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कहानी- रक्षाबंधन (Story- Rakshabandha)

”भाई-बहन के बीच जो स्नेह-सूत्र से बंधा नाज़ुक बंधन है, उसमें निहित प्रेम तो असीम होना चाहिए. तो फिर क्यों इसे डिब्बा बंद उपहार या लिफ़ाफ़ों की परिधि में हम कैद करें? क्यों इस स्नेह के बंधन को व्यावहारिक सीमाओं में बांधकर सीमित कर दें? परम्पराएं केवल औपचारिकता निभाने के लिए तो नहीं होतीं न दी? फिर लकीर के फकीर बने इसे केवल निभाने की बजाए क्यों न हम इन परम्पराओं को वास्तविक अर्थ में जीएं?”

”इंद्रा… ओ इंद्रा… आज ऑफ़िस से लौटते समय बाज़ार से याद से राखी ले आना. आज बीस तारीख़ तो हो ही गई, तीस को रक्षाबंधन है… कब लाओगी और कब पोस्ट करोगी राखी…” रक्षाबंधन के दिन देव की कलाई सूनी रहेगी, तो क्या मतलब त्योहार का… पहली बार देव अकेला रहेगा त्योहार पर… मेरा तो मन ही नहीं मान रहा है… फ़ोन पर देव को आने के लिए कहा, तो कहने लगा नई-नई नौकरी में इस तरह छोटी-छोटी बातों पर छुट्टी नहीं मिलती. अब बताओ… इतना बड़ा त्योहार है…”
“ओफ़ मां! तुम भी… अब अपना देव बच्चा नहीं रहा, बड़ा हो गया है. ठीक ही तो कह रहा है. नई नौकरी है, मन लगाकर काम करेगा, तो जल्दी तऱक़्क़ी पाएगा न?” इंद्राणी ने जानकी को चुप कराते हुए कहा, “अच्छा लाओ, सामान की लिस्ट कहां है. शाम को ऑफ़िस से लौटते हुए सब
लेती आऊंगी.” इंद्राणी ने अपनी साड़ी व्यवस्थित कर पर्स उठाते हुए कहा.
जानकी ने सामान की लिस्ट थमा दी और इंद्राणी घड़ी देखते-देखते फुर्ती से बाहर निकल गई.
“लगता है आज फिर देर हो गई इंद्रा को…” जानकी ने इंद्राणी को घड़ी देखकर माथे की त्योरियां चढ़ाते देख अंदाज़ लगाया.
समय भला कहां रुकता है किसी के लिए… वह तो अपनी गति से निरंतर गतिमान रहता है. इंसान ही आगे-पीछे छूट जाते हैं. पर इंद्राणी…? इंद्राणी तो हमेशा से ही समय से आगे चलती रही है. समय को मात देकर उससे दोगुनी गति से आगे बढ़ी है वह. तब भी जब वह किशोरी से नवयौवना के प्रवेशद्वार पर खड़ी थी और अब भी जब प्रौढ़ावस्था के द्वार पर दस्तक दे रही है.
जिस दिन इंद्राणी के पिताजी का सड़क दुर्घटना में देहांत हुआ था, तब उसे अठारह पूरे हुए केवल दस ही दिन तो हुए थे. क्या कहा जाए इसे. विधि का विधान या इंद्राणी का दुर्भाग्य? प्रारब्ध को कदाचित् इंद्राणी के अठारह वर्ष पूर्ण होने की ही प्रतीक्षा थी. सिर से साया उठा और इंद्राणी के कोमल कंधों पर पूरे परिवार का भार आ गया. निरक्षर जानकी तो गांव की सीधी-सादी स्त्री थी, जिसने न कभी पति की नौकरी के बारे में जाना, न कभी उनके रुपयों-पैसों की जानकारी ली. यहां तक कि पति का किस बैंक में खाता है, यह तक नहीं जानती थी जानकी!
