कहानी- टिमटिमाते तारे (Short Story- Timtimate Taare)

न जाने क्यों उसके हाथ बालों को संवारने लगे. बैग में से शीशा निकालकर उसने ख़ुद को निहारा. पैंतीस की हो चली है, पर आकर्षण अभी भी है. इस खंडित मूर्ति को अगर नया जीवन मिल जाए, तो इसमें भी प्राण भर सकते हैं. प्यार और एहसास जैसे शब्द उसकी ज़िंदगी के शब्दकोश में न हों, ऐसा कहना ग़लत होगा, बस कभी उन पन्नों को खोलने की उसने हिम्मत नहीं की, जिस पर वे लिखे हुए हैं.

वह हमेशा ही टुकड़ों में बंटी रही, दूसरों के हिसाब से जीने के लिए मजबूर किसी खंडित मूर्ति की तरह. जिसे कभी तो अपने मतलब की तरह तराशा जाता, तो कभी निर्जीव पत्थर की तरह संवेदनहीन मान उसकी उपेक्षा कर दी जाती. आज फलां दुखी है, तो उसे उसके दुखों पर मरहम लगाना होगा, आज फलां ख़ुश है, तो उसे अपने आंसुओं को पीकर जश्‍न में शामिल होना होगा. आज फलां के जीवन में झंझावात आया है, तो उसे भी अपने जीवन की दिशा बदल लेनी चाहिए. आज फलां की नौकरी छूटी है, तो उसे उसकी मदद करनी चाहिए. खंडित मूर्ति को अपने को संवारना सुनने में भी कितना अजीब लगता है, ऐसे में अपने पर ख़र्च करना फ़िज़ूलख़र्ची ही तो होता है.
संपूर्णता वह कभी नहीं पा पाई. मूर्ति पर जब भी मिट्टी लगाई गई या रंग किया गया, तो उसे पूरी तरह से या तो सूखने नहीं दिया या फिर कई जगह ब्रश चलाना आवश्यक ही नहीं समझा. इसलिए चाहकर भी वह संपूर्ण नहीं हो पाई, क्योंकि उससे जो कड़ियां जुड़ी थीं, उससे जो संबंध जुड़े थे, उन्होंने उसकी भावनाओं को नरम घास पर चलने का मौक़ा ही नहीं दिया. उनकी भी शायद कोई ग़लती नहीं थी. आख़िर ढेर सारा पैसा कमाने वाली लड़की भी तो किसी एटीएम मशीन से कम नहीं होती है. फ़र्क़ इतना है कि एटीएम में कार्ड डालना होता है और उसके लिए तो मजबूरियों और भावनाओं का बटन दबाना ही काफ़ी था.
घर की बड़ी लड़की होना और उस पर से ज़िम्मेदारियों को सिर माथे लेना, ऐसे में कौन चाहेगा कि वह अपने सपनों को सच करने की चाह भी करे. दोष न तो उसके मां-बाबूजी का है, न उसके भाई का और न ही उसकी दो छोटी बहनों का. दोष है तो सिर्फ़ उसका. अपने ही हाथों अपने अरमानों को कुचलते हुए सबको यह एहसास दिलाते रहने का कि तुम सबका ख़्याल रखना मेरा दायित्व है और उसके लिए चाहे उसे कितना ही खंड-खंड होना, बिखरना ही क्यों न पड़े, वह तैयार है.
ऐसे में उम्र की तरह जीवन भी अपनी गति से हाथ से फिसलता रहा.
घड़ी की रफ़्तार भी उसकी ज़िंदगी की तरह ही तेज़ है. नौ बज चुके थे. सवा नौ की चार्टेड अगर छूट गई, तो फिर तीन बसें बदलकर ऑफिस जाना होगा. मन हुआ कि एक बार शीशे के सामने खड़े होकर ख़ुद को निहारे, पर फिर अपनी सूती साड़ी की प्लेटों को ठीक कर ऐसे ही बाहर आ गई. जानती थी कि चेहरे के ख़त्म होते लावण्य और आंखों में बसी उदासी देख आईना भी उससे अनगिनत सवाल पूछने लगेगा. उस क्यों का जवाब देने का न तो उसके पास समय था और न ही कोई तर्क.
