Short Stories

कहानी- प्रतीक्षा यात्रा (Short Story- Pratiksha Yatra)

“मैं तब तक पूरी तरह तुमसे जुड़ चुका था, मगर इस फ़र्ज़ की जंग में तुम्हारे सपनों की बलि क्यों चढ़ाता, इसीलिए जाते-जाते कह गया तुमसे कि मेरी प्रतीक्षा मत करना… मगर तुम्हें मुक्त करके तो मैं ख़ुद और भी गहरे बंधन में बंध गया. हर पल तुम्हारी याद सताती. ख़ुद को इतना व्यस्त कर लिया कि तुम्हारा ख़याल ही न आए, पर जो नस-नस में लहू बनकर बह रहा हो, उस प्यार को भूल पाना कहां आसान होता है…” मैंने देखा राजीव की आंखें भर आई थीं.

शाम के धुंधलके में ये सब कुछ अचानक ही हसीन हो उठा है या तुम्हारे आने की ख़बर ने उल्लास भर दिया है, इस मन में ही नहीं, इस दृष्टि में भी. अब हर शै ख़ूबसूरत है. कल तक उदास-सी लगनेवाली ये लंबी सड़क, पेड़ों के झुरमुट और आस-पास बने छोटे-छोटे घर… बालकनी में चेयर पर अधलेटी हो मैं सोच में डूबती जा रही हूं. क्यों इतना अपनापन, इतना अधिकार, इतनी सुरक्षा समेटे है तुम्हारा स़िर्फ नाम ही.

कल शाम तक मेरी दुनिया में तुम्हारी यादों के सिवा हर तरफ़ तन्हाई-ही-तन्हाई थी और आज… जैसे सारे समीकरण बदल गए हैं. ऐसा लग रहा है जैसे वो मिलने जा रहा हो, जिसकी अब तक स़िर्फ कल्पना भर की.

दोपहर को मोबाइल पर तुम्हारा नंबर देखकर दिल में कई ख़ूबसूरत सुगंधित फूल एक साथ खिल उठे. धड़कनों को संभाला ही था कि हड़बड़ाहटभरा तुम्हारा स्वर सुनाई दिया, “अरू, ट्रेन में हूं, तुम्हारे पास कल शाम तक पहुंच जाऊंगा. बातें मिलने पर. ओ.के. बाय.” और फ़ोन कट गया.

राजीव आ रहा है मेरे पास… मुझसे मिलने. यही तो मेरी तपस्या थी. इतने वर्षों का अटूट विश्‍वास कि मिलकर रहेंगे हम दोनों. मेरी चिर-प्रतीक्षित आकांक्षा, जिसने अब तक मुझे न केवल जीवन जीने का संबल दिया, बल्कि मेरी प्रेरणा बना रहा विपरीत परिस्थितियों में भी मुस्कुराने का. हां, वही इंतज़ार अब समाप्ति की ओर है.

दस साल पहले की ‘अरू’ अब ‘मिस अरुन्धती’ सीनियर प्रो़फेसर बन चुकी है. मगर राजीव के लिए तो स़िर्फ ‘अरू’ है अरुन्धती नाम को लघुरूप ‘अरू’ उसी ने तो दिया था और आज फ़ोन पर इतने सालों बाद भी इसी नाम से पुकारा तो अच्छा लगा.

प्रसन्नता भी कितना बड़ा साधन है मन को जीवंत करने का. इस एक फ़ोन के बाद कितनी बातें सोच चुकी हूं. कल शाम को खाने में क्या बनाया जाए? कितने दिनों से हेयर कट नहीं किया… वार्डरोब के पास भी दो बार हो आई. कब से कोई नई साड़ी भी नहीं ख़रीदी. कल क्या पहनूं?

अचानक हर बात का ख़याल आने लगा. इससे पहले इतने दिनों में कभी क्यों नहीं सोचा ये सब?

मां रोज़ ध्यान दिलाती, “बालों को सेट करवा लो बेटी… नई साड़ी कब ख़रीदोगी… इतने अच्छे ओहदे पर हो, थोड़े टिप-टॉप में रहा करो… तभी तो लगेगा आत्मनिर्भर हो.” मगर मुझे तब कुछ लगा ही नहीं. कभी मन ही नहीं किया. बस, मां की ख़ुशी के लिए उन्हीं के हाथों में पैसे रख देती.

“तुम ही ला देना मेरे लिए कुछ अच्छी साड़ियां, मेरी चॉइस कहां अच्छी है.”

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और मां अजीब नज़रों से मुझे देखती रह जाती. मेरा जीवन जैसे रुक-सा गया था राजीव के न होने पर और उसे जैसे ज़बरन घसीटना और ढेलना पड़ रहा था मुझे.

