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कहानी- सीख (Short Story- Seekh)

 

“बाबूजी, संसार में हर जन अकेला आवे है और यहां से अकेला ही जावे है. भगवान हमारे जरिये से दुनिया में अपना अंस (अंश) भेजे हैं, मगर हम हैं कि उसे अपनी जायदाद समझ दाब लेने की कोसिस करे हैं. सो सारी ऊमर उसके पीछे रोते-रोते काट देवे हैं. जो जहां है, जैसे जीवे है जीने दो और ख़ुद भी मस्ती से जीवो. ज़ोर-ज़बरदस्ती का बन्धन तो बाबूजी कैसा भी हो, दुखे ही है. प्यार से कोई साथ रहे तो ठीक, नहीं तो तू अपने रस्ते मैं अपने रस्ते…” बुढ़िया एक दार्शनिक की तरह बेफ़िक्री-से बोले चली जा रही थी और वो दोनों मूक दर्शक बने सब कुछ चुपचाप सुन रहे थे. उसकी बातें सत्य कुमार के अंतर्मन पर गहरी चोट कर रही थी.

भोर के समय सूर्यदेवता ने अपना प्रसार क्षेत्र विस्तृत करना आरंभ कर दिया था. सत्य कुमार बालकनी में आंखें मूंदे बैठे थे, तभी किचन से उनकी धर्मपत्नी सुधा चाय लेकर आई, “लो, ऐसे कैसे बैठे हो, अभी तो उठे हो, फिर आंख लग गई क्या? क्या बात है, तबियत ठीक नहीं लग रही है क्या?” सुधा ने मेज़ पर चाय की ट्रे रखते हुए पूछा. सत्य कुमार ने धीमे से आंखें खोलकर उन्हें देखा और पुन: आंखें मूंद लीं. सुधा कप में चाय उड़ेलते हुए दबे स्वर में बोलने लगी, “मुझे मालूम है, दीपू का वापस जाना आपको खल रहा है. मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है, लेकिन क्या करें. हर बार ऐसा ही होता है- बच्चे आते हैं, कुछ दिनों की रौनक होती है और वे चले जाते हैं.”
मेरठ यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रवक्ता और लेखक सत्य कुमार की विद्वत्ता उनके चेहरे से साफ़ झलकती थी. उनकी पुस्तकों से आनेवाली रॉयल्टी रिटायरमेंट के बाद पनपनेवाले अर्थिक अभावों को दूर फेंकने में सक्षम थी. उनके दो बेटों में छोटा सुदीप अपनी सहपाठिनी के साथ प्रेम विवाह कर मुम्बई में सेटल हो गया था. विवाह के बाद वो उनसे ज़्यादा मतलब नहीं रखता था. बड़ा बेटा दीपक कंप्यूटर इंजीनियर था. उसने अपने माता-पिता की पसंद से अरेन्ज्ड मैरिज की थी. उसकी पत्नी मधु सुंदर, सुशील और हर काम में निपुण, अपने सास-ससुर की लाडली बहू थी. दीपक और मधु कुछ वर्षों से लंदन में थे और दोनों वहीं सेटल होने की सोच रहे थे. दीपक का लंदन रुक जाना सत्य कुमार को अच्छा नहीं लगा, मगर सुधा ने उन्हें समझा दिया था कि अपनी ममता को बच्चों की तऱक़्क़ी के आड़े नहीं लाना चाहिए और वैसे भी वो लंदन रहेगा तो भी क्या, आपके रिटायरमेंट के बाद हम ही उसके पास चले जाएंगे. दीपक और मधु उनके पास साल में एक बार 10-15 दिनों के लिए अवश्य आते और उनसे साथ लंदन चलने का अनुरोध करते. मधु जितने दिन वहां रहती, अपने सास-ससुर की ख़ूब सेवा करती.
आज सत्य कुमार को रिटायर हुए पूरे दो वर्ष हो चुके थे, मगर इन दो वर्षों में दीपक ने उन्हें लंदन आने के लिए भूले से भी नहीं कहा था. सुधा उनसे बार-बार ज़िद किया करती थी, ‘चलो हम ही लंदन चलें’, लेकिन वो बड़े ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे और बिना बुलावे के कहीं जाना स्वयं का अपमान समझते थे.
उनकी बंद आंखों के पीछे कल रात के उस दृश्य की बारम्बार पुनरावृत्ति हो रही थी, जो उन्होंने दुर्भाग्यवश अनजाने में देखा था… दीपक और मधु अपने कमरे में वापसी के लिए पैकिंग कर रहे थे, दोनों में कुछ बहस छिड़ी हुई थी, “देखो-तुम भूले से भी मम्मी-पापा को लंदन आने के लिए मत कहना, वो दोनों तो कब से तुम्हारी पहल की ताक में बैठे हैं, मुझसे उनके नखरे नहीं उठाए जाएंगे… मुझे ही पता है, मैं यहां कैसे 15-20 दिन निकालती हूं. सारा दिन नौकरानियों की तरह पिसते रहो, फिर भी इनके नखरे ढीले नहीं होते. चाहो तो हर महीने कुछ पैसे भेज दिया करो, हमें कहीं कोई कमी नहीं आएगी…” मधु बार-बार गर्दन झटकते हुए बड़बड़ाए जा रही थी.
“कैसी बातें कर रही हो? मुझे तुम्हारी उतनी ही चिन्ता है जितनी कि तुम्हें. तुम फ़िक्र मत करो, मैं उनसे कभी नहीं कहूंगा. मुझे पता है, पापा बिना कहे लंदन कभी नहीं आएंगे.” दीपक मधु के गालों को थपथपाता हुआ उसे समझा रहा था. “मुझे तो ख़ुद उनके साथ एडजस्ट करने में द़िक़्क़त होती है. वे अभी भी हमें बच्चा ही समझते हैं. अपने हिसाब से ही चलाना चाहते हैं. समझते ही नहीं कि उनकी लाइफ़ अलग है, हमारी लाइफ़ अलग… उनकी इसी आदत की वजह से सुदीप ने भी उनसे कन्नी काट ली…” दीपक धाराप्रवाह बोलता चला जा रहा था. दोनों इस बात से बेख़बर थे कि दरवाज़े के पास खड़े सत्य बुत बने उनके इस वार्तालाप को सुन रहे थे.

