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कहानी- तालमेल (Story- Taalmel)

      निधि चौधरी
पवन अपनी सारी ग्लानि, सारी कुंठा उड़ेल रहा था और सुनीता नीलकंठ की भांति उन विषैले भावों को पी रही थी, ताकि यह ज़हर भविष्य में उसके परिवार को नुक़सान न पहुंचा सके. आज पवन यह बात समझ चुका था कि पति-पत्नी के बीच का तालमेल उनके ओहदे, आर्थिक व सामाजिक स्थिति से नहीं, बल्कि एक-दूसरे के लिए विश्‍वास, प्रेम और इस रिश्ते के लिए समर्पण से उत्पन्न होता है, जिसमें कोई भी एक-दूसरे से छोटा-बड़ा नहीं होता है.

 

आज पवन बहुत शांत अनुभव कर रहा था. उसके मन की ऊहापोह सुलझ चुकी थी. पिछले सात सालों से वो जिस असमंजस और दुविधा में जी रहा था, आज उससे मुक्ति का निर्णय लेकर अथाह शांति का अनुभव कर रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे सारी सृष्टि शांत हो गई थी. एक अजीब-सी सुखद शांति उसे महसूस हो रही थी. हर रोज़ की तरह आज उसे दफ़्तर के कामों में कोई आनंद नहीं आ रहा था, बल्कि रोज़ डूबकर काम करनेवाला पवन आज किसी फाइल को हाथ भी नहीं लगाना चाहता था. वो अपने अंदर के इस सुकून को और जीना चाहता था, महसूस करना चाहता था. वो सोच रहा था आख़िर इतने साल क्यों लगा दिए उसने इस छोटे-से निर्णय को लेने में. शायद इसलिए कि निर्णय छोटा नहीं था.
सात साल पहले उसके माता-पिता ने उसकी शादी उसकी मर्ज़ी जाने बिना सुनीता से तय कर दी थी. उसकी ज़िंदगी में ऐसा कोई नहीं था, जिसकी वजह से वो माता-पिता द्वारा थोपी गई उस शादी से इनकार करने की हिम्मत जुटा सके. एमबीए होते हुए भी उसने सरकारी बैंक में क्लर्क की नौकरी ले रखी थी, इसलिए बीए पास, घर के कामकाज में दक्ष सुनीता माता-पिता को पवन के लिए सर्वोत्तम लगी. शादी के बाद दो साल तो ठीक-ठाक निकल गए, लेकिन इस बीच पवन को एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई. बैंक के सरकारी माहौल से एमएनसी की कॉर्पोरेट संस्कृति में ढलने की कोशिश में पवन धीरे-धीरे अपनी पत्नी में ख़ामियां तलाशने लगा. वह बार-बार अपनी पत्नी की तुलना कॉर्पोरेट सेक्टर में काम करनेवाली आधुनिक सहकर्मी महिलाओं से करने लगा. उसे सुनीता में सिवाय ख़ामियों के कुछ नज़र नहीं आता. इस बीच उसकी अपनी एक महिला सहकर्मी रितिका से गहरी दोस्ती हो गई. दोनों एक ही डिपार्टमेंट में थे और इसलिए ट्रेनिंग, मीटिंग, कॉन्फ्रेंस या किसी और बहाने से बार-बार उनका मिलना होता था.
आधुनिक परिवेश में पली-बढ़ी रितिका के सामने एक छोटे-से कस्बे की सुनीता पवन की आंख की किरकिरी बन गई थी. घर आते ही पवन का मिज़ाज चिड़चिड़ा हो जाता था. उसे क्रोध आता था कि क्यों उसने बग़ैर सोचे-समझे एक गंवार लड़की से शादी कर ली. उसे सुनीता की हर चीज़ में नुक्स नज़र आता. यदि सुनीता कभी उसे फोन मिला देती, तो वो चिल्लाने लगता, “तुम्हें हज़ार बार समझाया मुझे यहां फोन मत किया करो. काम करता हूं ऑफिस में, कोई आराम नहीं कर रहा हूं यहां. ख़ैर, तुम कहां समझोगी?” और फोन पटक देता. बेचारी सुनीता अपने पति की कड़वाहट को चुपचाप पी जाती. वह अपनी क़िस्मत को कोसती रहती. उसे लगता कि वो पवन के लायक ही नहीं है. उसमें आत्मग्लानि और कुंठा भरती जा रही थी. उसकी शादी को पांच साल होने जा रहे थे और कई बार कहने के बावजूद पवन अभी पिता नहीं बनना चाहता था, पर सुनीता की ममता संतान की इच्छा में तड़पती रहती थी. उसे लगता था शायद बच्चे के आने के बाद उनके रिश्ते में कुछ सुधार हो जाए, लेकिन पवन बच्चे का नाम सुनते ही आगबबूला हो जाता.
