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कहानी- थैंक्यू मां (Short Story- Thank You Maa)

एक औरत और वो भी मां शायद काम करने के लिए ही बनी होती है. उससे सदा त्याग की आशा की जाती है. यही सोचा जाता है कि उसे तारीफ़ की क्या ज़रूरत. ये सब वो अपनी ख़ुशी के लिए ही तो कर रही है. ममता की मूरत को देवी बना के पूजा तो जा सकता है, पर एक साधारण इंसान समझ प्रोत्साहन के दो शब्द नही कहे जा सकते.

पूजा के आंसू थमने का नाम नही ले रहे थे. आज उसने ईशा का मनपसंद आलू का परांठा बनाया था और उसे खाते ही ईशा ने उसे, "थैंक्यू मम्मा, इतना टेस्टी परांठा बनाने के लिए." बोला था.
यूं बात बहुत छोटी थी. वह उसकी मां थी और उसके लिए अच्छे से अच्छा खाना बनाना उसका फ़र्ज़ था, लेकिन अपनी बच्ची के मुंह से 'थैंक्यू' शब्द सुनकर उसे कितनी ख़ुशी हुई थी केवल वही महसूस कर पा रही थी. तो क्या मां को भी उससे यही उम्मीद थी? पर वह उनकी उम्मीद पर कहां खरा उतर पाई थी. सोचते हुए वह सालों पहले के अपने अतीत में जा पहुंची.
"सच आंटी, मेरी बेटी तो मेरे पिताजी (ससुर) का आशीर्वाद है. इसे मैं उन्ही का दिया हुआ प्रसाद मानती हूं. यदि आज वे होते तो बहुत ख़ुश होते." मायके आई पूजा दो महीने की ईशा को गोदी में लिए बड़े गर्व से अपनी आंटियों को बता रही थी.
उसी दिन दोपहर को वह बेटी को लेकर सोई थी कि पास के कमरे से पापा के साथ बैठी मां का उदास स्वर सुनाई दिया, "पूजा ने ईशा को अपने ससुर का आशीर्वाद बताया, उनकी ख़ूब तारीफ़ की. अच्छा लगा, पर उसने एक बार भी मेरा नाम नहीं लिया. जबकि सवा महीने तक मैंने ही उसके घर पर रहकर उसे और उसकी बच्ची को संभाला था. माना कि ये मेरा फ़र्ज़ था, लेकिन अगर वो दो शब्द मेरे लिए भी बोल देती, तो मुझे कितनी ख़ुशी होती?" लेकिन आश्चर्य… उस समय मां की बात का मर्म समझने की बजाय वह बेतहाशा उन पर चीखने लगी थी.

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"मुझे नही मालूम था कि आप ये सब तारीफ़ पाने के लिए कर रही हो. मुझे जो सही लगा मैंने बोला. अगर आपको इतना ही तारीफ़ पाने का शौक था, तो पहले ही बता दिया होता मैं सबके सामने आपका गुणगान कर देती." वह आवेश में बोलती चली गई. एक बार भी नही सोचा कि मां को कितनी तकलीफ़ हो रही होगी. कितनी नासमझ थी वो, जो ये भी न समझ सकी कि हमेशा से मुंह पर मौन की पट्टी रखे मां ज़िंदगी में अपने सभी कर्तव्यों को भलीभांति निभाती आई हैं. ससुराल, पति और बच्चों के लिए तमाम त्याग और बलिदान करती रहीं, मगर मुंह से उफ़्फ़ तक नही की. लेकिन इन सब के बाद भी, आख़िर हैं तो वे हाड़-मांस से बनी एक इंसान ही. क्या कभी उन्हें अपने काम की तारीफ़ पाना अच्छा नही लगता, क्या प्रशंसा के दो बोल उन्हें नहीं सुहाते?
उसने उस वक़्त मां का मन दुखाया था और आज ये बात उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी, पर करती भी क्या उस वक़्त उसकी समझ ही वैसी थी. एक औरत और वो भी मां शायद काम करने के लिए ही बनी होती है. उससे सदा त्याग की आशा की जाती है. यही सोचा जाता है कि उसे तारीफ़ की क्या ज़रूरत. ये सब वो अपनी ख़ुशी के लिए ही तो कर रही है. ममता की मूरत को देवी बना के पूजा तो जा सकता है, पर एक साधारण इंसान समझ प्रोत्साहन के दो शब्द नही कहे जा सकते.


