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कहानी- सीढ़ी (Short Story- Seedhi)

“कई बार अनजाने में ही सीढ़ी बनने का प्रयास करते-करते हम बैसाखी बन जाते हैं. बच्चों को यह एहसास कराने लग जाते हैं कि वे हमारे बिना कुछ कर ही नहीं सकते. उन्हें रिलैक्स रहने दो. उन्हें ऐसा नहीं लगे कि हम उनके पीछे अपनी ज़िंदगी होम कर रहे हैं. बल्कि ऐसा लगे कि वे अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं और हम अपनी ज़िंदगी एंजॉय कर रहे हैं…”

“मनन, कर लो न बेटा! दो घंटे हो गए हैं हमें यहां आए हुए. वापिस घर भी तो चलना है. मुझे घर के भी तो सैंकड़ों काम होते हैं.” बेटे की मिन्नतें करते एक मां का स्वर जब कानों से टकराया, तो मैं उधर मुंह घुमाए बिना न रह सकी. आंखें चार हुईं, तो उस महिला को मानो कोई सहारा मिल गया.
“देखिए न, रोज़ यह मेरा ऐसे ही व़क्त बर्बाद करता है. इतनी दूर से ऑटो करके आती हूं, जाती हूं. इसके पापा को तो टाइम है नहीं. अभी जाकर खाना बनाऊंगी. थककर चूर हो जाती हूं, पर इसे कोई फर्क़ ही नहीं पड़ता… देखो, यह भैया भी तो कर रहा है शांति से एक्सरसाइज़!” महिला का इशारा मेरे इंजीनियरिंग कर रहे बेटे अपूर्व की ओर था. मेरी हंसी छूट गई.
“दोनों की उम्र का फासला भी तो देखिए. कितने साल के हो बेटे तुम?” मैंने पूछा.
“नौ साल का.” बच्चे ने जवाब दिया.
“बहुत ब्रेव बच्चा है यह तो! अभी सब एक्सरसाइज़ कर लेगा.” मैंने बच्चे के साथ-साथ मां का भी हौसला बढ़ाना चाहा. पर मां का दर्द फूट पड़ा.
“एक ही बच्चा है और वो भी ऐसा.”
मुझे कुछ समझ नहीं आया, क्योंकि बच्चा अच्छा-भला दिख रहा था.
“इसके घुटने नहीं मुड़ते. शुरू में तो हमें पता ही नहीं चला. जब पता चला, तो डॉक्टरों के चक्कर लगने शुरू हुए. दो साल तक तो दवाइयां ही देते रहे, पर बात सर्जरी से ही बनी. डेढ़ लाख ख़र्च हो गए ऑपरेशन में. साढ़े चार महीनों से यहां फिजियोथेरेपी के लिए आ रही हूं. अब 90 डिग्री तक घुटना मुड़ने लगा है. पूरा ठीक होने में अभी चार महीने और लगेगें. देखिए, पूरे 22 टांके आए हैं घुटने में.” महिला ने बच्चे की केप्री ऊपर करते हुए बताया, तो टांकों से भरा लगभग आधा पांव देख मेरी झुरझुरी छूट गई. मैंने सिहरकर आंखें बंद कर ली.
“स्कूल जाता होगा?” मैंने सामान्य होने की कोशिश की.
“अभी दो महीने से फिर से जाना शुरू किया है, वरना बीच में तो एक लंबा ब्रेक हो गया था. मैं घर पर ही पढ़ाती थी. डबल एम.ए, बी.एड. हूं. पहले टीचर थी. पर अब इसके पीछे नौकरी छोड़ दी है. जब तक यह पूरी तरह ठीक नहीं हो जाएगा, कुछ भी नहीं करूंगी. अब तो सुबह से रात तक इसके आगे-पीछे ही घूमती रहती हूं… मनन करो बेटे… मुझे घर जाकर खाना भी तो बनाना है. बहुत चिड़चिड़ा हो गया है बीमारी की वजह से.”


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मुझे लगा मनन से ज़्यादा तो वे चिड़चिड़ा रही थीं.
अब मेरा ध्यान मनन की मां से ज़्यादा मनन के मनोभावों पर था. छोटा-सा बच्चा उम्र से पहले ही परिपक्क हो गया लगता था. गंभीर, अपराधबोध से घिरे उसके चेहरे ने मुझे अतीत में धकेलना आरंभ कर दिया. ऐसा लग रहा था मेरा अपना बेटा अपूर्व ही सामने बैठा हुआ है. वैसा ही गंभीर, अपराधबोध भरा चेहरा.