तब सब कुछ इंद्राणी ने ही तो संभाला था. पिताजी के बीमा की रकम का हिसाब… उनके हाउसिंग लोन का निपटारा… दुर्घटना में प्राप्त मुआवजे का लेन-देन… हर ज़िम्मेदारी उसने कुशलता से निभाई थी. अठारह की उम्र में ही अट्ठाइस-सी समझदारी आ गई थी उसमें. इंटर पास कर कॉलेज के प्रथम वर्ष में ही तो पढ़ रही थी वह और देव तो उससे पूरे दस वर्ष छोटा था. आठ वर्षीय उस अबोध बालक ने तो अभी दुनिया देखी ही कहां थी! पिताजी रेलवे में अच्छे पद पर कार्यरत थे. उनके सहकर्मियों की मदद से शीघ्र ही इंद्राणी को रेलवे में लिपिक के पद पर नियुक्ति मिल गई.
तब से लेकर अब तक सब कुछ इंद्राणी ही संभालती आई है. विवाह की उम्र में पहुंचने पर हर मां की तरह जानकी ने भी पुरज़ोर प्रयास कर डाले थे, पर इंद्राणी के उपयुक्त कोई लड़का ही नहीं मिल पाया. यदि आपसी पसंद तय हो जाती, तो इंद्राणी की शर्तें आड़े आ जाती थीं. इंद्राणी विवाह के लिए तैयार थी, पर विवाह के बाद भी मां व देव की ज़िम्मेदारी उठाना चाहती थी. आख़िर इंद्राणी के सिवाय उनका था भी कौन? बेटी थी तो क्या हुआ? परिवार की कर्ताधर्ता थी इंद्राणी. देव उन दिनों हाईस्कूल में पहुंच चुका था.
उसके करियर की शुरुआत का नाज़ुक समय था… ऐसे में असहाय मां और छोटे भाई को जीवनपथ पर अकेला छोड़कर इंद्रा आगे बढ़ती भी तो कैसे? स्त्री चाहे किसी भी उम्र की हो, स्वभाव से ममतामयी ही होती है… स्नेह व ममत्व के भाव से ओतप्रोत इंद्राणी भी अपनी शर्तों को न छोड़ सकी. न कोई आदर्शवादी मिल पाया, जो इंद्राणी को उसकी मां व भाई की ज़िम्मेदारियों सहित स्वीकार पाता.
देव के इंटर तक आते-आते इंद्राणी का पूरा ध्यान उसकी पढ़ाई पर केन्द्रित हो गया था. देव के प्रति अब वह कुछ सख़्त व कठोर भी हो गई थी. जानती थी कि इस उम्र में ग़लत संगत में पड़कर लड़कों को बिगड़ने में ज़रा-सी भी देर नहीं लगती. देव के घर आने-जाने के समय को लेकर, घूमने-फिरने पर इंद्राणी की अनुशासित देखरेख और भी कड़ी हो गई थी. देव की थोड़ी-सी ढिलाई पर इंद्राणी बुरी तरह बरस पड़ती थी.
देव चुपचाप सुन लेता था, पर मां ज़रूर उसका पक्ष लेकर बीच-बचाव करने पहुंच जाती थी. ऐसे में मां को भी इंद्राणी के कोपभाजन का शिकार होना पड़ता था. ऐसा नहीं था कि मां केवल देव के प्रति अधिक उदार थी, बल्कि जब कभी देव इंद्रा से जवाब-तलब कर बैठता तब मां सबसे पहले उखड़ जाती थी और देव पर हाथ तक उठा लेती थी, “कल का ज़रा-सा छोरा अपनी दीदी से ज़ुबान लड़ा रहा है… शर्म नहीं आती तुझे… माफ़ी मांग… मेरे सामने अभी माफ़ी मांग…” कहते हुए देव का कान उमेठती थी. ऐसे में दीदी से अपनी लड़ाई भूल देव बचाव के लिए ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगता, “इंद्रा दी… बचाओ… मां को देखो न… दीदी… सॉरी… अब तो छुड़ाओ मां से…”
और इंद्राणी मुस्कुराते हुए जानकी को ही डपट देती, “ये क्या है मां… अब देव बच्चा है क्या, जो इस तरह कान उमेठ रही हो.” और मां से छूटते ही देव अपने बचाव के लिए इंद्राणी के पीछे जाकर खड़ा हो जाता था.
