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कहानी- थेलेमा (Short Story- Thelema)

 

‘‘यदि आप मुझ पर गंगाजल छिड़क देंगी, तो मैं आपको छू सकूंगी न?’’ उसने पूछा. मंजरी चकित-सी उसे देख रही थी, निश्छल आंखोंवाली इस लड़की के चेहरे पर मासूमियत थी और इस प्रश्‍न में छुपी थी बच्चों-सी अबोधता.
‘‘क्यों?’’ मंजरी ने पूछा.
‘‘मैं आपकी कुछ मदद करना चाहती हूं.’’
‘‘किसी के छूने से कोई अपवित्र नहीं हो जाता.’’ न जाने कैसे उसके मुंह से निकल गया, किंतु तब भी थेलेमा ने गिरजा से कहकर गंगाजल छिड़कवाया और मां की सेवा में तत्पर हो गई.

 

घर में सभी रिश्तेदारों का जमघट लग गया था. चंडीगढ़ से बड़ा सुपुत्र पत्नी-बच्चों सहित आ चुका था. मंझले की पत्नी-बच्चे आ गए थे. लड़का रिसेप्शन के एक दिन पूर्व ही आ सकेगा. दोनों लड़कियां बच्चों सहित लगभग 10 दिन से घर को कोलाहलमय बनाए हुए थीं. यही सब तो कितना अच्छा लगता था मंजरी को, लेकिन इन दिनों उसका सुकून-चैन और शांति उसके पास थी ही कहां. फिर भी वह पूर्ववत सभी के खाने, पीने, सोने की व्यवस्था कर रही थी.
मंजरी और शिशिर का पूरा वर्ष ही बेटे, बहुओं, बेटियों, दामादों व बच्चों की प्रतीक्षा में बीत जाता था. वे बेसब्री से शीतकालीन व ग्रीष्मकालीन छुट्टियों की प्रतीक्षा करते थे, जब पूरा परिवार एक साथ होता था. इस बार भी सब साथ थे, किन्तु मंजरी की उदासी, बेख़याली और बेचैनी उनसे छिपी नहीं थी. हालांकि शिशिर को व्यवसाय विरासत में मिला था, किन्तु उसे करोड़ों की लागत तक पहुंचाने का श्रेय उसको ही जाता था. लड़के शिक्षा पूरी करके अपनी इच्छानुकूल नौकरी में लग गए, बड़ा जनरल मैनेजर था, मंझला इंजीनियर व छोटा हिन्दी का लेक्चरर था. दोनों लड़कियों की समयानुसार शादियां हो गईं. अब वे अपने घर में सुखी थीं, बहुएं भी सुंदर, सुसंस्कृत व आज्ञाकारी थीं. मंजरी व शिशिर के जीवन में ख़ुशियां ही ख़ुशियां थीं.
मंजरी बनारस के कट्टर ब्राह्मण परिवार की लड़की थी. वह भारतीय संस्कृति और धार्मिक निष्ठा की जीती-जागती प्रतिमूर्ति थी, मात्र सोलह वर्ष की अवस्था में विवाहोपरांत वह शिशिर के घर में आ गई. वहां हर सुख-दुख में साए के समान उनके साथ रही, वहां का वातावरण भी धार्मिक था. आज जीवन की संध्याबेला में शिशिर के साथ मंजरी एक बड़े ऐश्‍वर्यशाली घर व सुखी परिवार की स्वामिनी थी. किंतु एक टीस थी उसके मन में, वर्ष के ग्यारह महीने उस विशाल अट्टालिका में अकेले नौकर-चाकरों के साथ ही व्यतीत होता. परिवार के सदस्य छुट्टियों में आते और चले जाते, वह अकेली हो जाती. ऐसे में लगता काश, पास में कोई अपना होता, जिसे वह सास बनकर आदेश देती, जो उनकी सेवा करती, उसके साथ घूमने जाती. एक बार तो छोटे पुत्र पलाश और पति के सामने वह रो पड़ी, ‘‘छोटे की पत्नी को मैं अपने पास रखूंगी, भले ही वह लेक्चररशिप इलाहाबाद में करता रहे, अब मैं अकेले न रहूंगी.’’