रितिका ने पवन को कई बार समझाया कि वह सुनीता से तलाक़ ले ले. इस बात को लेकर पवन और रितिका में कई बार झगड़ा भी होता. कई बार पवन ने सुनीता को तलाक़ देने का मन भी बनाया, लेकिन फिर अपने माता-पिता की नाराज़गी और सामाजिक मर्यादाओं के कारण हिम्मत नहीं जुटा पाया.
इस बीच सुनीता अपने मायके चली गई. उसे लगा कि यदि पवन को उसकी याद आएगी, तो वो उसे लेने आ जाएगा, वरना क्या फ़र्क़ पड़ता है कि वो ससुराल में रहे या मायके में. फिर सुनीता के माता-पिता भी बेटी की लगभग बिखर चुकी शादी की चिंता में घुलते जा रहे थे. पवन के माता-पिता ने सुनीता के मायके जाने की बात उसे बताई. लेकिन उसे इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था, बल्कि हर समय मन में होनेवाली यह ग्लानि भी मिट गई कि सुनीता वहां उसके माता-पिता की सेवा कर रही है और वह है कि रितिका के साथ अपनी ज़िंदगी में आगे निकल रहा है. उसने अपने माता-पिता को बता दिया कि वह सुनीता के साथ ख़ुश नहीं है और इस शादी में आगे नहीं बढ़ना चाहता. पवन ने तलाक़ के काग़ज़ सुनीता के घर भिजवा दिए, लेकिन महीनों गुज़र गए वहां से कोई जवाब नहीं आया. इस बीच रितिका के परिवार की तरफ़ से उस पर शादी करने के लिए दबाव बढ़ने लगे. वह तीस की हो चुकी थी और अब अधिक दिनों तक पवन के तलाक़ का इंतज़ार नहीं कर सकती थी. अंततः रितिका माता-पिता और परिजनों का मन रखने के लिए विवाह प्रस्तावों को गंभीरता से लेने लगी और पवन से दूरी बढ़ाने लगी. नियति को भी शायद यही मंज़ूर था, क्योंकि पवन को एक साल के लिए काम के सिलसिले में नीदरलैंड भेजा गया.
महत्वाकांक्षी पवन इस अवसर को गंवाना नहीं चाहता था. इसलिए तलाक़ और रितिका से बढ़ती दूरी को भूलकर अपने प्रोजेक्ट में लग गया. एयरपोर्ट पर रितिका से विदा लेते हुए उसे पता नहीं था कि आख़िरी बार उससे मिल रहा है. पवन के जाने के कुछ ही महीनों बाद रितिका ने कंपनी छोड़ दी और एक एनआरआई लड़के से शादी कर ली.
रितिका की शादी के बारे में जब उसे पता चला, तो वह पूरी तरह टूट गया. नीदरलैंड में प्रोजेक्ट को अधूरा छोड़कर वह भारत लौट आया. कंपनी की तरफ़ से उसे कई नोटिस दिए गए, लेकिन मायूसी और हताशा में डूबा पवन टूट चुका था. उसे कंपनी की तरफ़ से बर्ख़ास्त कर दिया गया. आज वह हर मायने में हार चुका था. उसे रह-रहकर उसका सुनीता के साथ किया गया तिरस्कार भरा व्यवहार याद आता. उसे लगता कि रितिका ने उसके साथ जो किया है, वह सुनीता के साथ किए गए अन्याय की सज़ा है. वक़्त की इस चोट से उबरने के लिए पवन ने फिर से काम तलाशना शुरू किया. कंपनी से निकाले गए कर्मचारी को कोई भी कंपनी अच्छा पैकेज देने को तैयार नहीं थी. अंततः उसे काफ़ी कम पैकेज पर एक सरकारी कंपनी में कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरी मिली. पवन अब जीवन में अकेलेपन से हताश होकर स्वयं को काम में झोंकता गया. वह स्वयं को एक पल के लिए भी मुक्त नहीं रखना चाहता था, क्योंकि तब उसकी आत्मा उससे सवाल-जवाब करने लगती थी. बेचैनी, तड़प और जुनून की हद तक काम में व्यस्त रहनेवाले पवन में अंततः अपनी इस कैद से मुक्ति पाने की ख़्वाहिश जागी. उसने निर्णय किया कि वह सुनीता से मिलकर उससे माफ़ी मांगेगा. यही वह छोटा-सा निर्णय था, जो छोटा होते हुए भी एक भारतीय पुरुष के दंभ और अहं के कारण बहुत बड़ा हो जाता है. उसके अंदर के पति और पुरुष के अहंकार को एक बिखरते हुए इंसान की आत्मा ने शांत किया