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कहानी- वे दोनों‌ (Short Story- Ve Dono)

"बाकी जो समय बचेगा, उसमें हम दोनों पुराने दिनों के सहारे जी लिया करेंगे."

"ठीक है." लाजवंती उनसे सहमत हो आई.

"हमें अपने में साहस रखना चाहिए, साहसी आदमी कभी भी मार नहीं खाता."

उनसे सूई में धागा नहीं डाला जा रहा था. घर में चहल-पहल थी. एक वही थे, जो सबसे अलग-थलग बालकनी में सिकुड़े सिमटे हुए बैठे थे. पोते-पोतियों से वे कब से कहते आ रहे हैं कि कोई उनकी कमीज पर बटन टांक दे. किंतु उस घर में कोई उनकी सुनता ही नहीं. जब उन्हीं का जाया उनका अपना न हो पाया तो नई पीढ़ी के छोकरे उनकी क्या सुनेंगे?

दो कमरों के इस क्वार्टर में कुछ अधिक ही घिच्-घिच् रहने लगी थी. सभी तो यहां भेड़-बकरियों की तरह से ठूंसे रहते. बहू-बेटे में जब-तब झगड़ा हो जाया करता था. वे चैन से ईश वंदना भी नहीं कर पाते थे.

"बाबूजी"... तीन महीने पहले सुदर्शन ने उनसे पूछा था, "आप बालकनी में रह लेंगे?"

"रह क्यों नहीं लेंगे?" बहू ने भी अपनी ओर से जोड़ दिया था, "वहां एकांत है. बाबूजी को भी तो एकांत ही पसंद है ना. उनके जप-तप में भी कोई बाधा नहीं पहुंचेगी."

सुनकर वे धक से रह गए थे. उन्होंने कुछ भी तो नहीं कहा था. बेटे ने मौन को ही उनकी स्वीकृति मानकर इकतरफ़ा फ़ैसला कर लिया था. उसी समय वह बाज़ार से दो मोटे पर्दे ख़रीद लाया था. बांस के डंडों के सहारे उसने बालकनी की दीवार पर वे पर्दे टांग दिए थे. उसने संतोष की सांस लेकर कहा था, "आपके लिए यही ठीक रहेगा. यहां कोई आपको डिस्टर्ब भी नहीं करेगा."

तब से वे वहीं रहते आ रहे हैं. लाजवंती रसोईघर में एक ढीली खटिया पर सोया करती है. वह खटिया पहले बहू ने उनके लिए बालकनी में डाली थी.

"नहीं बहू..." उन्होंने खटिया पर सोने से मनाही कर दी थी, "मैं तो शुरू से ही..."

"बाबूजी तख्त पर सो लिया करेंगे." सुदर्शन ने कहा था. उसी समय वह पड़ोस वालों का फालतू पड़ा तख़्त उठा लाया था. वह खटिया वहां से रसोईघर में डाल दी गई थी.

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बहू भी कितनी कठोर दिल की है. वह चाहती है कि सास अधिक से अधिक चूल्हे-चौके के काम में ही डूबी रहे. उस काम में लाजवंती भी तो कोई कोताही नहीं बरतती. उसको तो शुरू से ही काम करने की आदत रही है.

"आदमी को काम करते रहना चाहिए." जब-तब लाजवंती यहीं दर्शन बघारा करती है.

बीस वर्ष पहले वे अफ़सर के पद से सेवानिवृत्त हुए थे. अपनी भलाई के कारण उनकी हर कहीं ही बनी हुई थी. एक दिन उन्होंने एस्टेट सुपरिटेंडेंट त्रिखा के आगे अपनी चिंता जतलाई थी, "त्रिखा भाई, अब हमारा क्या होगा?"

"ये फ्लैट तो आपको छोड़ना ही होगा." त्रिखा साहब ने कहा था.

"इसे मेरे बेटे के नाम अलॉट कर दो ना."

"ऐसा नहीं हो सकता पंडितजी." त्रिखा साहब ने हाथ हिला कर कहा था, "आपका बेटा तो क्लरिकल जॉब में है."

"तो?" उन्हें दिन में ही तारे दिखाई देने लगे थे.

"ऐसा हो सकता है कि आपके बेटे को दो कमरे का क्वार्टर अलॉट किया जा सकता है." त्रिखा ने कहा था.

"यह भी तभी हो सकता है जब उसका अफ़सर इसकी सिफारिश करें!"

"वो तो मैं करवा लूंगा." उन्होंने लंबी सांस खींची थी.

