कहानी- साथ-साथ (Short Story- Sath-Sath)

“केतन स्वार्थी था… वो जानता था… यामिनी के साथ उसका रिश्ता ज़्यादा दिन तक नहीं निभेगा, इसलिए तुम्हें थाम के रखा कि कहीं उसके हाथ खाली ना रह जाए.”
“अगर केतन स्वार्थी था, तो मैं भी स्वार्थी थी, जो उस सुरक्षित दायरे से निकल पाने का मन नहीं बना पाई.”
“तुझे केतन को देखकर कभी ग़ुस्सा नहीं आया?”

“शुभ्रा कभी-कभी हम कैसे कुछ रिश्तों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं. उनकी क़ीमत तब पता चलती है जब उनसे दोबारा रू-ब-रू होते हैं. वरना तो चंद वैचारिक मतभेदों ने हम दो सहेलियों को दूर कर दिया था. आज सालों बाद मिलकर ढेर सारी बातें करके कितना अच्छा लग रहा है.” सालों बाद कनाडा से आई अपनी सहेली अरुणिमा की बात के जवाब में शुभ्रा बोली, “हम कभी अलग नहीं थे… हां सोच अलग थी. अपने-अपने तरीक़े से हम एक-दूसरे के जीवन को बेहतर देखना चाहते थे. तुम कनाडा में थी तो क्या… मैंने हमेशा तुम्हारी दोस्ती को अपने जीवन में अहम स्थान दिया है. छोड़ वो सब… तुम तो ये बताओ इंदीवर कैसे हैं?”
“लविंग और रिलाएबल… लकी हूं मैं… यामिनी की कोई ख़बर?” “उसने अपनी गृहस्थी बसा ली है.”
“चलो, केतन का पीछा छूटा उससे…” अरुणिमा की बातें उसी धुरी पर आकर टिक जाती थी, जिनसे शुभ्रा बचना चाह रही थी. पुरानी अप्रासांगिक बातों से बचने की कोशिश में शुभ्रा ने बात बदलते हुए कहा, “तुम और इंदीवर, केतन से मिलकर जाना… वैभव और वंशिका को हॉस्टल से लेकर कल सुबह आ जाएंगे. उन सबको भी सालों बाद तुझसे मिलकर अच्छा लगेगा.” शुभ्रा की बात सुन अरुणिमा धीमें से मुस्कुरा दी.
दो पल की चुप्पी के बाद शुभ्रा ने फिर कहा, “तुम इतने बड़े एन.जी.ओ से जुड़ी हो बहुत अच्छा लगता है देखकर… अपने सर्वे के बारे में बताओ कैसा हुआ… किस चीज़ पर सर्वे किया है तुम लोगों ने? ठीक-ठाक हो गया.”
“अभी फाइनल डाटा आना बाकी है. हम लोग सर्वे कर रहे हैं कि किस देश में तलाक़ अधिक होते हैं और उनकी वजह क्या-क्या हो सकती हैं.” अपनी सालों बाद आई सहेली अरुणिमा से बातें करती शुभ्रा कि स्थिति इधर कुआं तो उधर खाई के समान हो गई थी. जिन बातों को वो छेड़ना नहीं चाहती थी उन बातों के छिड़ने से तनावपूर्ण परिस्थितियां बनने लगी थी. फिर भी हंसते हुए शुभ्रा ने कहा, “इतना गंभीर विषय… तो अपना भारत किस पायदान में है.”
“वैसे तो और देशों की अपेक्षा भारत में तलाक़ लेने वालों की संख्या कम है. पर इस बार भारत में पहले की तुलना में संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है.”
“कितना बुरा लगता है सोचकर भारत जैसे देश में, जहां विदेशों की तुलना में वैवाहिक संबंधों की जड़े गहरे तक जमी होती थी, आज वो चूले हिल गई हैं.”