‘‘ठीक है, तुम अपनी इच्छानुसार करना.’’ शिशिर ने उसे समझाया, किंतु सहमति में मुस्कुराते पलाश ने कितना बड़ा मानसिक आघात उन्हें दिया था. कंपकपाती ठंड की एक रात पलाश का फ़ोन आया, ‘‘मां! मैंने एक ईसाई लड़की थेलेमा से कोर्ट मैरेज कर लिया है. आप उसे न स्वीकारतीं, अतः बिना सूचना दिए ही शादी कर ली. मां नाराज़ मत होना.’’
वह प्रत्युत्तर देने को वहां थी ही कहां, अचेत होकर गिर पड़ी, एक पूरा दिन और रात अस्पताल में कटा. होश आते ही उसने बड़े पुत्र पराग का हाथ पकड़ लिया, ‘‘छोटे आया था?’’
‘‘हां मां, लेकिन…’’
‘‘लेकिन क्या?’’ वह व्यग्र हो उठी.
‘‘मां! आप भी कैसी बात करती हैं? साथ में उसकी विजातीय पत्नी भी थी, पापा ने तो उसे घर में घुसने ही नहीं दिया.’’ बड़ी बहू ने तीव्र स्वर में कहा.
‘‘पापा ने पेपर में छपवा दिया है कि मैं अपने छोटे पुत्र को चल एवं अचल संपत्ति से बेदख़ल करता हूं, अब उससे मेरा किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है.’’ मंझले पुत्र ने पूरा इश्तहार ही पढ़ दिया. दुखी बैठे शिशिर ने सिर हिलाकर समर्थन जताया.
मंजरी ने मुंह फेर लिया, उसके नेत्रों के कोरों से टपकते अश्रुओं की कोई सुनवाई न थी. नौ माह पेट में रखा था, एक विज्ञापन से क्या इस प्रकार संबंध टूट सकता था?
‘‘मां! आप दिल छोटा न करें, हम सब तो हैं न.’’ बड़ी बहू ने पास बैठकर उसका सिर सहलाया.
‘‘हां और क्या, हमारे इस भरे-पूरे परिवार में किसी ‘एक’ के चले जाने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है. फिर विजातीय एवं मांसाहारी पत्नी के साथ यदि पलाश भइया रहते, तो क्या घर की पवित्रता न भंग हो जाती?’’ मंझली बहू ने कहा.
‘‘सुना है, छोटे की बहू इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय में ही अंग्रेज़ी की व्याख्याता है.’’ मंझले प्रबाल ने कहा.
‘‘किंतु लक्षण तो व्याख्याता से नहीं हैं.’’ बड़ी बहू के इस कथन पर सब हंस पड़े, वातावरण हल्का हो गया, किंतु मंजरी के दिल में जैसे कुछ टूट गया. कुछ ही दिनों में सभी एक-एक करके चले गए. उस बड़ी हवेली में यादों का पोटला उठाए वह यहां से वहां भटकती रही. पंद्रह वर्ष की उम्र तक उसका यह पेट पोंछना बेटा उससे लिपटकर सोता था, अपने एक-एक काम के लिए उसका मुंह देखता था. उसे याद है, छोटे को कौर बनाकर तक खिलाया है उसने. नौकरी ने उसे स्वावलंबी ज़रूर बना दिया था, किंतु मां की आज्ञा अब भी उसके लिए शिरोधार्य थी, फिर अचानक उसने बिना पूछे इतना बड़ा निर्णय ले लिया? एक बार भी अपनी धर्मनिष्ठ मां का विचार नहीं आया, जो पड़ोस में प्याज़-लहसुन की गंध आने पर भी नाक पर आंचल रख लेती थी. उसी का कोख जाया होकर उसने एक विजातीय लड़की से विवाह कर लिया.