“ऑफिस से आते समय अपने बाबूजी की दवाइयां ले आना. उनकी खांसी तो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही है.”
मां ने उसे पर्चा थमाते हुए कहा, तो मन में सवालों के गुंजल चक्कर काटने लगे.
“क्या सोचने लगी?”
“मां, दवाइयां तो भुवन भी ला सकता है.” उसकी आवाज़ में कंपकंपाहट थी.
“क्यों तुझे कोई दिक्कत है लाने में? उसे क्यों परेशान करती है. सारा दिन तो बेचारा पढ़ता रहता है और सुन आज सब्ज़ी नहीं बन पाई है. रोटियां पैक कर दी हैं, सब्ज़ी कैंटीन से ले लेना.” काग़ज़ में लिपटी रोटियां मां ने उसे ऐसे थमाईं मानो कोई बहुत बड़ा एहसान कर रही हो.


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भीतर फिर कुछ टूटा. अपनी ही मां क्या ऐसा कर सकती है? स्वार्थ की परत शायद ऐसी ही होती है, तभी तो उसके सामने और कुछ दिखाई नहीं देता है. न ही बेटी की ख़ुशी न उसकी पीड़ा. बस केवल एक डर मन में समाया रहता है कि कहीं अगर इसने अपनी ज़िंदगी को लेकर कुछ ख़्वाब बुनने शुरू कर दिए या अपने सपनों को पंख देने की चाह उसके अंदर पैदा होने लगी, तो बाकी लोगों का क्या होगा. बाबूजी की दवाइयां कहां से आएंगी, भुवन और दोनों बेटियों की पढ़ाई और शादी कैसे होगी, घर का ख़र्च और सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह कैसे होगा?
उसे मां-बाबूजी की तकलीफ़ और मजबूरियां सब दिखाई देती हैं, सब समझ भी आती हैं. इसलिए वह भी बिना कुछ कहे उनकी डोर से बंधी कठपुतली की तरह नाचती रहती है. लेकिन… बस एक ही कसक उसे टीस देती है कि सबकी ख़ुशियों का ख़्याल रखने वाली इस बेटी से मां को वैसी ममता क्यों नहीं है जैसी बाकी तीनों बच्चों से. वह तो उनकी सौतेली बेटी भी नहीं है. सभी कहते हैं कि रिया की शक्ल बिल्कुल मां से मिलती है. फिर वह क्यों उनके लाड़-प्यार से वंचित है? क्यों मां को उसकी बिल्कुल भी परवाह नहीं है?
नहीं… उसे कभी अपने सवाल का जवाब नहीं मिल सकता, क्योंकि उसे सवाल पूछने का हक़ भी नहीं है. कौन यक़ीन करेगा कि इस ज़माने में एक कमाने वाली आत्मनिर्भर लड़की भी इतनी असहाय हो सकती है. इतनी बेचारी कि उसे अपनी ही कमाई के एक-एक पैसे का हिसाब देना पड़ता हो.
चार्टेड बस का सफ़र उसके लिए किसी राहत से कम नहीं होता है. हर तरह के कार्यक्षेत्रों से जुड़े लोग एक साथ आधे-पौने घंटे का सफ़र हंसते-गाते बिताते हैं. यह सच है कि थकावट आजकल हर इंसान की जीवनशैली का हिस्सा बन चुकी है और यही वह समय होता है, जब कुछ समय बैठने का अवसर मिलता है. चाहो तो आंखें मूंदकर अपनी दुनिया में लीन हो जाओ या चैन से अपनी नींद पूरी कर लो या फिर अपने घर-ऑफिस की समस्याओं को बांट अपने मन को हल्का कर लो. कभी-कभी तो बात करते-करते, समाधान भी मिल जाता था. बच्चों की समस्याएं चुटकी में सुलझ जाती थीं और दूसरों की परेशानियों के आगे अपनी परेशानी बौनी लगने लगती थी.
