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कहानी- पेइंग गेस्ट (Short Story- Paying Guest)

 


सब लोगों की बातों का मातम मनाना छोड़िए. ख़ुश रहिए. आपको अपने तरी़के से जीने का हक़ है. तथ्य क्या है- ये मैं जानता हूं, आप जानती हैं. लोग जानें, ज़रूरी नहीं है. स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक या असामाजिक संबंध हो ही, यह ज़रूरी नहीं है. बिना किसी संबंध के भी सहृदयता रखी जा सकती है.

उधर दया ने छत वाला कमरा छोड़ा, इधर सुधा ने राहत की सांस ली. अब लड़कियों को पेइंग गेस्ट नहीं बनाएगी. दया जैसी लड़कियों को तो कतई नहीं. गजब की लड़की थी. मॉडलिंग के व्यवसाय से मेल खाता खिलंदड़ा स्वभाव, अंग्रेज़ी मिश्रित हिंदी बोलते युवक मित्र, ताक-झांक करते मोहल्ले के लड़के, लेट नाइट पार्टीज़, हाय-बाय….सुधा दया को सचेत करती, “दया, ये कौन लड़के-लड़कियां तुम्हारे पास आते रहते हैं? देर रात तक हल्ला करते हैं. जानती हो, मोहल्ले वाले क्या कहते हैं?”
“माय फुट. दीदी, कौन क्या कहता है, ये जानने में मुझे कोई रुचि नहीं है.”
“पर मेरी रुचि यह जानने में है कि तुम्हारे पास आनेवाले लोग अच्छे हैं, बुरे हैं, कैसे हैं? मुझे तुम्हारी फ़िक्र होती है.”
“दीदी, मैं अच्छे-बुरे का टेंशन नहीं लेती. मुझे अपना काम साधना होता है. मेरा काम ही ऐसा है कि मैं छुईमुई बनकर नहीं बैठ सकती.”
“पर अकेली लड़की को सोच-समझकर चलना होता है. लोगों की बात सुन कर मुझे अच्छा नहीं लगता.”
“आपको असुविधा है तो मैं श़िफ़्ट कर लेती हूं.”
सुधा ने नहीं चाहा था कि दया चली जाए. इन तीन वर्षों में सुधा दया से स्नेह करने लगी थी और उसके कुशलक्षेम का ध्यान रखना अपना दायित्व समझती थी.
दया के चले जाने से घर शांत हो गया. ऊपर शोर होता था तो किसी के आसपास होने का बोध होता था. शोर से असुविधा थी, पर यही शोर आदत में शुमार भी हो गया था. पति के निधन के बाद सुधा को उसी फैक्ट्री में अनुकंपा नियुक्ति मिल जाने से आर्थिक संकट न था, पर सहारे के बोध के लिए वह चाहती थी कि छत वाला कमरा भरा रहे. दया के चले जाने के बाद अब घर में केवल पैंतीस वर्षीय सुधा और उसकी ग्यारह वर्षीय पुत्री निधि ही बच गए.
छत और दीवारें शायद बहुत दिनों तक अकेली नहीं रहतीं. छत वाला कमरा छह माह की रिक्ति झेल कर आबाद हो गया. सुधा के बॉस ने आत्माराम की चर्चा की, “सुधा जी, आप पेइंग गेस्ट रखती हैं न? मेरा एक मित्र इस ब्रांच में आ रहा है. एक सड़क दुर्घटना में उसकी पत्नी और बेटा चल बसे. वह उस जगह अब नहीं रहना चाहता, इसलिए इस शाखा में भेजा जा रहा है.”
“सर, मैं मेल पेइंग गेस्ट नहीं रखती.”
“आदमी अच्छा है.”
“पर मुझे असुविधा….”
“उसकी ज़िम्मेदारी मैं लेता हूं.”
