कहानी- तुम मेरी हो… (Short Story- Tum Meri Ho…)

डॉ. विनीता राहुरीकर

मां का आहत, क्षुब्ध मुख देखकर मन को मानो विजय का एहसास हुआ. मन एक कुटिल उल्लास से भर गया. उनकी बच्ची को हटात गोद में लेने की चेष्टा पर क्रोध आया.
“यह मेरी बेटी है. क्यों ज़बरदस्ती कर रही हैं उसे लेने के लिए.” मन में कहीं एक क्रोध की भावना उठ खड़ी हुई कि अचानक दुखी, निरीह हो आए मां के चेहरे को देखकर कहीं भीतर की मां कराह उठी.

बहुत देर से धीमी आवाज़ में कुनमुना रही बच्ची कुछ देर बाद ठुनकने लगी और अब उसकी रुलाई फूट पड़ी. सौम्या आंख बंद किए उसकी ओर पीठ करके सोने का बहाना किए पड़ी रही. एक मन कर रहा था उठकर उसे संभाले और दूसरा मन कठोर ही बना रहा. बच्ची अब ज़ोर से रोने लगी. सौम्या अब और अधिक सोने का नाटक नहीं कर पा रही थी. वह सोच ही रही थी उठने का कि तभी मांजी धड़धड़ाते हुए कमरे में आ गईं. सौम्या हड़बड़ा कर उठ बैठी.
“पता नहीं कैसे आंख लग गई. मैं उठ ही रही थी…” मांजी की कठोर मुखाकृति की ओर देखकर आगे कुछ कहने का उसे साहस न हुआ.
बच्ची को छाती से चिपकाकर उन्होंने उसे पुचकारा. जब वह आश्‍वस्त होकर चुप हो गई, तब उसे गोद में लेकर वे पलंग पर बैठ गईं और उसे बोतल से दूध पिलाने लगीं. अपराधी की तरह सौम्या चुपचाप बैठी रही. मांजी की गोद से अब बच्ची को नहीं लिया जा सकता था. उसने घड़ी देखी. साढ़े चार बज रहे थे, वह धीरे से उठकर रसोईघर में चली गई और चाय बनाने लगी. एक कप ससुरजी को दिया और दो कप लेकर कमरे में आ गई. मांजी अब बच्ची का डायपर बदल रही थीं. सौम्या को ग्लानि हो आई, यह काम तो उसे करना चाहिए जो मांजी कर रही हैं. डायपर बदल कर उन्होंने बच्ची को फिर से गोद में ले लिया और उसे पुचकारने लगीं. सौम्या ने एक कप उन्हें दिया और एक कप लेकर सामने बैठ गई.


“सौम्या, तुम्हें क्या बेटे की बहुत अधिक कामना थी?” अचानक मांजी ने पूछा.
इस अप्रत्याशित प्रश्‍न को सुनकर सौम्या अवाक रह गई. “नहीं मां ऐसा तो कुछ नहीं है.”
“फिर क्यों अपनी ही बेटी के साथ ऐसा उपेक्षित व्यवहार करती हो?” मांजी का स्वर तीखा था.
सौम्या शर्म से सन्न रह गई. ऐसा तो उसने सोचा ही नहीं था कि मांजी यह बात भी कह सकती हैं. उसे पता है अपने ख़ुुद के तीन बेटे, बड़े दो बेटों के भी बेटे होने पर मांजी को बेटी की कितनी अधिक चाहत थी और यूं भी वह बहुत सुलझी हुई महिला थीं. इस तरह का भेदभाव उनके मन में कभी नहीं रहा. लेकिन तब भी सौम्या के गर्भवती होने की ख़बर सुनते ही उन्होंने हर पल एक पोती की ही प्रार्थना की थी. तभी कुहू के जन्म लेते ही वे ख़ुशी से बौरा गई थीं.