किसी का जन्मदिन है, तो मिठाई बंट रही है, मंगलवार है तो प्रसाद बंट रहा है. एक पूरी दुनिया ही जैसे बस में सिमट गई हो. रिया की कितनी ही सहेलियां बन गई हैं. रोज़ जिसके साथ बैठो, उसके साथ आत्मीयता पनप ही जाती है. नेहा और सपना के साथ उसकी बहुत बनती है. हालांकि दोनों ही विवाहित और दो-दो बच्चों की मां हैं, फिर भी उनकी बातों का विषय केवल पति व बच्चों तक ही सीमित नहीं होता है. उनके साथ रिया हर तरह के विषय पर बिंदास होकर बात कर सकती है.
“ले रिया ढोकला खा. तेरे लिए ख़ास बनाकर लाई हूं. वैसे भी तुझे देखकर लग रहा है कि भूखी ही घर से आई है.” सपना ने ढोकले का डिब्बा उसके सामने करते हुए कहा.
“तेरे जैसा ढोकला तो कोई बना ही नहीं सकता है.” नेहा ने झट ढोकला उठाकर मूंह में डाल लिया.
“कुछ तो शर्म कर. ऑफर मैं रिया को कर रही हूं और ख़ुद खाने में लगी है.” सपना ने उसे प्यार से झिड़का.
“अरे खाने दे ना.” रिया ने कहा तो सपना हंसते हुए बोली, “जब से बस में चढ़ी है, तब से ही चिप्स खा रही है. पिछले दो सालों में कितनी मोटी हो गई है. देख तो सीट भी कितनी घेर कर बैठती है.”
यह सुन नेहा ने उसे चिकोटी काटी. रिया खिलखिलाकर हंस पड़ी.
“कितनी अच्छी लगती है, हंसते हुए. बुझी-बुझी सी मत रहा कर रिया. घर से निकले, तो दुखों की गठरी वहीं दरवाज़े पर छोड़ आया कर. चल बाय मेरा स्टैंड आ गया.” सपना ने उसके कंधे पर आश्वासन का हाथ रखा. उसका भी स्टैंड अगला ही था.
ऑफिस में वही एक-सा रुटीन, बस एक ही तसल्ली थी कि यहां काम की कद्र होती थी. इसलिए उसे तरक़्क़ी करते देर नहीं लगी थी. कॉरपोरेट ऑफिस मेंं जिस तरह एक व्यवस्था व नियम के अनुसार काम चलता है, वही कल्चर यहां भी था. काम करोगे तो आगे बढ़ोगे, वरना जूनियर भी तेज़ी से आगे निकल जाएंगे. काम पूरा होना चाहिए, उसके लिए कैसे मैनेज करना है वह तुम्हारा काम है, मैनेजमेंट को इससे कोई मतलब नहीं.
मार्केटिंग हेड होने के नाते कंपनी की उससे उम्मीदें न सिर्फ़ काम को लेकर जुड़ी हैं, बल्कि मुनाफ़े की भी वह उम्मीद रखती है. रिया कार रख सकती है, बेहतरीन सुविधाओं से युक्त घर में रह सकती है और अपने लाइफ स्टाइल को बढ़िया बना सकती है, क्योंकि कंपनी उसे सुविधाएं देती है, पर रिया ऐसा कुछ भी नहीं कर पाती है, क्योंकि उसे बेहतरीन ज़िंदगी जीने का हक़ नहीं है. वह वैसे ही जीती है जैसे उसकी मां चाहती है. सुविधाओं के लिए मिलने वाले पैसे मां उसे अपने पर ख़र्च भी नहीं करने देती, बल्कि उनसे दोनों बहनों के लिए ज़ेवर ख़रीद कर रखती है. और उसके लिए… क्या मां के मन में एक बार भी यह विचार नहीं आता कि जिस बेटी को उन्होंने एक खंडित मूर्ति से अधिक कुछ नहीं समझा, उसके अंदर भी प्राण है. उसके विवाह का ख़्याल क्यों नहीं उन्हें परेशान करता.

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“मैं जानती हूं कि तू हमारी ख़ातिर कुछ भी कर सकती है. अब जब लोग पूछते हैं कि तेरा ब्याह क्यों नहीं हुआ, तो मैं यही समझाती हूं कि तूने अपनी इच्छा से ब्याह न करने का फ़ैसला किया है. वरना क्या मैं तुझे कुंआरी रहने देती. आख़िर अपने भाई-बहन की कितनी चिंता है तुझे.” मां की बात सुन वह हैरान रह जाती. उसने आख़िर ऐसा कब कहा. उससे कब उसकी इच्छा पूछी गई?
