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कहानी- श्रद्धा-सुमन (Story- Shradha Suman)

  डॉ. निरुपमा राय

आज रामायण की पंक्ति ने मानो उन्हें एक राह दिखा दी थी. एक शाश्वत सत्य भी आत्मा को आशा की नूतन किरण प्रदान कर गया था कि हमारे पवित्र धर्मग्रंथ हमें सदा पथभ्रष्ट होने से बचाते हैं. भीषण विकट परिस्थितियों में भी उम्मीद का झरना प्रस्फुटित होकर मन के मैल का प्रक्षालन कर ही जाता है.

“ॐनमो भगवते वासुदेवाय!” बाबूजी के मंत्रोच्चार का उच्च स्वर घर को एक आध्यात्मिक आभा से आपूरित कर रहा था. पर उनके एकमात्र पुत्र राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक अनंतगोपाल मिश्र का ध्यान कहीं और था. “आज कहां ध्यान है प्रोफेसर साहब?” जब मन कहीं और भटक रहा हो, तो व्यक्ति निरुत्तर हो ही जाता है. उनके मन में तो जैसे झंझावात चल रहा था. एक ही वाक्य बार-बार मन में कौंध उन्हें उद्विग्न बना रहा था… “पितुर्हि समतिक्रान्तं पुत्रो यः साधु मन्यते।” वो कई दिनों से बड़े मंदिर में चल रहे प्रवचन में जा रहे हैं. पर कल तो जैसे प्रवचनकर्ता के शब्दों ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था. वर्षों पहले की जिस घटना की स्मृति वो मस्तिष्क से धो-पोंछकर फेंक देना चाहते थे, वो मानो पुनर्घटित होकर बार-बार मन को बेचैन करने लगी  थी.
प्रवचनकर्ता विद्वान सरस भाषा में रामायण के अयोध्या कांड के 106वें अध्याय पर प्रवचन कर रहे थे. लोग मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे, “भरत ने विह्वल होकर कहा… भैया! हमारे पिताश्री ने पत्नी की बातों को महत्व देकर, आप जैसे पुत्र को वनवास देकर बड़ी भूल की है… और जो पुत्र पिता की भूल को ठीक कर देता है, वही लोक में उत्तम संतान कहलाता है. अतः मेरे साथ अयोध्या का राज्यभार ग्रहण करें… श्रीराम ने कहा, हां! यह सच है कि पिता की भूल को ठीक कर देनेवाला पुत्र ही उत्तम पुत्र कहा जाता है, पर… हमारे पूज्य पिताजी ने मुझे वनवास भेजकर भूल कहां की है… उन्होंने तो अपने वचन का पालन…” जनसमुदाय भावविह्वल होकर सुन रहा था. सुन तो अनंतगोपाल भी रहे थे, पर उनका मन जैसे प्रवचनकर्ता के एक वाक्य में ही डूबकर रह गया था…‘पिता की भूल को सुधारनेवाला ही उत्तम पुत्र है.’
पिता की भूल! हां, उनके पिता से भी एक भीषण… अक्षम्य भूल हुई है. पर वो श्रीराम की तरह ये कैसे कह सकते हैं कि उनके पिता ने किसी वचन… परंपरा… या प्रथा का निर्वाह करने के क्रम में भूल की होगी. बचपन से अपने विद्वान, मितभाषी, उच्चपदस्थ और अपूर्व व्यक्तित्व के धनी जिस पिता को वो देवतुल्य पूजते आए थे, वो कभी किसी प्रकार की ग़लती भी कर सकते हैं? यह प्रश्‍न उनके चिंतन के दायरे में कभी था ही कहां? सर्वगुणसंपन्न पिता की एकमात्र संतान होने के गौरव से अभिभूत वो तो जीवन के अनंत सुखों के भोक्ता थे. मात्र दो वर्ष के थे जब मां की मृत्यु हो गई थी. पिता ने मां की कमी कभी महसूस ही नहीं होने दी. दादी मां और पिता की छत्रछाया में पल-बढ़कर वो उच्च शिक्षा प्राप्त कर कॉलेज के प्राध्यापक बने और सुधा जैसी सुघड़ जीवनसंगिनी पाकर जीवन को धन्य मानने लगे. बस, जीवन में केवल एक कमी थी. उनके उपवन में अब तक कोई फूल नहीं खिला था. विवाह के सात वर्ष हो चुके थे, पर सुधा की गोद अब तक खाली थी.