कॉलेज में भी सहेलियों के बीच गपशप और चुहलबाजियां होती रहतीं और मैं सबके बीच रहकर भी सबसे कटी-कटी और सबसे बहुत दूर चली जाती. वहां, जहां राजीव की कल्पनाएं होतीं, उसका एहसास मेरे रोम-रोम में समाया था.

उस रोज़ मिसेज़ शर्मा ने अचानक पूछ लिया था, “सच बताना अरुन्धती, तुम अपनी विधवा मां को अकेली नहीं छोड़ना चाहती, स़िर्फ यही वजह है तुम्हारे विवाह न करने की? तुम्हारा यों गुमसुम, चुपचाप उदास-सा रहना तो कुछ और ही बयां करता है.”

“मैं तुम्हारी बड़ी बहन जैसी हूं, अगर कोई पसंद हो, तो खुल के बताओ. हो सकता है उसके साथ घर बसा के तुम अपनी मां की और भी अच्छी तरह देखभाल कर सको. और तुम्हारे शादी न करने के फैसले से क्या तुम्हारी मां सचमुच ख़ुश होंगी? कल उनके न रहने पर तुम्हारा क्या होगा, कभी ये सोचा है?”

उनके प्रश्‍नों की झड़ी ने मुझे विचलित कर दिया और मैं बस इतना ही कह सकी, “मैं किसी की प्रतीक्षा कर रही हूं दीदी, अगर मेरे प्रारब्ध में उनका साथ लिखा है, तो मैं उनकी हो कर रहूंगी और अगर नहीं तो पूरा जीवन उनकी यादों के नाम है. मैं तो दोनों सूरतों में बस उन्हीं की बन कर जीना चाहती हूं.”

उन्हें हतप्रभ-सा छोड़कर मैं वहां से उठकर चली आई. जाने क्यों उन्हें सब कुछ बताने का मन कर रहा था, मगर ज़ुबान साथ नहीं दे रही थी.

और एक दिन कैंटीन में फिर पकड़ लिया उन्होंने मुझे. उस रोज़ मैं भी अंदर तक भरी-भरी-सी थी. छलक गया अंतर्मन उनके सामने.

“दस साल पहले मैं इसी कॉलेज में बी.ए. प्रथम वर्ष में थी और राजीव मुझसे एक साल सीनियर साइंस के स्टूडेंट. नई-नई होने के कारण मेरे दोस्त बहुत कम थे. उनमें राजीव से पहला परिचय ही दोस्ती का रिश्ता कायम कर गया हमारे बीच. मुझसे स़िर्फ दो साल बड़े राजीव मुझसे काफ़ी ज़्यादा समझदार और परिपक्व थे. शायद ये पारिवारिक परिस्थितियों का असर था. राजीव के पिता नहीं थे और दो छोटी बहनों की ज़िम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर थी.

उनसे हुई दो-चार मुलाक़ातों में ही मुझे लगने लगा कि मेरा ‘कुछ’ छिनता जा रहा है और मैं कुछ कर नहीं पा रही हूं.

राजीव के व्यक्तित्व की गहराई में डूबने से मैं ख़ुद को बचा नहीं पा रही थी.

मेरी आंखों के मूक संदेश उन आंखों तक पहुंचने लगे, मगर प्रतिउत्तर में उन आंखों में कोई भाव न पाकर मैं थोड़ा डर जाती.

उन दिनों मन-ही-मन ईश्‍वर से प्रार्थना करते. मन्नतें रखने लगी कि राजीव मुझे स्वीकार कर लें.

उन्हें न पाकर मन जैसे बगावत कर बैठता. कहीं भी मन न लगता और मैं उन्हें ढूंढ़ ही लिया करती. कभी कैंटीन में तो कभी लाइब्रेरी में…

धीरे-धीरे वो भी खुलने लगे मुझसे. घंटों बातें होतीं- पढ़ाई, करियर, समाज-दुनिया पर बातें करते-करते हम ख़ुद पर सिमट आए. राजीव भी मेरे बगैर बेचैन हो जाते, मगर मुंह से कभी ऐसी कोई बात न कहते, जिसका सूत्र पकड़कर मैं अपने सपनों को साकार करने की कोशिश करती. डेढ़ साल का वो अमूल्य समय, जिसके हर एक दिन में राजीव की अनगिनत यादें हैं, मेरे जीवन का स्वर्णिम समय था और उस दिन उस एक ख़त के बाद शुरू हुई मेरी ये प्रतीक्षा यात्रा, जिस पर मैं आज तक चल रही हूं.”

