Short Stories

कहानी- तेरी आंखों के सिवा… (Short Story- Teri Aankhon Ke Siva…)

“मैं आपको… दुखी करना नहीं चाहती थी…”
सतीशचन्द्र के चेहरे पर ज़मानेभर का दर्द सिमट आया. भीगे स्वर में बोले, “जानती हो, कई बार मन में ये कायरतापूर्ण ख़याल आता है… समाप्त कर लूं इस भार स्वरूप जीवन को. फिर तुम्हारे बारे में सोचकर विचारों को परे झटक देता हूं.”
“हमारे जीवन का अब क्या अर्थ रह गया है? मैं भी तो केवल आपके लिए जी रही हूं. इतनी पीड़ा में भी एक आन्तरिक ख़ुशी है… आपका साथ पाने की ख़ुशी.”

रात का साया धीरे-धीरे दिन के उजाले को ग्रसने लगा था. शाम का धुंधलका गहरे अन्धकार में तब्दील होने लगा था. जनवरी का महीना था. कड़ाके की ठन्ड पड़ रही थी. बाहर बरामदे में अपने पति के साथ बैठी वो सिगड़ी में जल रही आग की उष्णता को महसूस करके भी थरथरा उठी थी.
“मांजी, अब भीतर चलिये. कितनी ठन्ड है और रात भी होने लगी है.” नौकरानी राधा ने उनके कंधे पर बेतरतीब से पड़े गर्म शाल को ठीक से ओढ़ाते हुए कहा. उन्होंने पूछा, “निलेश आ गया?”
“जी, दुकान बंद करके अभी-अभी आए हैं.”
“जा बुला ला उसे. बाबूजी को सहारा देकर भीतर ले चलेगा.”
नीलेश सतीशचन्द्र की बड़ी बहन का बेटा था. बेरोज़गार था, इसलिए उन्होंने पास के मार्केट में फ़ोटोस्टेट की दुकान खुलवा दी थी. इस उपकार के मूल में कहीं-न-कहीं अपने अकेलेपन को भरने का स्वार्थ भी समाहित था. उम्र के अंतिम पड़ाव में एक सहारे की ज़रूरत किसे नहीं होती? वह अतीत की यादों में खो गई.
कितना सोचकर उसके पिता ने उसका नाम रखा था- ‘मीनाक्षी’. बड़ी-बड़ी, चमकीली मत्स्याकार आंखें उसके सुन्दर चेहरे को और सौन्दर्यमंडित कर देती थीं. मां बलैया लेते थकती नहीं थी, “हे ईश्‍वर! मेरी प्यारी बिटिया को हर बुरी बला से बचाना.”
मीनाक्षी जहां भी जाती, अपनी ख़ूबसूरत आंखों के कारण आकर्षण का केन्द्र बन जाती. विवाह की रात सतीशचन्द्र के पहले शब्द थे, “मीनाक्षी, तुम्हारी आंखें बेहद सुन्दर हैं.” जिन आंखों ने हमेशा उन्हें आह्लाद से सराबोर किया है, आज वही आंखें उनकी पीड़ा का कारण हैं. आज भी उतनी ही ख़ूबसूरत, पर धीरे-धीरे अंधेपन की ओर बढ़ती आंखें.
वैसे तो मीनाक्षी का जीवन सुख की असीम सौगातों से भरा रहा है. पर जीवन की असली शुरुआत तो बुढ़ापे में होती है. मीनाक्षी और सतीशचन्द्र के सुखी दाम्पत्य जीवन में बस एक ही कमी थी. उनकी कोई सन्तान नहीं थी. पर अपने बहन-भाइयों की सन्तानों को ही कोखजायी मानकर दोनों पति-पत्नी ने हमेशा ममत्व की वर्षा से सबको सराबोर किया है, जिसका आज उन्हें सन्तोष है.
चार भाइयों में मंझले थे सतीशचन्द्र. बैंक के बड़े अधिकारी थे. जब तक नौकरी में रहे, कभी किसी कमी का एहसास हुआ ही नहीं. छोटे भाइयों के बच्चों की परवरिश उन्होंने बिल्कुल अपने बच्चों की तरह की. अच्छी शिक्षा, बेहतर भविष्य, उच्च खानदानों में विवाह, क्या नहीं किया उन्होंने. मीनाक्षी की बड़ी बहन की दोनों बेटियां भी तो उन्हीं के स्नेहाच्छादित आंचल तले बड़ी हुई हैं. पर जिन बच्चों की परवरिश में जीवन होम कर दिया, आज वही बच्चे अपनी-अपनी गृहस्थी में मग्न हैं. कभी-कभी कोई सपरिवार छुट्टी मनाने चला आता है, तो उन दोनों की बूढ़ी आंखों में ख़ुशियों के असंख्य दीये झिलमिला उठते हैं. हमेशा दोनों पति-पत्नी ने मुक्त हस्त से केवल लुटाया है- चाहे वो प्रेम हो, ख़ुशी हो या रुपया-पैसा. कभी बदले में किसी से कुछ नहीं मांगा. इन्सान भले ही प्रतिदिन न मांगे, पर अपने हृदय का क्या करे? कभी-कभी हृदय में कुछ पाने की इच्छा बलवती हो उठती है. जिन्हें प्रेम दिया, जिन पर अपना सर्वस्व लुटाया, जीवन का बहुमूल्य क्षण जिनकी परवरिश में बिताया, उनसे बस कुछ पल… कुछ क्षण बांटने की इच्छा… अपने मनोगत भावों को उन्हें बताने की इच्छा…
कभी-कभी मीनाक्षी सोचती अगर उनके अपने बच्चे होते, तो क्या उनके पास भी अपने माता-पिता के लिये समय का अभाव होता? मन कह उठता, यही दुनिया की रीत है. चिड़िया के बच्चे तभी तक घोंसले में रहते हैं, जब तक उड़ना नहीं सीख जाते. पंख होते ही आकाश की ऊंचाइयां ललचाने जो लगती हैं… और धीरे-धीरे धरातल से पांव उखड़ते चले जाते हैं.
रिटायरमेंट के बाद सतीशचन्द्र और मीनाक्षी अपने पुश्तैनी मकान में रहने लगे थे. दोनों ऐसे, जैसे दो शरीर एक प्राण. सुबह होती नहीं कि सतीशचन्द्र की पुकार शुरू हो जाती. ”मीनाक्षी चाय… मीनाक्षी अख़बार… गर्म पानी… अरे! कुर्ता नहीं मिल रहा…” और न जाने क्या-क्या.
मीनाक्षी हंसते हुए सारा काम करती रहती. कभी-कभी आनन्द विभोर हो कह उठती, “जब देखो ‘मीनाक्षी… मीनाक्षी’ पुकारते रहते हैं, जैसे मेरे बिना आपका काम ही नहीं चलेगा.”