“ईश्वर ने सब कुछ मनचाहा दिया है. बस, पोते का मुंह देख लूं, तो जीवन सफल हो जाए.” पिता कई बार कहते थे. दादी मां समझाती रहतीं, “मनोहर! ईश्‍वर के घर देर है, अंधेर नहीं! बहुत जल्दी हम दोनों अनंत के बालगोपाल के साथ इसी आंगन में खेलेंगे.” पर समय बीतता रहा… आंगन सूना ही रहा. दादी कौन-से मंदिर में जाकर माथा नहीं टेक आईं… सारे तीर्थ कर लिए… मोक्षदा एकादशी, कामदा एकादशी… कौन से व्रत नहीं किए. सुधा से भी वर्षों गोपालसहस्रनाम का पाठ करवाया, पर स्थिति वही रही. बीसियों डॉक्टरों से राय ली. सबका एक ही उत्तर था, “सुधा बिल्कुल ठीक है, धैर्य रखिए.” ऐसे में एक दिन अनंतगोपाल के धैर्य का बांध टूट गया, तो एक मित्र की सलाह पर उन्होंने एक योग्य डॉक्टर से अपना परीक्षण करवाया और परिणाम जानकर उनके पैरों तले ज़मीन ही खिसक गई. वो पिता बनने में अक्षम थे. हे ईश्‍वर, ये कौन-से पाप का दंड है? उनका अंतर्मन भीषण वेदना से भारी हो चुका था. और ऐसे में जब पिछले साल उन्हें अपने पिता के एक अक्षम्य कृत्य का पता चला, तो वो सन्न रह गए थे. एक वर्ष से उन्हें चैन ही कहां है. वो किसी से… सुधा से भी, इस बारे में बात नहीं कर सकते हैं. न दादी से कुछ पूछने का साहस है और न पिता से प्रश्‍न पूछकर उन्हें अपमानित और लज्जित करने की इच्छा है. पिता ने तो जीवनभर उन्हें ज्ञान ही दिया है… “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता, विवाह दो आत्माओं का मिलन है… जीवनसंगिनी का स्थान जीवन में सर्वोपरि है… माता तो पृथ्वी पर देवता का स्वरूप है.” फिर ऐसी भूल उनसे क्यों? क्या जीवन में धन-वैभव, पद-प्राप्ति, मान-सम्मान और एकांगी विचार इतना महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति मानवता को ही विस्मृत कर जाए?
अनंतगोपाल को तो पता ही नहीं चलता अगर श्यामा बुआ पटना नहीं आतीं. पिछले तीस वर्षों से वृंदावन वास कर रहीं बुआ दादी के विशेष आग्रह पर सुधा को आशीष देने आई थीं. कम उम्र में ही वैधव्य के बाद से वे कृष्णनाम में मगन होकर वृंदावन में रहने लगीं. बचपन में एक-दो बार उन्होंने बुआ को देखा था. अनंतगोपाल देख रहे हैं- दादी, बाबूजी और बुआ न जाने किस गुप्त मंत्रणा में रत रहते और उनके आ जाने पर अनायास मौन पसर जाता. सुधा भी समय काटने के लिए एक स्कूल में पढ़ाने लगी थी. दिन के समय दोनों पति-पत्नी घर से बाहर ही रहते थे. एक दिन अनंतगोपाल जल्दी आ गए थे और उन्होंने बुआ को यह कहते सुन लिया था, “मनोहर! तेरे ही पाप वंश का नाश कर रहे हैं.” बाबूजी… और पाप! ये तो असंभव है.
यह एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है कि व्यक्ति छोटे से छोटे रहस्य का भी अनावरण करना चाहता है. ‘पिता के पाप से वंश नाश!’ बुआ का यह कथन अनंतगोपाल को बेचैन कर गया था. दूसरे दिन कॉलेज जाकर वो तुरंत घर लौट आए थे. आंगन में आराम से बैठे बाबूजी, बुआ और दादी बात-विचार में मगन थे और द्वार की ओट में मौन खड़े अनंतगोपाल ने ऐसा सच सुन लिया था, जिसने उन्हें जड़ बना दिया था.