अपूर्व तब कोटा में रहकर आईआईटी कोचिंग कर रहा था. बच्चे को खाने-पीने का अभाव न हो, अकेलापन महसूस न हो यह सोचकर मैंने और उसके पापा ने निश्‍चय किया कि मैं अपूर्व के साथ कोटा रहूंगी. वहां मेरे जैसी कई मांएं थीं, जो बच्चों के करियर की ख़ातिर अपना शहर, घर-परिवार आदि छोड़कर बच्चों के संग रह रही थी. शीघ्र ही मेरी सभी से दोस्ती हो गई. लगभग रोज़ ही हमारी कहीं न कहीं गोष्ठी जम जाती थी. और बातों का लंबा सिलसिला चल पड़ता था. हमारे ही शहर की अंजू से मेरी गहरी मित्रता हो गई थी. कभी मैं उसके यहां चली जाती, तो कभी वह मेरे पास आ जाती. उस दिन वह मेरे यहां आई हुई थी. मैंने हमारे लिए चाय रखी ही थी कि अपूर्व कोचिंग से आ गया था. उसे दूध देकर मैं चाय बिस्किट लेकर अंजू के पास आ गई.
“मैं ग़लत समय तो नहीं आ गई हूं?” अंजू ने पूछा. उसका इशारा समझकर मैंने उसे आश्‍वस्त किया था.
“अरे नहीं! कोचिंग से आकर तो वो दो घंटे वैसे भी आराम करता है. पर फिर मैं उसे पढ़ने बैठने के लिए कहना शुरू कर देती हूं.”
“शुरू कर देती हूं से क्या मतलब?” उसने आश्‍चर्य से पूछा.
“अरे, पांच-दस बार कहती हूं, तब आलस मरोड़ता उठता है. कितना समझाती हूं दो साल हैं, पढ़ ले और बना ले लाइफ! मैंने तो साफ़ शब्दों में कह दिया है झोंक दे इन दो सालों में अपने आपको पूरी तरह पढ़ाई की भट्टी में. भूल जा सब टीवी, मोबाइल, खेलना-कूदना. अरे, जब हम लोग उसके लिए इतना सेक्रिफाइज़ कर रहे हैं, तो उसे भी तो अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी. मैंने इसके मारे यहां टीवी भी नहीं लगा रखा है. मेैं देखूंगी, तो वो भी देखेगा. मैं स्मार्टफोन रखूंगी…वाट्सएप, फेसबुक पर व्यस्त रहूंगी, तो उसका भी तो मन ललचाएगा. ये भी बेचारे अकेले रह रहे हैं. बाई के हाथ का कच्चा-पक्का खा रहे हैं. ढेर पैसा लग रहा है सो अलग. एक तो इतनी ट्यूशन फीस, उस पर दो-दो घर चलाना. पर क्या करें? बच्चे के करियर के लिए सब करना पड़ता है.”
“अपूर्व सुन रहा होगा.” अंजू ने मुझे चेताया था.
“हां तो क्या हुआ? उसे भी यह सब एहसास होना चाहिए न कि उसके मां-बाप उसके भविष्य के लिए कितना कुछ सफ़र कर रहे हैं. तुम बताओ तुम और विजय भाईसाहब सफ़र नहीं कर रहे विपुल के करियर के लिए.” मैंने गेंद उसी के पाले में डाल विजयी मुद्रा में उसकी ओर देखा.
“नहीं, हम तो ऐसा कदापि नहीं सोचते, बल्कि सच कहूं, तो ज़िंदगी के इस फेज़ को भी हम बख़ूबी एंजॉय कर रहे हैं. एक तो मुझे यहां रीडिंग राइटिंग का भरपूर व़क्त मिल रहा है. कभी-कभी पेटिंग भी कर लेती हूं. मेरे उधर जो अलका रहती है न, अरे तनुज की मम्मी… उसने ऑइल पेंटिंग का कोर्स कर रखा है. तो मैं उसे साथ लेकर पेंटिग का सारा सामान ले आई थी. दो कैनवास तो पोत भी डाले हैं. तुम आना देखने. हमारा नया घर बनकर तैयार होगा, तब तक मैं उसे सजाने लायक ढेरों पेंटिग्स तैयार कर चुकी होऊंगी. पुनीता से कुछ नई रेसिपीज़ भी सीख रही हूं.” अंजू ने उत्साह से बताया. पर मुझे सुनकर ख़ुशी नहीं हुई. मैं उससे मेरी हां में हां मिलाने की उम्मीद रख रही थी.
