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कहानी- राम-लखन का…? (Short Story- Ram Lakhan Ka…?)

ईश्‍वर से प्रार्थना करती हूं, संसार में सभी भाई-बहन के पावन रिश्ते को समझ सकें. जब कभी अपनी ‘दी’ के प्रति किसी ‘मानो’ की अटूट स्नेहपगी श्रद्धा निरखूंगी, स्वयं से ही प्रश्‍न करूंगी, ‘राम-लखन का…?’ और मेरे अंतस् के एक निर्मल कोने में स्थापित तुम्हारी स्मृति निस्सन्देह जीवन्त हो बोल पड़ेगी, “जो ऽऽऽ ड़ा ऽऽऽ!!!” …पर मैं नहीं रोऊंगी. सच, तुम्हारी सौगन्ध, कभी नहीं रोऊंगी.

बालकनी में एकाकी बैठी लता वेदना की महोदधि में आपादमस्तक डूबती जा रही थी. जब नियति का कुठाराघात आत्मा को खंडित करके अनिर्वचनीय पीड़ा का सृजन करता है, तब इंसान एकाकी, मौन, स्तब्ध-सा होकर कुछ ही पलों में भूतकाल को पुनः जी उठता है. ऐसी ही अवस्था आज लता की हो रही थी.

हृदय से जुड़ा, बालपन की कोमल भावनाओं के मृदुल एहसास से भीगा, रक्त बंधन में बंधा वो नैसर्गिक रिश्ता, जो मन-प्राण में उष्मा का संचार करता रहा हो, सहसा सामने से विलुप्त हो अनंत में मिल जाए, तो हृदयविदारक अनुभूति तो होगी ही.

लता की आंखें आंसुओं से लबालब थीं. ‘उ़फ्! तू इस तरह चला जाएगा, कभी सोचा न था.’ वह बेचैन हो उठी.

“मां! कहां हैं आप?” बेटी ने पुकारा. पर वो मौन रहीं.

“लता! अकेली क्यों बैठी हो? चलो, भाभी बुला रही हैं.” पति प्रभाकर ने पीछे से सम्बोधित किया तो आर्द्र स्वर में बोल पड़ी, “प्लीज़! मुझे थोड़ी देर अकेला छोड़ दीजिए न. मैं कुछ देर में आ जाऊंगी.”

“लेकिन…”

“प्लीज़…”

“ठीक है. पर वादा करो, अब रोओगी नहीं.” प्रभाकर ने कहा तो लता ने कोई उत्तर नहीं दिया. आंसुओं पर कभी किसी का वश रहा है भला?

प्रियपात्र की मृत्यु के कारण उपजी पीड़ा अगर आंसू बनकर न झरे, तो इंसान जीवित रह सकेगा? सम्पूर्ण हृदय की यात्रा कर नयन-मार्ग से व्यक्त हुई वेदना का अक्षरशः अनुवाद होते हैं आंसू और भावनात्मक धरातल पर स्वस्थ संबंधों का मौन संवाद भी. आंसू ही तो भावनाओं के पावन अनुबंधों को एक विराटता प्रदान करते हैं.

भीगी पलकें मूंदकर लता ने आरामकुर्सी की पुश्त से सर टिका दिया. अधर मौन थे, पर मन में शब्दों की आंधी-सी चल रही थी.  मन भूतकाल का पुनर्द्रष्टा होकर मुखर हो उठा था. बचपन के अनमोल क्षण पुनः वर्तमान का रूप धर अठखेलियां कर उठे थे. लग रहा था, जैसे ‘लता दी’ अपने ‘मानो’ के समक्ष बैठी मीठे शैशव की मृदु-स्निग्ध यादें बांट रही हो, उससे बातें कर रही हो…

मेरा और तुम्हारा रिश्ता बचपन से ही न जाने कौन-से तंतुओं में बंधा था, मानो! मात्र चार वर्ष ही तो बड़ी थी मैं तुमसे, फिर भी वो स्नेह, वो आदर… अभिभूत हो उठती थी मैं. ‘दी’ के बिना एक कौर मुंह में नहीं डालते थे तुम. हम साथ स्कूल जाते, खेलते-खाते, पर लड़ते-झगड़ते नहीं थे. स्मरण है, दादी मां ने एक बार हमारी नज़र उतारते हुए कहा था, “नज़र न लगे मेरे राम-लखन के जोड़े को.”