“मनोहर! नारायणपुरवाली बहुत बीमार रहने लगी है… गांव के मुखिया का भाई केशव आया था, वही बता रहा था.” बुआ ने कहा तो बाबूजी बोले, “आज तक उसके भरण-भोषण के लिए पैसे भेज ही रहा हूं दिदिया… वैसे भी इस घर में उसकी चर्चा नहीं होनी चाहिए. दो वर्ष का था अनंत, जब गांव की सारी ज़मीन-जायदाद बेचकर पटना आ गया. सरकारी नौकरी में था… घू ता रहा देशभर में. अनंत के कानों में पिछली बातें न जाएं, इनका हमेशा ध्यान रखा… मैं नहीं चाहता मेरे बुढ़ापे में अनंत उस घटना के बारे में जाने.”
“अब तक अनंत को पता नहीं? उसे पता होना चाहिए, अगर तुमने ज़िद नहीं की होती, तो आज वो मातृविहीन नहीं होता.” बुआ का स्वर तिक्त हो उठा था. पाषाण प्रतिमा से खड़े अनंतगोपाल सब सुन रहे थे. “सब समझता हूं, जीवन में बहुत बड़ी ग़लती कर दी… बहुत पछताता हूं… पर क्या करूं? ठीक कहती हो तुम, मेरे ही पाप का दंड भोग रहे हैं मेरे बेटे और बहू. एक संतान के लिए लोग क्या नहीं करते और मैंने तीन…संतानों की… न जाने बुद्धि क्यों भ्रष्ट हो गई थी?” बाबूजी सिसक पड़े थे. “मनोहर! संभालो अपने आपको, कहीं अनंत और सुधा सुन न लें.” दादी ने कहा था. अनंतगोपाल नियति के खेल का एक मोहरा बने स्तब्ध से खड़े थे. कई प्रश्‍न मन-मस्तिष्क में भीषण झंझावात में उड़ते पत्तों से घूम रहे थे. उसी रात अनंतगोपाल ने श्यामा बुआ से सारा सच जान लिया था और वचन दिया था कि पिता और दादी से कुछ नहीं पूछेंगे. और सच ये था… मनोहर मिश्र और सुमन के विवाह के दूसरे वर्ष जब सुमन गर्भवती हुई, तो मनोहर ने भू्रण परीक्षण करवाकर कन्या भू्रण हत्या करवा दी. तर्क भी था उनके पास, “मुझे बेटा चाहिए सुमन! अभी-अभी तो नौकरी में लगा हूं… बहुत आगे जाना चाहता हूं… उच्च पद पर जाने के सपने साकार करना चाहता हूं… ढेर सारा रुपया जमा करके तुम्हें सुख से रखना चाहता हूं. बेटी हुई तो बस उसके विवाह और पालन की चिंता में ही डूबा रहूंगा… जीवन का कोई सुख भोग नहीं पाऊंगा.” बिलख-बिलखकर रोती सुमन ने कुछ नहीं कहा था. फिर लगातार तीन वर्षों तक इस घटना की पुनरावृत्ति होती रही. दो अजन्मी कन्याओं के बलिदान के बाद अनंतगोपाल का जन्म हुआ. सुमन लगातार गर्भपात के कारण बहुत कमज़ोर हो गई थी. ऐसे में बार-बार सास का समझाना, “बहुरिया, एक आंख और एक बेटे का कोई मोल नहीं होता, दोनों जोड़े में ही शोभते हैं…” उसकी रही-सही शक्ति को भी क्षीण बना गया था. हर बार दोनों मां-बेटे गांव ले जाकर सुमन का गर्भपात करवा देते थे. ऐसे में उनका साथ देती थी गांव की दायी विमला यानी नारायणपुरवाली. पर
तीसरी बार उसने भी हाथ खड़े कर लिए थे, “नहीं मालिक , इस बार बहुत दिन चढ़ गए हैं, बहूरानी बहुत कमज़ोर हो गई हैं. आने दीजिए इस बच्ची को… अगर ऐसे में कुछ किया जाएगा, तो बहूरानी की जान पर बन सकती है.” पर दोनों मां-बेटे नहीं माने और तीसरी अजन्मी कन्या के साथ सुमन भी अनंत यात्रा पर निकल गई. सन्न रह गए मनोहर मिश्र, ऐसा तो सपने में भी नहीं सोचा था. विमला ने गांवभर में ख़बर फैला दी कि सुमन की गंभीर बीमारी के कारण मृत्यु हो गई. इस उपकार के बदले मनोहर मिश्र आज तक रुपयों से उसकी मदद करते आ रहे हैं. दो साल के बेटेे को कलेजे से लगाकर उन्होंने सदा के लिए गांव-घर त्याग दिया था. सुमन की मृत्यु का ज़िम्मेदार स्वयं को मानते हुए उन्होंने अनंतगोपाल को जीवन में किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी.
