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कहानी- परफेक्ट वुमन (Story- Perfect Woman)

Deepti-Mittal
     दीप्ति मित्तल
Hindi Short Story
तुमने तो अपनी दुनिया बस घर की चारदीवारी में समेट रखी है. कितनी बार कहा कि समय के साथ ख़ुद को बदलो. कुछ बाहर के और बैंक के काम सीख लो, तो मेरा थोड़ा बोझ कम हो, पर नहीं. और जो लड़कियां समय के साथ चल रही हैं, उनमें तुम्हें कमियां नज़र आ रही हैं.
जब से गौरी के ससुर का स्वर्गवास हुआ था, उनका ऊपर का खाली कमरा उसे काटने को दौड़ता. पति अनुज सुबह के गए रात तक लौटते, उसका इस अकेले घर में ज़रा भी मन न लगता. कमरे के साथ अटैच्ड बाथरूम और किचन भी था. बहुत सोच-विचारकर उसने वहां एक किराएदार रखने की सोची. वैसे भी नोएडा के उस कमर्शियल एरिया में ऐसे कमरों के लिए बहुत ऊंचे किराए मिल रहे थे, अतः उसने कॉलोनी के किराना स्टोर पर एडवरटाइज़मेंट लगा दी. उसे ही पढ़कर पाखी आई थी. मुंह में च्यूइंगम, चुस्त आधुनिक लिबास, हाई हील्स की सैंडल और इधर-उधर दौड़ती लापरवाह-सी नज़रें. बिल्कुल बिंदास. किसी मल्टीनेशनल कंपनी में एक्ज़ीक्यूटिव थी. “देखिए, मेरी शिफ्ट्स में ड्यूटी रहती है. वर्किंग ऑवर भी फिक्स नहीं है, सो रात को अक्सर लेट भी हो जाता है. यदि आप लोगों को इस बात पर आपत्ति है, तो पहले से ही बता दें. पिछली जगह जहां रहती थी, उन्हें मेरे देरी से आने पर प्रॉब्लम थी. यू नो दिस मिडल क्लास मेंटेलिटी... लड़की के लेट आने को सीधे कैरेक्टर से जोड़ते हैं...” पाखी आंखें चढ़ाते हुए बोली. गौरी के कान खड़े हुए... वैसे भी पाखी गौरी की उपस्थिति लगभग नकारते हुए सारी बात अनुज से ही कर रही थी और ये बात उन्हें ज़रा भी अच्छी नहीं लग रही थी... जैसे वो बात करने लायक ही न हो... जबकि उसके हिसाब से तो लड़की होने के नाते पाखी को घर संबंधी सभी पूछताछ उनसे ही करनी चाहिए थी. “नहीं, नहीं, हमें कोई प्रॉब्लम नहीं है. वैसे भी ऊपर का अलग ऐंट्रेंस है.” “मुझे अपनी कार के लिए पार्किंग अरेंजमेंट भी चाहिए. मैं उसके लिए एक्स्ट्रा पे करने को तैयार हूं.” पाखी बेपरवाही से बोली. गौरी के भीतर स्वसंवाद चल रहे थे... ओह पैसे का बड़ा रौब है इसे... अकेली रहती है, देर से घर लौटती है. पिद्दी भर की छोकरी और अभी कार में चलती है. ऊपर से तेवर देखो. पता नहीं अनुज क्यों तेज़-तर्रार लड़की से इतने अच्छे से बात कर रहे हैं. चलता क्यों नहीं कर देते. वैसे भी ऐसी लड़की के रहने से मेरी चिंता कम नहीं होगी, बल्कि बढ़ेगी ही... “हमारे पास तो टू व्हीलर है. हमारी पार्किंग में ही गाड़ी पार्क हो जाएगी.” “रूम के साथ किचन भी है.” “वेल... उसकी मुझे ज़रूरत नहीं, मुझे कुकिंग नहीं आती. मैं बाहर ही खाती हूं.” कैसी लड़की है? इतनी बड़ी हो गई है, लेकिन कुछ पकाना नहीं आता. मेरी