कहानी- विंटर यूनीफार्म (Short Story- Winter Uniform)

उदास मन से आनंदी घर वापस आई, तो यही विचारती रही कि कब तक आशी की छुट्टियां करवानी पड़ेगी… विंटर यूनीफार्म के लिए वह उसका सामना कैसे करेगी?

“आशी, ए आशी, उठ न… सात बज रहे है.” आनंदी आवाज़ लगा रही थी और आशी आंखें मूंदे न चाहते हुए भी स्वप्न लोक के भयानक वन में विचरण करती सिहर रही थी.
स्कूल के प्रांगण में सारे बच्चे जमा थे, पर वह उन सबसे अलग मंच पर सिर झुकाए खड़ी थी. मांगे का हरे रंग का कनटोप लगाए और लाल-पीला बदरंग चेक का स्वेटर पहने. आशी टीचर की तनी भौहें और अपनी ओर उठी उंगली देख थर-थर कांप रही थी. टीचर ग़ुस्से में दहाड़ रही थी, लेकिन शब्द सुनाई नहीं दे रहे थे…
आशी मंच से उतर कर भागना चाहती थी, पर पैर मानो मनो भारी हो गए थे. सब हंस रहे थे, पर वह रो रही थी. किसी तरह उसने अपनी टीचर को सफ़ाई देने की कोशिश की… “कल आ जाएगी विंटर यूनीफार्म, पक्का मैडम, कल पक्का…”
“ऐ आशी उठ न… क्या कल-कल कह रही है. आज देख, सात बज गए…” आशी ने आंखें खोली, आनंदी उसकी बांह पकड़कर उठाते बोल रही थी, “स्कूल नहीं जाना है क्या… जल्दी उठ, मुझे काम के लिए देरी हो रही है.”
मां की बात सुनकर आशी बिलख पड़ी… “न-न स्कूल नहीं…” आनंदी ने स्नेह से उसके गालों को छुआ, तो तपिश महसूस कर चौंक पड़ी…
“हाय राम! तुझे तो तेज बुखार है.“ बुखार की बात सुनकर आशी का रोना रुक गया… बुखार में तो मां स्कूल नहीं भेजेगी इस विचार से उसने पल भर को राहत की सांस ली.
“तू स्कूल नहीं जाएगी, तो मैं काम पर कैसे जाऊं…” बुदाबुदाते हुए आनंदी ने अपने पति को ताका, जो रातभर की चौकीदारी की ड्यूटी करके खाट पर पड़ा सोने का प्रयास कर रहा था. वह उससे कुछ कहती उससे पहले ही रमेश ने करवट बदलकर आंखें मूंद ली.