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“बस, जरा थकान के कारण…” आगे सौम्या से झूठ नहीं बोला गया. लड़कियां तो सवा महीने बाद ही घर के छोटे-मोटे कामों में लग जाती हैं और उसे तो तीन महीने होने को आए. अब तो थकान का बहाना भी बचकाना लगता है. सारा दिन बिस्तर पर ही तो पड़ी रहती है. काम तो मांजी कुछ करने नहीं देतीं, बस बच्ची को ही तो देखना होता है, तो वह भी तो नहीं होता उससे. जबकि बच्ची बहुत कम रोती है. अधिकांश तो नींद खुलने पर भी चुपचाप पड़ी रहती है जैसे उसे भी अपनी मां के उपेक्षित व्यवहार का आभास हो गया हो. इसलिए वह उसे कम से कम ही परेशान करती है.
चाय के खाली कप लिए वह चुपचाप सिर झुकाए कमरे से चली गई. जब वापस आई, तब तक मांजी बच्ची को लेकर जा चुकी थी. एक नि:श्‍वास लेकर सौम्या पलंग पर बैठ गई. पास में बच्ची के छोटे-छोटे तकिए रखे थे. बेबी प्रिंट की
छोट-सी चादर बिछी थी, डायपर और झबले रखे थे. सौम्या ने धीरे से उन्हें छुआ. उसका मन भर आया. ऐसा नहीं है कि वह अपनी बेटी से प्यार नहीं करना चाहती. और मांओं की तरह मातृत्व सुख का गर्व मिश्रित अनुभव नहीं करना चाहती, लेकिन…
उठकर वह खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई. दिवस के संधि काल का आकाश भी मानो उदास मनःस्थिति में नीरव, दूर तक मलिनता से पसरा हुआ था. हर रोज़ कितना प्रयत्न करती है वह सहज होने का, लेकिन मन की गांठ इतनी मज़बूती से लगी है कि सुलझ ही नहीं पा रही, खुल ही नहीं रही. इससे तो सच में बेटा हो जाता, तो ही ठीक था. कम से कम उसका तो होता. उसमें किसी और की आशाओं की प्रतिछवि तो ना होती. और मां का भी भ्रम एकबारगी टूट जाता. वही तो है, जिन्होंने सौम्या को अपनी बेटी से ही दूर कर दिया. उसके भीतर की मां को इतना कुंठित कर डाला कि वह अपनी ही संतान से तटस्थ हो गई. भावनाओं के सारे सोते ऐसे सूख गए कि हृदय का सारा अमृत सूख गया और जब मन ही मुरझा जाए, तो देह का रस भी सूख ही जाता है.
“दवाई ली थी आज? लो दूध में शतावरी मिलाकर लाई हूं. पी लो.” मांजी अचानक कमरे में आकर बोलीं.
“कुछ होता तो है नहीं शतावरी से…” सौम्या ने हल्का-सा प्रतिवाद किया.


“कोशिश करना हमारा काम है. कल से स़फेद जीरा भी खिलाना शुरू करूंगी. बच्चे के लिए मां का दूध ही सबसे अच्छा होता है. यह ऊपर का दूध, यह पाउडर घोलकर पिलाना मन को कुछ ठीक नहीं लगता.” वे दूध का गिलास सौम्या को पकड़ाते हुए बोलीं.
सौम्या के मन में फिर कुछ अपराधबोध-सा होने लगा. वह चुपचाप दूध पीने लगी. रात-दिन मांजी उसी के विषय में सोचती रहती हैं. क्या खिलाए उसे कि छाती में दूध उतर आए. क्या दवाई दूं, क्या जड़ी-बूटियां, घरेलू, डॉक्टर की दवाइयां… कुछ भी तो नहीं बाकी रखा उन्होंने. सारे प्रयत्न कर लिए. यहां तक कि गायनाकोलॉजिस्ट से पोस्टपार्टम डिप्रेशन के बारे में बात करके उसके उपाय भी कर डाले, लेकिन सौम्या के मन की ग्रंथि का कोई हल न निकला.
दूसरे दिन सौम्या दोपहर में लेटी थी कि तभी फोन की घंटी बजने लगी. देखा मां का फोन था. खीज भरे उपेक्षित भाव से उसने मोबाइल साइलेंट पर करके तकिए के नीचे रख दिया. पता है मां हर दो मिनट में फोन लगाएंगी. दिन में चार बार अपनी कुहू को देखे बिना उनको चैन नहीं मिलता. पांच मिनट बाद ही फोन हाथ में लिए मांजी ने कमरे में प्रवेश किया और उसे जगा हुआ देखकर बोलीं, “क्या हुआ वैशालीजी, कब से तुम्हें फोन लगा रही हैं. उठा क्यों नहीं रही?”
सौम्या हड़बड़ाकर उठ बैठी.
“वह मेरा फोन साइलेंट पर था, तो सुनाई ही नहीं दिया.”
शंकित दृष्टि से उसे घूरते हुए मांजी बच्ची के सामने बैठकर वैशालीजी को वीडियो कॉल पर उसे दिखाने लगी. सौम्या की मां अर्थात वैशाली बच्ची से बातें करने लगी. बच्ची हाथ-पांव चलाते हुए किलकारी मारने लगी.