“हां, लेकिन संख्या बढ़ने के पीछे कारण भी होते हैं. उनमें से एक कारण तेज़ी से उभरा है वो है एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशनशिप…”
“ख़ैर ये फैसला तो व्यक्तिगत परिस्थितियों पर टिका होता है. इस वजह से तलाक़ वही लेते होंगे, जिनके सामने और कोई रास्ता नहीं होगा, मसलन- बहुत आगे निकल गए हों और उस रिश्ते से बाहर आना मुमक़िन ना हो… अलगाव तो अंतिम हथियार है. उसे उठाने से पहले अन्य संभावनाओं को आज़मा लेना चाहिए. मेरा मतलब है समय देना चाहिए शायद सुधार की गुंजाइश बची हो.”
“तू अभी भी अपनी उसी संकीर्ण मानसिकता से घिरी है. मेरे हिसाब से ये एक गुनाह है. जिसमें सिर्फ़ सज़ा होनी चाहिए. जिस इंसान पर आंख मूंदकर विश्‍वास किया, उसकी हर सांस पर एकाधिकार माना. सार्थक-निरर्थक साथ निभाए पल छलावा साबित हो कैसा लगता होगा? टूटे विश्‍वास की किरचों से मन घायल होते होंगे. विश्‍वास बुलबुले-सा फूटता होगा. जैसे कभी…” आवेश में बोलती अरु चुप हो गई. कभी… शब्द पर शुभ्रा का ध्यान गया, तो नज़रें अरु पर टिक गई. जिस विषय को जतन से दूर रखा वो अरु ने छेड़ दिया था… इत्तफ़ाक था या जान-बूझकर किया प्रयास; बचना मुश्किल था. मुस्कुराते हुए शुभ्रा ने चाय का कप बढ़ाया, तो अरुणिमा ने नज़रें झुका ली.


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“अरु, हम अपने विचारों के टकराव के कारण एक-दूसरे से विमुख हुए थे. उस वक़्त मैं तेरे किसी सवाल का जवाब देने की स्थिति में नहीं थी. शायद इस बार तुम्हें समझा पाऊं…”
“मैं तो तब भी तुम्हारे केतन के साथ रहने के फ़ैसले से सहमत नहीं थी. आज भी तुम्हारे किसी तर्क से सहमत नहीं होऊंगी. तुम्हें मेरा हस्तक्षेप उस वक़्त नागवार लगा था.”
“अरु, तेरे कहने पर अगर मैं केतन को छोड़कर दूसरी ज़िंदगी का चुनाव कर भी लेती, तो क्या गारंटी थी कि मेरी दूसरी ज़िंदगी ख़ुशनुमा ही होती. जबकि केतन यामिनी के साथ अपने रिश्ते को लेकर मेरे सामने गिल्टी था. ऐसे में एक मौक़ा मैंने उसे दिया और मेरा वो रिस्क ज़ाया भी नहीं गया.”
“तुम्हारी जैसी कमज़ोर और एक सुरक्षा दायरे में रहने वाली औरतें ही इन मरदों का मनोबल बढाती हैं. बेशक केतन ने अपनी ग़लती मानकर यामिनी से रिश्ता तोड़ा तो क्या? उसकी ग़लती माफ़ी योग्य थी. मैं मान नहीं सकती कि उसकी बेवफ़ाई तेरे दिल को कभी टीस नहीं पहुंचाती होगी.”
“अगर जांच-परख का कोई मानक होता, तो बताती कि इस रिश्ते में वापस जा कर मैंने क्या पाया. एक पति होने के नाते उसने विश्‍वासघात किया, लेकिन पिता होने का दायित्व वो तब भी बख़ूबी निभा रहा था. हमारे बीच अभी कुछ ऐसा था, जिसमें सांसें बची थी. हम दोनों की तरफ़ से अपने रिश्ते को ज़िंदा करने के प्रयास किए गए थे. केतन ने एक ईमानदार कोशिश की थी हर तरफ़ से ख़ुद को यामिनी से दूर करने की.”
“अगर मैं होती, तो ऐसे इंसान की बेवफ़ाई के लिए उसे कभी माफ़ नहीं करती.”