"उसका अफ़सर कभी मेरा लंगोटिया यार हुआ करता था."

बहुत भाग-दौड़ के बाद ही वे लोधी रोड़ के फ्लैट के एवज में किदवई नगर के इस क्वार्टर को अलॉट करवा सके थे.

"यहां लो..!" बहू के माथे पर बल पड़ गए थे.

"अब तो हमें इसी में संतोष करना होगा बहू." उनके होंठों पर हल्की मुस्कान उभर आई थी. "कहा भी गया है न कि तेते पांव पसारिए जेती लांबी सौर."

"हां जी." लाजवंती ने भी उन्हीं का समर्थन कर दिया था, "आदमी को कहीं न कहीं तो संतोष करना ही होता है ना."

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आरंभ से ही वे दूरदर्शी रहे हैं. परिवार नियोजन के नाम पर ईश्वर ने ख़ुद ही उनकी मदद की थी. सुदर्शन उनका इकलौता बेटा है. पढ़ा-लिखा कर वे उसे इंजीनियर बनाना चाहते थे, लेकिन उनके सपने धरे के धरे ही रह गए थे. बेटे को तो स्कूली जीवन से ही ग़लत संगति की हवा लगने लगी थी. कॉलेज जीवन में भी तो वह वही आवारागर्दी करता रहता था. किसी प्रकार से वे उसे थोड़ा-सा सुधार पाए थे. वे उसे टाइपिंग-शॉर्टहैंड सिखलाने लगे थे. किंतु वह तो टाइपिंग की दुकान से भी इधर-उधर चल दिया करता था. तब उन्होंने किसी ऑफिस में बेटे के स्थान पर टाइप टेस्ट में अपने ऑफिस के स्टेनोग्राफर को बिठला दिया था. तीर तुक्के से ही उसे क्लर्की की नौकरी मिल पाई थी.

लाजवंती की उपस्थिति से उनकी तंद्रा भंग हुई. वह धोती के छोर से हाथ पोंछने लगी, "ये क्या कर रहे हैं?"

"सूई में धागा डाल रहा था." उनके होंठों पर फीकी मुस्कान बिछ आई. कमीज़ पर बटन लगाना था. सूई-धागा उन्होंने पत्नी की ओर बढ़ा दिया, "लो, ज़रा डालना."

"नहीं जी." लाजवंती ने हाथ हिला दिया, "मेरी नज़र वैसे ही..."

लाजवंती की आंख पर बचपन में कभी सुदर्शन ने तमाचा जड़ दिया था, प्रौढ़ावस्था में आकर उन्हें आंख की तकलीफ़ महसूस होने लगी थी. एक बार उन्होंने कहा था, "चलो, तुम्हें किसी आंख के डॉक्टर को दिखला आते."

"ऐसी कोई बात नहीं है." तब लाजवंती ने बात टाल दी थी, "फिर कभी दिखला लेंगे."

बचपन की वही चोट वृद्धावस्था में मोतियाबिंद के रूप में उभरने लगी थी. पिछले दिनों सुदर्शन ने उन्हें सरकारी अस्पताल में दिखलाया था. जांच-पड़ताल के बाद डॉक्टर ने कहा था, "अभी तो शुरुआत ही है. इनकी आंखों में जर्मन मेडिसिन डालनी होगी."

सुदर्शन उस महंगी दवा को नहीं ख़रीद पाया था. लाजवंती उपेक्षित ही रह गई थी.

"काम से फारिग हो आई?" सूई धागा एक ओर रखकर उन्होंने पत्नी से पूछा.

"हां." लाजवंती वहीं तख़्त के सिर पर बैठ गई, "थोड़े से बर्तन रह गए हैं. उन्हें धूप निकलने के बाद मांज लूंगी."

"न जाने पूर्व जन्म में हम लोगों ने क्या पाप किए थे?" वे सिर खुजलाने लगे, "इससे तो अच्छा होता कि हम हरिद्वार-ऋषिकेश के किसी वृद्धाश्रम में ही पड़े रहते."

"छोड़िए भी!" लाजवंती उनकी चिंता सोखने लगी.

"आप भी क्या-क्या सोचा करते हैं."

"समझ में नहीं आता कि ये लोग हमारी ओर ध्यान क्यों नहीं देते." उनका स्वर तल्ख़ था.

"अजी आगे की जलती हुई लकड़ी पीछे भी तो जला करती है ना." लाजवंती उन्हें धैर्य बंधाने लगी.