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रात में नींद खुली, तो बच्ची की किलकारी सुनकर सौम्या ने पलटकर देखा. निशांत बच्ची को गोद में लेकर खिला रहे थे.
“क्या हुआ?” सौम्या ने पूछा.
“डायपर गीला हो गया था. रो रही थी. मैंने बदल दिया.” निशांत बोले.
“आपने मुझे क्यों नहीं उठा दिया?” सौम्या ने कहा.
“तुम्हें बहुत गहरी नींद लगी थी. फिर क्या हुआ जो मैं उठ गया. दिनभर तो तुम ही संभालती हो. तुम्हारा आराम करना भी तो ज़रूरी है.” निशांत ने सहज भाव से
उत्तर दिया.
सौम्या के दिल को ठेस लगी. बच्ची की रोने की आवाज़ निशांत को सुनाई दे गई, लेकिन उसे नहीं सुनाई दी. मन में प्यार न हो, तो कान भी बहरे हो जाते हैं क्या! जो निशांत दिनभर ऑफिस के काम से थका-मंदा रहता है, तब भी वह नींद में बच्ची के प्रति सतर्क रहता है. शायद इसका कारण बच्ची के साथ उसका लगाव ही है. वह लगाव जो सौम्या भी अपने दिल में पैदा करना चाहती है बच्ची के लिए, लेकिन चाह कर भी, बहुत कोशिश करके भी नहीं कर पा रही है. कितना समझाती है ख़ुद को कि उसने नौ महीने उसे कोख में रखा है, जन्म दिया है उसे, लेकिन हर बार बीच में एक अदृश्य दीवार खड़ी हो जाती है. बचपन से मन में पड़ी एक ग्रंथि उभर आती है और अपनी ही बच्ची उसे किसी और की बेटी लगने लगती है.
अपनी मां की बेटी…
वह बेटी जिसे उन्होंने 16 महीने की आयु में ही खो दिया था. सौम्या से ढाई साल छोटी, जिसकी सूरत भी सौम्या को याद नहीं, मगर जो ना होकर भी उम्रभर होने से भी अधिक उस पर हावी रही. ज़िद्दी और थोड़ी ग़ुस्सैल सौम्या के व्यवहार से जब भी मां आहत होती थीं, तो अपनी छोटी बेटी की याद में उनकी आंखें भर आतीं. चेहरे पर एक उलाहने का भाव आ जाता कि ‘आज मेरी कुहू होती तो…’