था. वह अपनी सारी ग़लतियों के लिए सुनीता से माफ़ी मांगना चाहता था. आज ऐसा लग रहा था मानो कई तूफ़ान अचानक से शांत हो गए थे, जैसे नदी चट्टानों से टकरा-टकराकर अब निश्‍चल हो गई थी. इससे पहले कि उसके भीतर का पुरुष दोबारा जाग जाए, वह रवाना हो गया अपनी जीवन-संगिनी से माफ़ी मांगने के लिए. उसने निर्णय लिया कि सुनीता के जीवन को वह ख़ुशियों से भर देगा. उसके आंगन में भी बच्चों की किलकारियां गूंजेंगी, उसका जीवन भी परिपूर्ण होगा. आज उसे परिवार और उसकी अहमियत का आभास हुआ था. इतने सालों के अपराधबोध, विरक्ति और निराशा से मुक्ति पाने के एहसास ने उसके रोम-रोम में नया जीवन भर दिया था. इसी उत्साह में जब वह बिहार के छोटे-से कस्बे समस्तीपुर में सुनीता के घर पर पहुंचा, तो वहां त्योहार-सा माहौल था. उसे लगा शायद सुनीता के घरवालों को उसके आने की ख़बर मिल गई है और अपनी बेटी के घर के दोबारा बसने की ख़ुशी में इतनी साज-सज्जा, बैंड-बाजे इत्यादि रखे गए हैं. तभी उसे सुनीता के चाचा दिखाई दिए, “चाचाजी, सुनीता कहां है?”
“सुनीता बेटी तो दिल्ली में है. कलेक्टर बनी है हमारी सुनीता. आज ही यूपीएससी का रिज़ल्ट आया है. हमारे कस्बे की पहली लड़की है, जो इतने बड़े ओहदे पर पहुंची है. इसीलिए जश्‍न हो रहा है.” सुनीता के चाचा ने जवाब दिया. सात साल पहले के उत्साही पवन और आज के निराश-हताश पवन में काफ़ी बदलाव आ चुका था, इसीलिए चाचाजी ने पवन को नहीं पहचाना और बधाई देने आए अन्य लोगों की ख़ातिरदारी में व्यस्त हो गए.
इससे पहले कि सुनीता के माता-पिता पवन को पहचान लेते, पवन वहां से चला गया. भयंकर तूफ़ानों को दिल में समेटकर, असंख्य सवालों के बवंडर में फंसा हुआ. क्या अब सुनीता उसे माफ़ करेगी? क्या वह भी ऊंचे ओहदेवाली अधिकारी बनने का दंभ दिखाएगी? जिस अहंकार ने पवन को घेर लिया था, क्या वो सुनीता को भी घेर लेगा? क्या पवन की ही तरह सुनीता अपने लिए कोई नया साथी नहीं तलाशेगी? वगैरह-वगैरह. उसकी धड़कनें रेल के इंजन की तरह धू-धू कर रही थी, ऐसा लग रहा था मानो सारे शरीर को तेज़ बुख़ार ने जकड़ लिया हो.अपनी पत्नी की इतनी बड़ी क़ामयाबी पर ख़ुश होने की बजाय वो निराश-हताश हो गया था. हताश अपनी शादी की आख़िरी कड़ी के टूटने के डर से, हताश सुनीता को हमेशा के लिए खोने के ख़्याल से, हताश अपनी ही ग़लतियों का अक्स सुनीता में दिखने के भय से. वह पूरी तरह टूट चुका था. आज उसे अपने जीवन से घृणा हो रही थी. उसे ऐसा आघात लगा था कि दर्द रगों को चीरकर निकल जाना चाहता था, लेकिन निकल नहीं पा रहा था. आज उसे एहसास हुआ कि परिवार का कितना अधिक महत्व है. उसके अर्थहीन जीवन के प्रति उसके मन में स्थाई रूप से वितृष्णा जन्म ले रही थी. ऐसी ही मनःस्थिति में वह अपने घर लौटा. लेकिन अपने घर पर सुनीता को पाकर अचंभित हो गया. क्या वो स्वप्न देख रहा है या सुनीता आज उसके तानों का जवाब देने आई है? अथवा सुनीता उसको तलाक़ के
काग़ज़ थमाने आई है? उसके चेहरे की चमक में चौंधिया रहा था पवन. जिस सुनीता से मिलने वह समस्तीपुर गया था, वह स्वयं दिल्ली से उससे मिलने आ गई है. उसे तो ख़ुश होना चाहिए, पर अंदर का पुरुष एक स्त्री के हाथों मिलनेवाले अपमान की कल्पना मात्र से भी भयाक्रांत था. एक स्त्री पुरुष के हज़ार तानों को सुनकर भी ज़िंदगी जी लेती है, लेकिन पुरुष स्त्री के मुंह से निकली एक भी बात को अपने अस्तित्व के लिए चुनौती मानता है. पवन भी इसी भय से कांप रहा था.
