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कहानी- शिखर पर (Short Story- Shikhar Par)

उस पल मुझे लगा कि गुत्थियों के जंगल से निकल मैं एक शिखर पर खड़ी हुई हूं, जहां सम्मान के साथ मुझे एक अच्छी पत्नी आदर्श मां होने का दर्जा दिया जा रहा है.

“आप ज़हर खाकर मर क्यों नहीं जातीं.” नीरव की बात सुन मैंने हंसते हुए उससे पूछा, “तुम लोग रह लोगे मेरे बिना?”
“हां रह लूंगा.” वह तमतमाते हुए बोला.
अब तक मैं समझ रही थी कि वह किसी कार्टून के पात्र को अपने में उतारकर उसकी भूमिका अदा कर रहा है, पर उसके चेहरे पर छाई तटस्थता और एक मौन स्वीकृति के भाव ने मुझे एहसास कराया कि वह गंभीर है.
अपने 14 वर्षीय बेटे के मुंह से यह बात सुन मैं हैरान रह गई. मुझे अपनी मां होने की क्षमताओं पर संदेह होने लगा.
“आप और बच्चों की मम्मी जैसी क्यों नहीं हैं? आप घर पर भी नहीं रहतीं. बस, पापा अच्छे हैं. हर समय मेरा ख़याल रखते हैं. स्कूल से आता हूं तो पापा ही घर पर मिलते हैं, आप नहीं.”
“बेटा, मेरा जॉब ही ऐेसा है, जिसमें मुझे ज़्यादा व़क़्त घर से बाहर रहना पड़ता है. तुम्हारे पापा का काम ऐसा है कि वे लंच के लिए घर आ सकते हैं. फिर घर के पास ही है उनका ऑफ़िस. पापा ख़ुद ही बॉस हैं, इसलिए जब चाहे घर आ-जा सकते हैं.” मैंने उसे समझाने की कोशिश की.
हालांकि इस उम्र में उसे समझाना बेमानी लगता था. वह काफ़ी समझदार हो चुका था. यह भी समझता था कि मम्मी की नौकरी की वजह से ही सुख-सुविधाओं के अंबार जुटते थे… फिर भी मन को समझाया, आख़िर है तो बच्चा ही.
“आप अच्छी मम्मी नहीं हैं. आप मम्मी जैसी मम्मी नहीं हैं.” मुझे लगा कि जैसे नीरव ने मेरे मुंह पर करारा तमाचा जड़ दिया है. ‘मम्मी जैसी मम्मी नहीं.’ आख़िर उसकी नज़र में मम्मी की क्या परिभाषा है? शायद वही ठीक है. मैं एक आदर्श मां की श्रेणी में नहीं आती हूं. आती तो मैं एक आदर्श पत्नी की श्रेणी में भी नहीं हूं… अपेक्षाओं को ठीक से समझकर पूरा करना दूसरों को ख़ुश रखने के लिए आवश्यक होता है. तभी दूसरे चाहे वह पति हो या बच्चा या कोई और. आपसे ख़ुश रह सकते हैं और अपनी ख़ुशी… अपनी अपेक्षाएं… क्या उनके बारे में सोचना स्वार्थी होने की निशानी होती है?
सिलसिला उस दिन ही रुका नहीं, क्योंकि नीरव की वह प्रतिक्रिया मात्र क्षणिक नहीं थी, दबे हुए ज्वालामुखी के फूटते लावे जैसी थी. वह भूला नहीं कि उसने क्या कहा था, वरना ग़ुस्से में तो वह न जाने क्या-क्या कह जाता था. उस दिन ऑफ़िस से आकर बैठी ही थी कि बोला, “ज़रा मार्केट जाना है, एक क़िताब ख़रीदनी है. आप चलो.”
“बेटा, अभी तो आई हूं, थोड़ी देर में पापा आ जाएंगे, तब उनके साथ चले जाना.”
बस तुनक गया वह. “आप मेरी मम्मी नहीं हैं.” अपने कमरे में जाकर उसने चीज़ों को इधर-उधर फेेंकना शुरू कर दिया. मन तो हुआ उसे झिंझोड़ डालूं, पर ठहर गई. थकावट और दर्द के सैलाब को स़िर्फ आंखों में समेट लिया. उम्र के कारण शरीर में हो रहे बदलावों की वजह से वह इस तरह रिएक्ट करने लगा था या सचमुच में वही उसकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पा रही थी.