“मैं भी माफ़ ना करती, अगर उसकी फ़ितरत में बेवफ़ाई होती. इतना कुछ जानने के बाद भी मुझे केतन के साथ एक सुरक्षा का एहसास होता था. उसने बच्चों को और मुझे जिस तरह से इस दुनिया के सामने थामें रखा, वो सुरक्षा का एहसास सच्चा था. कहीं कोई बनावट नहीं थी.”
“केतन स्वार्थी था… वो जानता था… यामिनी के साथ उसका रिश्ता ज़्यादा दिन तक नहीं निभेगा, इसलिए तुम्हें थाम के रखा कि कहीं उसके हाथ खाली ना रह जाए.”
“अगर केतन स्वार्थी था, तो मैं भी स्वार्थी थी, जो उस सुरक्षित दायरे से निकल पाने का मन नहीं बना पाई.”
“तुझे केतन को देखकर कभी ग़ुस्सा नहीं आया?”
“आया था, बहुत आया था. यथार्थ और आभासी कल्पनाओं के बीच उलझन में पड़ी थी. उस वक़्त केतन यामिनी को छोड़कर मेरी ओर बढ़ रहा था. ऐसे में मैंने उसे थामने में देर नहीं की. आज समय की धूल हमारे उस अतीत पर पड़ चुकी है और उसे दोहराकर उस गर्द को हमने हटाने की भूल नहीं की. उसी का परिणाम है, हमारा आज का सन्तुष्ट परिवार… कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं, जिन्हें समय पर संभाल लिया जाए, तो ठीक होता है, वरना बाद में पछतावा होता है.
हालांकि उस समय केतन की ओर से दिल पत्थर का हो गया था, पर बच्चों की तरफ़ का हिस्सा तो अभी भी कोमल था. उसे पत्थर बनाकर अपने ईगो के लिए लड़ भी जाती, अगर केतन उसी रास्ते पर चलता रहता. पर ऐसा भी तो नहीं हुआ. जब मैं अवसाद में थी, तब उसने यामिनी की ओर जाने वाले रास्तों को बंद कर दिया था.”
“एक बार को मान भी लूं तेरी बात… तो भी अतीत के कड़वे पल तुझे याद नहीं आते हैं.”
“मैं तन-मन से अपने बच्चों के भविष्य और वर्तमान को पकड़े खड़ी रही थी. अतीत का जो हिस्सा हमारा नहीं था उसे संभालकर क्यों रखती. वोे परिस्थितीवश बुना ऐसा जाल था, जिससे निकलने में हम दोनों की भलाई थी और ये एक-दूसरे के साथ के बगैर मुमक़िन नहीं था.” अरु की असहमति उसके निर्विकार भावों से टपक रही थी.
“सौ बात की एक बात है. तेरी कमज़ोरी का फ़ायदा केतन को मिला. इतना कुछ होने के बाद भी उसके लिए कुछ नहीं बदला.”
“अरु, तुमने मुझे हमेशा कमज़ोर कहा. ये सच भी था. तभी शायद केतन ने मेरी राह में आने वाले कांटों को चुन-चुन कर निकाल दिए. आख़िर आठ सालों के साथ में वो इतना तो समझ ही गए थे कि मेरी शक्ती परीक्षा का ये अंतिम पायदान है. उस समय मन ने केतन को पति के रूप में अस्वीकृत कर दिया था, लेकिन हमारे बच्चों के प्रति उसकी संजिदगी ने पिता के पद से कभी उतरने नहीं दिया. ज़िम्मेदारियों से ना मैं पीछे हटी ना केतन… समय के बहाव में बहते हम कब एक-दूसरे के पास बह चले आए पता ही नहीं चला.”
अरु कुछ कहती उससे पहले ही कॉलबेल बज गई.
“कौन आया होगा इस समय… कहीं केतन तो नहीं… ऐसी बेतरतीब सी बेल तो वही बजाते हैं, लेकिन वो तो कल…” अरु उसे ध्यान से दरवाज़े तक जाता देखती रही.