“मनोहर को अपने किए पर बेहद पछतावा है मुन्ना! पर तीर एक बार कमान से निकल तो गया. तीन अजन्मी कन्याओं के वध का पाप लगा है उसे. तभी तो इस घर में तेरे बाद किसी का जन्म नहीं हुआ.” बुआ ने कहा तो अनंतगोपाल ठंडी सांस लेकर बोले, “सच कहती हो बुआ! मां-बाप के कुकृत्य का दंड संतान ही भोगती है.” बुआ के जाने के बाद से लेकर आज तक अनंतगोपाल का चित्त बेचैन हो रहा है और आज रामायण की पंक्ति ने मानो उन्हें एक राह दिखा दी थी. एक शाश्‍वत सत्य भी आत्मा को आशा की नूतन किरण प्रदान कर गया था कि हमारे पवित्र धर्मग्रंथ हमें सदा पथभ्रष्ट होने से बचाते हैं. भीषण विकट परिस्थितियों में भी उम्मीद का झरना प्रस्फुटित होकर मन के मैल का प्रक्षालन कर ही जाता है.
“प्रसाद लो बेटा.” बाबूजी की पूजा समाप्त हो चुकी थी. उन्होंने प्रसाद ग्रहण किया और पिता को प्रणाम करके कहा, “मैं एक शुभ कार्य करने जा रहा हूं बाबूजी. आशीर्वाद दीजिए कि मैं उसमें पूर्णतः सफल रहूं.”
“मेरा बेटा किसी कार्य में असफल नहीं हो सकता.” मनोहर मिश्र बोले. मन ही मन दृढ़ निश्‍चय करके अनंतगोपाल ने सुधा को पुकारा और उसे साथ लेकर बाहर चले गए. “हम कहां जा रहे हैं?” सुधा ने पूछा तो अनंतगोपाल ने उसे अपनी योजना बताते हुए कहा, “मुझे माफ़ कर दो, मेरे ही कारण तुम मां नहीं बन सकतीं सुधा…मैं…” “इसमें आपका दोष नहीं, ये तो ईश्‍वरीय इच्छा है. वैसे आपकी योजना बहुत अच्छी है. आपकी जीवनसंगिनी हूं… सदा आपके हर क़दम में आपका साथ दूंगी.” सुधा ने कहा तो अनंतगोपाल का हृदय फूल-सा हल्का हो गया. शाम ढले दोनों पति-पत्नी लौटे, तो बेहद प्रसन्न थे. सुधा की ख़ुशी बार-बार उसकी आंखों से छलक रही थी.
“लगता है तुम्हारा काम बन गया.” मनोहरजी ने पूछा, तो सुधा बोली, “हां बाबूजी! और एक बात, अगले सप्ताह आपकी साठवीं वर्षगांठ है, हम उसे धूम-धाम से मनाना चाहते हैं.”
“हां हां, मैं भी मनोहर की पसंद की गुझिया और बेसन के लड्डू बनाऊंगी.” दादी मां भी प्रसन्न हो गई थीं. “अम्मा! तुम्हारा बेटा मधुमेह का रोगी है, बूढ़ा हो गया है, बच्चा नहीं रहा.”
“जब तक मैं जीवित हूं, मेरा मनोहर बच्चा ही रहेगा.” दादी मां बोलीं, तो ठहाका गूंज उठा. घर में धूमधाम से मनोहरजी की षष्ठिपूर्ति की तैयारी हो रही थी. मनोहरजी के मना करने पर भी अनंत और सुधा ने सभी जान-पहचानवालों और पड़ोसियों को आमंत्रण भिजवा दिया था. एक शाम मनोहरजी ने अनंत से कहा, “बेटा, तुम कभी मन छोटा मत करना और सुधा को भी ढाढ़स बंधाते रहना. संसार में कई ऐसे लोग हैं, जो निःसंतान हैं. ईश्‍वर कभी न कभी ज़रूर कृपा करेंगे.” “हां बाबूजी, मुझे तो उन लोगों की सोच पर दया आती है, जो संतान जैसी अमूल्य निधि को बेटा या बेटी के रूप में परखते हैं. आज कोई मुझसे या सुधा से ‘पूछे हमें बेटा चाहिए कि बेटी,’ तो हम क्या जवाब देंगे? हमारे लिए तो दोनों ही अनमोल होंगे ना?”