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सत्य कुमार सन्न थे… उनका मस्तिष्क कुछ सोचने-समझने के दायरे से बाहर जा चुका था, अत: वो उन दोनों के सामने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाए. उनको सी-ऑफ़ करने तक का समय उन्होंने कैसे कांटों पर चलकर गुज़ारा था, ये बस उनका दिल ही जानता था. दीपक और मधु जिनकी वो मिसाल दिया करते थे, उन्हें इतना बड़ा धोखा दे रहे थे… जाते हुए दोनों ने कितने प्यार और आदर के साथ उनके पैर छुए थे. ये प्यार… ये अपनापन… सब दिखावा… छि:… उनका मन पुन: घृणा और क्षोभ से भर उठा. वो यह भी तय नहीं कर पा रहे थे कि सुधा को इस बारे में बताएं अथवा नहीं, ये सोचकर कि क्या वो यह सब सह पाएगी… सत्य बार-बार बीती रात के घटनाक्रम को याद कर दुख के महासागर में गोते लगाने लगे.
समय अपनी ऱफ़्तार से गुज़रता जा रहा था, मगर सत्य कुमार का जीवन जैसे उसी मोड़ पर थम गया था. अपनी आन्तरिक वेदना को प्रत्यक्ष रूप से बाहर प्रकट नहीं कर पाने के कारण वो भीतर-ही-भीतर घुटते जा रहे थे. उस घटना के बाद उनके स्वभाव में भी काफ़ी नकारात्मक परिवर्तन आ गया. दुख को भीतर-ही-भीतर घोट लेने के कारण वे चिड़चिड़े होते जा रहे थे. बच्चों से मिली उपेक्षा से स्वयं को अवांछित महसूस करने लगे थे. धीरे-धीरे सुधा भी उनके दर्द को महसूस करने लगी. दोनों मन-ही-मन घुटते, मगर एक-दूसरे से कुछ नहीं कहते. लेकिन अभी भी उनके दिल के किसी कोने में उम्मीद की एक धुंधली किरण बाकी थी कि शायद कभी किसी दिन बच्चों को उनकी ज़रूरत महसूस हो और वो उन्हें जबरन अपने साथ ले जाएं, ये उम्मीद ही उनके अंत:करण की वेदना को और बढ़ा रही थी.
एक दिन सत्य कुमार किसी काम से हरिद्वार जा रहे थे. उन्हें चले हुए 3-4 घंटे हो चुके थे, तभी कार से अचानक खर्र-खर्र की आवाज़ें आने लगीं. इससे पहले कि वो कुछ समझ पाते, कार थोड़ी दूर जाकर रुक गई और दोबारा स्टार्ट नहीं हुई. सिर पर सूरज चढ़कर मुंह चिढ़ा रहा था. पसीने से लथपथ सत्य लाचार खड़े अपनी कार पर झुंझला रहे थे.
“थोड़ा पानी पी लीजिए.” सुधा पानी देते हुए बोली “काश, कहीं छाया मिल जाए.” सुधा साड़ी के पल्लू से मुंह पोंछती हुई इधर-उधर नज़रें दौड़ाने लगी.
“मेरा तो दिमाग़ ही काम नहीं कर रहा है… ये सब हमारे साथ ही क्यों होता है…? क्या भगवान हमें बिना परेशान किए हमारा कोई काम पूरा नहीं कर सकता?” ख़ुद को असहाय पाकर सत्य कुमार ने भगवान को ही कोसना शुरू कर दिया.
“देखो, वहां दूर एक पेड़ है, वहां दो-तीन छप्पर भी लगे हैं, वहीं चलते हैं. शायद कुछ मदद मिल जाए…” सुधा ने दूर एक बड़े बरगद के पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा. दोनों बोझिल क़दमों से उस दिशा में बढ़ने लगे.
वहां एक छप्पर तले चाय की छोटी-सी दुकान थी, जिसमें दो-तीन टूटी-फूटी बेंचें पड़ी थीं. उन पर दो ग्रामीण बैठे चाय पी रहे थे. वहीं पास में एक बुढ़िया कुछ गुनगुनाती हुई उबले आलू छील रही थी. दुकान में एक तरफ़ एक टूटे-फूटे तसले में पानी भरा था, उसके पास ही अनाज के दाने बिखरे पड़े थे. कुछ चिड़िया फुदककर तसले में भरा पानी पी रही थीं और कुछ बैठी पेटपूजा कर रही थीं. साथ लगे पेड़ से बार-बार गिलहरियां आतीं, दाना उठातीं और सर्र से वापस पेड़ पर चढ़ जातीं. पेड़ की शाखाओं के हिलने से ठंडी हवा का झोंका आता जो भरी दोपहरी में बड़ी राहत दे रहा था. शाखाओं के हिलने से, पक्षियों की चहचहाहट से, गिलहरियों की भाग-दौड़ से उपजे मिश्रित संगीत की गूंज अत्यंत कर्णप्रिय लग रही थी. सुधा आंखें मूंदे इस संगीत का आनंद लेने लगी.