यह भी पढ़ें: पूजा श्रीराम बिजारनिया ने दिया पिता को अपना लिवर
“तुमने ही तो आदत बिगाड़ रखी है प्रिय. शादी के बाद कभी एक भी काम करने नहीं दिया, अब भुगतो.” सतीशचन्द्र हंस पड़ते.
इसी हंसी-मज़ाक, मनुहार और छेड़छाड़ के बीच कभी-कभी सतीशचन्द्र वही चिर-परिचित गीत गुनगुना उठते तो उम्र के इस पड़ाव में भी मीनाक्षी के कपोल आरक्त हो उठते. प्रेम की मीठी आंच उम्र की मुहताज थोड़े ही होती है. समय पंख लगाये उड़ता जा रहा था. कुछ दिनों से सतीशचन्द्र के घुटनों और शरीर के जोड़ों में दर्द रहने लगा था. पूरी जांच के बाद पता चला कि उन्हें भीषण गठिया था.
बेहतर-से-बेहतर इलाज होने पर भी स्थिति यथावत रही और सतीशचन्द्र चलने-फिरने से लाचार हो गये. चौदह बाई सोलह का ये बड़ा-सा कमरा ही अब उनकी सम्पूर्ण दुनिया थी. मीनाक्षी ने पति की सेवा में प्राणार्पण कर दिया, पर नियति जीवन का एक और रूप दिखाने के लिए तत्पर हो उठी थी. कुछ दिनों से मीनाक्षी का जी भारी-सा रहने लगा था. कभी पेट में हल्का दर्द, कभी पिंडलियों में पीड़ा. डॉक्टर को दिखाया तो पता चला उन्हें डायबिटीज़ है. सतीशचन्द्र भी सकते में आ गए थे. दोनों का जीवन एक बंधी-बंधाई लीक पर चलने लगा था. एक-दो महीने से मीनाक्षी की आंखों में धुंधलापन उतर आया था. पर वो ये बात पति से छुपा गयी थी. सोचा, महीने भर बाद बहन की बेटी की शादी दिल्ली में है, वहीं आंखों की पूरी जांच करवा लेगी.
फिर वही हुआ, जिसका भय पति-पत्नी को साल रहा था. डॉक्टर ने जांच के बाद रिपोर्ट उन्हें देते हुए कहा,
“मिसेज़ वर्मा, मुझे दुख है, डायबिटीज़ कंट्रोल न होने की वजह से आपकी आंखों का पर्दा नष्ट होने की कगार पर है. काला मोतिया जिसे ग्लूकोमा भी कहते हैं, आप की आंखों की रोशनी को प्रभावित कर रहा है. शायद आप डायबिटीज़ को गंभीरता से नहीं ले रहीं? अगर यही स्थिति रही तो आपकी आंखों का धुंधलापन एक दिन अंधेपन में बदल सकता है.”
मीनाक्षी सन्न रह गयी. सतीशचन्द्र को लगा मानो शरीर से प्राण ही निकल गए हों.
डॉक्टर ने कुछ और जांच करवाई और सलाह दी कि जल्द-से-जल्द एक आंख का ऑपरेशन करवा लेना चाहिए. लाख समझाने पर भी मीनाक्षी ऑपरेशन के लिए राजी नहीं हो रही थी.
“अगर रही-सही रोशनी भी जाती रही तो?” मीनाक्षी की आंखें डबडबा गईं. “सब ठीक हो जाएगा.” सतीशचन्द्र ने उसका कंधा थपथपाकर कहा था.
ऑपरेशन की तिथि तय हो चुकी थी. पर शुगर लेवल लाख जतन के बावजूद सामान्य नहीं हो पा रहा था. दस दिनों के बाद सारी रिपोर्ट ठीक-ठाक आयी, तो मीनाक्षी की दायीं आंख का ऑपरेशन कर दिया गया. पर हुआ वह, जो नियति ने रच रखा था. पट्टी खुली तो मीनाक्षी की आत्मा भीतर तक दहल गयी. दायीं आंख की ज्योति जाती रही थी. मन-ही-मन पीड़ा का गरल पीतीं मीनाक्षी जब ये बात किसी से न बताने की विनती कर डॉक्टर के सामने ही फूट-फूट कर रो पड़ीं तो मानवीय संवेदना से डॉक्टर की आंखें भी सजल हो आयीं.
कुछ दिन बहन के यहां ठहरकर मीनाक्षी पति के साथ वापस घर लौट आयी. ज़िन्दगी फिर एक ढर्रे पर डगमगाती-सी चलने लगी. वो पहले की तरह नौकरानी की मदद से घर के काम करने का प्रयास करने लगी थी. धीरे-धीरे बायीं आंख का धुंधलापन भी बढ़ने लगा था.
“हे ईश्‍वर! ऐसा दण्ड किसी दुश्मन को भी मत देना. पूरा जीवन सुख से बीता. अब इक्सठ वर्ष की उम्र में किस पाप की सज़ा मिल रही है?”
“सोयी नहीं अब तक?” सहसा पास लेटे सतीशचन्द्र ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, तो उसकी तंद्रा भंग हुई. वो विगत से पुन: वर्तमान में लौट आया.
“क्या बजा होगा?”
“दो बज कर बीस मिनट हो रहे हैं. सो जाओ, कल चेकअप के लिए डॉक्टर के यहां जाना है न?”
“हूं!” वो सोने का प्रयास करने लगीं. बगल में सोयी पत्नी के चेहरे को ग़ौर से देखते सतीशचन्द्र के मन में विचारों की आंधी थी. पत्नी की अन्त: पीड़ा से वो अनभिज्ञ नहीं थे. क्षीण होती दृष्टि की मर्मान्तक पीड़ा से यदि मीनाक्षी जूझ रही थी, तो पत्नी की नेत्र ज्योति चले जाने से उत्पन्न भयावह परिस्थितियों के स्मरण मात्र से उनका सर्वांग भी सिहर उठता था.

