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कहानी- यादों का दस्तावेज़ (Short Story- Yaadon Ka Dastavez)

                   अर्चना जौहरी

 

वही छत जहां न जाने कितनी रातें चांद से बातें करते हुए गुज़री थीं. वो इम्तिहानों में देर रात तक खुली छत पर पढ़ना. छुट्टियों में वहीं शामें बिता देना. कभी कोई नॉवेल पढ़ते हुए, कभी साफ़ शफ्फ़ाफ़ आसमान के परदे पर अपने भविष्य के सपने सजाते हुए. ऊपर पहुंचते ही वो पुराना पेड़ उसके सामने था, जिसकी छांव में ना जाने कितने मौसम गुज़ारे थे उसने. 

“भैया, यहीं रोक देना.” उसने रिक्शेवाले को पैसे दिए और वहीं खड़ी होकर देखती रही उस दो मंज़िला इमारत को, जहां उसकी यादों की ना जाने कितनी तहें ख़ामोशी ओढ़े पड़ी थीं. उसका ‘अपना घर’… कुछ ज़्यादा बदलाव नहीं आया था. नीचे से ऊपर निगाह दौड़ाई और जाकर रुक गई पहली मंज़िल के छज्जे पर. अभी तक वैसे ही गमले रखे थे. हटाए नहीं थे किसी ने. अरे, ये आकृति कौन है छज्जे पर, बहुत जानी-पहचानी. “रानी… ओ रानी…” मां बुला रही थी शायद… उसने पीछे मुड़कर देखा. “कब तक छज्जे पर खड़ी रहोगी. गाड़ी चार घंटे लेट है, आ जाएंगे पापा.”
“चलो खाना खा लो.”
“नहीं, मुझे भूख नहीं. मैं पापा के साथ ही खा लूंगी.“
“अगर पापा के साथ खाना है, तब तो लंच की जगह डिनर ही मिलेगा.”
“आप भी तो वही करोगी, है ना मां?…” और मां मुस्कुराकर चली गई थी. और फिर वो वहीं छज्जे पर खड़ी रही थी, स्टेशन की तरफ़ से आनेवाले हर रिक्शे को उम्मीदभरी नज़र से देखती हुई.
याद आ गया वो दिन, जब पापा को ख़बर मिली थी कि उनका तबादला रेलवे से सीबीआई में हो गया है और उन्हें तुरंत मुंबई जाना पड़ेगा. हम सब तब बहुत छोटे थे. दादी-बाबा तो पहले ही नहीं रहे थे. घर में सबसे बड़े पापा ही थे और अब अचानक तीन छोटे भाइयों, दो बहनों, पत्नी और तीन बेटियों को यहां छोड़कर मुंबई… जैसे काले पानी की सज़ा दे दी गई हो. लेकिन जाना ही पड़ा. उनके जीवन की प्रगति और उन्नति बुला रही थी उन्हें और हमें जीवन के कुछ नए अध्याय पढ़ने थे.
अब पापा मुंबई में और हम तीनों बहनें, तीनों चाचा और दोनों बुआ यहां आगरा में. फिर पापा कभी-कभी आते आगरा, चाचा और बुआ की शादी करने या कभी-कभी त्योहारों पर. फिर दोनों चाचा भी अपने-अपने परिवार के साथ बाहर सेटल हो गए. दोनों बुआ अपनी-अपनी ससुराल और यहां आगरा में रह गए हम तीनों बहनें, मम्मी और चाचा-चाची…
घर में स़िर्फ एक पुरुष और पांच महिलाएं. चाचा ने बड़े प्यार से हमारी ज़िम्मेदारी संभाली. चाहे कोई त्योहार साथ मनाना हो, रामलीला देखने जाना हो, मनपसंद दुकान से चाट खाना हो… चाचा के साथ हम इन पलों का भरपूर आनंद लेते रहे. चाचा अनुशासन का दूसरा नाम थे. सुबह समय पर दफ़्तर जाना, शाम को समय पर लौटना.
यादें ही तो खींच लाई हैं यहां. हज़ारों किलोमीटर दूर मुंबई से. मौसी की लड़की की शादी तो स़िर्फ बहाना था, वरना सारी सुख-सुविधाएं छोड़कर हफ़्तेभर के लिए यहां आना. यहां पानी की समस्या है. बिजली की समस्या, उस पर मौसम की मार. सच तो ये है अपनी जन्मस्थली, अपने उसी मकान, मोहल्ले, शहर से यादों को संभालने आई थी.