नया पेइंग गेस्ट आत्माराम, दया के विपरीत था. इतना चुप और एकांतप्रिय कि उसका होना द़र्ज़ तक नहीं होता था. निधि सीढ़ियां चढ़ कर उसे चाय-नाश्ता, खाना आदि दे आती और वह प्रतिक्रिया विहीन भाव से खा लेता. दया का जाना मोहल्ले के लड़कों को खल गया. दया क्या गई रौनक चली गई. दया नहीं तो कोई नहीं. क्रोधवश लड़के अहाते में रखी आत्माराम की मोटर बाइक के पहियों की हवा निकाल देते.
ऑटो वाले की पुकार सुन कर सुधा फैक्ट्री जाने के लिए निकली तो देखा आत्माराम उदास भाव से बाइक के पास खड़ा है. अनायास पूछ बैठी, “आप गए नहीं?”
“आज फिर पहियों में हवा नहीं है. मेरे साथ कोई शरारत कर रहा है. आज फिर लेट हो जाऊंगा.”
“ऑटो में चलेंगे?” सुधा को नहीं मालूम कैसे कह गई.
“जी?”
“आइए, देर हो रही है.”
दोनों को एक साथ ऑटो में देखकर मोहल्ला जागरूक हो गया, “दया के रंग-ढंग सीख गई है. आज उसे ऑटो में ले गई है. कल उसके बाइक पर जाएगी. ऑटो का पैसा बचेगा.”
आत्माराम ने आख़िर हवा निकालने वाले को पकड़ ही लिया.
“रंगदारी दिखाते हो?”
“सॉरी अंकल.” युवक, जिसका नाम विभोर था, ने क्षमा मांगी, पर आत्माराम की मज़बूत पकड़ से अपनी बांह न छुड़ा सका. दृश्य देख खिड़की पर खड़ी विभोर की मां आ धमकी, “लड़के का हाथ तोड़ोगे?”
आत्माराम ने पकड़ ढीली न की, “हाथ क्या, सिर भी फोड़ सकता हूं. मुझे तंग करने का नतीजा बुरा होगा.”
“देखो मिस्टर, यह शरीफ़ों का मोहल्ला है.”
“लड़के असामाजिक हो रहे हैं और कहती हैं शरीफ़ों का मोहल्ला है?”
शोर सुनकर सुधा बाहर निकल आई. उसे देख आत्माराम ने विभोर की बांह छोड़ दी. पूछा, “आपका बुखार कैसा है? बुखार में बाहर नहीं आना चाहिए.”
सुधा बु़ख़ार के कारण दो दिनों से फैक्ट्री नहीं जा रही थी. बोली, “ठीक है.”
निधि ने शिकायत की, “झूठ. अंकल मम्मी को तेज़ बुख़ार है, फिर भी आपके लिए खाना बना रही हैं.”
“मेरे लिए? नहीं. चलिए, आप भीतर चलिए.” आत्माराम ने आग्रह किया.
सुधा विवाद में नहीं पड़ना चाहती थी. लौट चली. पीछे-पीछे निधि का हाथ पकड़े हुए आत्माराम दाख़िल हुआ, “आप आराम करें. मैं बाहर खा लूंगा.”
“निधि के लिए तो बनाना पड़ेगा ही और आप भी…”
“मैं निधि के लिए कुछ लेता आऊंगा. आप आराम करें.”
“नहीं…” सुधा संकोच में थी.
“क्या नहीं…” पता नहीं कौन-सा भेद पा लेने के लिए वहां आ पहुंची विभोर की मां ने सुधा को चौंका दिया. “अरे भाई, बीमारी में मदद लेने में कोई बुराई नहीं है. सुधा, हमें तो तुम अपनी परेशानी बताती नहीं. अकेले जूझती रहती हो.”
सुधा जानती है, जब से उसके पति नहीं रहे तब से मोहल्लेवालों को उसकी गतिविधियों पर नज़र रखने का विशेषाधिकार मिल गया है. अनुमान लगाया जाता है कि वह कहां जाती है? कैसे रहती है? उसके घर कौन आता है? काम वाली बाई से पूछताछ की जाती है. मानो, उसकी ज़िंदगी व्यक्तिगत न रह कर सार्वजनिक हो गई हो. जब से आत्माराम आया है, जासूसी तेज़ कर दी गई है. वही मंशा लेकर विभोर की मां आ डटी है. सुधा कहने लगी, “अकेले जूझने की मैंने आदत डाल ली है. मेरा मानना है कि समस्या मेरी है तो निदान भी मुझे ही ढूंढ़ना चाहिए.”