मिसेज़ शर्मा मेरी बातें सुनते ही थोड़ी बेचैन-सी हो गईं, “मुझे पूरी बात बताओ अरुन्धती, फिर क्या हुआ?”

“कॉलेज का अंतिम दिन था. सभी अश्रुपूर्ण विदाई के माहौल में डूबे थे. मेरा तो बुरा हाल था. अब तक राजीव से मैंने खुलकर नहीं कहा था कि मैं उन्हें अपना जीवनसाथी मान चुकी हूं. आज चुप रहने का मतलब था हमेशा के लिए उनसे दूर हो जाना और ये ख़याल ही मेरे लिए प्राणघातक था.

मन-ही-मन उनसे काफ़ी कुछ कह लेने के बाद हिम्मत जुटाकर मैं जा पहुंची उनके पास. मगर ये क्या… उनके सामने पहुंची तो ज़ुबान को जैसे ताला लग गया. उनकी बड़ी-बड़ी गहरी आंखों में लबालब आंसू भरे थे. मुझसे कुछ कहने के लिए जैसे ही उन्होंने होंठ खोले, पीछे से किसी ने आवाज़ दी, “राजीव जल्दी करो, फ़्लाइट का व़क़्त हो गया.” मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते प्रश्‍नों को छोड़कर मेरे हाथ में एक ख़त थमा राजीव तेज़ी से चले गए.

और बस उसी ख़त के सहारे आज तक जी रही हूं” कहते हुए डायरी में से एक ख़त मैंने मिसेज़ शर्मा की ओर बढ़ा दिया.

मिसेज़ शर्मा बगैर मेरी ओर देखे आतुरता से पत्र पढ़ने लगीं.

प्रिय अरू,

काफ़ी दिनों से तुमसे कहना चाह रहा था, अगर आज भी नहीं कह सका तो शायद कभी मौक़ा न मिले. मैं तुमसे प्रेम करता हूं अरू. तुम्हारे बगैर कैसे जी पाऊंगा नहीं जानता, मगर कोशिश करूंगा, क्योंकि अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए मुझे जीना होगा. मैं कनाडा जा रहा हूं. वहां से लौटने की गुंजाइश कम ही है, मगर कोशिश करूंगा मरने से पहले एक बार ज़रूर तुम्हारे पास लौट कर आ सकूं. पर शायद तब तक तो बहुत देर हो चुकी होगी. तुम्हें ब्याहकर अपने साथ नहीं ले जा सकता, क्योंकि मेरी अपनी कुछ मजबूरियां हैं, पर अपनी धड़कनों में, अपने रोम-रोम में तुम्हें लिए जा रहा हूं. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना और हां अरू, मेरी प्रतीक्षा मत करना. ईश्‍वर करे, तुम्हें मुझ से भी अधिक प्रेम करनेवाला जीवनसाथी मिले.

सदैव तुम्हारा,

राजीव

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ख़त को पढ़कर मिसेज़ शर्मा भरी आंखों को पोंछते हुए मेरी ओर देखने लगी.

“मैं ख़त पढ़कर बेतहाशा एयरपोर्ट भागी. वहां राजीव को देखा, तो लगा कटे बेल की तरह लिपट जाऊं राजीव से, मगर आसपास का ख़याल कर रुक गई.

प्लेन आ चुकी थी मेरी ओर सजल नेत्रों से देखते हुए राजीव प्लेन में चढ़ गए. पीछे से मैं हाथ हिलाते हुए ज़ोर से चिल्ला पड़ी, “मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी राजीव, सदैव तुम्हारी ही रहूंगी.”

मैंने भरे गले से कहा और ख़ामोश हो गई. तभी मिसेज़ शर्मा ने मुझसे पूछा, “इतने सालों तक विदेश में रहकर क्या वो शख़्स अब भी तुम्हारा होगा?”

“हां, मुझे विश्‍वास है कि एक दिन वो अवश्य लौटेंगे. ये मेरी आस तब तक बंधी रहेगी, जब तक मैं ज़िंदा हूं.”

“मगर अरुधन्ती, ये तो कोरी भावुकता है, तुमने उस व्यक्ति के लिए अपना जीवन रोक रखा है, जिससे तुम्हारा कोई सामाजिक रिश्ता नहीं है…”  मैंने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा, “मैं उन्हें अपना जीवनसाथी मान चुकी हूं और क्या ये रिश्ता काफ़ी नहीं है उनकी प्रतीक्षा करने के लिए?”

मिसेज़ शर्मा को निरुत्तर छोड़कर मैं घर लौट आई और सप्ताहभर बाद ही यह फ़ोन मेरे जीवन की दिशा बदल गया.

