Short Stories

कहानी- पिघलती सिल्लियां (Short Story- Pighalti Silliyaan)

काश सुजीत, तुम कहकर जाते, यूं ही बिना कुछ कहे अचानक चले गए. बेटे के आने का इंतज़ार तो कर लेते… उसे सच तो बता देते… कम-से-कम यह तो कह देते कि मां का ख़्याल रखना, वह स़िर्फ तेरे लिए ही जीती-मरती है. जैसे ज़िंदगीभर पलायन करते रहे, ज़िम्मेदारियों से वैसे ही आख़िरी क्षणों में भी चुपचाप चले गए. वरना जिसे कभी दिल की बीमारी न हो, उसका दिल अचानक काम करना कैसे बंद कर सकता है.

 

उसके और मेरे बीच ब़र्फ की टनों सिल्लियां जम चुकी हैं. मज़े की बात है कि कभी क्षणांश एकाध सिल्ली थोड़ी-सी कहीं, किसी कोने से पिघलती भी है और दो-चार बूंदों की नमी दिखने भी लगती है, तो तुरंत अविश्‍वास और नफ़रत की सर्द हवाएं चलने लगती हैं. मन में जमी सोच की फफूंद नमी को ढंक देती है. फिर से सिल्लियां ठोस और पथरीली हो जाती हैं.

ब़र्फ की ये चौकोर सिल्लियां आकार व अनुपात में समान व नुकीली न होने के बावजूद, किसी टूटे कांच के टुकड़े की मानिंद उसके दिल में जा चुभती हैं. उससे उठनेवाली पीड़ा इतनी पैनी होती है कि उसका पूरा अस्तित्व हिल जाता है. कितना तो रो चुकी है वह, अपने भाग्य को भी कोस चुकी है. ईश्‍वर के सामने कितनी प्रार्थनाएं कर चुकी है. पंडितों की बातों पर विश्‍वास कर जिसने जो उपाय करने को कहा, उसने वे भी किए… आस सब कुछ करवाती है, शायद इस तरह से ही सिल्लियां पिघल जाएं, पर सब व्यर्थ गया.

गुज़रते समय के साथ सिल्लियां इतनी सख़्त होती गईं कि पत्थर की तरह ही लगने लगीं. छुओ तो भी चोट पहुंचाएंगी और यूं ही सामने रहें, तो भी मन को चुभती रहेंगी. पीड़ा शरीर की हो या मन की… दर्द हर हालत में होता है. और उसे तो वर्षों हो गए हैं इस चुभन को सहते हुए. बच्चा अगर मां से मुंह मोड़ ले, तो शायद उससे बड़ी पीड़ा और कोई नहीं होती. मां के लिए उसका बच्चा ही सब कुछ होता है… उसके लिए वह दुनिया से लड़ने को तत्पर रहती है, ताकि दुख की आंच उस तक न पहुंच पाए, पर विडंबना तो यह है कि उसे अपने आंचल में सुरक्षित रखने के बावजूद वह उससे दूर हो गया. उसे लगता है कि उसकी मां ही उसकी सबसे बड़ी दुश्मन है, जो उसकी ख़ुशियों पर ग्रहण लगाना चाहती है.

उसे पता ही नहीं चला कि वह कैसे उससे दूर होता गया. वजह तो वह आज तक नहीं जान पाई है. उसे यही समझ आता है कि नौकरी और घर के काम में व्यस्तता की वजह से वह उसे उतना टाइम नहीं दे पाई, जो सुजीत उसे देते थे. उनका ख़ुद का बिज़नेस था और वैसे भी किसी चीज़ की कभी परवाह ही नहीं की थी, इसलिए उनका मस्त रहना शिवम को बहुत भाता था. घर-बाहर की सारी ज़िम्मेदारियों से चूर वह अक्सर झुंझला जाती थी और सुजीत पर आनेवाली खीझ और ग़ुस्सा शिवम पर निकाल देती थी.