दरअसल, जब से पिताजी नहीं रहे थे, जानकी इन दोनों भाई-बहन के रिश्ते को लेकर कुछ ज़्यादा ही संवेदनशील हो गई थी.
बच्चे मां-बाप के आधार स्तंभ होते हैं. इनमें आपस में सामंजस्य बना रहे तो मां-बाप को भविष्य की इमारत सुरक्षित नज़र आती है… और जहां पिता का साया भी परिवार पर से उठ गया, तो वहां मां का अपने बच्चों के आपसी रिश्तों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाना तो स्वाभाविक ही है. इंद्रा व देव जानकी के लिए अपने दायें-बायें हाथों की तरह थे. इनमें आपस में बैर हो जाए, तो जीवन की कल्पना तक संभव नहीं है. शायद इसीलिए मां दोनों भाई-बहन के आपसी स्नेहभाव को लेकर कुछ ज़्यादा ही सजग हो गई थी. भाई-बहन में थोड़ी-सी भी अनबन हो जाए, तो सबसे ज़्यादा तनाव मां को ही होता था. और अंतत: दोनों की सुलह कराकर ही दम लेती थी वह.
विशेषत: रक्षाबंधन जैसे त्योहार पर तो इंद्रा व देव से ज़्यादा जानकी ही उत्साहित होती थी व बड़े जतन और जोश के साथ तैयारी करती थी वह. जब देव छोटा था, तब वह भी बड़े जोश के साथ तैयार होता था. रक्षाबंधन पर उसे नए कपड़े पहनाकर मां आसन पर बिठाती. उसके सामने पूजा का थाल सजकर आता. फिर टीका व आरती होती. ऐसे में देव की गर्दन तन कर एक इंच और लम्बी हो जाती थी. इंद्रा जब उसकी कलाई पर राखी बांधकर आरती उतारती, तब वह स्वयं को किसी वीआईपी से कम नहीं समझता था. फिर मां धीरे से देव की मुट्ठी में नोट पकड़ा देती और उस एक दिन वह बड़े दाता की तरह नोट को लहरा कर अपनी इंद्रा दी की हथेली पर रखता… और इंद्रा प्यार से देव का माथा चूमकर कहती, “बड़ा तो हो जा. कमाने लगेगा तो सब वसूलूंगी तुझसे.”
जानकी दोनों के प्रेमभाव को देखकर मन ही मन भावविभोर हो उठती थी. भाई-बहन में ताउम्र इसी तरह स्नेहभाव बना रहे, हर क्षण ईश्‍वर से यही प्रार्थना करती थी. आख़िर यही दोनों तो उसकी ज़िन्दगी के दो पहिए थे. इनका आपस में लयबद्ध होना आवश्यक था, वरना जानकी को अपना भविष्य अंधकारमय नज़र आता. रक्षाबंधन पर जानकी के अति उत्साह के पीछे शायद यही असुरक्षा की भावना होती थी.
तभी तो वह आज भी इंद्रा के पीछे लगी थी कि बाज़ार से जल्दी राखी लाकर समय पर पोस्ट कर दे. यह पहला मौक़ा था रक्षाबंधन का जब देव घर से बाहर था. ऐसे में राखी ठीक समय पर न पहुंची, तो कहीं देव के मन में अपनी इंद्रा दी के लिए प्रेमभाव कम न हो जाए. ऐसा ही न जाने क्या-क्या सोच लेती थी जानकी.
“लो, यह रहा तुम्हारा सारा सामान.” इंद्राणी ने ऑफ़िस से लौटते ही बैग रखते हुए कहा.
“और राखी… वह लाई कि नहीं?”
“लाई हूं मां, वह भी लाई हूं.” कहते हुए इंद्रा फ्रेश होने बाथरूम में चली गई.
अगला दिन इतवार की छुट्टी का दिन था. फुर्सत पाकर इंद्रा ने देव को पत्र लिखा व लिफ़ा़फे में पत्र के साथ राखी रखकर लिफ़ा़फे को चिपका दिया व दीवार पर टंगे कैलेंडर में देखने लगी. रक्षाबंधन को तो अभी दस दिन बाकी हैं. चार दिन बाद पोस्ट करूंगी राखी तो ठीक रक्षाबंधन पर ही मिलेगी. सोचते हुए उसने लिफ़ाफ़ा आलमारी में रख दिया.