मां से ही सुना था कि उसकी आवाज़ बहुत धीमी और मधुर थी. हमेशा अपने में मगन खेलती रहती, बहुत ही कम रोती थी. तभी मां ने उसका नाम कुहू रखा था. थी भी बहुत सुंदर, बहुत गोरी. सौम्या ने फोटो में देखा था उसे. मां ने पलंग के पासवाली टेबल पर ही रख रखा था. दूध में केसर घुले जैसा रंग, बिल्कुल मां जैसा, घुंघराले बाल, बड़ी-बड़ी सुंदर आंखें, गुलाबी होंठ. बढ़ती उम्र में जब सौम्या को समझ आई, तो उसे कुहू से अनायास ही ईर्ष्या हो आई अपना दबा रंग देखकर. घर-परिवार, जान-पहचान में जब भी रंग-रूप की बात चलती, तो मां कुहू के ही रूप की तारीफ़ करती. कुहू ना होकर भी मां के रोम-रोम में बसी थी.
कुंठित होकर सौम्या मां को और परेशान करती. देखा था उसने कुहू के कपड़ों को छाती से लगाकर मां को जार-जार रोते हुए, “क्यों चली गई बिटिया मुझे छोड़कर.” उसका सारा सामान मां ने आज तक सहेजकर रखा है. कपड़े, खिलौने, बिछौने सब. कुंठित होकर सौम्या मां को और तंग करती, उनकी उपेक्षा करती और उतना ही मां कुहू के और नज़दीक जाती रही. सुना था उसने कि मां ने बरसों तक ईश्‍वर से प्रार्थना की थी उसे वापस पाने कोे, लेकिन ईश्‍वर ने नहीं सुनी.

सौम्या का संपूर्ण अस्तित्व कुहू की छाया तले विद्रोह में कांटेदार होता गया. मां उसे सौतेली लगतीं और कुहू उसे अपनी प्रतिद्वंद्वी. मां उसे प्यार भी करतीं, तब भी उसे लगता कि कुहू के हिस्से का बचा हुआ दे रही है और वह मां से और दूर छिटक जाती. अजीब-सी मनःस्थिति हो गई थी उसकी. मां को रुलाने, आहत करने में उसे एक आत्मिक सुख मिलने लगा और उसने अंततः उसी सुख बोध में स्वयं को ़कैद कर लिया. मां जितना उसके पास आने की, दुलराने की कोशिश करतीं, उतना ही वह अपने खोल में सिमटकर एकाकी-सी होती गई और अपने एकाकीपन के लिए मां को ही मन में अपराधी मानती रही.