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“पापा को देखो वह कितना कूल रहते हैं और एक आप हैं कि हमेशा चिढ़ती रहती हैं.” शिवम अक्सर उसे कहता और वह फट पड़ती, “पापा, जैसी मस्त लाइफ नहीं है मेरी. दोपहर बाद घर से जाते हैं, न काम की टेंशन है न घर की. थकती मैं हूं, वह नहीं, तो कूल तो रहेंगे ही.”

सुजीत तब उसका पक्ष लेने की बजाय शिवम की हां में हां मिलाते हुए कहते,  “पता नहीं क्यों थकती हो इतना. सारी दुनिया की महिलाएं काम करती हैं. तुम्हें तो बस हमेशा लड़ने का बहाना चाहिए. आदत है यह तुम्हारी.” सुजीत के

साथ-साथ धीरे-धीरे शिवम भी उसी टोन में बोलने लगा और अनजाने ही उनके बीच एक खाई बनती चली गई. सुजीत ने उन दोनों के बीच मीडिएटर की भूमिका निभानी शुरू कर दी और मां-बेटे के बीच मौन पसरता गया. ऐसी कठोर सिल्लियां शिवम के मन में जम गईं कि वह उन्हें पिघला ही न पाई. विदेश में पढ़ाई करने के लिए जाने के बाद से उनके बीच की शब्दों की टूटी-फूटी कड़ियां भी टूट गईं. वह तरसती ही रही अपने बेटे से बात करने के लिए. सुजीत ही थोड़ा-बहुत जब मन होता, तो उसके बारे में बता देते. दूरियां ख़त्म करने की बजाय न जाने क्यों सुजीत उन्हें और लंबी करते गए.

ऐसा कैसे हो सकता है कि एक बेटा अपनी मां से नफ़रत करे..? यही सवाल उसे मथता रहता. शिवानी इस बात को हज़ारों बार दिन में नकारती. “अरे ब़र्फ और मंगानी पड़ेगी, अभी तो पांच घंटे और हैं शिवम के आने में.” जेठानी के स्वर से वह अपने मन के भीतर छिपी अनगिनत वेदनाओं की गठरियों की गांठों को फिर से लगा, उनकी ओर देखने लगी.

“शिवानी, यहां आसपास कोई मार्केट होगी न, जहां से ब़र्फ मिल सके.” जेठानी ने उससे पूछा.

वह आज ही सुबह इंदौर से दिल्ली आई थीं. यहां के न तो उन्हें रास्ते पता थे और न ही बाज़ारों के बारे में कोई जानकारी थी. धीरे-धीरे बाकी रिश्तेदार भी जुट रहे थे, पर चूंकि परिवार में और कोई नहीं था, इसलिए शिवानी को ही सारे काम करने पड़ रहे थे. घर में कौन-सा सामान कहां रखा है, यह उसे ही बताना पड़ रहा था. चादरें कमरे में बिछा दी गई थीं… कभी पूजा की कोई सामग्री चाहिए… कभी रसोई में से कोई पुकार लेता…

हालांकि उसकी मौसी उसे बार-बार हिदायत दे रही थीं कि ऐसे में उठते नहीं है. “तू बैठी रह. रिश्तेदार, तेरे पड़ोसी, जानकार सब आ रहे हैं, तेरा उठना ठीक नहीं है.” पर क्या करे शिवानी…

भाई-बहनों ने अंतिम यात्रा की सारी तैयारियां कर दी थीं, पर उन्हें भी तो बताना ही था कि कहां क्या रखा है?

व्यस्तता कई बार आंसुओं को आंखों में ही कैद कर देती है. कहां है उसके पास शोक मनाने का समय… अभी तो यक़ीन तक नहीं आया है कि सुजीत चले गए हैं. सब कुछ कितना अचानक हुआ. रात को ही तो अस्पताल ले गई थी, डॉक्टर ने कहा, “हार्ट अटैक आया है…”

“पर कैसे? कब? बिल्कुल ठीक थे यह तो. कोई हार्ट प्रॉब्लम भी नहीं थी.”