अगले दिन इंद्रा ऑफ़िस से लौटी, तो मां ने उसकी ओर पत्र बढ़ाते हुए कहा, “देख तो इंद्रा किसकी चिट्ठी है.”
इंद्रा ने लिफ़ाफ़ा देखा, “अरे, यह तो देव का पत्र है!”
“अच्छा! पढ़ तो जल्दी क्या लिखा है.” मां ख़ुश हो गई, “आ रहा है क्या देव?”


इंद्राणी ने लिफ़ाफ़ा फाड़कर चिट्ठी निकाली व पढ़ने लगी-
प्रणम्य इंद्रा दी,
चरण स्पर्श
मेरा लम्बा-चौड़ा पत्र देखकर शायद तुम आश्‍चर्य में पड़ गई होगी, पर क्या करूं, बात ही ऐसी है कि इतना लिखना तो ज़रूरी हो गया है. इस बार रक्षाबंधन पर पहली बार तुमसे दूर… अलग, अकेला रहूंगा दी. मन उदास तो है, पर सोचता हूं कि तुम्हारी व मां की दुआएं तो साथ हैं… तो फिर मैं अकेला कहां हूं?
इंद्रा दी, मां ने मुझे जन्म दिया और ईश्‍वर ने जीवन, पर मेरे जीवन की गाड़ी को चलने के लिए ईंधन तो तुम्हीं ने दिया है न. आज मैं जो कुछ भी हूं, वह तुम्हारे ही परिश्रम का प्रतिफल है.
मुझे याद है दी, जब-जब मेरी कलाई पर राखी बांधने का मौक़ा आता था, मां अलमारी से नोट लाकर चुपके से मेरी मुट्ठी में ठूंस देती थी अपनी प्यारी इंद्रा दी को शगुन के रूप में देने के लिए… बचपन में मैं बड़े अधिकार से मां से नोट लेता व गर्व से तुम्हारे हाथ में थमा देता था और तुम भी हंसकर ले लेती थीं. कहती थीं, “एक बार बड़ा तो हो जा… कमाने लगेगा तो सब वसूल करूंगी तुझसे.”
फिर जब मैं कुछ बड़ा हुआ, कॉलेज जाने लगा तब मां का आलमारी से नोट निकालकर लाना और मेरी मुट्ठी में ठूंसना, मुझे बड़ा अटपटा-सा लगने लगा. पहलेवाले अधिकार के भाव शायद समय व उम्र के साथ आई समझदारी की वजह से लुप्त हो गए थे. मैं जानता था… समझता था कि आलमारी में लाकर रखे गए पैसे भी तो तुम्हारे ही गाढ़े पसीने की कमाई हैं… शगुन के नाम पर तुम्हारे ही पैसों में से मां नोट लाकर मेरी मुट्ठी में रखे और मैं वही तुम्हारी हथेली में रखूं, मुझे ये बड़ा बेमानी-सा लगता. मैं अक्सर सोचता था कि क्या शगुन केवल रुपयों-पैसों से ही होता है? प्यार-सम्मान, ये सारी मानवी भावनाएं क्या इतनी मूल्यहीन हैं? क्या केवल रुपयों का या रुपयों से ख़रीदे उपहारों का लेन-देन ही मायने रखता है रिश्ते में? प्रेम के आपसी लेन-देन का कोई अर्थ नहीं? मुझे ये सब कुछ व्यर्थ-सा लगता. स्वयं का आसन पर बैठकर तुमसे राखी बंधवाना भी मन ही मन संकोच में डालने लगा था. मैं उस आसन के लायक था भी तो नहीं!
पर मां के आगे किसकी चलती! तुम तो तब भी प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरकर कहतीं, “कमाने लगेगा न, तब जी भर कर वसूलूंगी.” मुझे भी सब कुछ याद है दी.
