कहानी- पुण्य (Short Story- Punya)

सुप्रिया के ज्ञान पर वह गंभीरता से बोली, “होते होंगे पर मेरे हिसाब से दान करने के लिए परिस्थितियां और पात्र विशेष होते है… अभी कुछ देर पहले मुझे महसूस हुआ कि इस रिक्शेवाले को स्वेटर की सख़्त ज़रूरत है सो दे दिया… मकर संक्रांति का विचार करती, तो पात्र और परिस्थिति दोनों ही निकल जातीं…”

टोल प्लाज़ा पर पैसे देने के लिए सुप्रिया ने गाड़ी की खिड़की का शीशा नीचे किया, तो ठंडी हवा का झोंका अन्दर आया और सिहरा गया. रसीद लेकर फ़टाफ़ट गाड़ी का शीशा चढ़ाते सुप्रिया ने गाड़ी बढ़ाई. ठंड से उसकी कंपकंपी छूट रही थी. कांपती-सिहरती सुप्रिया बगल में बैठी अपनी सहेली वैदेही से बोली, “आज तो ग़ज़ब की ठंड है यार! स्टेयरिंग पकड़ने में हाथ जमे जा रहे है.”
सुप्रिया की बात सुनकर दोनों हथेलियों को आपस में रगड़कर गर्मी पाने का प्रयास करती वैदेही बोली, “हम लोग तो फिर भी गाड़ी के अन्दर हैं. घर पर भी सब सुख-सुविधाओं से लैस. उन लोगों की सोचो जिनके सिर पर छत भी मयस्सर नहीं, क्या हाल होता होगा उनका…”
वैदेही की बात पर सहमति जताते सुप्रिया चिंतित स्वर में बोली, “सच में यार! उनके लिए तो जाड़ा सज़ा है… अभी तो सुन रहे है तापमान और नीचे जाएगा… पहले इतनी ठंड नहीं होती थी. हैं न…”
सुप्रिया ने आंखें सड़क पर गड़ाए हुए कहा, तो वैदेही उसकी हां में हां मिलाते हुए बोली, “हमारे ही कर्मों की सज़ा है ये… ग्लोबल वार्मिंग के कारण वेदर पैटर्न यानी मौसम का मिज़ाज बदल रहा है…”
बातों ही बातों में पर्यावरण, प्रदूषण, रहन-सहन समेत कई मुद्दो पर बातचीत का सिलसिला चल पड़ा…
कड़कड़ाती सर्दी के ग्लोबल कारण और निवारण पर भी होती बातचीत में ब्रेक लगा, जब उनकी गाड़ी क्रासिंग पर आकर रुक गई…
इधर-उधर नज़र डालकर सुप्रिया सहसा बोल पड़ी, “यहां विजय चौक के पास जो लुधियाना सेल लगती है तुम कभी गई हो वहां?”
वैदेही के ‘न’ में सिर हिलाने पर सुप्रिया उत्साह से बोली, “अगले हफ़्ते चलना मेरे साथ… बड़े सस्ते ऊनी कपड़े और कंबल मिल जाते है. मुझे कुछ कंबल लेने है…”