“शुगर पेशेंट के साथ ऐसा हो जाता है. आपने बताया था न कि शुगर काफ़ी घट-बढ़ रही थी.”

उस पल ऐसा लगा था कि कोई पंछी फुर्र से उड़ गया हो.

काश सुजीत, तुम कहकर जाते, यूं ही बिना कुछ कहे अचानक चले गए. बेटे के आने का इंतज़ार तो कर लेते… उसे सच तो बता देते… कम-से-कम यह तो कह देते कि मां का ख़्याल रखना, वह स़िर्फ तेरे लिए ही जीती-मरती है. जैसे ज़िंदगीभर पलायन करते रहे, ज़िम्मेदारियों से वैसे ही आख़िरी क्षणों में भी चुपचाप चले गए. वरना जिसे कभी दिल की बीमारी न हो, उसका दिल अचानक काम करना कैसे बंद कर सकता है. शुगर ज़रूर उस रात भी बहुत घट-बढ़ रही थी. इंसुलिन भी नहीं लगाया था यह सोचकर कि शायद इस तरह कंट्रोल में आ जाए. कहां रहा कंट्रोल में कुछ… अचानक शुगर पचास हो गई. जल्दी से उसने कुछ मीठे बिस्किट खिला दिए. चेक की, तो इस बार 500 पहुंच गई थी. अस्पताल लेकर भागी, पर ईसीजी करते ही डॉक्टर ने बता दिया था कि हार्ट केवल पच्चीस प्रतिशत ही काम कर रहा है. सबको बुला लीजिए, कोई चांस नहीं है बचने का. हम इन्हें वेंटीलेटर पर डाल देते हैं.

वेंटीलेटर पर डालने की बात सुन उसकी रूह कांप गई थी. सुजीत का निस्तेज चेहरा देख मन भीग गया था उसका. बरसों की नाराज़गी, ग़ुस्सा और उसका उसे हमेशा अपमानित करना सब भूल गई थी वह. प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए जब उसने सुजीत को दलिया खिलाने की कोशिश की, तो उसकी आंखों के कोर भीग गए थे. शायद पश्‍चाताप हो रहा हो.

“बिल्कुल चिंता मत करो. तुम ठीक हो जाओगे. थोड़ी हिम्मत रखो और दवाइयों को रिस्पॉन्ड करो. डॉक्टर कह रहे हैं कि तुम मशीनें देखकर घबरा रहे हो. दवाइयां काम ही नहीं कर रही हैं.” उसने सांत्वना देने की कोशिश की थी. सुजीत एकदम ख़ामोश थे… कुछ नहीं कहा, न कुछ पूछा. शिवानी की तरह उन्होंने भी कहां सोचा होगा कि उनका अंतिम व़क्त आ गया है. जब तक कुछ घटे नहीं, कौन इस बात को मानना चाहता है.

“मौसी, शिवम आ गया.” मेरे भांजे ने कहा, तो सब उसकी ओर लपके. सबसे लिपटकर वह रो रहा था, पर उसके पास नहीं आया. शिवानी कब से केवल भीतर ही भीतर रो रही थी, पर शिवम को देखते ही उसका बांध सारे किनारों को तोड़ता हुआ वेग से बह निकला था. जब से आया था, पापा के सिरहाने ही बैठा हुआ था. उनके माथे पर बार-बार हाथ फेर रहा था, मानो कहीं किसी कोने में आशा हो कि शायद पापा उसके स्पर्श को महसूस कर, उसे एक बार आंख खोलकर देख लेंगे और कहेंगे, “आ गया मेरे बर्रे…” बचपन से ही शिवम को वे दोनों न जाने प्यार से कितने नामों से पुकारते आए थे. बिना अर्थोंवाले नाम… सुजीत कहते, “सारा दिन चिपका रहता है यह मुझसे जैसे बर्रा हो, जो चिपक जाए, तो पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है.”