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आशी आनंदी का हाथ हिलाते हुए धीमे से बोली, “अम्मा, तुम काम पर जाओ, मैं घर पर रह लूंगी… पर अम्मा, आज तो यूनीफार्म के लिए पैसे ले आओगी न…”
आशी बड़ी आशा से अपनी मां से पूछ रही थी. आनंदी भी उम्मीद भर ही कर सकती थी कि शायद कोई मैडम आज थोड़े-बहुत पैसे उसे दे दे. कुछ पल सोच-विचार के बाद वह बोली, “अच्छा सुन, मैं काम पर निकलती हूं, तू बैठकर एक सुन्दर-सी ड्राइंग बना… तेरा टिफिन रखा है खा लेना और अपने पापा को तंग न करना सोने देना…”
कहकर आनंदी घर से निकल तो गई, पर रह-रहकर उसे रमेश पर क्रोध आता रहा. आशी उसकी भी बेटी है, पर उसे उसकी कोई चिंता नहीं है..
“आशी दूसरी आनंदी न बनेगी. इस आनंदी की मां, तो बचपन में मर गई थी, पर आशी की मां ज़िंदा है. जब यह बड़ी होगी, तब इसका एडमीशन अच्छे स्कूल में कराऊंगी… यह पढ़-लिखकर नौकरी करेगी, हमारा नाम रौशन करेगी.”
आनंदी नन्ही आशी को लेकर उसके उज्जवल भविष्य के सपने देखती,, तो रमेश उसे टोकता, “अपनी औकात से बढ़कर ऐसे सपने न देखो, जो कभी पूरे न हो… अच्छे स्कूल में एडमिशन की बात भूल जाओ. हाथी ख़रीदना आसान है… उसे खिलाना मुश्किल… कल को और बच्चे हुए तो उन्हें कैसे पालोगी?”
“और बच्चे क्यों पैदा होंगे… हम अपनी बेटी को ही अच्छे से पढ़़ाए-लिखाएंगे…”
आनंदी के इन विचारों से रमेश को आनंदी के साथ आशी से भी खुन्नस हो गई…
रमेश के लाख विरोध के बावजूद आनंदी एक बच्चे पर कायम रही.
आशी का एडमीशन उसने ज़िद करके अच्छे स्कूल में अपने दम पर करवाया. उसकी कॉपी-किताबों और फीस की ज़िम्मेदारी ख़ुद उठाई. पर विंटर यूनीफार्म का ख़र्चा ऐसे समय पर सिर पर आ पड़ा, जब उसकी सारी बचत दीपावली के त्यौहार में निकल गई.
स्कूल खुलते ही विंटर यूनीफार्म का नोटिस आया. उसके बाद तो जैसे टीचर सिर पर सवार ही हो गई. विंटर यूनीफार्म के रोज नोटिस आते और वह आशी को तसल्ली देती, “तनख्वाह मिलने दे सबसे पहले तेरी विंटर यूनीफार्म आएगी.”
पिछले कई दिनों से आशी पेटदर्द का बहाना बनाकर स्कूल जाना भरसक टालने का प्रयास करती रही, पर वह उसे ज़बरदस्ती स्कूल भेज देती… और उसे स्कूल में बेइज्ज़त होना पड़ता.
शुरू में जब कई बच्चे बिना यूनीफार्म के लाइन से निकाले जाते थे, तब फ़र्क नहीं पड़ता था, पर अब वह अकेली बची है, तो ज़्यादा शर्मिंदगी होती है.
इन दिनों रोज़ वह रो-रोकर कहती रही, “अम्मा, तुम यूनीफार्म ख़रीदती क्यों नहीं, रोज़ टीचर प्रार्थना के बाद यूनीफार्म न पहननेवाले बच्चों को बाहर निकालकर डांटती है. अब तो अकेली मैं ही बची हूं, जो बिना यूनीफार्म के जाती हूं… आप समझती क्यों नहीं, स्कूल जाना है, तो यूनीफार्म पहनना ही पड़ेगा.”
आनंदी, बेटी के मुंह से जब सुनती, तो बेचैन हो जाती पर रमेश पर कोई प्रभाव न पड़ता.
आज भी आनंदी को जैसा अंदेशा था वैसा ही हुआ. अभी दस दिन पहले पिछले महीने की तनख्वाह मिली थी… इस महीने का एडवांस इतनी जल्दी कोई देने को तैयार नहीं हुआ.
उदास मन से आनंदी घर वापस आई, तो यही विचारती रही कि कब तक आशी की छुट्टियां करवानी पड़ेगी… विंटर यूनीफार्म के लिए वह उसका सामना कैसे करेगी?
यह विचारते हुए वह घर में घुसी, तो देखा आशी पापा की गोद में बैठी खिलखिला रही थी.
आनंदी को देखते ही वह ख़ुशी से चिल्लाई, “अम्मा, देखो! विंटर यूनीफार्म…”
ख़ुशी से उछलती हुई वह कभी कोट दिखाती, तो कभी पैंट… कभी स्वेटर तो कभी कनटोपा…
हैरान सी आनंदी कभी रमेश को देखती, तो कभी आशी और उसकी विंटर यूनीफार्म को…
ऐसा लग रहा था, मानो विंटर यूनीफार्म के साथ-साथ ख़ुशियों ने भी घर मे प्रवेश ले लिया हो.
‘आशी को इतने महंगे स्कूल में डाल रही हो समझ लेना मैं कोई मदद नहीं करूंगा…’ कहने वाले आशी के पापा उसकी विंटर यूनीफार्म लेकर आए हैं यह देख आनंदी चकित और भावुक थी.
वह कुछ पूछती या कहती उससे पहले ही रमेश भावुक होकर आनंदी से कहने लगा, “जब मैं छोटा था, तब अपने आठ भाई-बहनों के साथ अक्सर रेलवे स्टेशन आ जाता था. वहां हम भाई-बहनों को जो काम मिलता कर लेते थे. कभी पानी की बोतल, तो कभी फल-नमकीन ट्रेन पर चढ़कर बेच आते थे.
एक बार स्टेशन पर मैंने स्कूल के कुछ बच्चो को देखा. वो बच्चे अपनी टीचर के साथ रेलवे स्टेशन देखने आए थे… साफ-सुथरी ड्रेस पहने वो बच्चे झुण्ड में खड़े अपने अध्यापकों के साथ फोटो खिंचवा रहे थे, जाने क्या मेरे मन में आया मैं भी उनके झुण्ड के पीछे खड़ा हो गया… सबसे पीछे खड़ा था, पर फोटोग्राफर ने देख लिया और बड़ी बेदर्दी से मुझे परे धकेल दिया…”