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सुप्रिया की बात सुनकर वैदेही बोली, “यार मेरी तो फिक्स दुकान है… जहां से अभी पापा का स्वेटर ख़रीदा है न उसके पास काफ़ी अच्छा वूलन स्टॉक होता है… हां थोड़ा महंगा स्टफ़ है, पर क्वालिटी बहुत अच्छी है.”
“यार अपने लिए नहीं चाहिए. मुझे सस्ते कामचलाऊ कंबल लेने हैं.”
“अरे सस्ते कामचलाऊ क्यों..?” वैदेही ने प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देखा.
“बांटने के लिए…”
“मतलब?” वैदेही अब भी नहीं समझी, तो सुप्रिया बोली, “मकर संक्रांति आनेवाली है. उस दिन हम लोग ज़रूरतमंदों को कंबल या ऊनी वस्त्र दान करते हैं… ऊनी वस्त्र या कंबल देना बहुत अच्छा होता है. कहते है उस दिन का दान सौ गुना फल देता है…”
वैदेही को सुप्रिया बताने लगी, “हम लोग तो सालभर के दान का कोटा उसी दिन पूरा कर लेते हैं… मंदिरों में तो देते ही हैं, घर के सारे घरेलू सहायक भी उस दिन हमसे आस लगाते हैं.” बोलते-बोलते सहसा सुप्रिया ने वैदेही को देखा और फिर पूछा, “तुम नहीं करती दान…”
तो वैदेही ने ‘न’ में सिर हिला दिया. इस पर वह आश्चर्य से बोली, “अरे मकर संक्रांति के दान की बड़ी महिमा है… अबकी बार ज़रूर करना.”
सुप्रिया अगला चौराहा आने तक वैदेही को मकर संक्रांति के दान की महिमा बताती रही. चौराहे पर गाड़ी रुकी, तो वैदेही का ध्यान एक रिक्शेवाले पर चला गया… खून जमा देने वाली सर्दी में चलती शीतलहर में वह रिक्शेवाला अपने रिक्शे में स्कूल के बच्चों को बिठाए कभी अपनी हथेलियों को रगड़ता, तो कभी अपनी फटी शाल से ख़ुद को ढकने का असफल प्रयास करता…
वैदेही ने ध्यान दिया शीत लहर में उसकी कंपकपी छूट रही थी. वैदेही ने देखा वह हर थोड़ी देर में मुंह से भाप छोड़कर उसकी गर्मी लेने का प्रयास करता…
हरी बत्ती होने पर गाड़ी को गेयर में डालते हुए सुप्रिया ने वैदेही को टोका, “क्या हुआ… कहां खो गई… तू सुन भी रही थी मेरी बात?”
“हां-हां सब सुन रही थी. अब एक काम करो, ज़रा आगे किनारे दो मिनट के लिए गाड़ी लगा दो प्लीज़…”
“क्या हुआ…” विस्मय से पूछते हुए सुप्रिया ने एक किनारे गाड़ी लगाई.
“मैं अभी आई…” कहते हुए वैदेही झटपट गाड़ी से उतरी और गाड़ी का पिछ्ला दरवाज़ा खोलकर एक पैकेट उठाया और सड़क के किनारे खड़ी हो गई… फटी शाल में लिपटा रिक्शेवाला आता दिखाई दिया, तो वह उसकी ओर लपकी और हाथ देकर रिक्शा रोका.
रिक्शेवाले ने अचकचाते हुए अपना रिक्शा किनारे लगाते हुए प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देखा. प्रत्युत्तर में वैदेही ने मुस्कुराते हुए हाथ में पकड़े पैकेट से स्वेटर निकाला और रिक्शेवाले के हाथों में थमा दिया और भौचक्के खड़े रिक्शेवाले से कहने लगी, “भैया, तुम्हारे लिए ही ख़रीदा था… पहनकर बताओ गर्म है क्या…”
“कैसी बात करती हैं दीदी, हमारे लिए क्यों ख़रीदेंगी… आप हमें जानती हैं क्या.” आश्चर्य भरे भाव से नरम-गरम स्वेटर को हसरत से सहलाते हुए रिक्शेवाले ने कहा तो वैदेही हंसकर बोली, “आपको तो नहीं जानती भैया, पर इस ठंड को जानती हूं… बड़ी जानलेवा है. शाल ओढ़कर रिक्शा चलाओगे तो बीमार हो जाओगे. बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे. बच्चे स्कूल नहीं जाएंगे, तो देश आगे कैसे बढ़ेगा… देश आगे बढ़ाने के लिए मैं कोई कदम नहीं उठाऊं, तो यह तो ग़लत बात होगी न…” वैदेही के कहने के अंदाज़ पर रिक्शे पर बैठे कुछ बच्चे मुंह पर हाथ रखकर हंसने लगे. ख़ुद रिक्शेवाला भी मुस्कुराए बिना न रह सका.
“भैया पहनो न स्वेटर…” का हल्ला बच्चे भी करने लगे, तो कुछ हिचकिचाकर उसने स्वेटर पहन लिया. स्वेटर पहनते ही बदन में जो ऊष्मा महसूस हुई उसके सुख में उसने पलभर के लिए आंखें मूंद ली.
पीछे बैठे बच्चों ने ज़ोर से तालियां बजाई. स्वेटर की गर्मी पाकर राहत अनुभव करता रिक्शेवाला कुछ भावुक हो गया.. उसके होंठो पर वैदेही के लिए बेहिसाब दुआएं थी, पर वह इतना भावुक था कि सहसा कुछ बोल न पाया.
सुकून और होंठो पर मुस्कुराहट लिए वैदेही वापस आई और गाड़ी में बैठ गई. वैदेही की अकस्मात की गई इस हरकत पर सुप्रिया विस्मय से बोली, “तू कुछ भी खुराफात करती है… चार दुकानों में दर्जनों स्वेटर देखने के बाद अपने पापा के लिए जो स्वेटर पसंद किया, वो झटके में उठाकर रिक्शेवाले को दे दिया… क्या सोचकर दिया तूने?”
“तुम अभी-अभी दान की महिमा बता रही थी, तो बस जोश आ गया सोचा नेक काम में देरी क्यों?”
“अरे तो दान में कोई इतनी अच्छी चीज़ देता है क्या? पागल है, जो इतना बढ़िया स्वेटर दान कर दिया…”
“तो दान की ये भी शर्त है क्या… कि देनेवाली चीज़ घटिया और सस्ती ही हो…”
वैदेही के उत्तर को कटाक्ष मानकर सुप्रिया चिढ़कर बोली, “नहीं, ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं, पर हां दान देने के कुछ विशेष दिन और मुहूर्त होते है…”