बाद के वर्षों में मां का दर्द भी कम होता गया और सौम्या अपने स्कूल कॉलेज की दुनिया में व्यस्त होती गई. मन की गांठें अब इतनी चुभती नहीं थीं.
जब सौम्या मां बननेवाली थी, तब मां की आस पुनः जाग गई. चेहरे पर एक ख़ुशी खिल उठी, “मेरी कुहू वापस आएगी. ईश्‍वर उसे इस रूप में मेरी गोद में वापस भेजेगा.”
और मां ख़ुशी से बौरा-सी गई. सबको लगता यह नानी बनने की स्वाभाविक ख़ुशी है, लेकिन सौम्या को उनकी ख़ुशी से चिढ़ होती. उसे लगता मां की यह ख़ुुशी सौम्या के मां बनने को लेकर नहीं, बल्कि अपनी मरी हुई बेटी को वापस पाने की उम्मीद में है. मां का रोज़ फोन लगाना, सेहत पूछना, हिदायतें देना सौम्या को बेहद नागवार लगता. उसे लगता मां उसकी नहीं अपनी बच्ची की परवाह कर रही है. उसके गर्भ के अजन्मे बच्चे के माथे पर जैसे किसी अदृश्य हाथ ने मां के नाम में सौम्या की जगह उसकी मां का नाम लिख दिया. वह ईश्‍वर से प्रार्थना करती कि उसे बेटा दें, ताकि मां का यह व्यर्थ भ्रम टूटे और सौम्या को उसका अपना बच्चा मिल जाए. लेकिन मां पूरे चाव से लड़की के कपड़े जमा करती रही. मां जितना आनेवाले बच्चे से जुड़ती जा रही थी, सौम्या उतनी ही उदासीन होती गई.
लेकिन जब बेटी का जन्म हुआ, तो सौम्या के होश में आते ही मां ने गुलाबी रंग के झबले में लिपटी, गुलाबी चादर में सोई दूध-सी गोरी बच्ची को उसे दिखाया, तो उनकी आंखों में ख़ुशी के आंसू भरे हुए थे. आवाज़ ख़ुशी की अधिकता से कांप रही थी.
“देख सौम्या, हूबहू कुहू जैसी है… यह तो मेरी कुहू है.” उन्होंने बच्ची को छाती से लगा लिया.
“आ गई मेरे पास वापस मेरी बच्ची.”
सौम्या के भीतर कुछ दरक गया. बच्ची का रंग, टोपी में से बाहर आकर माथे पर फैली घुंघराली काली लट, उस पर बच्ची को देखते ही पिताजी के चेहरे के भाव और उनकी आंखों में तैरती नमी. सौम्या को लगा उसने तो जन्म भर दिया है, बेटी तो यह वास्तव में मां की ही लौट कर आई है. तभी तो रंग भी उनका ही लेकर आई है. उस पर नामकरण पर मां ने उसका नाम कुहू ही रखा, जिसे सब ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. अब यह नाम ही उसे हर पल एहसास दिलाता रहता है कि यह उसकी बेटी नहीं. बस तभी से सौम्या के मन की नदी सूख गई. यूं भी उसके दिम़ाग़ में कुछ घर कर जाता, तो वह उसी विचार में कुंठित होती रहती.
मां जब तक यहां रहीं, सौम्या और भी अधिक बच्ची की ओर से उदासीन ही होती गई. वह तो पिताजी की तबीयत ख़राब हो गई, तो उन्हें मजबूरन जाना पड़ा, वरना वह यही बस जातीं. जाते हुए पैर निकल ही नहीं रहा था उनका, आंखें बार-बार भर आतीं. कितनी ढेर सारी नसीहत दे डाली थी सौम्या को… बच्ची की ठीक से देखरेख करने के संदर्भ में. एकबारगी तो सौम्या का मन हुआ कि कह दे कि अपनी बेटी को अपने साथ ही ले जाओ, लेकिन सासू मां पास खड़ी थीं, इसलिए चुप रह गई.