यह भी पढ़ें: बेहतर रिश्ते के लिए पति-पत्नी जानें एक-दूसरे के ये 5 हेल्थ फैक्ट्स
कुछ दिनों से वो देख रहे थे मीनाक्षी ने अपने कमरे में ही सारी दुनिया समेट ली थी. पलंग के बगल में रखी लकड़ी की अलमारी में विभिन्न डब्बों में बिस्किट, भुने चने, दालमोठ, मुरमुरे, भुना चूड़ा, मूंगफली और न जाने क्या-क्या सजा डाला था.
आंगन के बरामदे में रखी बड़ी-सी अलमारी भी इसी कमरे की शोभा बढ़ाने लगी थी. पति से पूछ कर सारी महत्त्वपूर्ण फाइलें और काग़ज़ात इसी अलमारी में सहेजकर रख दिये थे मीनाक्षी ने.
एक शाम उन्होंने मीनाक्षी से पूछा भी था, “सब कुछ इसी कमरे में क्यों रख रही हो?” वो एक पल को ख़ामोश रही, फिर बोली, “इस उम्र में अब ज़्यादा भाग-दौड़ नहीं होती. नौकरानी या नीलेश से भी कितना कहूं…”
सतीशचन्द्र का मन वेदना से भीग उठा था. दोनों एक-दूसरे की पीड़ा से जुड़े तो थे, पर स्वयं को निर्विकार दिखाने के प्रयास में उनकी आत्मा किस तरह तार-तार होती थी, ये वो दोनों ही जानते थे.
दूसरी सुबह मीनाक्षी डॉक्टर के पास चेकअप के लिये जानेवाली थी. पूजा-पाठ करके तैयार हुई तो सतीशचन्द्र ने कहा, “जाने से पहले ज़रा स्टेट बैंक की पासबुक और चेकबुक देती जाना.”
अलमारी से फाइल निकालकर पति के सामने रखती हुई वो चिढ़कर बोली, “हर काम के लिए मुझे ही क्यों कहते हैं? कुछ ख़ुद भी किया कीजिए. आपको तो कुछ पता ही नहीं, कौन-सी चीज़ कहां रखी है. ये रही फ़ाइल, ख़ुद ढूंढ़ लीजिए पासबुक.”
“तुमने ही तो आदत बिगाड़ी है न. जब जो चाहा अलादीन के चिराग की तरह हाज़िर कर दिया. अब मुझे दोष क्यों देती हो?” सतीशचन्द्र हंस पड़े थे.
मीनाक्षी के माथे की शिकन भी जाती रही थी. एक स्नेहमयी दृष्टि पति की ओर डालकर उसने कहा, “इसीलिए तो पलंग से सटाकर अलमारी रखी है. जो काग़ज़ चाहिए, ख़ुद निकाल लीजिए. मैं क्या हमेशा करती रहूंगी?” मीनाक्षी नीलेश के साथ क्लिनिक चली गयी.
मीनाक्षी घर लौटी तो देखा, सतीशचन्द्र बिस्तर पर औंधे लेटे थे. टेबल पर रखे टेपरिकॉर्डर में उनका प्रिय गीत बज रहा था.
पत्नी की पदचाप से अनभिज्ञ वो तन्मय होकर गीत की पंक्तियों में डूबे थे. मीनाक्षी धीरे से उनकी बगल में बैठ गयी. सतीशचन्द्र पलटे, तो अचानक मीनाक्षी का हाथ तकिये पर चला गया. वो सिहर उठी, तकिये का गीलापन सतीशचन्द्र के रूदन का मूक गवाह जो था.
“आप रो रहे हैं?” उसकी आवाज़ में कम्पन स्पष्ट था.
“तुमने मुझसे ये बात क्यों छिपायी कि तुम्हारी दायीं आंख की ज्योति नहीं रही? आज बैंक की पासबुक निकाल रहा था, तो उसी फाइल में डॉक्टर की रिपोर्ट भी मिली. सारी पीड़ा अकेली झेलती रहीं…? अब मेरी समझ में आ रहा है कि तुम बायीं आंख के ऑपरेशन से क्यों इन्कार करती रही हो. अपनी वेदना में मुझे भागीदार क्यों नहीं बनाया, बोलो?” सतीशचन्द्र ने विकल होकर पूछा, तो वो सिसक पड़ी.
“मैं आपको… दुखी करना नहीं चाहती थी…”