"जैसे ये लोग हमारे साथ कर रहे हैं. इनकी औलाद भी..."

"अरी भागवान! आगे की किसने देखी है?" उन्होंने पत्नी की बात बीच में ही काट दी, "इनकी औलाद क्या करेगी, हम-तुम देख पाएंगे?"

"दोनों ही कमाऊं हैं." लाजवंती ने गहरी सांस खींची. "फिर भी, दिन-रात हाय हाय मची रहती है, उनसे तो हम ही भले थे."

"हम पर ईश्वर कृपालु रहे हैं." उन्होंने संतोष की सांस ली, "हम लोगों ने ये चिल्ल पों देखी ही कहां है?"

"पर ये लोग तो..."

"बच्चों की जब दर्जन फौज होगी तो ऐसे ही होगा." उन्होंने कहा.

लाजवंती उठ खड़ी हुई, उसने पूछा, "आप चाय पिएंगे?"

"हां, पी लूंगा." वे भी तख़्त से उठ गए, "थोड़ी-सी सोंठ डाल देना."

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उनके बड़े पोते-पोतियां स्कूल चले गए थे. बहू-बेटा भी स्कूटर से ऑफिस चले गए थे. वो और छोटे बच्चे घर में ही थे. उनकी देखभाल लाजवंती ही करती रहती है. लाजवंती ने रसोईघर में जाकर बच्चों लिए दूध गर्म किया. वह पति के लिए एक प्याली चाय बना लाई, "सोंठ तो थी नहीं, काली मिर्च डाली है."

"तुम भी पी लेती."

"मेरा मन नहीं है."

चाय पीते हुए उनका चिंतन फिर से प्रखर होने लगा. आख़िर उनका क्या कसूर है कि बहू-बेटे उनसे बात तक नहीं करते. पोते-पोतियां भी तो अपने में ही मस्त रहा करते हैं. एक दिन वे यों ही बेटे का दिल टटोलने लगे थे, "क्यों रे सुदर्शन! क्यों न मैं हरिद्वार-ऋषिकेश की ओर चल दूं?"

"वहां जा के क्या करेंगे?"

"वहीं किसी वृद्धाश्रम में रह लूंगा." उन्होंने शिकवा किया था, "यहां तो तुम लोग..."

"ठीक है." उसने कहा था.

"वहां एकांत में आप भगवद्-भजन कर लेंगे!"

"फिर तेरी मां का क्या होगा?" उन्हें सहधर्मिणी की याद हो आई थी.

वह सिर खुजलाने लगा था, "मां यही रह लेंगी."

"यहां बच्चों की देख-रेख..."

अंदर गुड्डू-गुड़िया आपस में झगड़ने लगे थे. लाजवंती उठ खड़ी हुई, "देखती हूं, कैसे झगड़ रहे है."

उन्होंने चाय का खाली ग्लास एक ओर रख दिया. बाहर धूप निकल आई थी. उन्होंने पर्दे खींच लिए.

बालकनी में मुट्ठीभर धूप बिछ आई. शॉल को एक ओर फेंक कर वे धूप सेंकने लगे, तब तक लाजवंती भी वहीं चली आई.

"लगता है, सुदर्शन को मेरा यहां रहना गंवारा नहीं है." उन्होंने वहीं टूटा हुआ सूत्र फिर से जोड़ दिया. ठूंठ होता है न!

"क्यों?" लाजवंती तख़्त पर बैठ गई. इस पर उन्होंने बेटे के साथ हुई बातचीत बतला दी.

"नहीं..." लाजवंती ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा, "आपको कहीं भी जाने की ज़रूरत नहीं है. यहीं रहिए, आपको पेंशन तो मिल ही रहा है ना!"

"पगली!" वे फिस्स से हंस दिए, "अकेले रुपए-पैसे ही तो साथ नहीं देते ना. बोलने बतियाने वाला भी तो कोई होना चाहिए. मैं शांतिपूर्वक प्रभु-स्मरण भी तो नहीं कर पाता."

"देखो जी." लाजवंती उन्हें समझाने लगी, "शांति तो हमारे मन में हुआ करती है‌ ना! वो यों कहें न कि मन चंगा तो कठौती में गंगा!"

जब से वे इस क्वार्टर में आए हैं, उनका जीवन अशांति में ही बीतता रहा है. जब भी वे हाथ में सुमिरनी लेते हैं, कोई न कोई बखेड़ा उठ खड़ा होता है. कभी बहू-बेटे लड़ बैठते हैं, तो कभी पोते-पोतियां ही लड़-झगड़ बैठते हैं. उन्होंने गहरा उच्छ्वास भरा, "लाजो! तू ही बता कि इस घर में मेरा कौन है?"