बच्ची चार महीने की हो गई. एक दिन सौम्या कपड़े तह करके आलमारी में रख रही थी, तभी कुहू नींद से जाग गई और धीरे-धीरे अपने मन से ही खेलने लगी. सौम्या को कभी-कभी आश्‍चर्य होता कि बच्ची कभी रोती क्यों नहीं. उसने आलमारी के पल्ले की ओट से देखा, बच्ची अपने ही हाथों की उंगलियों से खेलकर किलकारी भर रही थी. वास्तव में उसकी आवाज़ बहुत ही धीमी और मधुर है. जैसा कि मां ने कहा था कि उनकी बेटी कुहू की ही तरह.
सौम्या पल्ले की ओट से निकलकर बच्ची के सामने खड़ी हो गई. बच्ची ने किलकारी भरना बंद करके होंठ दबा लिए. मुट्ठी बांधकर दोनों हाथ सीने पर रख लिए और चुपचाप सौम्या को देखने लगी. ना गोद में लेने की पुकार, ना आग्रह भरी मनुहार, ना मां को देखते ही मचल कर ठुनकना. सौम्या के दिल में फांस-सी चुभ गई. बच्ची भी उसके मन के भावों को समझती होगी ना कि यहां एक सूखा-सा उदासीन भाव है. बूंद भर भी ममत्व की ऊष्मा नहीं है. तभी तो वह भी निश्‍चल पड़ी है. मां का ध्यान आकर्षित कर उससे गोद में उठा लेने की कोई शिशु सुलभ चेष्टा नहीं करती वह. ममत्व का वह कोमल परिचय सौम्या ने उसे दिया ही कब. तभी तो बच्ची की आंखें भी अपरिचित भाव से ही ताक रही हैं उसे, एक नितांत अपरिचित जिज्ञासा से. सौम्या ने फिर मुंह पल्ले की ओट में कर लिया. बच्ची दोबारा किलकारी भरकर खेलने लगी. ना जाने क्यों सौम्या के मन में एक मरोड़ उठी और उसका मन किया कि वह कहीं बैठकर ख़ूब सारा रो ले.
बच्ची नौ महीने की हो गई थी. पलटने, बैठने के बाद खड़े होने की अपनी स्वाभाविक विकास यात्रा पर आगे बढ़ रही थी. मांजी अब और अधिक चौकस दृष्टि रखती थीं बच्ची पर. कहीं सौम्या लापरवाही कर बैठे और बच्ची पलंग से गिर न पड़े. दिन में अधिकतर समय उसे अपने पास ही रखतीं. मां के वीडियो कॉल बदस्तूर जारी थे, जो सौम्या को एक क्षण के लिए भी भूलने नहीं देते थे कि कुहू उनकी बेटी है. बच्ची के साथ उसका जुड़ाव मात्र एक मनुष्य होने के नाते देखभाल करने तक ही सीमित था.
जैसे-जैसे वह बड़ी होती जा रही थी, उसका चेहरा हूबहू मां के पलंग के पास वाले टेबल पर रखी तस्वीरवाली कुहू के समान होता जा रहा था और सौम्या को वह किसी दूसरे की अमानत-सी लगती, अपनी नहीं. बच्ची का रंग देखकर एक बार तो लोगों की टटोलती निगाह सौम्या के रंग पर
अटक जाती. निशांत का रंग भी तो इतना साफ न था.
पिताजी की तबीयत संभली, तो मां इधर आने के लिए छटपटाने लगीं. सौम्या को बुला-बुलाकर तो वो हार गई थीं. आख़िरकार अब वे ही आ रही थीं. मांजी ने ड्राइवर को भेज दिया था स्टेशन. सौम्या कुहू को दाल-चावल खिला रही थी कि तभी कार आ गई. कहना न होगा कि क्षणभर मांजी से मिलने की औपचारिकता पूरी कर के मां अंदर भागी आईं अपनी कुहू से मिलने, उसे सीने से लगाने, जो 26 बरस बाद अब तस्वीर से निकलकर साक्षात उनके सामने थी.
बच्ची सौम्या के पास बैठी थी. मां उसे देखती ही रह गईं. साक्षात जैसे उनकी कुहू ही बैठी थी. लगा अभी पहले की तरह मम्मा कहकर बांहें फैलाकर सीने से चिपक जाएगी. वही चेहरा, वही रंग-रूप, वही घुंघराले घने बाल… आंखें आंसुओं से धुंधला गईं.
“मेरी बच्ची…” रुंधे गले से अस्पष्ट से उच्चारण के साथ ही उन्होंने उसे गोद में उठा लेने को बहुत आतुरता से बांहें फैला दीं.
“आख़िर भगवान ने मेरी सुन ली. तुझे वापस भेज ही दिया.” 26 वर्षों की बिछोह की पीड़ा और मिलन की ख़ुशी एक साथ ही हृदय को मथ रही थी. यही वह उम्र थी जब कुहू ने उन्हें पहली बार मम्मा कहा था. आज भी पहचान लेगी वह, अभी कहेगी, इसी अदम्य विश्‍वास से वह उसे ताक रही थीं. शंका का कोई कारण ही नहीं था.