“मतलब दो साल में यहां से मल्टीटैलेंटेड बनकर निकलोगी?” मैंने व्यंग्य से कहा.
“अच्छा माना, तुम्हारा व़क्त मजे से गुज़र रहा है, पर बेचारे विजय भाईसाहब, तो अकेले परेशान होते होगें?” मैंने दूसरा तीर छोड़ा था.
“अरे नहीं. वे तो ऑफिस में आगे बढ़-बढ़कर बाहर की ट्रेनिंग, सेमीनार वगैरह के लिए अप्लाई कर रहे हैं. अनुभव भी बढ़ रहा है और सहकर्मी भी आभार मान रहे हैं कि उनके रहते किसी को फ़िलहाल घर छोड़कर नहीं जाना पड़ रहा है. अभी भी एक महीने के फॉरेन टूर पर हैं.” मजे में यह सब बताते-बताते अंजू एकाएक गंभीर हो गई थी.
“देख प्रिया, ज़िंदगी तो ऐसे ही उतार-चढ़ावों में चलती रहेगी. यह हमारे ऊपर है कि हम उनका कैसे सामना करें? यदि हम परेशान होगें, कुढ़ेगें, जताएगें, तो हमारे बच्चे अपराधबोध से भर जाएगें कि उन्हीं की वजह से उनके अभिभावकों को इतनी परेशानियों से गुज़रना पड़ रहा है. एक तो बेचारों पर वैसे ही पढ़ाई का प्रेशर, पीयर प्रेशर, ऊपर से हमारा तनाव भी पाल लेगें तो उनकी पढ़ाई प्रभावित होगी.”
“लेकिन हम उन्हें प्रेशर में कहां डाल रहे है? हम तो उनका प्रेशर हल्का करने का प्रयास कर रहे हैं. साथ रह रहे हैं, मनोबल बढ़ा रहे हैं.” मैंने प्रतिवाद किया.
“कई बार अनजाने में ही सीढ़ी बनने का प्रयास करते-करते हम बैसाखी बन जाते हैं. बच्चों को यह एहसास कराने लग जाते हैं कि वे हमारे बिना कुछ कर ही नहीं सकते. उन्हें रिलैक्स रहने दो. उन्हें ऐसा नहीं लगे कि हम उनके पीछे अपनी ज़िंदगी होम कर रहे हैं. बल्कि ऐसा लगे कि वे अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं और हम अपनी ज़िंदगी एंजॉय कर रहे हैं. हम उन पर एहसान नहीं जताएं, बल्कि ऐसा लगे कि जो कुछ भी हम कर रहे हैं अपनी ख़ुशी से, अपने आत्मसंतोष के लिए कर रहे हैं. और हक़ीक़त भी यही है. बच्चे नि:संदेह हमारी ज़िम्मेदारी हैं. पर हमारा आत्मसंतोष, हमारा गुरूर, हमारी ख़ुशी भी तो हैं.”
“हूं.” बात मुझे समझ आने लगी थी.
“देखो, यदि मैं यह कहूं कि मैंने यहां आकर तुम्हारा तनाव कम कर दिया, तुम्हारा मनोबल बढ़ा दिया, तो सहमत होते हुए भी शायद तुम्हें मेरा एहसान जताना अखरे. पर अगर मैं कहूं कि आज तुमसे बात करके मैं बहुत हल्का और अच्छा महसूस कर रही हूं, तो तुम्हें लगेगा कि तुम्हारी भी कोई अहमियत है. और शायद तुम आगे बढ़कर मुझसे परामर्श करो. मेरी सलाह लेना पसंद करो. बच्चों की सीढ़ी बनकर मदद करेगें, तो वे आत्मनिर्भर बनेगें. और यदि बेैसाखी बनकर उन्हें सहारा देना चाहेगें, तो वे अपंग हो जाएगें… अपंग भी ऐसा जो ख़ुुद से नाराज़, ज़माने भर से नाराज़… अब मुझे चलना चाहिए. विपुल भी आ गया होगा. वैसे उसे मेरा इधर-उधर जाकर समय व्यतीत करना अच्छा लगता है.”

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अंजू चली गई थी, पर मैं आत्मविश्‍लेषण पर मजबूर हो गई थी.
