सिक्योरिटी भी है.”

“बस कर अंकी, दुनिया क्या कहेगी कि अभी-अभी शादी हुई है और नौकरी भी…” “मम्मी, शादी से पहले तो आप बड़ी-बड़ी बातें करती थीं कि अपने पति को सपोर्ट करना, एडजस्ट करना… आपकी जनरेशन की बस यही प्रॉब्लम है कि सलाह पर अमल करो, तो प्रॉब्लम, न करो, तो प्रॉब्लम…” अंकी की बात पर वंदना नाराज़ हो गई थी. फिर कई दिनों तक मां-बेटी में कोई बातचीत नहीं हुई. केतन से अंकी का हालचाल मिलता था.

आख़िर जिसका डर था, वही हुआ. शोभित ने नौकरी छोड़ दी थी. एकाध बार शोभित की मम्मी से बात हुई, तो वो भी संकोच से सफ़ाई दे डालती थीं, “शोभित के पापा की पेंशन से घर आराम से चलता है. फिर जैसे पहले शोभित पढ़ता था, वैसे अभी भी पढ़ रहा है और रही बात अंकी की, तो उसने तो बेटी की कमी पूरी कर दी है.” वंदना सुन तो लेती, पर उसे कोफ़्त होती. रिश्तेदारों के संपर्क में भी कम ही आती. कौन जाने कब कोई पूछ ले… शोभित की नौकरी छूटनेवाली बात. केतन सुनते, तो वंदना की बात सुधारते.

“नौकरी छूटी नहीं है, उसने ख़ुद छोड़ दी है, ताकि जीवन में आगे बढ़ सके.” वंदना की समझ में नहीं आता कि जब विदेश जाने का शौक़ था, तो अच्छा भला एनआरआई लड़का क्यों नकारा अंकी ने, फोन पर ही बात हुई और फिर उससे

मिलने को भी तैयार नहीं हुई. कहने लगी, “लड़के में सुपीरियोरिटी का एहसास है.” अब एनआरआई है, तो यह एहसास तो होगा ही और हमें भी तो गर्व महसूस होगा कि लड़की विदेश में ब्याही है. पर अंकी ने यह कहकर सबको चुप करा दिया कि वो शादी अपने लिए कर रही है, किसी को दिखाने के लिए नहीं… उसके बाद वो इंजीनियर लड़का, उससे मिलकर आई तो बोली, “उसके कोई फ्यूचर प्लान्स नहीं हैं. कुछ कर दिखाने का जोश नहीं है.” जबकि यह लड़का नंदिता बुआ ने देखा था और बताया था कि पुश्तैनी जायदाद काफ़ी है, तो बोली “जब सब कुछ रेडीमेड मिला, तो लाइफ में क्या एडवेंचर होगा. अपनी तरफ़ से उदासीन है, तो मेरी जॉब को क्या महत्व देगा.” न जाने कितने लड़के देखे गए, पर बात न बननी थी, सो न बनी. महीनों घर में शांति बनी रही, फिर आया शोभित का रिश्ता. “मध्यमवर्गीय परिवार का बड़ा साधारण-सा लड़का लगता है. हमारी अंकी इसे क्या पसंद करेगी और सच पूछो, तो मुझे भी इस लड़के में कुछ ख़ास नहीं लगता है. एक ही तो लड़की है अपनी, साधारण परिवार न… न…” पर जोड़ियां ऊपर से ही बन के आती हैं, तभी तो अंकी न केवल शोभित से मिली, बल्कि इस रिश्ते के लिए हां भी कर दी. “अंकी ऐसा क्या है इस लड़के में?”

“मम्मी कुछ तो बात है.”

“पर तुम तो टॉल लड़का चाहती थी न…”

“अरे मम्मी, वो पुरानी बात है. मुझे शोभित की फैमिली अच्छी लगी. उसकी मम्मी समझदार लगीं, बनावटीपन नहीं है उनमें और पापा शोभित से फ्रेंडली हैं. ऐसे में कम्यूनिकेशन गैप नहीं रहेगा. शोभित की एक बात अच्छी लगी कि उसकी कोई स्ट्रॉन्ग पसंद-नापसंद नहीं है. लाइफ के प्रति अप्रोच काफ़ी फ्लेक्सिबल है. ऐसे में एडजस्टमेंट में प्रॉब्लम नहीं होगी.” अंकी की बातें सुनकर वंदना दंग रह गई. आजकल के बच्चों की न जाने कौन-सी फिलॉसफी काम करती है. वंदना ने अंकी को समझाया था. “देख अंकी, परिवार बहुत साधारण है.”