“दादी, ये तो बताओ, राम कौन और लखन कौन? मैं तो लड़की हूं न?” मैंने ज़ोर से हंसते हुए पूछा था, तो तुम दादी के कुछ बोलने से पहले ही बोल पड़े थे, “दी! तुम राम, मैं तुम्हारा लखन.” पूरा घर आनंद की ध्वनि से आपूरित हो उठा था और मैं आह्लाद के अतिरेक से भाव-विभोर.

मां पूछतीं, “क्यों रे मनोहर! बड़ा होकर भी लखन बना रहेगा न? या फिर अपनी ‘दी’ को ही भूल जाएगा?”

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तुम ज़ोर से मेरा हाथ पकड़कर कहते, “दी! मैं तुम्हें भूल सकता हूं क्या?”

“नहीं रे!” मैं हंस पड़ती.

तुम्हारी वो भयमिश्रित तोतली वाणी आज भी कानों में गूंजती है.

दादी प्रायः तुझसे पूछा करतीं, “राम लखन का…?”

निश्छल बाल सुलभ हंसी हंसकर तुम ज़ोर से कह उठते, “जो ऽऽऽ ड़ा ऽऽऽ!!” जब कभी तुम किसी बात से नाराज़-परेशान रहते, यही प्रश्‍न क्षणांश में तुम्हारी सम्पूर्ण उदासी को उसी तरह ले भागता, जैसे धूप कोहरे को ले भागती है.

शैशव की मधुर यादें दामन में समेटे हम दोनों भाई-बहन बचपन की दहलीज़ लांघने लगे, तो रक्त संबंध से जुड़ा ये पावन रिश्ता और मज़बूत होता गया. मानो! क्या तुम्हें नहीं लगता, यदि माता-पिता भाई-बहन के प्यारे-पावन रिश्ते को बचपन से ही प्रगाढ़ बनाएं, दोनों को एक-दूसरे का महत्व समझाते चले जाएं, तो एक अटूट परिवार का सृजन होता जाएगा? व्यक्ति कभी एकाकी नहीं रहेगा!

मात्र पंद्रह वर्ष की ही तो थी मैं, जब भीषण ज्वर, जिसे डॉक्टरों ने टायफाइड बताया था, के घेरे में कसती जा रही थी. न दवा असर कर रही थी, न दुआ. ज्वर के भीषण संघात से मैं चेतना शून्य हो जाती थी. कई दिनों से अन्न का दाना मुख में नहीं डाला था. घर में सब का बुरा हाल था. फिर एक दिन सेब के छोटे-छोटे टुकड़े कटोरी में डालकर तुम मेरे सम्मुख बैठ गए थे.

“दी! आज तो तुम्हें खाना ही होगा. जब तक खाओगी नहीं, स्कूल भी नहीं जाऊंगा. और रोज़ पूछती हो न, ‘राम-लखन का…?’ तो जवाब में ‘जोड़ा’ कभी नहीं बोलूंगा. चलो, मुंह खोलो.” तुम ने साधिकार एक टुकड़ा मेरे मुंह में डाल दिया था. न जाने किस शक्ति के वशीभूत हो मैं उस दिन के बाद धीरे-धीरे खाना खाने लगी थी. फिर ज्वर भी उतरने लगा था.

“हे ईश्‍वर! इनका स्नेह बनाए रखना.” मां का आर्द्र स्वर आज भी मन में ध्वनित होता है, मानो.

समय की गति कितनी तीव्र होती है, इसका एहसास इंसान को तब होता है, जब वो किसी के न रहने से उत्पन्न हुए शून्य को अनुभूत कर ठगा-सा खड़ा रह जाता है.