यह भी पढ़ें: मास्टरपीस हैं आप
सतीशचन्द्र के चेहरे पर ज़मानेभर का दर्द सिमट आया. भीगे स्वर में बोले, “जानती हो, कई बार मन में ये कायरतापूर्ण ख़याल आता है… समाप्त कर लूं इस भार स्वरूप जीवन को. फिर तुम्हारे बारे में सोचकर विचारों को परे झटक देता हूं.”
“हमारे जीवन का अब क्या अर्थ रह गया है? मैं भी तो केवल आपके लिए जी रही हूं. इतनी पीड़ा में भी एक आन्तरिक ख़ुशी है… आपका साथ पाने की ख़ुशी.” मीनाक्षी का सर पति के सीने पर टिक गया था.
“जीवन के इस अंतिम पड़ाव में एक इच्छा बार-बार हृदय द्वार पर दस्तक देती है, काश! हम दोनों स़िर्फ एक बार साथ टहलते हुए नदी के किनारे तक जाएं… और पहले की तरह डूबते हुए सूरज को देर तक निहारते रहें.” सतीशचन्द्र के अधरों से आह-सी निकली.
“मैं तो स़िर्फ इतना चाहती हूं… जब मृत्यु मेरे सिरहाने खड़ी हो… ईश्‍वर मेरी धुंधलायी दृष्टि में इतनी आभा भर दें कि मैं… मैं आपका चेहरा अंतिम बार अच्छी तरह देख सकूं…” आगे के शब्द मीनाक्षी की हिचकियों में बह गए.
पत्नी को अंक में समेटे सतीशचन्द्र की आंखों से भी अविरल अश्रुधारा बही जा रही थी, जो मीनाक्षी के सर को भिगोती उसके आंसुओं से एकाकार हो गयी थी. ये आंसू साक्षी थे इस बात के कि जब पीड़ा सारी सीमाएं लांघ दु:ख की पराकाष्ठा को स्पर्श करती है, उस क्षण भी आशा-अभिलाषा का नन्हा दिया टिमटिमाता रहता है… यही तो जीवन है.