“मम्मी, साधारण परिवार को ख़ास तो उस घर के बच्चे ही बनाते हैं और शोभित के फ्यूचर प्लान बहुत अच्छे हैं.” अंकी की इस बात ने सबको चुप करा दिया. “कॉलबेल की लगातार आती आवाज़ ने वंदना को विचारों के भंवर से खींचा. जब तक वो उठती, केतन ने दरवाज़ा खोल दिया था. अंकी ख़ुशी के मारे वंदना से लिपटी हुई थी. शोभित केतन के पैर छू रहा था. “इतनी बड़ी ख़ुशख़बरी है और हमें पता ही नहीं.” वंदना की बात पर अंकी बोली, “कैसे पता चलेगा, फोन तो आप लोग उठाते नहीं हो. पापा का स्विच ऑफ आ रहा है और आपका फोन बज-बजकर थककर सो गया पर्स की किसी पॉकेट में…” अंकी की बात पर सभी हंस पड़े.

“अरे! सच में दस मिस्ड कॉल्स हैं.” पर्स को टटोलकर फोन निकालती हुई वंदना बोली. ख़ुशी के मारे उसे ही सूझ नहीं रहा था कि घर आए बेटी-दामाद को क्या खिलाए. रसोई की ओर बढ़ती वंदना को अंकी ने रोक लिया. “मम्मी, आप और पापा बस जल्दी से तैयार हो जाओ, आज का डिनर शोभित की तरफ़ से है.” जल्दी-जल्दी तैयार होकर केतन और वंदना उन दोनों के बताए रेस्टोरेंट पर पहुंचे, तो वहां अंकी को जींस और कुर्ती में देखकर वंदना कुछ सकुचा-सी गई. अंकी की सास सुलभा को ध्यान से देखा, तो उसे कोई शिकन नज़र नहीं आई. वंदना को याद आया, अंकी की शादी के एक हफ़्ते बाद वो उससे मिलने गई थी. वहां अंकी को सिर पर लिया दुपट्टा संभालते देख उसे तकलीफ़ हुई, तो वह सहसा बोल पड़ी थी, “अंकी ये पल्लू लेने का रिवाज़ अब पुराना हो गया है. अब इसे बदल डाल और हां अभी से सबकी आदत ऐसी मत डाल कि बाद में तेरे बदलने से कोई क्लेश हो. जैसी है, वैसे ही रहा कर.”

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“ओहो  मम्मी, आप  कुछ  समझती  नहीं  हो. घर  पर ताऊजी हैं. अभी नई-नई तो शादी हुई है मेरी… करना पड़ता है मम्मी…”

वंदना को एकबारगी झटका लगा कि क्या हो गया है इस लड़की को. पहले कैसे बोलती थी, “जो मेरी मर्ज़ी होगी, वो पहनूंगी…” ऐसे में अक्सर वंदना उसे एडजस्टमेंट की घुट्टी पिलाकर बोला करती थी और अब…

अंकी अभी बोल रही थी, “थोड़ा एडजस्टमेंट ज़रूरी है न मम्मा… तो देखो ये एडजस्मेंट है.” अपने पल्लू की ओर इशारा करते हुए बोली. “मम्मी, कहां खो गईं आप? शोभित पूछ रहे हैं क्या लेंगी?”

“सुलभाजी, आप बताइए.” वंदना तुरंत मेन्यू कार्ड सुलभा की ओर बढ़ाते बोली, तो उन्होंने भी ये ज़िम्मेदारी अंकी  के ऊपर डालते हुए कहा, “आज तो हम अपनी बहू की पसंद का डिनर लेंगे.”

“ये दोनों मम्मी कुछ भी नहीं बतानेवाली हैं. हमें ही डिसाइड करना पड़ेगा.” डिनर के बाद स्वीट डिश में आइस्क्रीम विद गुलाब जामुन के साथ कुल्फी आई, तो वंदना का मन तरल हो आया. अंकी जानती थी कि वंदना को कुल्फी बहुत पसंद है. वहीं सुलभाजी अपना दुलार अंकी पर यह कहकर बरसा रही थीं कि बड़े दिनों के बाद आइस्क्रीम के साथ गुलाब जामुन खाने को मिला है. खाना खाने के बाद सुलभा और तरुणजी आग्रह करके केतन व वंदना को कॉफी पिलाने के बहाने घर ले आए. रात को चलने का समय आया, तो अंकी ने इसरार करते हुए कहा, “मम्मी, आज आप यहीं रुक जाओ न…” सुलभाजी ने अंकी की तरफ़दारी करते हुए कहा, “वंदनाजी आप रुक जाइए. कुछ दिनों में ये दोनों तो कनाडा चले जाएंगे, ऐसे में हम लोगों को ही एक-दूसरे का साथ निभाना है. रात को ढेर सारी बातों के बीच में सुलभाजी ने बेहिचक कहा, “अंकी जैसी बहू पाकर हमारी बेटी की कमी पूरी हो गई. बड़ी हिम्मत से इसने शोभित को फेलोशिप के लिए कनाडा जाने का रास्ता निकाला है, वरना इसके नौकरी छोड़ने से हम भी बहुत घबराए थे. लोगों से आंख मिलाना मुश्किल था कि बहू तो नौकरी कर रही है और बेटा नौकरी छोड़े बैठा है, पर इन बच्चों का बैठाया गणित सही निकला.” सुलभा भावुक हो गई, तो अंकी ने प्यार से उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया. यह देख वंदना मुस्कुरा पड़ी. वो भी अंकी और शोभित पर भरोसा कहां कर पाई थी.