दरवाज़ा खुलते ही सरप्राइज़ के शोर के साथ शुभ्रा के चेहरे पर फ्लैश चमका था. कैमरा लिए वैभव हंसता हुआ अंदर आया. वैभव को विस्मय से देखती शुभ्रा कुछ समझती उससे पहले वंशिका ने उसे गले लगाकर सुखद आश्चर्य में डुबो दिया.
“तुम लोग तो कल आने वाले थे ना…” बोलती हुई शुभ्रा की नज़र केतन पर पड़ी, जो पीछे खड़े उस नज़ारे का आनंद उठाते हुए मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे.
“ओह! तो ये सब तुम्हारी करामात थी. तभी कल से कोई फोन नहीं किया. अब मैं भी एक सरप्राइज़ देती हूं,” उसके बोलते-बोलते अरुणिमा आ गई, तो केतन हंस पड़े, “मैं भी कहूं कि बात क्या है, जो तुम्हारा एक भी कॉल नहीं आया. अरु इंदीवर भी आया है क्या…” “उससे कल मिलना हो पाएगा.” शुभ्रा इत्मिनान से बता रही थी और अरु उस बदले माहौल में ख़ुद को अकेला महसूस कर रही थी.
“अब मैं भी चलूंगी तुम सबको देखो…” उसकी बात सुनकर शुभ्रा उसे रोकते हुए बोली, “ना-ना ऐसे नहीं. अब तुम लंच के बाद जाना हम ख़ुद तुम्हें छोड़ कर आएंगे.”
“ये देखो, मम्मी की ऐसी शक्ल कैमरे में क़ैद करने के लिए पापा का ये सरप्राइज़ प्रोग्राम था.” वैभव केतन को फोटो दिखाकर हंस रहा था और शुभ्रा बनावटी ग़ुस्सा दिखा रही थी. वंशिका चहक रही थी, “आंटी, हमने खूब सारी शॉपिंग की है. जानती हैं आंटी कल पापा ने हमें कितना घुमाया है मम्मी के पर्दों की वजह से… और मम्मी, आपको कोई और रंग नहीं मिला. कैसा अजीब-सा रंग था. पोलेन येलो.. सच पूरे दिल्ली में घूमना पड़ा, तब जाकर इस रंग के पर्दे मिले थे. बाई गॉड… आंटी, पापा तो मम्मी की इच्छा पूरी करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.” कुछ ही देर में पूरे बेड पर पीले पर्दे बिखरे पड़े थे. पर्दों को उलटती-पलटती शुभ्रा के चेहरे पर मुस्कुराहट और आंखों में चमक थी.
अरु को सहसा उसका बरसों पहले का बुझा चेहरा और बुझी-सी आंखें याद आई… जो पेड़ों से गिरते पीले पत्तों को बुत बनी एकटक देखती थी. उन पीले पत्तों-सा ही तो रंग उन पर्दों का भी था. पर आज वो कितने सुंदर दिख रहे थे. कमरा खिला-खिला लग रहा था. टूटे पत्तों की उदासी उनमें कहीं नहीं थी. शायद तस्वीर का दूसरा रुख था. रंग वही थे, बस नज़रिया बदलकर उसने उसे केतन की तरह अपने जीवन में शामिल करके ख़ूबसूरत बना लिया था. पर्दों के उस रंग को देखकर निश्‍चय ही कोई उस रंग को पीले टूटे पत्तों से नहीं जोड़ेगा. शुभ्रा पूछ रही थी, “पर्दे सुंदर लग रहें हैं ना?” अरु कुछ कहती उससे पहले वैभव खाने का लंबा-चौड़ा मेन्यू बता रहा था, लेकिन केतन उसे डपटते हुए कह रहे थे, “शुभ्रा, इनकी बात बिल्कुल मत सुनना. आज लंच बाहर करेंगे. कितने दिनों बाद तो सब इकट्ठे हुए हैं. घर में झंझट मत करना.”