मां ने तो दसवीं तक आते-आते सब सिखा दिया था. क्या करेगी ये अगले के घर जाकर? ऐसी लड़कियों के ही तलाक़... गौरी के स्वसंवाद जारी थे. गौरी के नाक-भौं सिकोड़ने के बावजूद अनुज ने सब कुछ तय कर लिया, “क्या ख़राबी दिखती है तुम्हें इस लड़की में, पढ़ी-लिखी है, नौकरी करती है.” “लेकिन देर रात तक बाहर रहेगी...?” “अरे, इसमें क्या है. आजकल ज़्यादातर मल्टीनेशनल कंपनियों में नाइट शिफ्ट रहती हैं. 24 घंटे काम चलता है. फिर लड़के हों या लड़की- सबके लिए बराबर रहता है.” “मगर...” गौरी आश्‍वस्त नहीं हुई. “बस, अब ये अगर-मगर छोड़ो. तुम्हारे छोेटे शहर में ये सब नहीं होता, पर यहां यह आम बात है. तुमने तो अपनी दुनिया बस घर की चारदीवारी में समेट रखी है. कितनी बार कहा कि समय के साथ ख़ुद को बदलो. कुछ बाहर के, बैंक के काम सीख लो, तो मेरा थोड़ा बोझ कम हो, पर नहीं. और जो लड़कियां समय के साथ चल रही हैं, उनमें तुम्हें कमियां नज़र आ रही हैं.” कहकर अनुज सो गए, पर गौरी की नींद अभी कोसों दूर थी. अरे क्या ज़रूरत है बाहर के काम की. ये काम तो मर्दों के होते हैं. मैं क्यों सीखूं. घर भी संभालूं और बाहर भी. भला कोई बात हुई. ऊंह... गौरी अनमनी-सी लेट गई. पाखी उनके घर शिफ्ट हो चुकी थी. उसका बिंदास-बेपरवाह रवैया गौरी की आंखों की किरकिरी बना हुआ था. अनजाने में ही, पर उसकी आंखें और कान पाखी के आने-जाने की ख़बर रखने में लग गए कि वो कब आ रही है, कौन छोड़कर जा रहा है, क्या पहना है...आदि. पाखी सब समझने लगी थी. गौरी का यह रवैया उसे बुरा लगता, पर वह उसे अनदेखा कर निकल जाती और गौरी पाखी के इस व्यवहार को अक्खड़पन होने का प्रमाण समझती. एक दिन गौरी रसोई में नाश्ता कर रही थी, तभी अचानक से अनुज के कराहने की तेज़ आवाज़ें आईं. वह भागकर कमरे में गई, तो पाया अनुज बाथरूम में फिसल गए थे. उनकी कमर में असहनीय दर्द था. वे उठ भी नहीं पा रहे थे. गौरी ने किसी तरह सहारे से उन्हें उठाकर बिस्तर पर लेटा दिया. घबराहट में उसके दिमाग़ ने काम करना ही बंद कर दिया था. कुछ नहीं सूझ रहा था कि क्या करे. “गौरी, लगता है कुछ सीरियस बात है, अस्पताल जाना पड़ेगा.” गौरी अस्पताल जाने के लिए ऑटो लाने घर के बाहर आईं, तभी पाखी ऑफिस के लिए निकल रही थी. गौरी के चेहरे पर परेशानी देख उससे रहा नहीं गया और पूछ बैठी, “क्या बात है? कोई प्रॉब्लम.” गौरी ने पाखी को अनुज के बारे में बताया, तो वो भी चिंतित हो उठी. “अरे, अगर उनकी हालत ऐसी है, तो ऑटो में कैसे बैठकर जाएंगे. चलिए, मैं अपनी कार से ले चलती हूं. बैक सीट पर वे लेटकर जा सकते हैं.” उस व़क्त गौरी किसी, किंतु, परंतु की हालत में नहीं थी, अतः उसने पाखी की बात मान ली. दोनों ने सहारा देकर अनुज को धीरे से बैक सीट पर लिटाया और अस्पताल की ओर चल दिए. अनुज को अस्पताल