याद है न, मेरे विवाह का दिन? अठारह वर्ष के सुंदर-सौम्य मनोहर के मुखड़े पर आनंदमिश्रित वेदना की स्पष्ट छाया. एक ओर बहन के सुख-सौभाग्य की कामना से उत्पन्न आह्लाद, तो दूसरी तरफ़ बिछोह का दंश. सारे काम ऐसे निबटाए थे तुमने जैसे किसी ने जादू की छड़ी फेर दी हो. विदाई के क्षणों में बार-बार रुलाई रोकने के प्रयास में होंठ काट रहे थे तुम और तुम्हारे सर पर स्नेह से हाथ फेरकर मैंने पूछ ही लिया था, “मानो! राम-लखन का…?”

तुम बिलखकर मेरे चरणों में झुक गए थे. इस प्रश्‍न का उत्तर तुम्हारे मन में जो कौंध गया था. अपने जीजाजी से भी तुमने यही मांगा था, “मुझे आप से केवल ये वादा चाहिए कि अगर आप मुझसे किसी बात पर रुष्ट हो जाएं, तब भी दीदी को मुझसे मिलने से नहीं रोकेंगे. और वो जब भी मुझे पुकारेगी, मैं हाथ बांधे उसके समक्ष खड़ा मिलूंगा.”

तुम इतने बड़े झूठे निकलोगे, कभी सपने में भी नहीं सोचा था. आज पुकारूंगी तो क्या आओगे मानो?

तुमने जीवन का हर कार्य मेरे विमर्श से ही किया. सब का आशीष सर-माथे लिया, तभी तो माधवी जैसी सुघड़ पत्नी और पूजा, पीयूष जैसे प्यारे बच्चे मिले. “दी! जीजाजी के रिटायरमेंट के बाद तुम हमारे शहर में ही बस जाना. यहीं पास में एक अच्छा प्लॉट खाली है. मैंने बात भी पक्की कर ली है. मैं जीवनपर्यंत तुम्हारे आशीष तले रहना चाहता हूं.” मैंने तुम्हारी ये बात भी तो मान ली थी न? आज घर है, मैं हूं… तुम कहां हो मानो?

जब कभी छुट्टियों में मायके आती, तुम छोटे बच्चे-से बन जाते. अल्पभाषी, सौम्य व्यक्तित्व का धनी, विद्वान इतिहासवेत्ता डॉ. मनोहर चौधरी कहीं खो जाता और मेरा वही तोतला नन्हा भाई सामने खड़ा हो जाता, जिससे मैं पूछा करती थी,

“राम-लखन का…?”

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माधवी कहती, “दीदी! आपके कारण ही इनका बचपन आज भी विद्यमान है. अभी कोई देख ले इन्हें, तो धोखा खा जाए. कॉलेज में घुसते हैं तो सबको सांप सूंघ जाता है. पढ़ाते हैं तो छात्र मंत्रमुग्ध-सा सुनते हैं. वक्ता ऐसे कि श्रोता आंखों में कौतूहल और मन में अपार आदर समेटे हतप्रभ रह जाते हैं और व्यक्तित्व ऐसा कि लगता है जैसे नाक पर बैठी मक्खी उड़ाने के लिए भी एक नौकर होगा. और अभी देखिए, पायजामा पिंडलियों तक उठाए, मात्र बनियान डाले आपके साथ रसोई में आलू छील रहे हैं.”

“हां, हां. उड़ाओ मेरा मज़ाक. पर याद रखो, एक भी आलू की टिकिया चखने नहीं दूंगा.” तुम मुंह बनाकर कहते तो सब हंस पड़ते. मैं सोच में डूब जाती, ठीक ही तो कहती है माधवी. भाई-बहन का सुदृढ़ स्नेह बचपन को हमेशा मुट्ठी में सहेजे रखता है. ये एक ऐसा अलौकिक रिश्ता है, जिसमें कोई लेन-देन नहीं होता. न कोई ऋण चुकाना होता है, न ही कोई समझौता निभाना होता है. आस्था की बुनियाद पर रखा यह पावन रिश्ता कोई शर्त नहीं रखता.

मानो! कहां विलुप्त हो गए वो क्षण? किस जादूगर ने अपनी डिबिया में समेट लिए?

उस दिन तुम्हारे आनंद का पारावार नहीं था, जिस दिन तुम्हारे जीजाजी के रिटायरमेंट के बाद मैं वापस अपने शहर, अपने घर लौट आई थी.