रातभर मैं कल्पना में राजीव से बातें करती रही और अगले दिन शाम को राजीव मेरे सामने था. हम दोनों ही ख़ामोश थे. व़क़्त के अंतराल ने दोनों को बाहरी तौर पर बदला था, मगर भीतर वही ज़ज़्बात वही झंझावात उमड़-घुमड़ रहे थे.

उतरा-उतरा पीला निस्तेज़ चेहरा लिए राजीव बस मुझे देखे जा रहा था. मैंने ही मौन तोड़ा, “क्या किया इतने वर्षों तक राजीव?”

“कर्त्तव्यों का निर्वाह…” संक्षिप्त उत्तर. मैं कैसे संतुष्ट होती, “खुलकर बताओ न राजीव…”

मेरी उत्सुकता देखकर हल्की मुस्कुराहट आ गई उनके चेहरे पर. विस्तार से मुझे बताने लगे राजीव, “यहां पढ़ाई पूरी करते ही कनाडा से बुलावा आ गया, बड़ी कंपनी से जॉब ऑफ़र था. परिवार में मेरे अलावा कोई था नहीं, दो बहनों की पढ़ाई-लिखाई, शादी की ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर थी. उसे पूरा करने के लिए बहुत पैसा चाहिए था. मां की यही आस थी कि हम तीनों का घर बसा हुआ देखकर ही जाएं इस संसार से.

मैं तब तक पूरी तरह तुमसे जुड़ चुका था, मगर इस फ़र्ज़ की जंग में तुम्हारे सपनों की बलि क्यों चढ़ाता, इसीलिए जाते-जाते कह गया तुमसे कि मेरी प्रतीक्षा मत करना… मगर तुम्हें मुक्त करके तो मैं ख़ुद और भी गहरे बंधन में बंध गया. हर पल तुम्हारी याद सताती. ख़ुद को इतना व्यस्त कर लिया कि तुम्हारा ख़याल ही न आए, पर जो नस-नस में लहू बनकर बह रहा हो, उस प्यार को भूल पाना कहां आसान होता है…”

मैंने देखा राजीव की आंखें भर आई थीं. हौले से मैंने पूछा, “तो इस याद से छूटने का प्रयास क्यों नहीं किया राजीव? क्या दूसरी लड़की नहीं मिली इतने सालों में?”

जवाब में हंस दिया राजीव.

“हृदयविहीन व्यक्ति भी कहीं रिश्ते बनाता है अरू. मन तो तुम्हारे पास ही छूटा हुआ था. उस छूटे हुए मन को ही हासिल करने चला आया तुम्हारे पास, जब तुम्हारे ही कॉलेज की किसी मिसेज़ शर्मा ने मुझे फ़ोन पर बताया कि तुम आज भी मेरी प्रतीक्षा कर रही हो, तो मैं बेतहाशा भाग आया तुम्हारे पास अपनी ज़िंदगी दोबारा हासिल करने.”

अचानक ख़ुशी के आवेश में राजीव ने मेरा हाथ पकड़ लिया और मैं एकटक उसे निहारती रह गई. वो चेहरा, जिसे दोबारा देखने की आस में मैंने दस साल काटे थे, वो चेहरा सदा के लिए मेरे सामने था.

एक बार फिर गंभीर होते हुए राजीव ने कहा, “मगर तुमने इतनी कठोर प्रतीक्षा कैसे की अरू? जिस इंतज़ार में कोई वादा तक नहीं था, वो इंतज़ार तुमने किया कैसे? ख़ुद को कैसे बचाकर रखा समाज से, लोगों से? क्या तुम्हारी मां ने तुम पर शादी के लिए कभी दबाव नहीं डाला?”

मैं हौले से मुस्कुरा पड़ी. “मन की शक्ति बहुत बड़ी ताक़त होती है राजीव, मन-ही-मन तुम्हारे साथ सात फेरों में बंधने से लेकर हर रस्म निभा चुकी थी और फिर तुम्हारे ही शब्दों में मन के बिना कहीं और क्या रिश्ता जोड़ती…?”

राजीव प्रसन्नता से अभिमानभरी नज़रों से मेरी ओर एकटक निहारने लगे, तो मेरी पलकें स्वत: झुक गईं.

राजीव का हाथ थामे मैं तेज़ी से घर की ओर चल पड़ी, पर आज ये लंबी सड़क उदास और सूनी-सी नहीं, बल्कि बेहद ख़ुश और खिली-खिली-सी लग रही है, बिल्कुल मेरी ही तरह.

– वर्षा सोनी

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