Close

कहानी- तुम्हारी मां (Short Story- Tumahri Maa)

संगीता माथुर

“बच्चे बड़े हो रहे हैं, समझदार हो रहे हैं, तो अपनी ज़िम्मेदारियां और अपने कर्तव्य समझ रहे हैं. हमें उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए. उन पर गर्व होना चाहिए. और तुम हो कि अपराधबोध पाल रही हो! इतना समझ लो कि बदलते समय के साथ जैसे हर चीज़ बदलती है, वैसे ही परवरिश के मायने भी बदल गए हैं. तुम्हें क्या लगता है जितने अनुशासन में तुमने बिन्नी को बड़ा किया, बिन्नी वह सब कुछ पीहू के साथ कर पाएगी या उसे वैसा करना चाहिए?”

कंपकपाती सर्दी में बड़ी मुश्किल से सवेरे आंख खुली. सिरहाने रखा मोबाइल उठाकर व्हाट्सएप ऑन किया ही था कि फोन बज उठा. बिन्नी थी.
“तू क्या जादूगरनी है कि मीलों दूर बैठी मेरे उठने का पता लगा लेती है.” मैंने चुहल की. हालांकि मन ही मन हम दोनों जानती थीं कि वह मेरे ऑनलाइन होने का इंतज़ार कर रही थी. जब बिन्नी यहां होती है, मैं मोबाइल की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखती. किंतु उसकी अनुपस्थिति में उसके मैसेजेस, उसके फोटोज़ की चाह मुझे बार-बार व्हाट्सएप खोलने पर मजबूर कर देती है.
“कैसी तबियत है अब?” उसकी आवाज़ में चिंता का पुट साफ़ झलक रहा था.
“बेहतर है. थोड़ी खांसी बची है. वह भी धीरे-धीरे ठीक हो जाएगी.” मैंने दिलासा देना चाहा.
“अपने आप नहीं होगी. दवा लेना बंद मत करना और ना ज़्यादा ऊपर-नीचे के काम करना. दूधवाले के चक्कर में सवेरे जल्दी उठने की भी ज़रूरत नहीं है अब से वह नौ बजे के बाद ही आएगा.”
“क्यों? कैसे?”
“मेरे मोबाइल में उसका नंबर था, तो कल मैंने उससे बात की थी. पहले तो ना-नुकूर करता रहा. मैंने दूसरा दूधवाला लगवाने की बात कही, तो मान गया कि कोई बात नहीं लौटते में दे जाएगा.”
“अरे पर…”


यह भी पढ़ें: Women's Day Special: देश को इन पर नाज़ है… (Happy Womens Day: Inspiring Women Achievers In India)