“दी! अब राम-लखन का जोड़ा कभी नहीं बिछुड़ेगा. बस, पांच-छह वर्ष में मैं भी रिटायर हो जाऊंगा. फिर हर क्षण तुम्हारे स्नेहाच्छादित आंचल तले ही बिताऊंगा. ढेरों क़िताबें लिखूंगा. ख़ूब खाऊंगा.

मानो! कहां रखूं इतने स्नेह-मान को? आज जहां हर रिश्ते की नींव में कटुता है, वहां इतना आदर कहां सहेजूं? मैं अपने सौभाग्य पर इतरा उठी थी.

कॉलेज से लौटते हुए प्रतिदिन तुम मेरे घर आना नहीं भूलते थे. नित्य नये व्यंजन खाने की बचपन की तुम्हारी इच्छा अब और अधिक मुखर हो उठी थी.

तुम्हारे जीजाजी अक्सर कहते, “लता! बड़ी भाग्यवान हो तुम, जो तुम्हें मनोहर जैसा सहोदर मिला. अच्छे-बुरे हर व़क़्त में इसने हमारा साथ दिया है. आज के भौतिकवादी युग में तो जीवन का सार लगनेवाले रिश्ते भी भार लगने लगे हैं. ऐसे में तुम्हारा ये भाई विधाता की अनुपम भेंट है तुम्हारी झोली में.”

मैं भावविभोर हो हृदय से तुम्हें आशीष देती. फिर कहां चूक हो गई मानो! तू अपनी ‘दी’ से रूठकर कभी न लौटने के लिए क्यों चला गया?

कभी विस्मृत नहीं कर सकती वो दिन, जब तुम शाम को घर आए थे और तुरंत फ़रमाइश कर डाली थी, “दी! आज तो चाशनीवाला हलवा खाकर ही जाऊंगा.”

“नहीं मानो! तुझे डायबिटीज़ है, मैं अपने हाथ से तुझे इतना मीठा नहीं खिला सकती.”

“खिला दो, खिला दो. अब शायद जीवनभर खिला नहीं पाओगी.” तुम वही चिर-परिचित बालसुलभ हंसी हंसे थे.

मैं कांप गई थी, “मानो! क्या अशुभ बोल रहे हो?”

“दी! मैंने आपसे कभी कुछ छिपाया है, जो ये बात छिपाऊंगा? कुछ दिनों से पेट-कमर में दर्द रहता है, यूरिन में भी कुछ तकलीफ़ थी. डॉक्टर से मिला तो उसने किडनी प्रॉब्लम की ओर संकेत किया है. मैंने माधवी से भी नहीं कहा है. तुम उससे कहो, परसों दिल्ली जाने की तैयारी करे. फिर…”

तुम सहज भाव से बोलते जा रहे थे. मैं संज्ञाशून्य-सी बैठी थी.

फिर…? फिर सब कुछ अनचाहा घटित होता रहा.

दिल्ली आयुर्विज्ञान संस्थान में भी पुष्टि कर दी गई कि तुम्हारी दोनों किडनियां ख़राब हो चुकी हैं. पूरा परिवार इस आघात से उपजी पीड़ा के भंवरजाल में फंसा कसमसा रहा था. माधवी की ज़िद पर तुम उसके साथ बेहतर इलाज के लिए वेलौर जाने लगे, तो जाते-जाते मुझसे पहली बार पूछ गए, “दी! आज मैं पूछता हूं, राम-लखन का…?” मेरा अंतस् विदीर्ण हो उठा, अधर कांप कर रह गए. मैं ‘जोड़ा!’ नहीं कह पाई. तुम एक मायूस मुस्कान लिए मेरी नज़रों से ओझल हो गए. मैं आशीष को अंजुरी में भर ईश्‍वर से प्रार्थना करती रही.

एक शाम द्वार पर दस्तक हुई.

“कौन?”

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“मैं हूं दी! डॉक्टर मनोहर चौधरी, वेलौर रिटर्न.” तुम्हारा वही ज़ोरदार ठहाका बरामदे में गूंज उठा था.