"मैं तो हूं ना." लाजवंती उन्हें ढांढ़स बंधाने लगी, "हम दोनों साथ जिएंगे, साथ मरेंगे."

वे चुप हो आए. वह चुप्पी लाजवंती ने ही तोड़ी, "आप एक काम क्यों नहीं करते."

"कौन-सा?"

"नाले पार का जो समाज सदन है ना वहां जा के आप लोगों को उपयोगी बातें बताया करें." लाजवंती ने उन्हें सुझाव दिया.

"हुहा..." उन्होंने मुंह बना लिया, "अपनी बात जब अपनी ही औलाद नहीं मानती तो और कोई क्या मानेंगे?"

"कोशिश तो कीजिए."

"नहीं." उन्होंने साफ़ शब्दों में मनाही कर दी, "ये रोग अपने वश का नहीं है."

"फिर?" पत्नी के माथे पर शिकन उभर आई.

पत्नी का वह प्रश्न उन्हें फिर से उद्वेलित करने लगा. ठाला आदमी आख़िर बोर क्यों न होगा? एकाकी जीवन वैसे भी आदमी को क्षय कर डालता है.

"आप किसी किस्म की चिंता न किया करें." लाजवंती का हाथ उनके कंधे पर आ लगा, "जानते नहीं कि चिता और चिंता में केवल एक ही बिंदी का ही अंतर हुआ करता."

"इससे तो चिता ही भली." उन्होंने सर्द आह भरी.

"ऐसा नहीं कहा करते." लाजवंती की हथेली उनके होंठों पर आ लगी, "अशुभ बात."

"फिर शुभ बात क्या है?" उन्होंने तल्खी से पूछा.

"शुभ-शुभ सोचना." लाजवंती ने उनके हाथ अपने हाथों में ले लिए.

"आप कभी कितने पुरुषार्थी रहे हैं."

पत्नी का कहा उनमें जीवन शक्ति भरने लगा. सचमुच ही उनका जीवन एक प्रकार से त्याग-तपस्या का जीवन रहा है. अगले ही क्षण उन्होंने पत्नी के हाथ दबा दिए.

"तुम ठीक कहती हो. मुझे अपने अंदर के पुरुष को फिर से जगाना होगा. कल से ही मैं संध्या समय सामुदायिक केंद्र में जाकर बस्ती के प्रौढ़ों को पढ़ाया करूंगा, मिश्राजी कब से कह रहे हैं."

"ये हुई न बात." पत्नी चहक उठी. "और सुनो!" वे पत्नी की ओर घूम गए,

"बाकी जो समय बचेगा, उसमें हम दोनों पुराने दिनों के सहारे जी लिया करेंगे."

"ठीक है." लाजवंती उनसे सहमत हो आई.

"हमें अपने में साहस रखना चाहिए. साहसी आदमी कभी भी मार नहीं खाता."

"बच्चे सो गए?" उन्होंने पूछा.

"नहीं." लाजवंती तख्त से उठ खड़ी हुई, "अंदर खेल रहे हैं. मैं भी बर्तन मांज आती हूं."

आज वर्षों बाद उनका आंतरिक पौरुष जाग रहा था. उन्होंने आलस्य भगाया. बालकनी से उठ कर वे वॉशबेसिन के आगे जा खड़े हुए. दातुन करके उन्होने हाथ-मुंह धोया और तरोताज़ा हो आए. वहां से वे बालकनी में आ गए. उन्होंने सुमिरनी उठा ली. तख़्त पर बैठ कर वे अपने अभीष्ट मंत्र का जप करने लगे. आज पहली बार उस जप-तप में उनका मन साथ दे रहा था.

उनकी उंगलियां माला के मनकों पर फिर रही थीं. होंठ मांत्रिक शब्दों को बुदबुदा रहे थे. आज उनका मन उछल रहा था. उसी मनोदशा में उनके सोच की दिशा बदलने लगी. जब कभी भी उन्हें वर्तमान आहत करेगा, पत्नी के साथ वे अतीत को जी लेंगे. ऐसे में उनकी बंद पड़ी पलकों के आगे अतीत के अनेक दृश्य उजागर होने लगे. वर्षों बाद आज पहली बार वे आत्मिक शांति महसूस कर रहे थे.

- डॉ. शीतांशु भारद्वाज

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