में एडमिट करना पड़ा, स्लिप डिस्क हुआ था. गौरी के हाथ-पांव फूल गए थे. उसे तो ठीक से फॉर्म भरना भी नहीं आता था. हॉस्पिटल की सारी फॉर्मैलिटीज़ पाखी ही निपटा रही थी. घर के किसी बड़े ज़िम्मेदार व्यक्ति की तरह उसने बड़ी ही कुशलता से स्थिति संभाली. जब पेमेंट करने की बात आई, तो गौरी को याद आया कि जल्दबाज़ी में वह घर से अधिक पैसे लेकर नहीं चली थी. उसने घर जाकर पैसे लाने की बात की, तो पाखी बोली, “घर जाने की कोई ज़रूरत नहीं है. आप टेंशन मत लीजिए, अभी मैं अपने डेबिट कार्ड से पेमेंट कर देती हूं और बाहर लगे एटीएम से आपको कुछ एक्स्ट्रा पैसे भी लाकर दे देती हूं, आपके काम आएंगे.” गौरी निरुत्तर खड़ी रही और पाखी सारे अरेंजमेंट्स करती रही. कहां कैंटीन है. कहां फार्मेसी है. फिर सब कुछ गौरी को समझाकर शाम को वापस आने की कहकर वो ऑफिस के लिए निकल गई. गौरी सन्न थी, जिस पाखी के लिए उनके मन में ज़रा भी सम्मान नहीं था, जिसे वो आजकल की बिगड़ैल, लापरवाह लड़की समझती थी, आज वही उसके लिए किसी देवदूत से कम नहीं थी. कितनी कुशल, ज़िम्मेदार, शांत और विनम्र. हज़ारों रुपए का पेमेंट कर डाला, एक मिनट नहीं लगाया सोचने में कि... ऐसे तो कोई सगा रिश्तेदार भी नहीं... एक ओर गौरी जहां ख़ुद को पाखी के सामने बौना महसूस कर रही थी, वहीं दूसरी ओर उसके कानों में अनुज की बातें गूंज रही थीं- ‘गौरी कुछ तो बाहर के कामकाज सीख लो... कब तक मुझ पर निर्भर बनी रहोगी. बैंक की छोड़ो, तुम्हें एटीएम तक ऑपरेट करना नहीं आता. कम से कम घर बैठी इंटरनेट ही सीख लो. आजकल सभी बिल पेमेंट, बुकिंग उसी से हो जाते हैं...’ लेकिन अपनी घर-गृहस्थी, रसोई में रमी गौरी के कानों पर जूं नहीं रेंगती थी... उसने तो अपने घर में मां को घर और पिता को बाहर के कामकाज संभाले ही देखा था. इसी मानसिकता से पली गौरी अपना खाली समय टीवी देखकर या पास-पड़ोस में बैठकर व्यतीत कर लेती थी. आज उसे अनुज की बातों की गंभीरता का एहसास हो रहा था... अगर पाखी ने समय पर साथ न दिया होता, तो कैसे संभालती वो ये सब. जब तक अनुज हास्पिटल में थे, पाखी रोज़ सुबह-शाम हॉस्पिटल आती. आते हुए बाहर से ज़रूरी सामान आदि ले आती. अनुज की प्रोग्रेस पर नज़र रखती. डॉक्टर से बात करती. अब तो डॉक्टर भी उसे ही ज़िम्मेदार समझ सब फीडबैक देते, क्योंकि गौरी को तो कुछ समझ नहीं आता था. हफ़्ते भर बाद दो महीने का बेडरेस्ट बोलकर अनुज को डिस्चार्ज कर दिया गया. उस दिन पाखी ने ऑफिस से छुट्टी ले ली और वापस से सब मेडिकल फॉर्मैलिटीज़ पूरी कर उन्हें अपनी कार से घर ले आई. अनुज और गौरी ख़ुद को पाखी का ऋणी महसूस कर रहे थे, पर पाखी ने यह सब सहजता से बिना किसी गुमान के ही किया था. एक दिन पाखी ऑफिस से आ रही थी, तो रास्ते में उसे गौरी जाती दिखाई दी. “आप कहीं जा रही हैं