लम्बी-चौड़ी क़द-काठीवाला मानो न जाने कहां विलुप्त हो गया था. हाथ में छड़ी लिये कृशकाय कोई दूसरा ही व्यक्ति सामने खड़ा था.

उ़फ्! कितना निर्दयी होता है काल, जो क्षणांश में सुखों की परिधि को लांघ, दुख के अगाध सागर में हठात् खींच ले जाता है.

कितना रोई थी मैं. “मानो, तुझे कुछ नहीं होगा. मैं तुझे अपनी किडनी दूंगी.” पर बेहद हठी थे तुम. शायद पहली बार मेरी बात नहीं मानी तुमने. आर्द्र कंठ से इतना ही कहा, “दी! मैं तुमसे केवल आशीष लूंगा और कुछ नहीं. वैसे भी जन्म लिया है, तो मृत्यु से भय कैसा? पूरा जीवन आनंद से जिया हूं. जब तक हूं, कोई दुखी नहीं होगा, कोई नहीं रोएगा…”

पर पूरा परिवार पाले से झुलसी कमलिनी-सा मृतप्राय था. दिन सरकते जा रहे थे. जिन हाथों से तुम्हें तरह-तरह के पकवान खिलाती आई थी, उन्हीं हाथों से नाप कर खाना और पानी देने में कलेजा मुंह को आता था मानो!

अंतिम सांस लेते हुए भी तुमने मेरा ही मान रखा था.

“मत रोओ, माधवी! ‘दी’ हैं न. पूजा… पीयूष… पापा नहीं रहेंगे तो क्या… बुआ हैं न? जीवन बहुत सुंदर है बच्चों, जीना सीखो… चलते रहो…”

और हम सब को काष्ठ प्रतिमा में तब्दील कर, हमारी संज्ञा ही मानो अपने पाथेय के रूप में लेकर तुम अनन्त में विलीन हो गए. खंडित हो गया राम-लखन का जोड़ा…

मानो पंडित कर्मकाण्डी कह रहे हैं, तेरहवीं के बाद इस सुंदर संसार से तुम्हारा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, पर मैं ऐसा नहीं मानती. जानती हूं, अपनों के असमय प्रयाण से मिली पीड़ा असह्य ही नहीं, असाध्य भी होती है. भोगे विगत को, यदि वो मधुर रहा हो, विस्मृत करना सरल-सहज नहीं है. जीवनभर पीड़ा की पगडंडी पर गतिमान रहूंगी… फिर भी मेरे अंतर्मन में तुम सदा जीवन्त रहोगे मेरे भाई.

ईश्‍वर से प्रार्थना करती हूं, संसार में सभी भाई-बहन के पावन रिश्ते को समझ सकें. जब कभी अपनी ‘दी’ के प्रति किसी ‘मानो’ की अटूट स्नेहपगी श्रद्धा निरखूंगी, स्वयं से ही प्रश्‍न करूंगी, ‘राम-लखन का…?’ और मेरे अंतस् के एक निर्मल कोने में स्थापित तुम्हारी स्मृति निस्सन्देह जीवन्त हो बोल पड़ेगी, “जो ऽऽऽ ड़ा ऽऽऽ!!!”

पर मैं नहीं रोऊंगी. सच, तुम्हारी सौगन्ध, कभी नहीं रोऊंगी.

   डॉ. निरुपमा राय

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कहानी- राम-लखन का...? (Short Story- Ram Lakhan Ka…?) | Hindi Kahaniya
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ईश्‍वर से प्रार्थना करती हूं, संसार में सभी भाई-बहन के पावन रिश्ते को समझ सकें. जब कभी अपनी ‘दी’ के प्रति किसी ‘मानो’ की अटूट स्नेहपगी श्रद्धा निरखूंगी, स्वयं से ही प्रश्‍न करूंगी, ‘राम-लखन का...?’ और मेरे अंतस् के एक निर्मल कोने में स्थापित तुम्हारी स्मृति निस्सन्देह जीवन्त हो बोल पड़ेगी, “जो ऽऽऽ ड़ा ऽऽऽ!!!” ...पर मैं नहीं रोऊंगी. सच, तुम्हारी सौगन्ध, कभी नहीं रोऊंगी.
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