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स्वयं मां ने भी तो बिदाई के वक़्त उसे यही समझाया था कि बड़ों का आदर-सम्मान करना व उस घर के प्रति अपने सभी कर्तव्य ईमानदारी से निभाना. वह तो मां की इसी सीख को शिरोधार्य कर चली थी. ससुराल में उससे कोई भूल न हो, अतः जी जान से वह वहां के रिश्तों के प्रति समर्पित थी. वैसे भी उसके ससुर एक नेकदिल इंसान थे. उनकी बीमारी के दौरान उसने तन-मन से उनकी बहुत सेवा की थी और बदले में उनका अथाह स्नेह भी पाया था. उनकी मृत्यु के दो महीने पश्चात ईशा का जन्म हुआ था, अतः उनके प्रति अपने लगाव व सम्मान को प्रदर्शित करने हेतु वह उनकी तारीफ़ किया करती थी. लेकिन जानती न थी कि उस दिन मां की अनदेखी से उन्हें बहुत दुख होगा. आख़िर उसकी सभी ख़ुशियों की सूत्रधार उसकी जन्मदात्री का भी तो अपने बच्चों की तारीफ़ पर कोई हक़ बनता था. बच्चों के मुंह से निकला तारीफ़ का छोटा-सा शब्द भी उनके दिल को कितनी ख़ुशी देगा वह कभी समझ ही न पाई.
उसे याद आया ईशा के जन्म के समय पर उसके घर कोई कामवाली बाई भी नही थी. मां पापा के साथ मिलकर अकेले ही सारे काम निपटाती थीं. इस दौरान साफ़-सफ़ाई, झाड़ू-पोंछा, बर्तन, कपड़े आदि कामों में उन्हें पूरा दिन लग जाता था. फिर सबका खाना बनाने के बाद वे समय-समय पर उसके लिए मूंग की दाल, दलिया, मेवे के लड्डू आदि बनाने में जुट जाती थीं. बचे हुए वक़्त में वे नन्ही ईशा को गोदी में लिए बैठी रहतीं, ताकि वह कुछ देर चैन की नींद सो सके.
ईशा वैसे भी बहुत कमज़ोर पैदा हुई थी, पर उन्हीं की मेहनत से महीनेभर में ही उन दोनों मां-बेटी के चेहरे पर रौनक आ गई थी. जहां ईशा ख़ूब गोल-मटोल और सुंदर दिखने लगी थी, वहीं वह ख़ुद भी लंबे घने बालों के साथ और भी आकर्षक लगने लगी थी. सोचते हुए उसकी आंखों से पछतावे के आंसू झरने लगे. ओह उस वक़्त वह अपनी मां की मेहनत क्यों नहीं देख पाई या देखकर भी उसे अनदेखा कर दिया. ये सोचकर कि ये तो उनका फ़र्ज़ है. सच उसकी इस नादानी से माँ को कितनी पीड़ा पहुंची होगी, इसका अंदाज़ भी वो नही लगा सकती.

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वो मां जिसकी दुनिया अपने बच्चों से शुरू होकर उन्हीं पर ख़त्म हो जाती है क्या वे अपने बच्चों के मुंह से प्रशंसा के दो बोल सुनने की हक़दार नहीं. निस्वार्थ भाव से पूरी ज़िंदगी अपने बच्चों पर निछावर कर देने वाली मां क्या इस सम्मान के योग्य नही होती कि चंद शब्दों में कभी हम उनकी तारीफ़ कर दें? माना हम उनके एहसानों का बदला कभी नही चुका सकते, पर बदले में उन्हें धन्यवाद तो कह सकते हैं. प्यारभरा शुक्रिया कहकर उनके चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान तो ला सकते हैं.
आज उसकी बेटी ईशा के छोटे से थैंक्यू ने उसे इस शब्द की महत्ता भलीभांति समझा दी थी. अभी भी देर नही हुई. हालांकि मां अब बहुत वृद्ध हैं. कान से ऊंचा सुनती हैं और शरीर से भी बहुत अशक्त हो चली हैं. लेकिन जब उसे सुध आई तभी भला. सोचकर उसने अपने आंसू पोंछे और जल्दी-जल्दी घर के काम निपटाने लगी.
ठीक शाम चार बजे वह मम्मी के घर उनके पैरों के पास बैठी थी. ईशा नाना के साथ मस्ती में लगी थी. "मां, याद है एक बार जब आंटी लोग ईशा को देखने हमारे घर आई थीं, उस दिन अपनी बेवकूफ़ी में मैं न जाने आपको क्या-क्या कह गई थी और आपका मन बहुत दुखाया था. उस दिन के व्यवहार के लिए मैं दिल से क्षमाप्रार्थी हूं. मुझे माफ़ कर दो मां. वर्षों बाद शायद आपकी महत्ता को समझ पाई हूं." हाथ जोड़ते हुए ईशा की आंखों मे आंसू छलछला उठे.


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"आज आपको हर उस पल के लिए थैंक्यू भी बोलना चाहती हूं, जिन पलों में आपने मेरा उत्साहवर्धन किया, मुझे संभाला, मेरा हौसला बढ़ाया. ढेरों शुक्रिया मां कि जब-जब मुझे आपकी ज़रूरत थी आप मेरे साथ थीं. सच मां, बहुत प्यार करती हूं आपको, पर कभी जता नही पाई. थैंक्यू सो मच मां मेरी मां होने के लिए." कहकर उसने मां की गोद मे अपना सर टिका दिया. मां की आंखों में ख़ुशी के आंसू झिलमिला रहे थे. बड़े स्नेह से अपने कांपते हाथों को उसके सिर पर फेरकर वे उसे आशीर्वाद दिए जा रही थीं. शायद उनकी ममता आज पूरी तरह तृप्त हो चुकी थी. वहीं पूजा का मन भी हल्का हो एक असीम शांति से भर चुका था.

पूनम पाठक

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Photo Courtesy: Freepik

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