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“क्या चाहिए बाबूजी, चाय पीवो?”
बुढ़िया की आवाज़ से सुधा की तंद्रा टूटी. वो सत्य कुमार की ओर देखते हुए बोली, “आप चाय के साथ कुछ लोगे क्या?”
“नहीं.” सत्य कुमार ने क्रोध भरा टका-सा जवाब दिया.
“बाबूजी, आपकी सकल बतावे है कि आप भूखे भी हो और परेसान भी, खाली पेट तो रत्तीभर परेसानी भी पहाड़ जैसी दिखे है. पेट में कुछ डाल लो. सरीर भी चलेगा और दिमाग़ भी, हा-हा-हा…” बुढ़िया इतना कह कर खुलकर हंस पड़ी.
बुढ़िया की हंसी देखकर सत्य कुमार तमतमा गए. लो पड़ गई आग में आहुति, सुधा मन में सोचकर सहम गई. वो मुंह से कुछ नहीं बोले, लेकिन बुढ़िया की तरफ़ घूरकर देखने लगे.
बुढ़िया चाय बनाते-बनाते बतियाने लगी, “बीबीजी, इस सुनसान जगह में कैसे थमे, क्या हुआ?”
“दरअसल हम यहां से गुज़र रहे थे कि हमारी गाड़ी ख़राब हो गयी. पता नहीं यहां आसपास कोई मैकेनिक भी मिलेगा या नहीं.” सुधा ने लाचारी प्रकट करते हुए पूछा.
“मैं किसी के हाथों मैकेनिक बुलवा लूंगी. आप परेसान ना होवो.” बुढ़िया उन्हें चाय और भजिया पकड़ाते हुए बोली.
“अरे ओ रामसरन, इधर आइयो…” बुढ़िया दूर खेत में काम कर रहे व्यक्ति की ओर चिल्लाई. “भाई, इन भले मानस की गाड़ी ख़राब हो गयी है, ज़रा टीटू मैकेनिक को तो बुला ला… गाड़ी बना देवेगा…इस विराने में कहां जावेंगे बिचारे.” बुढ़िया के स्वर में ऐसा विनयपूर्ण निवेदन था जैसे उसका अपना काम ही फंसा हो.
“बाबूजी चिन्ता मत करो, टीटू ऐसा बच्चा है, जो मरी कैसी भी बिगड़ी गाड़ी को चलता कर देवे है.” इतना कह बुढ़िया चिड़ियों के पास बैठ ज्वार-बाजरे के दाने बिखेरने लगी. “अरे मिठ्ठू, आज मिठ्ठी कहां है?” वो एक चिड़िया से बतियाने लगी.
सत्य को उसका यह व्यवहार कुछ सोचने पर मजबूर कर रहा था. ऐसी बुढ़िया जिसकी शारीरिक और भौतिक अवस्था अत्यंत जर्जर है, उसका व्यवहार, उसकी बोलचाल इतनी सहज, इतनी उन्मुक्त है जैसे कभी कोई दुख का बादल उसके ऊपर से ना गुज़रा हो, कितनी शांति है उसके चेहरे पर.
“माई, तुम्हारा घर कहां है? यहां तो आसपास कोई बस्ती नज़र नहीं आती, क्या कहीं दूर रहती हो?” सत्य कुमार ने विनम्रतापूर्वक प्रश्‍न किया.
“बाबूजी, मेरा क्या ठौर-ठिकाना, कोई गृहसती तो है ना मेरी, जो कहीं घर बनाऊं? सो यहीं इस छप्पर तले मौज़ से रहू हूं. भगवान की बड़ी किरपा है.” सत्य कुमार का ध्यान बुढ़िया के मुंह से निकले ‘मौज़’ शब्द पर अटका. भला कहीं इस शमशान जैसे वीराने में अकेले रहकर भी मौज़ की जा सकती है. वो बुढ़िया द्वारा कहे गए कथन का विश्‍लेषण करने लगे, उन्हें इस बुढ़िया का फक्कड़, मस्ताना व्यक्तित्व अत्यंत रोचक लग रहा था.