“पवन, मेरा आईएएस में चयन हो गया है. अब तो आपको नहीं लगेगा कि मैं आपके लायक नहीं हूं. स्वयं को आपके क़ाबिल बनाने के लिए मैंने फिर से पढ़ाई शुरू की. दिल्ली जाकर कोचिंग ली और अंततः आईएएस बनने में क़ामयाब हो गई. यदि आपकी प्रेरणा न होती, तो यह कभी संभव नहीं होता. मुझे माफ़ कीजिएगा, पर आपके भेजे हुए तलाक़ के काग़ज़ मां-बाबा ने कभी मुझे दिखाए ही नहीं अन्यथा मैं आपको इस बंधन से मुक्त कर देती. आज मेरा रिज़ल्ट आने पर ही मां ने गर्वान्वित होकर यह सच बता दिया और कहा कि अब मैं आपको तलाक़ दूं. मैंने मांजी से आपका पता पूछा और सीधा यहां चली आई. लेकिन सच कहूं मैं हमारी शादी को एक मौक़ा और देना चाहती हूं.” सुनीता ने कहा. पवन को अपने कानों पर यक़ीन तक नहीं हुआ, पर सुनीता तो हमेशा से ही परिवार को सबसे ऊपर माननेवाली लड़की थी. उसके लिए तो प्यार करनेवाला पति और बच्चे ही संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि थी. आज समाज में एक ऊंचे ओहदे पर पहुंचने और आर्थिक रूप से सबल होने के बाद भी वह इसलिए पवन के पास आई थी कि अपनी शादी को बचा सके. एक बात पवन निश्‍चित रूप से जानता है कि सुनीता की इस चाहत में कोई धोखाधड़ी नहीं है. पवन की भांति वह ऊहापोह में जीवन नहीं जीती. उसके लक्ष्य साफ़ औैर स्पष्ट हैं. यदि अपने परिवार को बचाने के लिए वह इतनी कठिन परीक्षा की तैयारी कर सकती है, तो क्या पवन अपनी संगिनी से माफ़ी मांगकर अपनी नादानियों और बेव़कूफ़ियों से उत्पन्न हुई ग्लानि से मुक्ति नहीं पा सकता? उसे एहसास हुआ कि अब तक सुनीता को बदलने की ख़्वाहिश रखनेवाले पवन को स्वयं बदलने की ज़रूरत थी. वह सुनीता के पैरों में गिर पड़ा. गिड़गिड़ाकर माफ़ी मांगने लगा. सुनीता यह देखकर अचंभित थी, क्योंकि आज भी वह किसी माफ़ी की अपेक्षा से नहीं, बल्कि अपनी शादी को बचाने की आख़िरी उम्मीद लेकर यहां आई थी. सुनीता से माफ़ी मांगकर पवन के तन-मन का बोझ हल्का होने लगा. उसे लगा कि वह भारमुक्त हो गया है. सुनीता कुछ नहीं बोली. शांत, निर्विकार होकर चुपचाप सुनती रही. पवन अपनी सारी ग्लानि, सारी कुंठा उड़ेल रहा था और सुनीता नीलकंठ की भांति उन विषैले भावों को पी रही थी, ताकि यह ज़हर भविष्य में उसके परिवार को नुक़सान न पहुंचा सके. आज पवन यह बात समझ चुका था कि पति-पत्नी के बीच का तालमेल उनके ओहदे, आर्थिक व सामाजिक स्थिति से नहीं, बल्कि एक-दूसरे के लिए विश्‍वास, प्रेम और इस रिश्ते के लिए समर्पण से उत्पन्न होता है, जिसमें कोई भी एक-दूसरे से छोटा-बड़ा नहीं होता है.

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