जब उसका मुंडन हुआ था, तो वह इतना प्यारा लगता था कि उसके सिर पर बार-बार हाथ फेरते हुए वह उसे ‘टकली’ कहती. कोई उसे शिवानी का ‘शिव’ कहता, दोस्त अक्सर उसे ‘शि’ कहकर पुकारते… शॉर्ट फॉर्म के ट्रेंड की वजह से. बचपन से ही वह इतना प्यारा था कि जो भी उसे देखता, उस पर स्नेह लुटाने लगता. पड़ोसी और सोसाइटी के लोग प्यार से ‘शिबु’ कहते थे.

शिवानी का मन कर रहा था कि शिवम को अपने सीने से चिपटाकर इतना रोए कि बरसों से जमे आंसू सारी ब़र्फ की सिल्लियों को पिघला दें, पर आने के बाद भी उसने न तो उसकी ओर देखा था और न ही कोई बात की थी. अपने अंदर न जाने कितने तूफ़ान समेटे रहता है. हमेशा उसे यही लगता रहा है कि पापा बीमार हैं, तो मां ज़िम्मेदार है, पापा मां के साथ बुरा सुलूक करते हैं, तो भी मां ही दोषी है… कहीं वह आज भी पापा की मौत का ज़िम्मेदार उसे तो नहीं ठहरा रहा… कांप गई थी शिवानी.

सुजीत को ब़र्फ की सिल्लियों से उठाकर अर्थी पर रख दिया गया था. स़फेद दुशालों से उसे ढंका जा रहा था. फूलमालाओं को पूरे शरीर पर बिछा दिया गया था. अब ले जाने की तैयारी थी. चार कंधों पर जाता है मनुष्य… कैसी विडंबना है यह भी… दुनिया से प्रस्थान करने के लिए भी हमें कंधे चाहिए होते हैं, सारी ज़िंदगी तो हम कंधे ढूंढ़ते ही रहते हैं. ले जाने की तैयारी पूरी हो चुकी थी, बस उससे कहा जा रहा था कि सुजीत के तीन चक्कर काट ले और कहे कि उसने उसे क्षमा कर दिया. उसकी चूड़ियां उतारकर सुजीत के साथ लपेट दी गईं. बिंदी पोंछ दी गई. उसे लग रहा था सैलाब उमड़ रहा है उसके भीतर चाहे जैसा था, था तो उसका पति… चाहे कितने दुख दिए, पर इस तरह जाना बर्दाश्त नहीं हो रहा था. प्यार के कण तो उनके बीच फिर भी व्याप्त ही रहे, बेशक विषमताओं की वजह से वे दिखे नहीं. फूट-फूटकर रो पड़ी वह. लिपट गई सुजीत से… आख़िरी बार महसूस करना चाहती थी उसे.

रुदन का हाहाकार मानो फैल गया था, तभी शिवम ने उसे उठाया. पलभर को दोनों की नज़रें मिलीं. उसका पूरा शरीर कांप रहा था, आंसू गालों को भिगो रहे थे. शिवानी ने कुछ कहना चाहा कि तभी शिवम ने उसे गले से लगा लिया.

“मत रोओ मम्मी, शायद ऐसा ही होना था. संभालो अपने आपको… मैं हूं न. आप रोओगे तो पापा को दुख होगा. उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी. जाने दो उन्हें चैन से.”

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उसका और शिवम का रुदन कमरे में भर गया था. नीचे शवदाह की गाड़ी खड़ी थी. वह नीचे जाने के लिए सीढ़ियां उतरने लगी.

ब़र्फ की सिल्लियां पिघल रही हैं. “कमरे में पानी फैल रहा है, इन्हें उठाकर बाहर फेंक दो.” बुआ ने कहा. उसे लगा सारी सिल्लियां पिघल गई हैं.

सुमन बाजपेयी

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Usha Gupta

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