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“यहां निर्जन स्थान पर अकेले कैसे रह लेती हो माई, कोई परेशानी नहीं होती क्या?” सत्य कुमार ने उत्सुकता से पूछा.
“परेसानी…” बुढ़िया क्षण भर के लिए ठहरी, “परेसानी काहे की बाबूजी, मजे से रहूं हूं, खाऊं हूं, पियूं हूं और तान के सोऊं हूं… देखो बाबूजी, मानस जन ऐसा प्रानी है, जो जब तक जिए है परेसानी-परेसानी चिल्लाता फिरे है, भगवान उसे कितना ही दे देवे, उसका पेट नहीं भरे है. मैं पुछू हूं, आख़िर खुस रहने को चाहवे ही क्या, ज़रा इन चिड़ियों को देखो, इन बिचारियों के पास क्या है. पर ये कैसे खुस होकर गीत गावे हैं.”
सत्य कुमार को बुढ़िया की सब बातें ऊपरी कहावतें लग रही थीं. “पर माई, अकेलापन तो लगता होगा ना?” सत्य कुमार की आंखों में दर्द झलक उठा.
“अकेलापन काहे का बाबूजी, दिन में तो आप जैसे भले मानस आवे हैं. चाय पीने वास्ते, गांववाले भी आते-जाते रहवे हैं और ये मेरी चिड़कल बिटिया तो सारा दिन यहीं डेरा डाले रखे है.” बुढ़िया पास फुदक रही चिड़ियों पर स्नेहमयी दृष्टि डालते हुए बोली.
क्या इतना काफ़ी है अकेलेपन के एहसास पर विजय प्राप्त करने के लिए, सत्य कुमार के मन में विचारों का मंथन चल रहा था. उनके पास तो सब कुछ है- घर-बार, दोस्तों का अच्छा दायरा, उनके सुख-दुख की साथी सुधा, फिर क्यों उन्हें मात्र बच्चों की उपेक्षा से अकेलेपन का एहसास सांप की तरह डसता है?
“अकेलापन, परेसानी, ये सब फालतू की बातें हैं बाबूजी. जिस मानस को रोने की आदत पड़ जावे है ना, वो कोई-ना-कोई बहाना ढूंढ़ ही लेवे है रोने का.” बुढ़िया की बातें सुन सत्य कुमार अवाक् रह गए. उन्हें लगा जैसे बुढ़िया ने सीधे-सीधे उन्हीं पर पत्थर दे मारा हो.
क्या सचमुच हर व़क़्त रोना, क़िस्मत को और दूसरों को दोष देना उनकी आदत बन गई है? क्यों उनका मन इतना व्याकुल रहता है…? सत्य कुमार के मन में उद्वेगों का एक और भंवर चल पड़ा.
“माई, तुम्हारा घर-बार कहां है, कोई तो होगा तुम्हारा सगा-संबंधी?” सत्य कुमार ने अपनी पूछताछ का क्रम ज़ारी रखा.