“मैडम, मि. दीपेश पांडे आपसे मिलना चाहते हैं. क्या आपके केबिन में उन्हें भेज दूं?” इंटरकॉम पर रिसेप्शनिस्ट ने पूछा.
“पांच मिनट बाद.” दीपेश के आने से पहले ख़ुद को संभालना चाहती थी वह. कंपनी ज्वॉइन किए हुए हालांकि उसे अभी दो महीने ही हुए हैं, पर अपनी काबिलियत और कंविंसिंग करने की क्षमता के कारण वह कंपनी को करोड़ों का फ़ायदा करा चुका है. कंपनी के एक्स्पोर्ट डिपार्टमेंट को वही संभालता है. रिया से कोई 1-2 साल छोटा ही होगा, पर उसके सामने आते ही जैसे रिया की बोलती बंद हो जाती है. जब वह सीधे उसकी आंखों में आंखें डालकर किसी प्रोजेक्ट पर डिस्कस करता है, तो वह हड़बड़ा जाती है. ऐसा लगता है मानो उसकी आंखें सीधे उसके दिल तक पहुंच रही हों, मानो वह उससे कुछ कहना चाह रही हों, मानो उसमें कोई सवाल छिपा हो.
ऐसा नहीं है कि रिया को उसका साथ अच्छा नहीं लगता. उसका बात करने का अंदाज़, हर बात पर मुस्कुराना और ज़िंदादिली सब उसे भाता है, लेकिन अपने ओहदे की गरिमा का उसे पूरा ख़्याल रहता है. पूरा ऑफिस उसकी इज़्ज़त उसके काम के अलावा उसकी शिष्टता के लिए भी करता है. डिगनिटि को कैसे मेंटेन करके रखा जाता है, यह वह बख़ूबी जानती है. इन दो महीनों में न जाने कितनी बार उसके साथ इंटरेक्शन हो चुका है, फिर भी बिना इजाज़त वह कमरे में नहीं आता और रिया उसकी इस बात की भी क़ायल है.
न जाने क्यों उसके हाथ बालों को संवारने लगे. बैग में से शीशा निकालकर उसने ख़ुद को निहारा. पैंतीस की हो चली है, पर आकर्षण अभी भी है. इस खंडित मूर्ति को अगर नया जीवन मिल जाए, तो इसमें भी प्राण भर सकते हैं. प्यार और एहसास जैसे शब्द उसकी ज़िंदगी के शब्दकोश में न हों, ऐसा कहना ग़लत होगा, बस कभी उन पन्नों को खोलने की उसने हिम्मत नहीं की, जिस पर वे लिखे हुए हैं. दीपेश से मिलने के बाद न जाने क्यों उसके अंदर उन पन्नों को छूकर पढ़ने की चाह जागने लगी है. इससे पहले भी कई पुरुषों ने उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, लेकिन उसे तब कभी ऐसा नहीं लगा कि वह उनके साथ किसी ऐसी राह पर क़दम रख सकती है जो दूर तक जाती हो. पर…
“मैम, कैन आई टेक यूअर फाइव मिनट्स?” दीपेश ने दरवाज़ेे पर से ही पूछा.
“प्लीज़, डू कम इन एंड बाइ द वे यू कैन कॉल मी रिया. यहां सभी एक-दूसरे का नाम लेकर संबोधित करते हैं.”
“थैंक्स रिया. तुमने मुझे कितनी बड़ी परेशानी से बचा लिया, वरना मैम कहते-कहते मैं बोर होने लगा था.” रिया उसके शरारती अंदाज़ को नज़रअंदाज़ न कर सकी और खिलखिलाकर हंस पड़ी.
“माई गॉड आप हंसती भी हैं. मुझे तो यहां का स्टाफ कहता है कि आपको किसी ने कभी हंसते हुए नहीं देखा. बट वन थिंग, आप हंसते हुए बहुत ख़ूबसूरत लगती हैं. यू नो यू आर ए कॉम्बिनेशन ऑफ ब्रेन एंड ब्यूटी.”
उसकी बात सुन रिया फिर सीरियस हो गई. “टेल मी, क्या डिस्कस करना चाहते थे?”