क्या, चलिए मैं छोड़ देती हूं.” कहकर पाखी ने गौरी को कार में बिठा लिया. “दरअसल, मैं रेलवे स्टेशन जा रही हूं. मेरे मम्मी-पापा इन्हें देखने के लिए आना चाहते हैं, उन्हीं के लिए रिज़र्वेशन कराना है.” “लेकिन आप इतना घबरा क्यूं रही हैं?” बार-बार पल्लू से पसीना पोंछती गौरी की घबराहट उनके चेहरे से बयान हो रही थी. “वो दरअसल मैं पहली बार यूं अकेले रिज़र्वेशन कराने जा रही हूं, इसलिए थोड़ी घबराहट...” गौरी की हालत देख पाखी को हंसी आ गई. “अरे, इसमें इतनी घबराने की क्या बात है. कितनी छोटी-सी बात है ये.” सुनकर गौरी की आंखें छलक आईं. “वो भी यही कहते हैं. पाखी, मैंने कभी भी घर से बाहर की दुनिया नहीं देखी. मुझे लगा कि इनके होते मुझे ये सब सीखने की क्या ज़रूरत. लेकिन पिछले दिनों जो कुछ बीता, उसे देखकर मुझे समझ आ गया कि मैं कितनी ग़लत थी. आजकल के एकल परिवार के दौर में एक हाउसवाइफ की ज़िम्मेदारी स़िर्फ घर बैठकर रसोई संभालने से ही पूरी नहीं हो जाती. उसे बाहर के काम भी आने उतने ही ज़रूरी हैं जितने घर के. अब ये बेडरेस्ट पर हैं, घर की गाड़ी थम गई है. आज मैं ख़ुद को बेहद असहाय, हीन और असफल महसूस कर रही हूं, क्योंकि पढ़ी-लिखी होकर भी मैं तुम्हारी तरह बाहर के कामकाज नहीं कर सकती.” इतना सुनते ही पाखी ने गाड़ी के ब्रेक लगा दिए और यू टर्न लेकर घर की ओर जाने लगी. “अरे, कहां जा रही हो... मुझे रिज़र्वेशन...” “उसी के लिए जा रहे हैं. देखिए, जिस काम के लिए आप रेलवे स्टेशन जा रही हैं, वो काम घर बैठकर इंटरनेट के माध्यम से भी किया जा सकता है और वो भी बिना लाइन में लगे. और येे काम आज आप ही करेंगी.” “क्या! ” गौरी की आंखें चौड़ी हो गई, “मगर मुझको कुछ नहीं आता.” “देखिए, आज से मैं आपको धीरे-धीरे इस तरह के बाहर के सभी काम सिखा दूंग़ी, जिससे आपको कभी भी ख़ुद को हीन या असफल नहीं समझना पड़ेगा, लेकिन इसके लिए मेरी एक शर्त है.” “वो क्या?” “आपको याद होगा कि मैं पिछले महीने कुछ दिनों के लिए घर गई थी. दरअसल, मेरी सगाई हो गई है. शादी अगले साल होगी. अब मुझे यह सोच-सोचकर पसीने आ रहे हैं कि शादी के बाद मैं घर कैसे संभालूंगी. कभी कुछ नहीं सीखा और बिना कुछ सीखे-जाने शादी कर ली, तो मैं भी आपकी ही तरह ख़ुद को हीन या असफल समझने लग जाऊंगी. तो बस यही शर्त है धीरे-धीरे आप मुझे थोड़ा-बहुत घर और किचन के ज़रूरी काम सिखा दीजिए और मैं आपको बाहर के... इस तरह हम दोनों हो जाएंगे परफेक्ट वुमन...” पाखी ने हाथों से माधुरी दीक्षित के स्टाइल में इशारा कर कहा, तो गौरी की हंसी फूट पड़ी. सीखने-सिखाने का जो सिलसिला उस दिन से जारी हुआ, वो आज तक कायम है. अब उस घर में एक गृहिणी और एक वर्किंग वुमन नहीं, बल्कि दो परफेक्ट वुमन रहती हैं.
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