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आनंदी बात का मर्म समझने का प्रयत्न कर ही रही थी कि तभी रमेश ने एक कााग़ज़ उसकी ओर बढ़ाया रुंध आए गले को खंखारकर बोला, “अपना वो दर्द भूल गया था, पर आज अपनी आशी के बनाए इस चित्र ने मेरे उस ज़ख़्म को कुरेद दिया. आज अपनी बेटी को स्कूल के बच्चों के झुण्ड से अलग देखकर मेरा मन रो दिया…”
आनंदी ने काग़ज़ देखा, काग़ज़ पर की गई चित्रकारी में कई बच्चे स्कूल यूनीफार्म में एक साथ झुण्ड में खड़े है. पीला-लाल चेक का स्वेटर पहने एक लड़की उन सबसे अलग-थलग खड़ी है.
चित्र को हैरान-नम आंखों से ताकती आनंदी से रमेश बोला, “चिंता क्यों करती है, मेरी चौकीदारी और तेरे झाड़ू-पोंछा की तनख्वाह काफ़ी है उसकी हर जरूरत को पूरा करने के लिए… हम मिलकर उसको पढ़ाएंगेे, सुन्दर भविष्य बनाएंगे.”
आनंदी की आंखों से ख़ुशी के आंसू ढुलक पड़े थे. रमेश को इस तरह भावुक उसने कभी नहीं देखा था… भीगी आंखों से वह बस हां में सिर भर हिला पाई. देर तक दोनों सुकूनभरी नज़रों से अपनी बेटी को देखते रहे, जो अपनी विंटर यूनीफार्म को निकालकर कभी बाहर रखती, तो कभी पैकेट में डाल देती.
कल उनकी बेटी शान से स्कूल जाएगी और बच्चों के झुण्ड में मिल जाएगी. समाज की मुख्यधारा में मिल जाने का सपना अब बेटी के माध्यम से पूरा होगा, यह संतोष उनकी आंखों से आंसुओं के रूप में छलक रहा था.
विंटर यूनीफार्म पाने की ख़ुशी में आशी देर तक बंद आंखें किए सोने का असफल प्रयास करती रही और जब सोई, तो सपनो की बगिया में विचरण करने लगी. उसने देखा वह विंटर यूनीफार्म पहने स्कूल के रास्ते उड़ी चली जा रही है. स्कूल के प्रांगण में खड़े सारे बच्चे उसे अपने पास बुला रहे है.
जब वह तितली-सी इतराती हुई उनके बीच में आकर खड़ी हुई, तो अध्यापिकाओं की प्रशंसाभरी नज़रें उस पर टिक गई.
आशी आज निडर होकर सबकी आंखों से आंखे मिला पा रही थी इसका अंदाजा नींद में उसके होंठों पर आई मुस्कुराहट से होता था.

मीनू त्रिपाठी

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Usha Gupta

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