अगले दिन सुबह चलते समय शोभित ने वंदना और केतन के पांव छुए. अंकी ने वंदना के गले लगते हुए कहा, “अब तो आप ख़ुश हैं न मम्मा?” प्रश्‍न के जवाब में वंदना की आंखें भर आईं, तो अंकी झट से बोली, “अब आप सेंटी मत हो जाओ.” रास्ते भर वंदना चुप रही. अंकी ने जो कहा वो करके दिखाया था. पिछले दिनों वह कितने तनाव में रही थी. घर पर उसे सोच में डूबा देखकर केतन ने मज़ाक किया, “भई डिनर तो बेटी और दामाद ने करवाया, ब्रेकफास्ट बेटी की ससुरालवालों ने, अब दोपहर का खाना बनाओगी या वो भी…” बात अधूरी छोड़कर केतन हंसने लगे, तो वंदना के होंठों पर भी मुस्कान आ गई. रसोई की ओर बढ़ी, तो जैसे कल शाम को छोड़ गई थी, वैसी ही पड़ी थी. कॉलबेल की आवाज़ पर वह

फुर्ती-से दरवाज़े की ओर बढ़ी. सामने कम्मो को देखकर तत्परता से बोली, “जल्दी अंदर आ, तुझे ही याद कर रही थीं.”

“अरे आप बिना बताए कहां चली गई थीं? कल शाम से तीन चक्कर लगा चुकी हूं.”

“कम्मो, दामाद बाबू और अंकी बिटिया कनाडा जा रहे हैं.” कम्मो का खुला मुंह देखकर उसने बात स्पष्ट की, “अरे विदेश…” कम्मो वंदना के चेहरे की ख़ुशी पढ़कर भांप चुकी थी कि कोई बड़ी ख़ुशख़बरी है. बस मौ़के को गंवाना

उसे समझदारी नहीं लगी, झट से बोल उठी, “अंकी दीदी से तो मोबाइल लूंगी.” उसकी इस मांग पर आशा के विपरीत वंदना हंसकर बोली, “अरे, जाने तो दे पहले उन लोगों को…” कम्मो बोल रही थी, “भाभी बड़े भाग से अंकी बिटिया को इतनी भली ससुराल और लड़का मिला.” शोभित से शादी करके अंकी ख़ुश थी, उसे ख़ुश देखकर वंदना और केतन ख़ुश थे. पर अब ऐसा लग रहा है कि शोभित और उसकी फैमिली से बेहतर अंकी के लिए चुनाव नहीं हो सकता था. आज सबके चेहरों पर छाया उल्लास वंदना के जी को भिगो गया था. जिस अंकी पर वो जल्दबाज़ और लापरवाह होने का आरोप लगाती थी, वो तो कहीं ज़्यादा मज़बूत इच्छाशक्ति और सार्थक निर्णय लेनेवाली साबित हुई. अपनी ही बेटी को वो पहचान नहीं पाई. जिन संस्कारों और नियमों की पोटली वह शब्दों के रूप में उसके आंचल से बांधना चाहती थी, उन्हें तो अंकी ने व्यवहार में सहज रूप से ऐसे ढाला कि वो जान ही नहीं पाई. अंकी की परख क्षमता पर उसे हमेशा संदेह रहा है. उसके लिए गए फैसले को वह अजीबो-ग़रीब और दुनिया से अलग मानकर टोकती थी. आज अंकी की दूरदर्शिता और परख ने, मंज़िल पाने के लिए सब कुछ दांव पर लगानेवाले जज़्बे ने वह सब कुछ दिया, जिसकी वह हक़दार थी. जिसके सपने वंदना ने बेटी के लिए देखे थे. आज अंकी उसे सयानी लगी ही थी कि केतन ने आवाज़ देकर

उसे विचारों के भंवर से बाहर निकाल लिया. केतन पूछ रहे थे, “ये ऊनी कपड़े बाहर क्यों निकाले हैं?” वंदना बोल रही थी…

“अंकी के ऊनी कपड़े धूप में डाल देती हूं, वहां का मौसम तो ठंडा होगा. इस लड़की को तो होश भी नहीं है कि वहां कितनी ठंड पड़ती है. जाने कैसे रहेगी वहां…” केतन वंदना की बात को हंसी में उड़ाकर कुछ कहना चाहते थे, पर ये सोचकर चुप रह गए कि अंकी कितनी भी सयानी हो जाए, पर वंदना उस पर लापरवाह होने का आरोप लगाती रहेगी और शायद यही ख़ूबसूरती है मां-बेटी के रिश्ते की. केतन को अपनी तरफ़ मुस्कुराते हुए देखने पर वंदना ने पूछा, “क्या हुआ?” तो केतन ने कुछ नहीं का इशारा करके अख़बार से अपने चेहरे के भाव छिपा लिए.

   मीनू त्रिपाठी

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Usha Gupta

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