इस बीच पलाश का कई बार फ़ोन आया. वह अपनी मां को अपने ढंग से मनाता रहता. उसने एक बार उससे मिलने की अनुमति मांगी. मंजरी पुत्र के लिए व्याकुल हो उठी. उसने पलाश से कहा, ‘‘छोटे! यह तूने क्या कर दिया बेटे? विवाह जैसे पवित्र बंधन में बंधने से पूर्व मां-बाप की भावनाओं का ख़याल तक नहीं किया?’’
‘‘हां मां! मैं तुम्हारा अपराधी हूं, किंतु मैं क्या करूं? मैं उसके बिना नहीं रह सकता था और हां, पापा से कह देना कि उनका विज्ञापन मैंने पढ़ा. मुझे उनकी धन-संपत्ति का ज़रा भी लोभ नहीं है, लेकिन वे उस विज्ञापन द्वारा मुझे तुमसे दूर नहीं कर सकते. मैं तुमसे मिलने आऊंगा और आता रहूंगा.’’
मंजरी रोने लगी. शिशिर देख रहे थे. वे तिल-तिल जलती मंजरी की भावना समझ रहे थे. उन्होंने पुत्र, पुत्रियों, पुत्रवधुओं से मंत्रणा की और पलाश-थेलेमा को बुलाकर एक शानदार पार्टी देकर उस शादी पर सामाजिक बंधन की मुहर लगाने का निर्णय लिया. इस शीतकालीन छुट्टियों में सभी परिवार के सदस्य इकट्ठे हुए, पलाश भी पत्नी सहित आनेवाला था, कल पार्टी थी. नियत समय पर एक स़फेद रंग की कार में नवविवाहित जोड़ा द्वार पर आ खड़ा हुआ. थेलेमा सांवले रंग, तीखे नाक-नक्शवाली आकर्षक युवती थी. पलाश की बगल में सकुचाई-सी खड़ी थी. मंजरी ने गंभीर मुद्रा में उनकी आरती उतारी, सुमन और रम्या उसे अंदर ले गईं. उसकी ननदें सरिता, कविता उसे घेरकर बैठ गईं. पलाश इस प्रकार मां को भुजाओं में जकड़कर खड़ा था मानो कोई उन्हें पुनः छीन लेगा. मंजरी भी उसके सीने से चुपचाप लगी रही. सभी लोगों ने अपने ढंग से पलाश-थेलेमा का स्वागत किया.
शाम की चाय के समय रम्या गरम-गरम पकौड़े तल रही थी. सुमन तश्तरियों में मिठाई सजा रही थी. मंजरी ने टेबल पर चाय की क्रॉकरी सजाते हुए देख लिया कि थेलेमा सबसे घुल-मिल गई थी और बड़ी सहजता से व्यवहार कर रही थी. उन्होंने देखा सुमन ने उसे रसोई के बाहर ही रोक दिया, ‘‘तुम मम्मी से पूछकर अंदर आना, वर्ना वे कुछ खाएंगी-पीएंगी नहीं.’’
‘‘मुझे पता है दीदी, इन्होंने मुझे सब बता दिया है.’’ उसने मुस्कुराकर कहा.
चाय पीते समय भी थेलेमा एक अलग मेज-कुर्सी पर बैठी थी. पलाश ने पास आकर बैठने को कहा तो कसमसाकर रह गई.
अगले दिन प्रातःकाल नहा-धोकर सभी पूजाघर में इकट्ठे हुए. थेलेमा पूजाघर के बाहर खड़ी रही और मंजरी के दिए प्रसाद को श्रद्धापूर्वक ग्रहण किया व स्वयं को उनके स्पर्श से बचा लिया.
दोपहर मंजरी ने सुना, सुमन रम्या से कह रही थी, ‘‘देवरजी इतने दिन थेलेमा के साथ रहे, मम्मी को तो उन्हें गंगाजल से नहलाना चाहिए.’’
‘‘अरे भइया वह तो पुत्र है, उसके सात ख़ून भी माफ़.’’ रम्या ने कहा और दोनों दबे-ढंके स्वर में हंस पड़ीं.