बुढ़िया गर्व से गर्दन अकड़ाते हुए बोली, “है क्यों नहीं बाबूजी, पूरा हरा-भरा कुनबा है मेरा. भगवान सबको बरकत दे. बाबूजी, मेरे आदमी को तो मरे ज़माना बीत गया. तीन बेटे और दो बेटियां हैं मेरी. नाती-पोतोंवाली हूं, सब सहर में बसे हैं और अपनी-अपनी गृहस्ती में मौज करे हैं.” बुढ़िया कुछ देर के लिए रुककर फिर बोली, “मेरा एक बच्चा फौज में था, पिछले साल कसमीर में देस के नाम सहीद हो गया. भगवान उसकी आतमा को सान्ति देवे.” बुढ़िया की बात सुन दोनों हतप्रभ रह गए और एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे. इतनी बड़ी बात कितनी सहजता से कह गई थी वो और उसके चाय बनाने के क्रम में तनिक भी व्यवधान नहीं पड़ा था. वो पूरी तरह से सामान्य थी. ना चेहरे पर शिकन…. ना आंखों में नमी…
क्या इसे बच्चों का मोह नहीं होता? सत्य कुमार मन-ही-मन सोचने लगे, “तुम अपने बेटों के पास क्यों नहीं रहती हो?” उन्होंने एक बड़े प्रश्‍नचिह्न के साथ बुढ़िया से पूछा.
“नहीं बाबूजी… अब कौन उस मोह-माया के जंजाल में उलझे… सब अपने-अपने ढंग से अपनी गृहस्ती चलावे हैं. अपनी-अपनी सीमाओं में बंधे हैं. मैं साथ रहन लगूंगी, तो अब बुढ़ापे में मुझसे तो ना बदला जावेगा, सो उन्हें ही अपने हिसाब से चलाने की कोसिस करूंगी. ख़ुद भी परेसान रहूंगी और उन्हें भी परेसान करूंगी. मैं तो यहीं अपनी चिड़कल बिटियों के साथ भली….” बुढ़िया दोनों हाथ ऊपर उठाते हुए बोली. “अरे मेरी बिट्टू आ गई, आज तेरे बच्चे संग नहीं आए? कहीं तेरा साथ छोड़ फुर्र तो नहीं हो गये?” बुढ़िया एक चिड़िया की ओर लपकी. “बाबूजी, देखो तो मेरी बिट्टू को… इसके बच्चे इससे उड़ना सीख फुर्र हो गए, तो क्या ये परेसान हो रही है? रोज़ की तरह अपना दाना-पानी लेने आयी है और चहके भी है. ये तो प्रकृति का नियम है बाबूजी, ऐसा ही होवे है. इस बारे में सोच के क्या परेसान होना.” बुढ़िया ने सीधे सत्य और सुधा की दुखती रग पर हाथ रख दिया. यही तो था उनके महादुख का मूल, उनके बच्चे उड़ना सीख फुर्र हो गए थे.
“बाबूजी, संसार में हर जन अकेला आवे है और यहां से अकेला ही जावे है. भगवान हमारे जरिये से दुनिया में अपना अंस (अंश) भेजे हैं, मगर हम हैं कि उसे अपनी जायदाद समझ दाब लेने की कोसिस करे हैं. सो सारी ऊमर उसके पीछे रोते-रोते काट देवे हैं. जो जहां है, जैसे जीवे है जीने दो और ख़ुद भी मस्ती से जीवो. ज़ोर-ज़बरदस्ती का बन्धन तो बाबूजी कैसा भी हो, दुखे ही है. प्यार से कोई साथ रहे तो ठीक, नहीं तो तू अपने रस्ते मैं अपने रस्ते…” बुढ़िया एक दार्शनिक की तरह बेफ़िक्री-से बोले चली जा रही थी और वो दोनों मूक दर्शक बने सब कुछ चुपचाप सुन रहे थे. उसकी बातें सत्य कुमार के अंतर्मन पर गहरी चोट कर रही थी.