नौकरी को मजबूरी कहकर नौकरी करना स्वयं को जस्टिफाई करने जैसा होता है. उसकी मजबूरी तो नहीं थी, हां शा़ैक था. वह घर बैठ ही नहीं सकती थी और फिर अच्छा जॉब मिलना भी क्या आसान होता है. क्षितिज का बिज़नेस ठीक-ठाक चल रहा था. ऊपर-नीचे तो बिज़नेस में होता ही रहता है, लेकिन अगर वह नौकरी न भी करे तो भी अच्छी ज़िंदगी जी जा सकती थी. अच्छी ज़िंदगी यानी अच्छा खाना, अच्छे कपड़े. ज़रूरतें पूरी हो सकती थीं, पर लिविंग स्टैंडर्ड मेंटेन उसकी नौकरी के चलते ही हो पाता था.
“ज़रूरत क्या है तुम्हें धक्के खाने की, घर में रहो और नीरव पर ध्यान दो.” क्षितिज कई बार उससे कह चुका था. आज भी उसके आते ही वही बहस शुरू हो गई थी. “एक दिन उसकी बात मान उसके साथ चली जातीं तो क्या हो जाता? कितनी बार कहा है कि नौकरी छोड़ दो, पर तुम तो बस अपने बारे में सोचती हो.”
“सही समझे, आख़िर नौकरी तो मैं अपने लिए कर रही हूं. बढ़ती महंगाई और रिसेशन के इस समय में तुम्हें क्यों नहीं यह बात समझ आती कि नौकरी आजकल कोई मौज-मस्ती करने की चीज़ नहीं है, एक ज़रूरत है. उन लोगों से जाकर पूछो, जिनके यहां कमानेवाला एक ही है. कितनी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं उन्हें और तुम चाहते हो कि मैं सारे दिन किचन में घुसी रहकर अपने टैलेंट और हर महीने मिलने वाले वेतन को नज़रअंदाज़ कर दूं.”
“मैं ये सब नहीं जानता बस…” क्षितिज को मानो कहने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे.

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“मैं भी नीरव के साथ क्वालिटी टाइम गुज़ारती हूं, पर उसने अपने मन में मुझे लेकर न जाने कैसी धारणाएं बना ली हैं. उसे समझाने से पहले तुम्हें मुझे समझना होगा. मैं इस तरह की ज़िंदगी नहीं जी सकती. मुझे लोगों से मिलना-जुलना अच्छा लगता है. इतने बरसों से नौकरी करते-करते इसकी आदत हो गई है. अब छोड़ दी तो फिर नहीं मिलेगी. बी प्रैक्टिकल क्षितिज. फिर आगे नीरव की पढ़ाई का ख़र्च दिन-ब-दिन बढ़ेगा ही.”
“तुम तो अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए घर से बाहर रहना चाहती हो. न जाने कौन-सी उपलब्धि की चाह तुम्हें घर के बाहर रहने के लिए उकसाती है. और फिर मैं कौन-सा तुम्हें घर में ़कैद होने के लिए कह रहा हूं. तुम्हें घूमने-फिरने की मनाही तो नहीं है. नीरव जिस दौर से गुज़र रहा है, ऐसे में बिगड़ने की संभावना ज़्यादा रहती है. तुम घर पर रहोगी तो कम से कम यह तो देख सकोगी कि वह टीवी पर क्या देख रहा है, नेट स़िर्फंग के कितने भयानक परिणाम देख-सुन चुके हैं हम.”
“पर तुम तो घर पर काफ़ी व़क़्त बिताते हो. तुम उस पर नज़र रख सकते हो. नीरव हम दोनों की ही ज़िम्मेदारी है. जैसी जिसकी सुविधा हो क्या, मैनेज नहीं करना चाहिए? ” इस बार उसकी आवाज़ में न तो तल्खी थी, न ही रोष. क्षितिज की ओर से कोई जवाब न पाकर मैंने फिर कहा, “क्या कोई और रास्ता नहीं निकल सकता?” मैं अपनी तरफ़ से किसी भी तरह की कोशिश करने में कोताही नहीं करना चाहती थी.