“दैट्स बैटर, अब लग रहा है कि किसी सीनियर कलीग से बात कर रहा हूं.” उसके गंभीर हो जाने को भी दीपेश एक सॉफ्ट टच देने से बाज़ न आया. मन में उस समय अनगिनत फूल एक साथ खिल उठे. उनकी ख़ुशबू उसे छूने लगी, उसे विचलित करने लगी. काश, दीपेश यों ही सामने बैठा रहे और वह उसे सुनती रहे.
“तो रिया, मेरे इस प्रपोज़ल पर आपकी क्या राय है?” वह चौंकी. कुछ सुना हो तो राय दे.
“इस फाइल को यहीं छोड़ दो. एक बार पढ़कर फिर बताती हूं कि क्या किया जाए.” ख़ुद को संभाल पाना इतना मुश्किल तो कभी नहीं था रिया के लिए. तो क्या पतझड़ में भी बहार आ जाती है?
“आजकल तू कुछ ज़्यादा ही बन-ठन कर ऑफिस नहीं जाने लगी है?” मां ने उसे टोका, तो सचमुच उसे एहसास हुआ कि वह अपने पर कुछ ज़्यादा ही ध्यान देने लगी है. बालों का जूड़ा कसकर बांधने की बजाय ढीला छोड़ देती है. आलमारी में बंद चटख रंगों की साड़ियां पहनने लगी है और बार-बार शीशा देखने की आदत भी हो गई है.
“कोई ऐसा काम न करना जिससे हमारी बदनामी हो. तेरी दोनों बहनों की शादी भी करनी है.” मां ने कहा तो उसका मन पहली बार विरोध करने को आतुर हो उठा.
“और मेरी? अच्छा मां, सच कहना क्या मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूं?”
“रिया, मां से कैसे बात कर रही है?” बाबूजी का स्वर गूंजा, तो पल भर को उसका विरोध डगमगाया, लेकिन फिर जैसे भीतर से किसी ने हिम्मत दी, शायद उन्हीं सतरंगी फूलों ने…
“बाबूजी, आख़िर क्यों फिर मेरे साथ मां ऐसा व्यवहार करती हैं जैसे मैं…” उसके शब्द आंसुओं में डूबने लगे.
“उसकी मजबूरी है बेटा. वह ऐसा न करे तो यह घर कैसे चले. तेरी कमाई है, तो घर चल रहा है. बाकी और चार लोगों की ज़िंदगी बचाने के लिए वह तुझे लेकर स्वार्थी हो गई है ताकि कहीं तेरा मोह, तेरे प्रति उसकी ममता उसे तुझे अपनी ज़िंदगी जीने देने की आज़ादी न दे दे.”
उसने मां को देखा. उनके दर्द से भीगे आंचल में उसके लिए भी ममता का सागर लहरा रहा था. फिर क्या करे वह. एक तरफ़ उसकी उमंगें उसे दीपेश की ओर धकेल रही हैं, तो दूसरी ओर मां की उससे बंधी आस उसे अपने को खंडित बनाए रखने के लिए मजबूर कर रही है. क्या वह कभी पूर्ण होकर नहीं जी पाएगी? क्या उसे अपनी ख़ुशियों के बारे में सोचने का कोई हक़ नहीं है? अपनी ज़िंदगी को रंगों से भरने की चाह क्या उसे नहीं होती? लेकिन वह यह सब क्या सोचने लगी, दीपेश को लेकर इतनी आशवस्त कैसे हो सकती है वह? उसने तो खुलकर क्या अप्रत्यक्ष रूप से भी कभी यह प्रदर्शित नहीं किया कि रिया को लेकर उसके मन में कोई भाव है. शायद वही अब अपनी अधूरी ज़िंदगी से ऊब गई है या शायद पहली बार किसी ने उसके मन के तारों को छुआ है.
“मेरा प्रपोज़ल पसंद आया, अगर आपकी तरफ़ से ओके हो, तो मैं इस पर काम करना शुरू करूं?” दीपेश का आज बिना इजाज़त लिए चले आना उसे अजीब तो लगा पर एक अधिकार व अपनेपन की भावना उसे सिहरा गई.