‘शायद वह ठीक कह रही है. इसीलिए अपूर्व आजकल बात-बात पर मुझ पर झल्लाने लगा है. उस दिन कैसे बोल रहा था मैं अलार्म लगाकर ख़ुुद सो, उठ जाऊंगा. आपको मेरे अनुसार सोने-जागने की ज़रूरत नहीं है. और न ही बार-बार खाने के लिए कहने की ज़रूरत है. मैं छोटा बच्चा नहीं हूं. जब भूख लगेगी, इच्छा होगी ख़ुद ले लूंगा, खा लूंगा. यहां तक कि बना भी लूंगा,ल बल्कि मैं तो कहता हूं आपको मेरे लिए यहां रहने की भी ज़रूरत नहीं है. कितने बच्चों की मांएं उनके साथ रह रही है? वे भी तो आराम से खा-पढ़ रहे हैं, बल्कि मुझसे ज़्यादा चैन से खा-पढ़ रहे हैं. आप तो हर व़क्त सिर पर सवार रहती हैं.”
और मैं बेवकूफ़ उसकी मन:स्थिति समझे बिना उस पर अपनी भड़ास निकालने लग गई थी. “लो, इनके लिए मरो, खपो और ऊपर से यह सब सुनने को मिल रहा है.”
उसी दिन से मैंने ख़ुद को बदलने की ठान ली थी. सब कुछ सही था. बस थोड़ी सोच बदलने की ज़रूरत थी. बैसाखी से सीढ़ी में रूपांतरित होते मुझे ज़्यादा व़क्त नहीं लगा और सुपरिणाम सामने था. अपूर्व ने बहुत अच्छे अंकों से आईआईटी में प्रवेश पा लिया था.
“आपके बेटे को क्या हुआ है?” मनन की मां ने सवाल दुहराया तो मैं वर्तमान में लौटी.
“कौन अपूर्व! यह आईआईटी दिल्ली से इंजीनियरिंग कर रहा है. परीक्षाएं समाप्त हुई ही थीं कि इसका बाइक से एक्सीडेंट हो गया. घुटने की सर्जरी हुई है. फिजियोथेरेपी के लिए हम हमारे पास घर ले आए हैं. वैसे भी अभी दो-तीन महीने की छुट्टियां हैं, तो पढ़ाई का कोई विशेष हर्ज़ाना नहीं होगा.”
“हां, पर आप लोगों का तो पूरा दिन इसकी तीमारदारी में ही निकल जाता होगा. रोज़ ही आपको और इसके पापा को यहां घूमते देखती हूं.”
अपूर्व और मनन सहित और भी कई जोड़ी आंखें मेरी ओर टिक गई थीं, पर मैं रिलैक्स थी.
“हमारा तो बहुत अच्छा व़क्त निकल रहा है. वैसे तो चोट और दर्द अपनी जगह ख़राब ही हैं, पर इस बहाने बेटे के साथ अच्छा व़क्त गुज़र रहा है, वरना तो यह छुट्टियों में घर आकर भी दोस्तों के साथ घूमता रहता है. अब हमारे साथ खाता, बतियाता है, तो हमें बहुत अच्छा लगता है. यहां भी दो घंटे मज़े से निकल जाते हैं. यह हेडफोन लगाकर एक्सरसाइज़ करता रहता है. मैं अपने अख़बार, पत्रिका सब यहीं ले आती हूं. पता ही नहीं चलता कब समय निकल जाता है. इसके पापा यहां आते ही सामने वाले पार्क में घूमने चले जाते हैं. शुगर बढ़ जाने के कारण डॉक्टर ने इन्हें वॉकिंग बता रखी है. पर घर रहते हो ही नहींं पा रही थी. कभी कोई मिलने आ रहा है, तो कभी ये काम तो कभी वो काम. अपूर्व तो कल ही अपने पापा से लड़ रहा था कि ऐसे नहीं कि मैं लौट जाऊं, तो आप वॉकिंग बंद कर दें. बल्कि मां को भी साथ लेकर जाना.”
मैंने गौर किया हैडफोन हटाए अपूर्व मेरी ही बात सुन रहा था. न केवल सुन रहा था, वरन मंद-मंद मुस्कुरा भी रहा था. उसके पांव तेजी से एक्सरसाइज़ करने लगे थे.
‘भगवान इसे जल्द अच्छा करे.’ मैंने मन ही मन प्रार्थना की. सीढ़ी बनने के आत्मसंतोेष से मेरा चेहरा उद्दीप्त हो उठा था.

संगीता माथुर
            

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