“मम्मा, सारी ज़िंदगी आप ही सब जगह, सबसे एडजस्ट करती रहेंगी? कभी तो सामनेवाले को भी एडजस्ट करने के लिए कह सकती हैं ना? अच्छा, अब मैं ऑफिस के लिए निकलती हूं. आपके उठने का ही इंतज़ार कर रही थी. टेक केयर. शाम को बात करते हैं.”
फोन बंद कर मैं बाथरूम में घुस गई.
फ्रेश होकर चाय चढ़ाई. विपुल हमेशा की तरह अख़बारों में घुसे हुए थे. पहले एक-एक कर सरसरी निगाह से तीनों अख़बारों की हेडलाइंस देखना, फिर महत्वपूर्ण ख़बरों को विस्तार से पढ़ना, फिर छोटी से छोटी ख़बर पढ़ना, फिर सुडोकू, वर्ग पहेली आदि भरना. रिटायरमेंट के बाद शायद हर इंसान इसी तरह अख़बार पढ़ता है. पूरी तीन-चार घंटों की कार्यप्रणाली.
मैं चाय लेकर पहुंची, तो वे अख़बार पढ़ने के अंतिम चरण यानी सुडोकू आदि भरने में मशगूल थे. मेरे ज़ेहन में अचानक बिन्नी के बोल गूंज उठे.
“मम्मा, पापा के एंजियोप्लास्टी के बाद आपको उनका ज़्यादा ध्यान रखने की ज़रूरत है. उन जैसे चुप्पे इंसान को अंदर ही अंदर कौन-सा घुन खाए जा रहा है, इस पर नज़र रखना बेहद ज़रूरी है. उनसे ज़्यादा से ज़्यादा संवाद बनाए रखें. ख़ुद आप भी तो हर वक़्त मैगजींस में डूबी रहती हैं. कितना कहती हूं यहां की कोई किटी ज्वॉइन कर लो.”
“नहीं, यह मुझसे नहीं होगा. वहां तो सब ऑफिसवाले एक ही कॉलोनी में रहते थे, तो उनकी हर एक्टिविटी ज्वॉइन करना मजबूरी थी.”
“चलो किटी छोड़ो. आप और पापा ऐसे ही कभी मॉल घूम आया करो. बाहर डिनर कर लिया करो. मूवी देख आया करो.”
“यह सब तुम लोगों के आज की जनरेशन के टेस्ट हैं. हमारे नहीं. वैसे भी जिन्हें पढ़ने का शौक हो, उन्हें और किसी दोस्त की ज़रूरत नहीं होती.”
“तो न्यूज़, आर्टिकल आदि ही परस्पर डिस्कस कर लिया करो. बोलना बहुत ज़रूरी है मम्मा! आपके अंदर क्या चल रहा है, वह वेनटिलेट होना स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मस्तिष्क के लिए बहुत ज़रूरी है.” मुझे उससे सहमत होना पड़ा था.
मैंने एक अख़बार उलटते-पलटते पहले एक न्यूज़ पर चर्चा छेड़ी. विपुल को रुचि न लेते देख, दूसरे न्यूज़ पर चर्चा करनी चाही, तो चाय का कप रखते हुए विपुल ने फिर से पेन उठा लिया.
“सुडोकू आदि भरते हुए मुझे बहुत कॉन्संट्रेशन चाहिए.”यह स्पष्ट संकेत था कि मैं वहां से खिसक लूं.
यह लड़की अपने पापा को भी तो समझाए कुछ! हर वक़्त मेरी ही मां बनी रहती है… झल्लाते हुए मैं नाश्ता, भोजन की तैयारी में जुट गई. हाथ अपनी गति से एक के बाद एक काम निपटाए जा रहे थे. लेकिन दिमाग़ के घोड़े थे कि घूम-फिर कर फिर बेतहाशा एक ही दिशा में दौड़ लगाने चल पड़ते थे.


यह भी पढ़ें: International Womens Day 2023: सुरक्षा, शादी-करियर चॉइस से लेकर समान वेतन तक, क्या महिलाओं को अब भी मिल पाया है समानता और आज़ादी का अधिकार (International Womens Day 2023: From Safety, Marriage-carrier Choice To Equal Pay, Are Indian women really Independent?)