परसों जब मां ने फ़ोन पर कहा कि तीस को रक्षाबंधन है, तुम आ जाओ, तब मुझे अतीत के वे सारे वाक्ये एक-एक कर याद आ गए. मेरी नौकरी के बाद का यह पहला रक्षाबंधन का त्योहार है. मैं सोचने लगा कि अब वह समय आ गया है, जब मुझे तुम्हारी वसूली पूरी करनी है. तुम ही कहती थी न कि कमाने लगेगा तो जी भर के वसूलूंगी. मैंने सोचा दी… बहुत सोचा… पर यह तय करने में अन्तत: निष्फल ही रहा कि तुम्हें क्या दिया जाए.
वास्तव में तुम मेरी जीवनदायनी हो दी… हमेशा से पालिका के स्थान पर रही हो तुम और मैं पालित, तुम पोषक हो दी तो मैं पोषित, स्वयं को दाता के स्थान पर रखने की कल्पना भी मेरे लिए दुष्कर है.
मैंने अपने कई दोस्तों को देखा है, बहनों के लिए सूट-साड़ी, ईयरिंग-अंगूठियां आदि ख़रीदते हुए. यही नहीं, बल्कि कई दोस्तों की बहनों को भी देखा है उपहार की शर्तों पर भाइयों की कलाइयों पर राखी बांधते हुए और फिर जब-जब तुम्हारे बारे में सोचा, तो लगा कि मेरी इंद्रा दी कितनी अलग हैं सबसे. तुमने तो अपने हिस्से की ख़ुशियां भी मुझ पर लुटा दीं. मैं तुम्हें भला क्या दे सकता हूं. मेरे पास मेरा अपना है ही क्या, जो तुम्हें उपहार में दूं. जो कुछ भी है, वह पहले तुम्हारा है फिर मेरा. आज तुम्हारे लिए वो पंक्तियां याद आ रही हैं, जो हम मां के साथ संझा दीप-अगरबत्ती के व़क़्त गाते थे- ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा.’
वैसे भी भाई-बहन के बीच जो स्नेह-सूत्र से बंधा नाज़ुक बंधन है, उसमें निहित प्रेम तो असीम होना चाहिए. तो फिर क्यों इसे डिब्बा बंद उपहार या लिफ़ाफ़ों की परिधि में हम कैद करें? क्यों इस स्नेह के बंधन को व्यावहारिक सीमाओं में बांधकर सीमित कर दें? परम्पराएं केवल औपचारिकता निभाने के लिए तो नहीं होतीं न दी? फिर लकीर के फकीर बने इसे केवल निभाने की बजाए क्यों न हम इन परम्पराओं को वास्तविक अर्थ में जीएं?
परम्परा तो यही है न दी कि रक्षा करनेवाले की कलाई पर रक्षा का बंधन बांधा जाए. तो अब से हम इस परम्परा को केवल निभाएंगे नहीं, बल्कि जीएंगे भी. तुम हमेशा मेरे रक्षक के स्थान पर रही हो दी. हर कठिन घड़ी में तुमने रक्षा कवच बनकर मेरी रक्षा की है. मेरे हिस्से की मुश्किलों को तुमने स्वयं आगे बढ़कर ढाल की तरह झेला है, तो रक्षा-सूत्र का हक़ तो तुम्हारी कलाई का ही बनता है न? यही सब सोचकर इस पत्र के साथ राखी भेज रहा हूं. इसे रक्षाबंधन पर मेरी ओर से अवश्य बंधवा लेना.
मैं जानता हूं कि तुम्हारी राखी मुझे समय पर ज़रूर मिलती, इसीलिए तुम राखी पोस्ट कर पाओ, इससे पूर्व ही मैं यह राखी तुम तक पहुंचाना चाहता था, अत: ह़फ़्तेभर पूर्व ही राखी भेज रहा हूं.