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एकटक उनके बढ़े हुए हाथों को देखते हुए बच्ची के होंठ भिंच गए. फिर निचला होंठ बाहर निकला, आंखें डबडबा गईं और अप्रत्याशित रूप से वह सौम्या का हाथ पकड़ कर खड़ी हुई और आज पहली बार उसे ‘मम्मा…” कहते हुए दोनों बांहों से उसके गले से चिपटते हुए बुक्का फाड़कर रोने लगी. उसे उठाने को बढ़े हुए मां के हाथ वहीं ठिठक गए. मुख अचानक आहत-सा दिखने लगा. इस अकल्पनीय घटना से वह स्तब्ध रह गईं, लेकिन दूसरे ही क्षण उन्होंने बच्ची को सौम्या की गोद से खींच लेना चाहा, तो बच्ची और तेज़ स्वर में रो कर सौम्या से और अधिक चिपट गई.
इधर सौम्या भी चकित थी. उसने कभी ममत्व भरा भाव नहीं दिखाया, तब भी बच्ची ने उसके साथ परिचय स्थापित कर रखा था कि वही उसकी मम्मा है. बच्ची के निश्छल प्रेम और विश्‍वास से मन में स्नेह का सोता फूट पड़ा. अनायास हाथ उसकी पीठ
सहलाने लगा.
मां का आहत, क्षुब्ध मुख देखकर मन को मानो विजय का एहसास हुआ. मन एक कुटिल उल्लास से भर गया. उनकी बच्ची को हटात गोद में लेने की चेष्टा पर क्रोध आया.
“यह मेरी बेटी है. क्यों ज़बरदस्ती कर रही हैं उसे लेने के लिए?” मन में कहीं एक क्रोध की भावना उठ खड़ी हुई कि अचानक दुखी, निरीह हो आए मां के चेहरे को देखकर कहीं भीतर की मां कराह उठी.
तुम अपनी बच्ची को अपनी मां द्वारा भी गोद लेने की कोशिश पर अपनी बेटी का रोना देखकर ग़ुस्सा हो रही हो, तो इस मां से जब काल के क्रूर हाथों ने उसकी मासूम बच्ची को छीना होगा, तब विवशता भरे क्रोध और पीड़ा से उस मां के दिल की क्या हालत हुई होगी?
अपनी बेटी के प्रति ममत्व की भावना ने उसे पहली बार अपनी मां के दुख, उसकी पीड़ा का एहसास कराया और मां के प्रति उसका मन करुणा से भर आया.और उसकी बहन कुहू?आज उसकी अपनी मां उसकी बेटी को लेने की कोशिश कर रही है, तो उसकी बेटी घबरा कर उसके गले से चिपट कर रोने लगी, तो जब सोलह महीने की उस मासूम कुहू को मृत्यु मां से छीनकर ले जा रही होगी, तब आसन्न मृत्यु के क्षणों में वह अपनी मां से बिछड़ने के भय से कितनी घबराई होगी? कितना रोई होगी?
और उसने उसे हमेशा प्रतिद्वंद्वी समझा. कभी उसकी ह्रदयविदारक वेदना को जाना ही नहीं. पहली बार उसे लगा कि कुहू उसकी छोटी बहन थी, उसकी स्नेह की पात्र थी. कुहू होती, तो आज हम वयस्क, हमराज साथी होती. पहली बार उसके ना होने पर आज सौम्या की आंखें भर आईं.
ओह कुहू!
तुम मेरी छोटी बहन हो, तुम तब भी मेरी ही थी और यदि वास्तव में वही हो, तब भी मेरी ही हो, मेरी कुहू…
कुहू के ममत्व ने आज उसकी बहन और मां जैसे सौम्या को लौटा दी थी.
मांजी मां की पीठ थपथपा रही थीं.
“अचानक देखा ना इसलिए अचकचा गई होगी, वरना यह तो कभी रोती नहीं है. पांच-दस मिनट में पहचान हो जाएगी. तब तक आप आइए चाय पी लीजिए.”
सौम्या ने मां को जीवन में जैसे पहली बार अपनत्व से गले लगा लिया. मां आश्‍वस्त और सहज होकर बाहर चली गईं, जहां पिताजी और ससुरजी चाय पर प्रतीक्षा कर रहे थे.
अचानक सौम्या को लगा उसका कुर्ता छाती पर गीला हो रहा है, जो दूध की धार ढेर दवाइयों से नहीं फूटी, वो कुहू के उस पर सहज विश्‍वास, निश्छल प्रेम और वात्सल्य ने बहा दी. उसके सारे अपरिचय को पोंछकर कुहू ने मां-बेटी के बीच का सहज वात्सल्य पूर्ण परिचय आख़िर स्थापित कर ही दिया. हुलसकर सौम्या उसे गोद में लिटाकर छाती में भींचकर अमृतपान कराने लगी.

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Usha Gupta

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