कुछ महीनों पूर्व बिन्नी के यहां मुंबई जाना हुआ था. ऑफिस निकलने से पूर्व उसने कहा था, “मम्मा, मैं और साकेत तो लंच अपने-अपने ऑफिस में ही लेते हैं. पीहू का टिफिन कुक नाश्ते के साथ ही बना कर रख देती है. अब वह सीधे डिनर बनाने आएगी. आपका लंच मैं ऑर्डर कर दूंगी. आपकी कोई स्पेशल चॉइस हो तो बताओ.”
“नहीं नहीं, कुछ ऑर्डर नहीं करना. हम दोनों का लंच में ख़ुद बना लूंगी.” मैंने तुरंत प्रतिरोध किया था.
“मैं इसीलिए आपसे पूछना ही नहीं चाहती थी. मम्मा, अब आपको काम की नहीं आराम की आवश्यकता है. कब तक आप किचन में खटती रहेंगी?”
“अरे, ख़ुद के और अपनों के लिए कुछ बनाना खटना थोड़े ही होता है. वैसे भी बाहर का खाना हमें नहीं जमेगा.”
“आप एक बार खाकर तो देखना. कम तेल व मसालेवाला घर का खाना ही ऑर्डर करूंगी. चार दिनों के लिए आए हो. कम से कम यहां तो मैं आपको किचन में नहीं घुसने दूंगी.”
“पर मैं दिनभर करूंगी क्या?”
“बढ़िया सवाल! मूवी के टिकट करा दूं? या फिर घर पर ही कोई वेब सीरीज़ या मूवी लगा दूं?”
“भई बाहर तो नहीं जाएंगे.” विपुल बीच में ही बोल उठे थे.
“ठीक है, यहीं लगा देती हूं.” पूरा सिस्टम समझा कर वह निकल गई थी. स्वादिष्ट खाने के साथ मज़ेदार वेब सीरीज़ का आनंद लेते हुए पूरा दिन मज़े से व्यतीत हो गया था. वीकेंड पर बाहर सैर-सपाटा, खाना-पीना, पता ही नहीं चला कब लौटने के दिन आ गए थे!
पीहू के साथ तो वक़्त का पता ही नहीं चलता था. साकेत भी भरपूर ख़्याल रखते थे और बिन्नी… लगता था वह पीहू के साथ-साथ मेरी भी मां बनती जा रही है. मैं शाम की सैर से लौटती, तो मुझे तुरंत बिस्तर में घुस जाने का आदेश देती.
“इतना मत टहला करो, पांव में सूजन आ जाएगी. वैसे भी यहां शाम को ठंडी हवा चलने लग जाती है. चलो, जल्दी घुसो बिस्तर में.”
“अरे, पैर तो धो लेने दे.”
“कोई ज़रूरत नहीं. साफ़ ही है. बीमार हो जाओगे, तो साफ़-सफ़ाई धरी रह जाएगी.” मैं सोच में पड़ जाती थी. मैं तो हमेशा बच्चों पर चिल्लाती रहती थी कि गंदे पैर लिए बिस्तर पर मत चढ़ो… यह तो मुझे कोई काम भी नहीं करने देती. हर वक़्त टोकती रहती है, “बहुत कर लिया काम. अब आराम करो.” जबकि मैं तो हर वक़्त काम के लिए इसके सिर पर सवार रहती थी… “जाने कैसा ससुराल मिले सब काम करना आना चाहिए. पढ़ाई, ड्राइविंग, स्विमिंग ठीक है, पर डस्टिंग, कुकिंग सब सीखना होगा.”
विपुल चूंकि बच्चों से नरमी से पेश आते थे, इसलिए भी मैं ज़्यादा सख्ती और अनुशासन बरतती थी कि कहीं उनके लाड़-प्यार से बच्चे बिगड़ ना जाएं. सवेरे अलार्म के साथ जल्दी उठना ही है. पढ़ रहे हो, तो कोई एहसान नहीं कर रहे हो हम पर. अपना कमरा, कपड़े, जूते सब ढंग से रखो. बेटा हो चाहे बेटी, दोनों को घर के काम सीखने होंगे.
बिन्नी बड़ी हुई, तो उसे थोड़े कुकिंग कोर्सेज़ भी करवाए. सहेलियों के संग वह जब ज़्यादा बनाव-सिंगार और फैशन करने लगी, तो मैं उसे नसीहत देती थी कि सिंपल रहने में ही ज़्यादा सुंदरता और समझदारी है. एक युवा होती बेटी की मां होने का स्वाभाविक डर हर वक़्त मन को आशंकित किए रहता कि कहीं उसके संग कोई ऊंच-नीच ना हो जाए.
“आज तो नाश्ता बीरबल की खिचड़ी हो गया है.” विपुल ने चुहल करते हुए रसोई में प्रवेश किया, तो मेरी चेतना लौटी. मैंने चुपचाप मेथी के परांठे की प्लेट उन्हें पकड़ा दी और अपनी प्लेट भी लेकर साथ ही डाइनिंग टेबल पर आ बैठी. मुझे गुमसुम परांठे निगलते देख विपुल से रहा नहीं गया.
“क्या सोचने लग जाती हो आजकल? कोई परेशानी है?”
“नहीं कुछ ख़ास नहीं. बस ऐसे ही बिन्नी का ख़्याल आ जाता है.”
“क्या हुआ बिन्नी को? अच्छी-भली तो है वह. हम मुंबई जाकर उसकी सुखी गृहस्थी भी देख आए हैं. सब ज़िम्मेदारियां कितने अच्छे से संभाल ली है उसने. हमारा भी तो कितना ख़्याल रखने लगी है.”
“वही तो. यही अपराधबोध आजकल मुझे खाए जा रहा है.”
“अपराधबोध?” विपुल चौंके थे.