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शुभ्रा भी बड़े इत्मिनान से उससे उसकी ट्रिप के बारे में पूछ रही थी. कहीं किसी के चेहरे पर कोई सिलवट नहीं थी और शायद मन पर भी नहीं. उनके स्याह अतीत का एक कतरा भी नज़र नहीं आ रहा था. इन सबका कारण समय की गति थी या आवश्यकताएं. जो भी थी, शुभ्रा के जीवन का उजला पक्ष दिखा रही थी. यामिनी नाम के फटे हुए चैप्टर को चिंदी-चिंदी हो उड़ जाने दिया था. अब तो वही पन्ने रह गए थे, जो बार-बार पढ़े जाने योग्य थे.
अरु अब तक शुभ्रा के उस कदम के उठने की उम्मीद कर रही थी, जो साहस का मानक था. लेकिन शुभ्रा ने जो कमज़ोर कदम उठाया था, वो क्या वाक़ई कमज़ोर था? अब अरु इस पहेली में उलझ गई थी. दोपहर को लंच पर सब निकले, तो मूवी का प्रोग्राम बन गया था. शाम को अरु के पास तब तक सब रहे, जब तक इंदीवर नहीं आ गए. दूसरे दिन इंदीवर और अरु लंच पर आए. तो वहीं से जोधपुर के लिए निकल गए.
सभी साथ में थे. फ्लाइट में अभी समय था. इंदीवर और केतन अपनी बातें कर रहे थे, लेकिन अरु और शुभ्रा चुप थी. अंतराल के बाद आया समय कहां निकला वो दोनों जान ही नहीं पाई. मिलने के बाद बिछड़ने के पल एक स्वाभाविक भावुकता से दोनों की आंखों को भिगो गए थे.
“शुभ्रा, तुझसे एक बात बोलूं, जिस केतन को मैं देख रही हूं ये वही है, विश्‍वास नहीं होता है. बस तुम लोग ऐसे ही ख़ुश रहो. सच बता मन से तो तुम दोनों साथ हो ना?” उसकी बात पर शुभ्रा धीमे से हंस दी…
“तुझे विश्‍वास नहीं हो रहा इस बात से एक बात तो साबित है कि तुम मुझे बहुत प्यार करती हो… तेरी नाराज़गी मैं समझती हूं, पर क्या करूं मेरी कमज़ोरी, ग़लती या मेरा खुद का स्वार्थ वजह जो भी हो पर सच है कि केतन मेरी आदत बन गए हैं और आदतों के बगैर रहना मुमकिन नहीं है.” शुभ्रा की साफ़गोई से कही मासूम सी बात पर अब संदेह नहीं था. उसने शुभ्रा को गले से लगा लिया था.
वापसी में अरु साथ बिताए पलों और घटनाक्रम को दोहराते सोच रही थी, बच्चों के सामने उनकी मां को प्यार और सम्मान देने वाले पिता की छवि केतन ने यूं ही तो नही बनाई होगी. केतन और शुभ्रा ने समय रहते अपने बिखरते आशियाने को संभाल लिया था. बेशक बाहर से उनका प्रयास कमज़ोरी और बेवफ़ाई से लिपटे स्वार्थ पर पड़ा पर्दा नज़र आता हो. पर सच तो यही था कि ज़रूरतों और मजबूरियों में ही सही उन दोनों ने एक-दूसरे के हाथों को थामे रखा. अपने बच्चों के सामने सामान्य दिखने का स्वांग करते परिस्थितियां कब सामान्य हो गई वो शायद ख़ुद भी नहीं जानते होंगे. समय के साथ उनके सूखते रिश्तों पर गिरी समर्पण और अपनेपन की बूंदों ने उनके रिश्ते को फिर से हरा-भरा कर दिया था. अरु इसी सच्चाई के साथ पूर्वाग्रह को दूर करके यहां से जा रही थी. अब मन में ना संदेह था ना शिकायत. चेहरे की हंसी को धोखा मान सकती है पर शुभ्रा
की आंखों से छलकती ख़ुशी को नज़रअंदाज़ करना मुमकीन नहीं.

– मीनू त्रिपाठी

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