शाम की पार्टी में सरिता द्वारा सजाई गई थेलेमा अपूर्व सुंदरी लग रही थी. सुमन ने टिप्पणी की, ‘‘सिंदूर और बिंदी थेलेमा से पूछकर लगाना.’’
‘‘नहीं, ये सौभाग्य चिह्न मुझे भी बहुत अच्छे लगते हैं.’’ और सचमुच उन सौभाग्य चिह्न के बाद थेलेमा का रूप और भी निखर आया. शाम की पार्टी में भी सभी ने मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा की. कुछ अतिथियों ने अरुचिकर टिप्पणी भी की, किंतु अधिकतर ने खुले हृदय से उन्हें शुभकामनाएं दीं.
उस रात मंजरी बिल्कुल चुप, उदास-सी थी. सुमन, रम्या, सरिता, कविता को सामान समेटते देख उसके हृदय में रिक्तता समा गई थी. उनके गहने, कपड़े, अन्य उपहार भी उसने बड़ी बेदिली से उन्हें सौंपे. थेलेमा को उसने एक वज़नी रामनामी दी. यह उसकी प्रथम भेंट थी. जगमग करते हार को देखकर बड़ी व मंझली बहुओं ने दिल थाम लिया.
‘‘थेलेमा! तुम्हारे लिए तो इस हार का कोई विशेष उपयोग होगा नहीं?’’ रम्या ने पूछा.
‘‘अंग्रेज़ी परिधान पर भारतीय गहने थोड़े ही फबेंगे.’’ सुमन ने आदतानुसार व्यंग्य किया.
‘‘मेरे लिए इस हार का बहुत महत्व है, क्योंकि इसे माताजी ने दिया है.’’ थेलेमा ने कहा.
मंजरी थके क़दमों से अपने कमरे में लौट गई. आज उसे जीवन बड़ा नीरस लग रहा था. अपनी क्षमतानुसार उसने परिवार के हर सदस्य की ख़ुशी के लिए प्रयास और परिश्रम किया. उन्हें सुखी, संतुष्ट एवं सफल बनाया. और आज शरीर, मन-प्राण से जब वह थक गई है, उसे सहारे की ज़रूरत है तो कोई नहीं है उसके पास. इन्हीं विचारों में डूबते-उतराते वह सो गईं. सुबह उठी, तो शरीर का पोर-पोर दुख रहा था, सिर में भी भीषण वेदना थी. एक-एक करके बेटे-बहू, बेटियां-दामाद, बच्चे आते गए, चरण स्पर्श करके चले गए. उन्हें अपने नीड़ तक पहुंचने की जल्दी थी. मुंह अंधेरे उठकर नहा-धो लेनेवाली ‘मां’ आज दिन चढ़े तक खिन्न-सी बिस्तर पर लेटी थीं, वे विस्मित थे. मंजरी का दिल हुआ, कहे ‘मत जाओ, मेरी तबीयत ठीक नहीं है, मैं हमेशा के लिए तुम सबके साथ रहना चाहती हूं’ किंतु कह न सकी.
‘‘लगता है, मां की तबीयत ठीक नहीं है.’’ पराग ने कहा. ‘‘पापा से कह देते हैं डॉक्टर बुलाने को.’’ प्रबाल बोला. ‘‘मम्मी! गिरजा ब्राह्मण है. उससे पूजाघर में दीप वगैरह जलवा लेना, खाना भी ही बनाकर खिला देगी.’’ रम्या ने कहा.
थेलेमा-पलाश भी अभी कल तक हैं. थेलेमा को समझाना होगा, कहीं इधर-उधर छू-छा न दे.’’ सुमन बोली.
सरिता, कविता सभी कुछ कह रहे थे, पर मंजरी कुछ नहीं सुन रही थी, बल्कि कुछ सुनना नहीं चाह रही थी. कुछ देर में आवाज़ आनी बंद हो गई. शायद सब चले गए थे.