“प्लीज़ गो अहेड.” उसने अपने को संभालते हुए कहा.
“आज शाम के गेट टूगेदर में तो आप आ ही रही होंगी न? मार्केटिंग की फील्ड के सारे एक्सपर्ट वहां एकत्र होंगे?”
“आना ही पड़ेगा, दैट ज़ पार्ट ऑफ माय जॉब, वरना मुझे इस तरह की पार्टियों में जाना कतई पसंद नहीं है.”
पार्टी में मार्केटिंग से जुड़े हर पहलू पर बात करते-करते कब रात के ग्यारह बज गए, इसका उसे अंदाज़ा ही नहीं हुआ. मां तो आज अवश्य ही हंगामा कर देंगी. वैसे भी आज जब वह तैयार हो रही थी, तो उन्होंने कितना शोर मचाया था. उसने गुलाबी शिफॉन की साड़ी के साथ मैचिंग मोतियों की माला पहनी थी. उसकी सुराहीदार गर्दन पर झूलता ढीला जूड़ा और मेकअप के नाम पर माथे पर लगी छोटी-सी बिंदी के बावजूद उसकी सुंदरता किसी चांदनी की तरह लोगों को आकर्षित करने के लिए काफ़ी थी.
“काम के नाम पर रात में घर से निकलना, न जाने कैसा फैशन है.” मां की बड़बड़ाहट की परवाह न करने की हिम्मत उस समय रिया के अंदर कैसे आ गई थी, वह नहीं जानती. इसलिए हाई हील की सैंडल उनके सामने ज़ोर से चटकाते हुए वह उनके सामने से निकली थी.
“कैसे जाएंगी आप? मैं आपको छोड़ दूं.” दीपेश ने पूछा तो वह मना नहीं कर पाई और कोई विकल्प भी नहीं था, क्योंकि कंपनी में ऐसा कोई नहीं था, जो उससे इस तरह का सवाल करने की हिम्मत कर पाता. ग़लती उसी की थी जिसने अपने ऊपर गंभीरता का लबादा ओढ़ा हुआ था. केवल काम की बातों तक ही सीमित था उसका अपने कलीग्स से व्यवहार.
कार में कुछ देर की ख़ामोशी के बाद दीपेश बोला, “रिया, जानती हो, मैंने अब तक शादी क्यों नहीं की?” दीपेश के अचानक इस तरह के सवाल से हैरान रिया ने उसे देखा.
“मैं चाहता था कि मेरी जीवनसाथी ऐसी हो, जो समझदार व मैच्योर हो. मेरे काम और परिवार को समझ सके, ताकि बैलेंस करने में न उसे दिक़्क़त आए न मुझे. तुमसे मिलने के बाद मुझे लगा कि मेरी खोज पूरी हो गई है, पर तुम अपने में इतनी सिमटी रहती हो कि तुमसे कुछ कहने की हिम्मत कभी नहीं हुई. तुम्हारे प्रति यह लगाव कोई कच्ची उम्र का आकर्षण नहीं है. एक एहसास है जिसे प्यार के सिवाय कुछ नहीं कहा जा सकता है. मैं तुम्हारे और तुम्हारी घर की स्थितियों के बारे में सब कुछ जानता हूं. क्या तुम मेरे साथ ज़िंदगी की राह पर चलना पसंद करोगी? एक बार मज़बूत होकर तुम्हें फैसला लेना ही होगा. हम दोनों मिलकर तुम्हारे परिवार को संभालें तो?” रिया चुप थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या सचमुच उसकी ज़िंदगी में रंग भर सकते हैं. क्या सचमुच अपूर्ण, खंडित इस मूर्ति के अंदर भी प्राणों का संचार हो सकता है?
उसका घर आ चुका था. दीपेश ने जाती हुई रिया का आगे बढ़कर हाथ थाम लिया. मां को बालकनी में खड़ी देख अचकचाई रिया, पर दीपेश की हाथों की दृढ़ता ने उसे संबल दिया. अपना दूसरा हाथ दीपेश के हाथ पर रखते हुए उसने दीपेश को देखा. रिया की आंखों में स्वीकृति के असंख्य तारे टिमटिमा रहे थे.

– सुमन बाजपेयी

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Usha Gupta

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