यह भी पढ़ें: महिलाओं की ज़िंदगी में क्या बदलाव आए और अब भी क्या नहीं बदला है, जानें ऐसी 60+ बातें (International Womens Day 2023: What has changed and what not in the lives of women, Know 60 facts about women empowerment)

“हां आपने शायद गौर नहीं किया बिन्नी धीरे-धीरे मेरी मां बनती जा रही है. अब तक मैंने उसकी देखभाल की और संभाला. अब वह मुझे संभालने लगी है.”
“तो तुम्हें तो ख़ुश होना चाहिए, गर्व होना चाहिए उस पर!” विपुल की आंखों में अभी भी नासमझी के भाव थे.
“उसकी प्यार भरी देखभाल मुझमें यह अपराधबोध जगाती है कि मैं एक अच्छी मां नहीं थी. मैं तो उस पर हर वक़्त अनुशासन और नियंत्रण की नकेल कसे रखती थी. ज़्यादा मत बोला करो, सोच-समझ कर बोला करो, यहां मत जाओ, वहां मत बैठो, यह मत पहनो, वह मत खाओ, जल्दी उठो, सफ़ाई रखो, इससे मत मिलो, उससे मत बोलो, घूमने-फिरने, मूवी देखने में वक़्त जाया ना करो, पढ़ाई पर ध्यान लगाओ, खाना बनाना सीखो, पलटकर जवाब मत दो, सहनशील बनो… यह… वह… जबकि वह कहती है कि ममा चुप मत रहा करो, कुछ ना कुछ बोलते रहा करो. सब से मिलो, जानो, पार्टीज़ करो, मॉल जाओ, मूवी
देखो, घूमने-फिरने के प्रोग्राम बनाओ, ज़्यादा काम मत करो, आराम करो, सवेरे देरी से उठो, जो मन हो खाओ मैं ऑर्डर करूंगी, पार्लर जाओ, मेकओवर करवाओ, चुस्त फैशनेबल कपड़े पहनो, जो ख़ुद को अच्छा लगे वह करो, ज़माने की परवाह मत करो…” मुझे अपनी बात रोकनी पड़ी, क्योंकि विपुल मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे. मुझे ख़ामोश हुआ देख वे यकायक गंभीर हो उठे.
“अपनी-अपनी उम्र और अपने-अपने ज़माने के हिसाब से तुम दोनों सही हो. अब देखो तुमने बिन्नी की कितनी अच्छी परवरिश की. उसे इतने अच्छे संस्कार दिए, तभी तो मृदुलाजी ने आगे बढ़कर अपने बेटे के लिए उसका हाथ मांगा. और बिन्नी ने भी अपने सुसंस्कारों से हमेशा हमारा मान बढ़ाया है. तुमने समय रहते अपनी हर ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभा ली है. अब तुम्हें थोड़ा ख़ुद के लिए भी जीना चाहिए. यही हमारे बच्चों का प्रयास रहता है. बच्चे बड़े हो रहे हैं, समझदार हो रहे हैं, तो अपनी ज़िम्मेदारियां और अपने कर्तव्य समझ रहे हैं. हमें उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए. उन पर गर्व होना चाहिए. और तुम हो कि अपराधबोध पाल रही हो! इतना समझ लो कि बदलते समय के साथ जैसे हर चीज़ बदलती है, वैसे ही परवरिश के मायने भी बदल गए हैं. तुम्हें क्या लगता है जितने अनुशासन में तुमने बिन्नी को बड़ा किया, बिन्नी वह सब कुछ पीहू के साथ कर पाएगी या उसे वैसा करना चाहिए?”