‘‘मम्म.’’ एक मधुर-सी आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हो गई. उसने आंखें खोलीं तो सामने थेलेमा को खड़े पाया.
‘‘यदि आप मुझ पर गंगाजल छिड़क देंगी, तो मैं आपको छू सकूंगी न?’’ उसने पूछा.
मंजरी चकित-सी उसे देख रही थी, निश्छल आंखोंवाली इस लड़की के चेहरे पर मासूमियत थी और इस प्रश्‍न में छुपी थी बच्चों-सी अबोधता.
‘‘क्यों?’’ मंजरी ने पूछा.
‘‘मैं आपकी कुछ मदद करना चाहती हूं.’’
‘‘किसी के छूने से कोई अपवित्र नहीं हो जाता.’’ न जाने कैसे उसके मुंह से निकल गया, किंतु तब भी थेलेमा ने गिरजा से कहकर गंगाजल छिड़कवाया और मां की सेवा में तत्पर हो गई. उन्हें उठाकर बैठा दिया, फिर सिद्दहस्त हाथों से उनकी स्पंजिग की, कुल्ला करवाकर सिर पर तेल रखकर हल्के हाथों से कंघी करके उनके बाल संवार दिए, उन्हें साफ़-सुथरे कपड़े पहनाकर बाहर बगीचे में कुर्सी डलवाकर बैठा दिया, तभी नैना एक कप गरम दूध, सूखे ब्रेड और फल के कुछ टुकड़े ले आयी. थेलेमा झट से पीछे हट गई, मानो उसके स्पर्श से वह भोज्य पदार्थ विष बन जाएंगे, दवा के लिए भी उसने दूर से ही गिरजा को निर्देश दे दिए. उसी से मंजरी को पता चला कि पलाश पापा के संग डॉक्टर के यहां गया है, दवा वगैरह सौंपकर वह पापा के कार्यालय गया है. दोपहर तक मंजरी काफ़ी हल्का महसूस कर रही थी. पति-पुत्र को साथ लौटते देख एक अनोखी संतुष्टि का एहसास हुआ उसे.
‘‘कैसी हो मंजरी?’’ शिशिर ने पूछा. उसने सिर हिला दिया. दोपहर के भोजन के समय सब साथ बैठे, किंतु थेलेमा अलग-थलग मेज़ लगाकर बैठी.
‘‘बहू, अब तुम इस घर की सदस्य हो, आओ साथ बैठकर खाएंगे.’’ शिशिर ने कहा.
‘‘नहीं पापा, मैं यहां ठीक हूं.’’ थेलेमा ने नम्र किंतु दृढ़ स्वर में कहा. वह सास की असुविधा जानती थी, किंतु पलाश का चेहरा उतर गया था, मंजरी को ऐसा लगा.
थेलेमा गिरजा की सहायता से उसकी देखभाल करती रही. शाम होते-होते मंजरी स्वस्थ हो गई. वास्तव में वह शरीर से कम मन से अधिक बीमार थीं. थेलेमा उसके पास बैठकर अपनी छात्राओं, सहकर्मियों, अध्यापन व विश्‍वविद्यालय की मनोरंजक बातें बताती रही. अपने परिवार, धर्म, संस्कृति के बारे में भी उसने कई रोचक जानकारियां दीं. उसने बताया कि उसके माता-पिता बचपन में ही गुज़र गए थे. एक बड़ा भाई है, जो परिवार सहित बड़ौदा में रहता है. शाम कैसे बीत गई, पता ही नहीं चला.
रात में बिस्तर पर लेटी मंजरी कल छोटे, थेलेमा के चले जाने की बात सोच उदास लेटी थी. थेलेमा को कुछ समझ नहीं आया, तो गंगाजल छिड़कने की औपचारिकता करके उसने उसकी मालिश शुरू कर दी. सचमुच न जाने किस जोड़ व दबाव बिंदु पर उसने जादू-सा हाथ फेरा कि उन्हें नींद आने लगी.
‘‘मम्मी.’’ थेलेमा ने पुकारा.