“हां, निदान तो ढूंढ़ने पड़ते हैं.” विभोर की मां ने आत्माराम पर इस तरह नज़र डाली मानो पूछना चाहती हो कि कहीं सुधा के निदान आप तो नहीं? आत्माराम ने उस नज़र को भांप लिया. महिला के जाने के बाद अनायास कह बैठा, “सुधाजी, आपको नहीं लगता कि लोग आपके घर में अनावश्यक रुचि लेते हैं?”
“दरअसल, अकेली स्त्री को लोग चैन से नहीं जीने देते.” सुधा का
स्वर नम था, पता नहीं बुख़ार से या असहाय से.
“वह इसलिए कि अकेली औरत ख़ुुद को असहाय, निरुपाय हो चुका मान लेती है. वह अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मौलिक अधिकारों के प्रति सजग नहीं रहती. अपनी रुचि, पसंद और इच्छा को व्यक्त करने में डरने लगती है कि लोग क्या कहेंगे. वह अपने में सिमटी हुई, दूसरों का मुंह जोहती हुई, ताने-उलाहने सुनती हुई इस तरह जीती है मानो अपराध किया है. जबकि लोग इतने क्रूर हैं कि उसकी विवशता से आनंद उठाते हैं.”
सुधा को लगा, उसके दहकते घावों पर लेप लगाया जा रहा है. बोली, “दुनिया का चलन ही ऐसा है.”
“ग़लत चलन है. ऐसे लोगों का एक ही उपचार है. इन्हें करारा जवाब दिया जाए. चुप रहना ख़ुुद को निर्दोष साबित करना नहीं है, बल्कि इस बात की पुष्टि करना है कि हम कहीं न कहीं दोषी हैं.”
“आप ठीक कहते हैं.”
आत्माराम के जाने के बाद सुधा उसके विषय में सोचती रही- सीधा-सादा इंसान है. अकेलेपन की निराशा और जड़ता को अनुभव कर चुका है, शायद इसलिए. इसके आ जाने से आश्‍वस्ति-सी जान पड़ती है. दिनचर्या में नियमितता और गतिशीलता आ गई है. दोनों व़क़्त खाना बनने लगा है, वरना कभी परांठे बना लेती थी तो कभी पोहा, कभी ब्रेड-बटर. निधि की उससे अच्छी मित्रता हो गई है. निधि को गणित पढ़ा देता है. बहुत-से बिंदुओं पर उसे सही सलाह देता है.
निधि का स्कूल टूर एक सप्ताह के लिए शिमला जा रहा था. सुधा उसे नहीं जाने दे रही थी. निधि ने आत्माराम को आगे कर दिया, “सुधाजी, बच्ची का उत्साह कम न कीजिए. बहुत-से बच्चे जा रहे हैं.”
“रात ग्यारह बजे की ट्रेन है. वापसी की ट्रेन भोर में चार बजे आएगी. रेलवे स्टेशन पांच किलोमीटर दूर है. मैं इसे इतनी रात को स्टेशन छोड़ने और सुबह लेने नहीं जा सकती.”
“एक यही अड़चन है तो मैं साथ चल सकता हूं.”
“मुझे नहीं लगता कि निधि अपनी ज़िम्मेदारी ले सकती है. मैं डरती हूं.”
“यह निधि का पहला अवसर है. आपका डर स्वाभाविक है, पर बच्चे इसी तरह अपनी ज़िम्मेदारी उठाना सीखते हैं. फिर साथ में तमाम बच्चे होंगे,
टीचर्स होंगे.”
आत्माराम और सुधा, निधि को स्टेशन छोड़ने गए. सुधा निधि को समझाती रही, उसे कितनी बहादुरी और समझदारी से रहना होगा.
निधि ख़ुश थी, “ओके ममा, सत्रह को लौटूंगी.”
तारीख़ सत्रह-
जब आत्माराम और सुधा निधि को लेकर लौट रहे थे तब सूर्योदय हो रहा था. मोहल्ले के लोग टहलने या बच्चों को बस स्टॉप छोड़ने निकले थे. इन तीनों को ऑटो से उतरते देख शर्माजी उत्साहित हुए, “आत्मारामजी, सुबह-सुबह कहां से?”