“बिल्कुल नहीं. पीहू आज की लड़की है. कराटे क्लास में जाती है. उसे तो वे लोग उच्च शिक्षा के लिए यूएस भेज रहे हैं. कोई चाह कर भी उस लड़की को नहीं बांध सकता. अभी स्कूल में ही है. लेकिन ऐसे-ऐसे अकाट्य तर्क रखती है कि मुझे उससे सहमत होना पड़ता है.” मेरी आंखों की चमक लौट आई थी.
“तो फिर? लो, तुम्हारे इस मां-बेटी के पुराण में मैं एक ज़रूरी बात बताना तो भूल ही गया. सुबोध मामा के बेटे राहुल की 24-25 फरवरी को जबलपुर में शादी फिक्स हुई है. आने का बहुत आग्रह कर रहे हैं.”
“ऐसी कंपकपाती सर्दी में कहां जाएंगे? ढेर सारे गर्म कपड़े, ज्वेलरी, जूते सब लादने पड़ेंगे.”
“मन तो मेरा भी कम ही है. ट्रैवल में थकान होगी सो अलग. फ्लाइट से जाओ, तो भी दो घंटे पहले जाकर बैठो. फिर एयरपोर्ट से वेन्यू तक पहुंचने में अलग दो-तीन घंटे लग जाएंगे.” तभी विपुल का मोबाइल घनघना उठा. बिन्नी का फोन था.
“थिंक ऑफ डेविल एंड डेविल इज़ हीयर…” विपुल ने हंसते हुए फोन उठा लिया.
“पापा, राहुल चाचा की शादी में जा रहे हो ना आप दोनों? हमारे पास भी इनविटेशन कॉल आया था, पर पीहू के एग्ज़ाम की वजह से हम तो नहीं जा पाएंगे.”
“हमारा भी मन नहीं है. एक तो इतनी ठंड, फिर ऊपर से…”
“बस, पापा बहानेबाज़ी नहीं. अरे इतना अच्छा अवसर मिल रहा है सब घरवालों से मिलने का, साथ बैठकर बतियाने का, मौज़-मस्ती करने का. आप दोनों को ज़रूर जाना चाहिए. वे भी तो मेरी शादी में आए थे.”
“बहुत एग्जर्शन हो जाएगा.”
“कुछ नहीं होगा. मैंने आपकी फ्लाइट के टिकट देख लिए हैं. मैं करवा रही हूं.”
“उसकी ज़रूरत नहीं है. मैं ख़ुद करवा लूंगा. एक बार फाइनल तो हो.”
“फाइनल ही है. इसी बहाने घर से निकलना होगा. अच्छा चेंज हो जाएगा. लाइफ में मोबिलिटी बहुत ज़रूरी है वरना…”
“अच्छा बाबा करवा रहा हूं. हमेशा की तरह तू जीती हम हारे.” कॉल बंद कर विपुल ने टिकट देखना आरंभ किया, तो मैं बर्तन समेटकर रसोई की ओर चल दी. अभी सिंक में हाथ धो ही रही थी कि विपुल का मोबाइल फिर घनघना उठा.
“अब किसका कॉल है.” मैंने पूछा.
“तुम्हारी मां का…” मैं समझ गई फिर से बिन्नी का ही कॉल है.
“अब क्या रह गया?”
“ख़ुुद ही सुन लो.” कहते हुए विपुल ने लाउडस्पीकर ऑन कर दिया.
“मैं कह रही थी शादी में दो दिन अच्छे से खा-पी लेना. ज़्यादा सोचना-विचारना मत. वापस लौट कर थोड़ा ज्यादा परहेज़ कर लेना और थोड़ी ज़्यादा वॉक कर लेना.”
“ठीक है और कुछ? अब टिकट करवा लूं?”
“ओके.”


मैं हंसते हुए हाथ पोंछ रही थी कि अब मेरा मोबाइल घनघना उठा. मैंने मोबाइल उठाया, तो बिन्नी का वीडियो कॉल था.
“आपके लिए मैं दो दिन पहले अर्बन क्लैप वाली को भेज दूंगी. उससे एक तो फेशियल करवा लेना. देखो, फेस कैसा बेरौनक़ हो रहा है और एक अच्छा सा हेयर कट ले लेना. और साथ में ड्रेसेस, ज्वेलरी कौन-सी लोगी, एक बार मुझे दिखा देना.”
“हां मेरी मां! और कुछ?” मैंने हाथ जोड़ दिए थे. इसके साथ ही हम तीनों की सम्मिलित हंसी गूंज उठी थी.

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का कलरएसेंस कॉस्मेटिक्स का गिफ्ट वाउचर.

Share this article