‘‘हूं’’ उनकी आंखें बंद थीं.
‘‘क्या सचमुच किसी के छू लेने से कोई व्यक्ति, खाना या स्थान अपवित्र हो जाता है?’’
मंजरी ने आंखें खोलकर उसे घूरा.
‘‘आप नाराज़ मत होइए, लेकिन एक ही अवस्था में जन्म लेनेवाले शिशु के धर्म का निर्धारण कौन करता है, हम या ईश्‍वर? या फिर ‘वह’ इतना छोटा और कमज़ोर है कि किसी के छू लेने से अशुद्ध हो जाता है?’’
‘‘तुम अपने स्कूल, कॉलेज की शिक्षा मुझे देने की कोशिश कर रही हो?’’ मंजरी नाराज़ हो गई.
‘‘मम्मी, मैं आपकी धार्मिक भावना को ठेस नहीं पहुंचाना चाहती, मेरे जैसी बिना मां-बाप की लड़की के लिए तो इतना ही बहुत है कि उसे चाहनेवाले ने उसे स्वीकार किया और उसके मां-बाप के साथ मैंने कुछ ख़ूबसूरत पल बिताए.’’ थेलेमा की आंखों में सच्चाई के आंसू थे, जिसने मंजरी को विचलित कर दिया. उसकी अन्य बहुओं ने कभी इतना अंतरंग होकर उससे बात नहीं की, न उनमें इतनी संवेदनशीलता उसने देखी. उन्होंने बस दोनों हाथ से लुटानेवाले सास-ससुर के ऐश्‍वर्य व संपत्ति को सम्मान दिया. उसके मन में आया इन दोनों के जाने के बाद तो वह पुनः नितांत अकेली हो जाएगी, अतः उसके प्रश्‍न को नज़रअंदाज़ करके प्रति प्रश्‍न किया.
‘‘बहुत बड़ी-बड़ी बात तो कर रही हो, कल तो पति के साथ चली जाओगी. पांच बच्चों में से कोई नहीं है, जो पास रहता हो. जीवन की शाम में जब मां-बाप की वृद्ध आंखें सहारे को तलाशती हैं तो…’’ वो रो पड़ी. सब्र का बांध टूटा भी तो किसके सामने? कल की आई एक विजातीय नादान लड़की के सामने.
‘‘मम्मी, मैं अपनी नौकरी छोड़ दूं?’’
‘‘क्या?’’ विस्मय से उनकी आंखें चौड़ी हो गईं, ‘‘तुम विश्‍वविद्यालय की लेक्चररशिप छोड़ दोगी?’’
‘‘आप आदेश देकर तो देखिए.’’ उसने दृढ़ स्वर में कहा.
‘‘और छोटे, उसकी नौकरी?’’
‘‘वे नौकरी करते रहेंगे. मैं यहां रहूंगी, आपके पास.’’
उसने उनकी गोद में सिर रख दिया, आंसू बह निकले. ‘‘बेटी.’’ यह मंजरी के अंतर्मन का आर्तनाद था. उसे खींचकर सीने से लगा बिलख पड़ी, ‘‘धर्म, छुआ-छूत, शुद्धता, पवित्रता ये सब हमारे बनाए शब्द हैं. उच्च मानवीय मूल्यों, प्यार और सम्मान के सामने वे अर्थहीन हैं.’’ उन्होंने उदारता से स्वीकार किया.
अगले दिन मां ने आदेश दिया पलाश को कि बहू उसी शहर में व्याख्याता पद के लिए आवेदन करेगी, किसी महाविद्यालय में. पलाश और शिशिर आश्‍चर्य से सम्मिलित रूप से खाना बनाते, परोसते, पूजा करते सास-बहू की इस अनोखी जोड़ी को देख रहे थे. हृदय की गांठ खुल जाए, तो सारी वर्जनाएं, नियम-क़ानून एवं सिद्धांत का अनमोल प्रेम के समक्ष कोई मूल्य नहीं रह जाता.

      पमा मलिक
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