मनोहरजी मौन रह गए थे. एक क्षण के लिए मन कांपकर रह गया था.
मनोहरजी की वर्षगांठ के दिन सभी ने छककर स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया. तरह-तरह के उपहारों से मनोहरजी का कमरा भर गया था. बहुत देर से अनंत और सुधा को आस-पास न देखकर मनोहरजी ने मां से पूछा, “बहू और अनंत कहां हैं अम्मा?”
“कहकर गए हैं तुम्हारे लिए वर्षगांठ का उपहार लाने जा रहे हैं. पता नहीं इतनी देर क्यों हो गई.”
“हमसे भी अनुरोध किया गया है कि हम उपहार आने तक अवश्य ठहरें.” पड़ोसी रामशरणजी ने कहा, तो मनोहरजी हंसते हुए बोले, “लगता है कोई स्पेशल उपहार है.”
तभी बाहर से कई तरह की आवाज़ें आने लगीं.
“अरे! अनंत क्या लाया है?”
“उपहार है.”
“कितनी सुंदर हैं दोनों.”
“कमाल कर दिया भाई मनोहर तुम्हारे बेटे ने.”
“कितने पुण्य का कार्य है ये.”
मनोहरजी उठकर बाहर जा ही रहे थे कि सुधा भीतर आकर बोली, “दादी मां, बाबूजी चलिए आराम से बिस्तर पर बैठिए. उपहार आ
गया है.”
“आराम से बिस्तर पर…? ऐसा क्या है बहू?”
“देख लीजिएगा.” सुधा आह्लादित थी.
आंखें बंद करके बैठे मनोहरजी ने हाथ फैलाते हुए कहा, “लाओ मेरा उपहार.”
“लीजिए बाबूजी.” अनंत के मधुर स्वर को सुनकर उन्होंने आंखें खोलीं, तो दंग रह गए. दो महीने की गोल-मटोल गोरी चिट्टी एक बच्ची उनकी गोद में थी और दूसरी बच्ची दादी अम्मा की गोद में.
आस-पास खड़े सभी स्नेहीजन तालियां बजाकर नन्ही अतिथियों का स्वागत कर रहे थे. सुध-बुध खोकर मनोहर मिश्र दोनों को निहार रहे थे और अनंतगोपाल बता रहे थे कि कैसे उन्होंने एक सप्ताह में सारे आवश्यक काग़ज़ात बनवाकर क़ानूनी तौर पर इन दोनों बच्चियों को एक अनाथालय से गोद ले लिया है.
“बाबूजी, आज आप दादा बन गए. आपकी गोद में है ‘श्रद्धा’, जो अनंत और मेरे जीवन में बहन और बेटी की कमी पूरी करेगी… और दादी मां की गोद में, जो मोठी नींद सो रही है न, वो हमारी ‘सुमन’, जो हम सब के जीवन में मां की स्मृति बनाए रखेगी…” हर्षातिरेक से सुधा का स्वर बार-बार भीग उठता था.
‘श्रद्धा-सुमन.’ स्तब्ध बैठे मनोहरजी की आंखों से मानो वर्षों से संचित वेदना और क्षोभ पिघलकर बहने लगा. दादी मां की आंखों में भी बार-बार उन तीन अजन्मी कन्याओं की पीड़ा चुभने लगी होगी, तभी आर्द्र आंखें मूंद वो शांत… अवाक् बैठी रह गई थीं. पर नन्हीं बच्ची को कलेजे में भींच ज़रूर लिया था और प्रोफेसर अनंतगोपाल मिश्र के हृदय की दशा तो अनिर्वचनीय थी. उन्हें लग रहा थी कि पिता के चरणों में श्रद्धा-सुमन अर्पित कर जैसे उन्होंने अपनी अजन्मी बहनों को सच्ची श्रद्धांजली दे दी हो. पिता की आत्मा को एक श्राप से मुक्त करने का उनका यह प्रयास उनकी आत्मा को भी दंश से मुक्त कर गया था…साथ ही सुधा की सूनी गोद को भी हरी कर गया था… और पवित्र रामायण की इस वाणी को भी सार्थक कर गया था कि पिता की भूल सुधारनेवाला पुत्र ही उत्तम पुत्र है.

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