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ये अनपढ़ मरियल-सी बुढ़िया ऐसी बड़ी-बड़ी बातें कर रही है. इस ढांचा शरीर में इतना प्रबल मस्तिष्क. क्या सचमुच इस बुढ़िया को कोई मानसिक कष्ट नहीं है…? बुढ़िया के कड़वे, लेकिन सच्चे वचन सत्य कुमार के मन पर भीतर तक असर डाल रहे थे. “लो रामसरन आ गया.” बुढ़िया की उत्साहपूर्ण आवाज़ से दोनों की ध्यानमग्नता टूटी.
आज सत्य कुमार को बुढ़िया के व्यक्तित्व के सामने स्वयं का व्यक्तित्व बौना प्रतीत हो रहा था. आज महाज्ञानी सत्य कुमार को एक अनपढ़, अदना-सी बुढ़िया से तत्व ज्ञान मिला था. आज बुढ़िया का व्यवहार ही उन्हें काफ़ी सीख दे गया था. सत्य कुमार महसूस कर रहे थे जैसे उनके चारों ओर लिपटे अनगिनत जाले एक-एक करके हटते जा रहे हों. अब वो अपने अंतर्मन की रोशनी में सब कुछ स्पष्ट देख पा रहे थे. जो पास नहीं हैं, उसके पीछे रोते-कलपते और जो है उसका आनंद न लेने की भूल उन्हें समझ आ गई थी. “बाबूजी, कार ठीक हो गई है.” मैकेनिक की आवाज़ से सत्य कुमार विचारों के आकाश से पुन: धरती पर आए.
“आपका बहुत-बहुत धन्यवाद.” सत्य कुमार ने मुस्कुराहट के साथ मैकेनिक
का अभिवादन किया. उनके चेहरे से दुख और परेशानी के भाव गायब हो चुके थे. दोनों कार में बैठ गए. सत्य ने वहीं से बुढ़िया पर आभार भरी दृष्टि डाली और कार वापस घुमा ली.
“अरे, यह क्या, हरिद्वार नहीं जाना क्या?” सुधा ने घबराकर पूछा.
“नहीं.” सत्य कुमार ने बड़े ज़ोश के साथ उत्तर दिया. “हम हरिद्वार नहीं जा रहे हैं.” थोड़ा रुककर पुन: बोले, “हम मसूरी जा रहे हैं घूमने-फिरने. काम तो चलते ही रहते हैं. कुछ समय अपने लिए भी निकाला जाए.” सत्य कुमार कुछ गुनगुनाते हुए ड्राइव कर रहे थे और सुधा उन्हें विस्मित् नेत्रों से घूरे जा रही थी.

 

       दीप्ति मित्तल

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Usha Gupta

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