हां, मां जानेगी तो ज़रूर कहेगी कि ये तो उल्टी गंगा बहाना हुआ… पर दी, तुम मां को समझा देना कि अब से अपने घर में तो रक्षाबंधन इसी तरह मनेगा. मां तुम्हारी बात ज़रूर मानेगी. हां, अब तक की जितनी राखियां मेरी कलाई के हिस्से में आई हैं, उसके प्रतिदान के रूप में तुम्हें कुछ देने की बात कहूंगा तो सूरज को दीपक दिखाने के समान होगा. पर हां, इतना विश्‍वास तुम्हें ज़रूर देता हूं कि तुम्हारा हर आदेश जीवनभर मेरे सिर आंखों पर होगा, वरना आपकी उंगलियां और मेरा कान- जब चाहे उमेठिएगा.
आपका अपना,
देव

पत्र पढ़ते-पढ़ते इंद्राणी का चेहरा अश्रुओं से सराबोर हो गया… आंचल भीग गया. जानकी तो अनपेक्षित स्थिति से हड़बड़ा गई… कंधा पकड़कर इंद्रा को झकझोर दिया उसने, “अरे बोल, कुछ तो बोल… ऐसा क्या लिखा है इसमें… सब कुछ ठीक तो है न…” जानकी की आवाज़ कंपकंपा गई.
“सब ठीक है मां…” आंचल से आंसू पोंछते हुए रुंधे गले से इंद्रा ने जवाब दिया व लिफ़ाफ़ा उठाकर उसमें झांककर देव की भेजी राखी निकालने लगी.
इंद्राणी को इस तरह आंसू बहाते देख जानकी घबरा गई थी, “तू तो रो रही है बेटी. कुछ तो बता, वरना मैं भी रो पडूंगी.” भरे गले से जानकी बोली.
“कुछ नहीं मां, ये तो ख़ुशी के आंसू हैं. देव ने अब तक की राखियों के बदले में आज जो उपहार भेजा है, उसे देखोगी तो तुम भी रोओगी ख़ुशी से.” कहते हुए इंद्रा ने लिफ़ा़फे से देव द्वारा भेजी राखी मां की ओर बढ़ा दी व पूरा पत्र एक बार ज़ोर से पढ़कर मां को सुनाने लगी.
“नहीं कहूंगी बेटी मैं कि उल्टी गंगा बह रही है.” आंचल के कोने से अपने आंसुओं को समेटते हुए जानकी बोली, “सच ही तो कहता है देव, राखी का हक़ तो तेरी कलाई का ही बनता है. मैं भी जानती हूं कि स्नेह के बंधन नाज़ुक ज़रूर होते हैं, पर मज़बूत भी होते हैं. लेन-देन के कोरे व्यवहार से परे मानवीय भावनाओं से वशीभूत केवल स्नेह-सूत्र में जकड़े ये बंधन अटूट होते हैं. ऐसे रिश्तों की नींव बड़ी पुष्ट होती है. परिस्थितियों के बड़े से बड़े झटकों में भी यह अडिग खड़ी रहती है. संतोष-असंतोष तो औपचारिक व्यवहार से ही पनपता है. यही तो रिश्तों की डोर को कमज़ोर बनाता है. सच कहूं तो आज मैं निश्‍चिंत हो गई हूं इंद्रा. तुम भाई-बहन के प्यार को लेकर आश्‍वस्त हो गई हूं.”
इंद्राणी ने देखा, मां के चेहरे पर सुकून छा गया है. उसने उठकर आलमारी में रखा लिफ़ाफ़ा फाड़ा व देव के लिए रखी राखी निकालकर सीधे पूजा घर में पहुंच गई. अपने इष्टदेव श्री गणेशजी के समक्ष हाथ जोड़कर उसने विनती की, “हे प्रभु, आज मेरी तपस्या का ऐसा सुन्दर प्रतिदान मुझे प्राप्त हुआ है. ये सब आप ही की कृपादृष्टि है. देव ने मुझे जो मान-सम्मान व प्यार दिया है, उसके अनुरूप मैं सदैव अपनी गरिमा क़ायम रख सकूं, ऐसी शक्ति देना प्रभु और हमारे भाई-बहन के रिश्ते की सदैव रक्षा करना.” कहते हुए इंद्राणी ने वह राखी गणेशजी के श्रीचरणों में रख दी.

 स्निग्धा श्रीवास्तव

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