“जब रास्ता साफ़ दिख रहा है तो बेवजह दिमाग़ ख़राब करने से क्या फ़ायदा?” क्षितिज ने चिढ़कर कहा.
“यानी हर स्तर पर समझौता मुझे ही करना होगा?”
“तुम औरत हो और एक औरत को ही समझौता करना होता है. वैसे भी एक मां होने का दायित्व तो तुम्हें ही निभाना होगा. अपनी हद में रहना सीखो.” क्षितिज की बात सुन मेरा मन जल उठा.
मैं घायल शेरनी की तरह वार करने को तैयार हो गई, “अच्छा आज यह भी बता दो कि मेरी हद क्या है?”
“हद से मेरा मतलब है कि घर संभालो, नीरव को संभालो. खाओ-पीओ, मौज करो.” क्षितिज के स्वर में बेशक पहले जैसी कठोरता नहीं थी. आवाज़ में कंपन था, लेकिन उसकी सामंतवादी मानसिकता के बीज प्रस्फुटित होते अवश्य महसूस हुए. एक सभ्य समाज का प्रतिनिधित्व करनेवाला पुरुष लाख शिक्षित हो, पर बचपन में उसके अंदर औरत को दबाकर रखने के रोपे गए बीजों को झाड़-झंखाड़ बनने से कोई नहीं रोक सकता.
क्षितिज की बात सुन मैं हैरान रह गई. क्षितिज जैसे पढ़े-लिखे इंसान की मानसिकता ऐसी हो सकती है? क्या पत्नी से उसकी अपेक्षाएं बस इतनी ही हैं? मेरी इच्छाओं का मान रखना, मेरे व्यक्तित्व को तराशने तक का ख़याल नहीं आता उसे? मैं कब अपने मां होने की ज़िम्मेदारियों से पीछे हटना चाहती हूं, पर क्षितिज का साथ भी तो नीरव को सही सोच देने के लिए
ज़रूरी है.

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अपने आंसुओं को पीते हुए इस बार बिना कोई जवाब दिए मैं अंदर कमरे में चली गई. समझाया तो उसे जाता है, जो समझने को तैयार हो, जिसके मन की खिड़कियां खुली हों. क्या नीरव की चिंता उसे नहीं है? वह तो बस उससे थोड़ा-सा सहयोग चाहती है.
नीरव उन दोनों को लड़ते देख अपने कमरे में चला गया था. उसे अपने ख़ुद पर भी ग्लानि हो रही थी. वह इतना छोटा तो नहीं कि ख़ुद मार्केट न जा सके. अब वह नौवीं में है और हर काम ख़ुद कर सकता है… वैसे भी पढ़ने और ट्यूशन में काफ़ी समय निकल जाता है. फिर क्यों वह हर समय… पर पल भर के लिए मन में आए ये विचार उसके अंदर जड़ जमाई सोच के आगे पानी के बुलबुले की मानिंद ही साबित हुए.
‘नो, मम्मी इज़ रॉन्ग’, वह बुदबुदाया.
इधर क्षितिज को समझ नहीं आ रहा था कि वह किस तरह से इस ‘हद’ को परिभाषित करे. उसने तो वही कहा था, जो आज तक वह देखता आया था. उसकी दादी, मां, बुआ, चाची, यहां तक कि बहनें और भाभी भी इसी परंपरा का निर्वाह कर संतुष्ट जीवन जी रही थीं.