  डॉ. निरुपमा राय

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES

Usha Gupta

Share
Published by
Usha Gupta

Recent Posts

प्रेरक कथा- राजा की बीमारी (Short Story- Raja Ki Bimari)

साधु ने कहा कि वह जंगल में ही रहना चाहते हैं, वह किसी राजा का…

March 28, 2024

जोडीनं घ्या आनंद (Enjoy Together)

जोडीदारापेक्षा चांगला फिटनेस पार्टनर कोण होऊ शकतो? या प्रकारे दोघांनाही फिटनेस राखता येईल, शिवाय सध्याच्या…

March 28, 2024

जोडीनं घ्या आनंद

जोडीनं घ्या आनंदजोडीदारापेक्षा चांगला फिटनेस पार्टनर कोण होऊ शकतो? या प्रकारे दोघांनाही फिटनेस राखता येईल,…

March 28, 2024

मन्नत आणि जलसापेक्षाही आलिशान असणार आहे कपूरांचं घर? (Ranbir Kapoor Aalia Bhatt New Home Named As Their Daughter Raha Getting Ready In Bandra)

बॉलीवूडमधील क्युट कपल म्हणजेच रणबीर कपूर आणि आलिया भट्ट हे त्यांच्या अफेरपासूनच  फार चर्चेत होतं.…

March 28, 2024
© Merisaheli