“शिमला से.” आत्माराम मानो जानना चाहता था कि लोगों की कल्पना कितनी ऊंची उड़ान भरती है.
घर पहुंचते ही निधि सामान फैला कर बैठ गई.
“अंकल, आपके लिए ग़िफ़्ट लाई हूं. ऊनी मोजे. मैंने अपनी क्लास टीचर से चूज़ करवाया है. टीचर पूछने लगी अपने पापा के लिए ले रही हो? मैंने कहा नहीं, अपने अंकल के लिए. मेरे पापा नहीं हैं…. पता नहीं क्यों, सब लोग ऐसा बोलते हैं. निक्की कह रही थी तुम्हारे पापा क्यूट हैं. अंकल आपको स्टेशन पर उसने पापा समझ लिया था. और अंकल वह जो रवि है न, वही… जो सामने रहता है और जिससे मेरी लड़ाई हो गई है, एकदम बुद्धू है. बोलता है उसकी मम्मी कहती हैं कि आप और मम्मी शादी करोगे…”
सुधा का चेहरा स्याह हो गया. निधि समझ गई कुछ ग़लत कह गई है. “छीः रवि की मम्मी बहुत गंदी है. मां ये ऊनी ब्लाउज़ तुम्हारे लिए. कई लड़कियों ने अपनी मां के लिए शॉल ली, पर मेरे पास अधिक पैसे नहीं थे. मां, तुम मेरे साथ कंजूसी करती हो.”
सुधा चुप. आत्माराम चुप. सन्नाटे को भांप निधि बोली, “अंकल, आपको मोजे पसंद नहीं आए?” आत्माराम ने निधि के कपोल थपथपा दिए. “मोजे ख़ूूबसूरत हैं. जानती हो क्यों? क्योंकि तुम बहुत प्यार से लाई हो. जाओ मुंह-हाथ धो लो, फिर हम लोग चाय पीएंगे.”
निधि चली गई. सुधा सन्नाटे में बैठी रही. आत्माराम उलझन में था, फिर भी बोला, “परेशान हैं? मैं फिर कहता हूं लोगों की बातों की परवाह करेंगी तो जीना मुश्किल हो जाएगा.”
“मुझे ग्लानि होती है. आप तो जानते हैं मैं मेल पेइंग गेस्ट नहीं रखती! वह तो सर ने…”
“जानता हूं. जानता हूं. लोगों के भीतर फितूर भरा होता है. और ऐसे लोगों का नैतिकता जैसे शब्द से वास्ता नहीं होता. आप न घबराएं.”
“नहीं घबराती, पर लोगों के पास क्या प्रमाण है?” सुधा का निराशाजनक स्वर.
“प्रमाण की ज़रूरत नहीं है. आप मुझे लेकर असुविधा या अड़चन पाती हैं तो चला जाता हूं.”
“नहीं. आप नहीं जाएंगे. एक भरोसा है. कोई संकट आया तो आप साथ होंगे.”
“सब लोगों की बातों का मातम मनाना छोड़िए. ख़ुश रहिए. आपको अपने तरी़के से जीने का हक़ है. तथ्य क्या है- ये मैं जानता हूं, आप जानती हैं. लोग जानें, यह जरूरी नहीं है. स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक या असामाजिक संबंध हो ही, यह ज़रूरी नहीं है. बिना किसी संबंध के भी सहृदयता रखी जा सकती है. ईमानदारी और नैतिकता के साथ एक-दूसरे की मदद की जा सकती है. और यदि ऐसा होता है तो यह मनुष्य का मनुष्य के साथ सबसे बेहतरीन संबंध है.” चाय पीकर आत्माराम अपने कमरे में चला गया. सुधा यूं ही चिंतन की मुद्रा में बैठी रही. मानो लोगों का सामना करने के लिए ख़ुद को तैयार कर रही हो.

         सुषमा मुनींद्र

 

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Usha Gupta

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