‘क्या वाकई में वे संतुष्ट हैं?’ उसकी अंतरात्मा ने उसे झकझोरा. अपनी मां को पिता की तानाशाही के आगे कितनी ही बार उसने बिखरते देखा था. पिताजी के लिए तो मां की राय का न कोई महत्व था, न ही उनका वजूद था. मां जब भी कुछ कहतीं, पिताजी चिल्लाकर उन्हें चुप करा देते थे. सारी ज़िंदगी मां चूल्हे-चौके में खपती रहीं. केवल जीना है, इसीलिए जीती रहीं. अंत तक उनके चेहरे पर सुकून और संतुष्टि का कोई भाव नहीं था. मां का दुख हमेशा ही उसे दर्द देता था, फिर आज क्यों वह…
उसकी बहनों को भी पिताजी ने कभी सिर उठाकर जीने का मौक़ा नहीं दिया. न मन का पहना, न खुलकर वे हंसीं. जहां क्षितिज की हर इच्छा को वह सिर माथे लेते थे, वहीं उसकी बहनों की हर छोटी से छोटी बात में कांट-छांट कर देते थे. वे हमेशा ही डर-डर कर जीं और आज ब्याह के बाद भी उनकी दुनिया घर की देहरी के अंदर तक ही सिमट कर रह गई है. उससे छोटी हैं, पर समय से पहले ही कुम्हला गई हैं. एक वीरानी-सी छाई रहती है उनके चेहरे पर. ख़ुशी की कोई किरण तक उन तक पहुंचती होगी, ऐसा लगता नहीं.
“पापा, बुक लेने चलेंगे? इस पास वाली मार्केट में नहीं, आगे वाली में मिलेगी, वरना मैं ख़ुद ले आता.” नीरव ने उसकी तंद्रा भंग की तो वह सोच के ताने-बाने से बाहर आया.
“हां, क्यों नहीं.” क्षितिज ने उसका कंधा थपथपाया.
“यू आर ग्रेट पापा, लेकिन मम्मी तो बस… उनके पास मेरे लिए समय ही नहीं है. मैं उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करता…” नीरव की बातें मेरे कान में पिघले हुए सीसे की भांति घुल रही थीं. एक बच्चा अपनी मां के बारे में ऐसा सोचे, इससे ज़्यादा आहत करने वाली बात और क्या हो सकती है? मेरा बेटा मुझसे दूर हो जाए, इससे तो बेहतर है कि मैं नौकरी छोड़ दूं. तभी शायद मैं उसकी उम्मीदों की मां बन सकूं.
नीरव शायद अपनी रौ में बहता ही जाता मानो मन की सारी भड़ास वह आज ही निकाल लेना चाहता हो. क्षितिज ने उसे कभी रोका भी तो नहीं, बल्कि उसके सामने मुझमें ही ग़लतियां निकालते रहते हैं. पर आशा के विपरीत क्षितिज की आवाज़ गूंजी.
“चुप रहो! अपनी मां के बारे में इस तरह बात करते तुम्हें शर्म नहीं आती? उनकी रिस्पेक्ट करना सीखो. वे तुम्हारी ख़ुशियों और इच्छाओं को पूरा करने के लिए दिन-रात मेहनत करती हैं. उनको जितना भी समय मिलता है, वह तुम्हारे साथ बिताती हैं और तुम हो कि…
वह दुनिया की सबसे अच्छी मां ही नहीं, पत्नी भी हैं.”
मेरी आंखों में नमी तैर गई. मैंने क्षितिज की ओर देखा. उसकी आंखों में आज पहली बार वह भाव दिखा जो जता रहा था कि वह मेरी भावनाओं की कद्र करता है. उसने मेरे हाथ को अपने हाथ में लिया तो मुझे आशवस्ति का एहसास हुआ. अपनों का विश्‍वास ही तो कठिन से कठिन परिस्थितियों से उबारने में मदद करता है.
नीरव को सिर नीचा किए खड़े देख मैंने उसके बालों को सहलाया तो वह मुझसे लिपट गया, “आई एम सॉरी मम्मी, अब मैं कभी आपसे ग़लत ढंग से बात नहीं करूंगा. आई लव
यू मम्मी.”
उस पल मुझे लगा कि गुत्थियों के जंगल से निकल मैं एक शिखर पर आ खड़ी हुई हूं , जहां सम्मान के साथ मुझे एक अच्छी पत्नी व आदर्श मां होने का दर्जा दिया जा रहा है.

   सुमन बाजपेयी

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कहानी- शिखर पर (Short Story- Shikhar Par)
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उस पल मुझे लगा कि गुत्थियों के जंगल से निकल मैं एक शिखर पर आ खड़ी हुई हूं, जहां सम्मान के साथ मुझे एक अच्छी पत्नी व आदर्श मां होने का दर्जा दिया जा रहा है.
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