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सुप्रिया के ज्ञान पर वह गंभीरता से बोली, “होते होंगे पर मेरे हिसाब से दान करने के लिए परिस्थितियां और पात्र विशेष होते है… अभी कुछ देर पहले मुझे महसूस हुआ कि इस रिक्शेवाले को स्वेटर की सख़्त ज़रूरत है सो दे दिया… मकर संक्रांति का विचार करती, तो पात्र और परिस्थिति दोनों ही निकल जातीं… और ये बेचारा दिन व मुहूर्त की भेंट चढ़ जाता.”
“और जो स्वेटर तुम्हारे पास न होता तो…”
“तो शायद किसी और के पास होता… पर आज मेरी क़िस्मत में इसे ख़ुशी देना बदा था, सो इसे मेरे ज़रिए ख़ुशी मिल गई…” वैदेही के कहने पर सुप्रिया गर्दन झटकते हुए बोली, “तू तो दर्शन की बात करने लगी है…”
“दर्शन की नहीं स्वेटर मिलने के बाद जो उसके भावों का दर्शन किया उसके आधार पर कह रही हूं कि मेरे दान का सही मुहूर्त यही था.
स्वेटर पहनने के बाद तूने उसके चेहरे का सुकून नहीं देखा, ऐसा लगा जैसे उसके जीवन में बस एक ही कमी थी और वह थी इस स्वेटर की… मानो वह इस स्वेटर का वह कब से इंतज़ार कर रहा था…”
“और उसकी इस कमी को पूरा करने का ठेका तूने ही उठाया है. अरे, ऐसे एक नहीं जाने कितने लोग हैं. क्या सबको नया और अच्छा बांटती फिरेगी…”
“मानती हूं ऐसे बहुत से लोग हैं… पर चलो, इस एक की कमी पूरी करने का निमित्त मैं बनी इतना क्या कम है.”
“फिर भी… मकर संक्रांति को देती तो उसका फल…” सुप्रिया की बात को काटते हुए वैदेही गंभीरता से बोली, “शीत लहर चल रही है. मकर संक्रांति के इंतज़ार में जाने कितने ग़रीब गर्म कपड़ों के इंतज़ार में ही दम तोड़ देंगे. मानती हूं धर्म-कर्म के मामले में तुझे ज़्यादा ज्ञान है, पर आज मेरा ज्ञान भी सुन… और वो ज्ञान ये है कि आज की ज़रूरत आज ही पूरा करने पर ज़्यादा फल मिलता है.” वैदेही हठात बोली.
यह सुनकर सुप्रिया मुस्कुरा दी, सच तो उसने भी देखा कि स्वेटर की गर्मी ने रिक्शेवाले के चेहरे को खिला दिया था. आकस्मिक मिली ख़ुशी के कारण वह जल्दी-जल्दी पैडल बढ़ा रहा था. उसके पैरों में अब कंपन नहीं था.
सुप्रिया को महसूस हुआ कि अभी-अभी वैदेही और उस रिक्शेवाले के बीच जिस ख़ुशी का आदान-प्रदान हुआ वह अद्भुत और विशेष थी. दान आज किया गया है, पर इसका पुण्य उस विशेष दिन के हिसाब से कई गुना अधिक होकर फलीभूत होगा.
सच्चे मन से किए दान से एक ज़रूरतमंद के होंठों पर आई अकस्मात मुस्कान ने ईश्वर का दिल ज़रूर जीता होगा और जो ईश्वर का दिल जीतने में समर्थ है, उस सामर्थ्यवान के जीवन में भला कोई कमी कैसे हो सकती है.

मीनू त्रिपाठी

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Usha Gupta

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