25 साल हो गए शादी को, पर कभी भी दो दिन से ज़्यादा आना न हुआ. वो भी इतने सालों में स़िर्फ कुछ एक बार. पति का काम, अपना काम, बच्चों की पढ़ाई, क़दम सदा बंधे रहे और बंधी रही यादों की पोटली.
फिर दस साल से तो ये मकान किसी और को बेचकर सब अपना बंगला बनवाकर उसमें रहने चले गए थे. पर तब क्या मालूम था इतना याद आएगा सबको ये घर. सबने मन मसोसकर जो हुआ, सो हुआ सोचकर संतोष कर लिया. लेकिन रानी इस बार मौसी की लड़की की शादी में आई, तो अपनी यादों के जंगल में खो गई. जब मौसी की लड़की की शादी का निमंत्रण मिला, तो सोचा भी नहीं था कि जाएगी. जैसे हर बार होता था निमंत्रण आते थे, पर वो कभी नहीं जा पाती थी. लेकिन इस बार जैसे पुकारने लगी माटी. दोनों बच्चे अपने-अपने काम में व्यस्त थे. बड़ा बेटा छह महीने की ट्रेनिंग के लिए कंपनी की तरफ़ से ऑस्ट्रेलिया गया था. छोटी बेटी भी हॉस्टल में रहकर पढ़ रही थी. बस, फिर क्या था राकेश को मनाया और आ गई मौसी की लड़की की शादी में. वहां कुछ पुश्तैनी प्रॉपर्टी का चक्कर था. राकेश अपने माता-पिता के इकलौते बेटे थे. अब वे दोनों नहीं रहे, तो गांव का पुश्तैनी मकान कौन देखे. राकेश का मुंबई में काफ़ी बड़ा कारोबार था. अतः सभी के कहने पर गांव का मकान बेच दिया गया. गांव में सौदा पक्का हो गया था, सो फाइनल लेन-देन करने राकेश वहां चले गए और वो आ गई यहां आगरा.
कल बड़ी बहन और जीजाजी से बात हुई, तो दिखाने लाए थे ये घर. कार में बैठे-बैठे दिखाते हुए आगे बढ़ गए थे. जीजाजी बोले, “अब क्या रखा है यहां. अब तो ये मकान बिल्डर को बिक चुका है. ये लोग भी मकान खाली करनेवाले हैं. सुना है, कोई शॉपिंग माल बनेगा.” कार की खिड़की से बाहर देखती रह गई वो और पूरा देख भी न पाई कि घर आंखों से ओझल हो गया. तब तो मन मसोसकर रह गई थी, पर आज जब सब लोग मौसी की लड़की की विदाई के बाद घूमने या आराम फरमाने में व्यस्त थे, वो निकल आई यहां उन हवाओं से बातें करने.
आसमान के टुकड़े से ख़ामोश मुलाक़ात करने और उन पदचिह्नों को महसूस करने, जो कभी स़िर्फ उसकी जागीर हुआ करते थे. मकान दूसरों का हो गया, तो क्या, पर उसके नीचे की धरती और ऊपर का आसमान तो अभी भी उसका है. उनसे उसकी पहचान अभी भी है. वो अभी भी उसे पहचानते हैं.
वो अचानक जल्दी-जल्दी सीढ़ियां चढ़ के सीधे छत पर जा पहुंची. सीढ़ियां सीधे छत पर भी जाती थीं और पहली मंज़िल से उसका रास्ता घर के अंदर भी जाता था. घर का दरवाज़ा तो बंद था. शायद वहां कोई था नहीं, पर छत तो उस समय से हमेशा खुली रहती थी, जब वो यहां रहती थी. कभी किसी की बॉल चली जाए या पतंग फंस जाए, तो बच्चे जाकर निकाल लें. इसीलिए रात 10 बजे से पहले छत का दरवाज़ा बंद नहीं होता था.
वही छत जहां न जाने कितनी रातें चांद से बातें करते हुए गुज़री थीं. वो इम्तिहानों में देर रात तक खुली छत पर पढ़ना. छुट्टियों में वहीं शामें बिता देना. कभी कोई नॉवेल पढ़ते हुए, कभी साफ़ शफ्फ़ाफ़ आसमान के परदे पर अपने भविष्य के सपने सजाते हुए. ऊपर पहुंचते ही वो पुराना पेड़ उसके सामने था जिसकी छांव में ना जाने कितने मौसम गुज़ारे थे उसने. सुख हो, दुख हो, मन भारी हो या ख़ुशी से लबरेज़, अपने मन की सारी बातें जब तक पेड़ के साए में बैठकर सुना न दे, चैन नहीं मिलता था.
पीछे के मकान के आंगन से निकला ये पेड़ देखते-देखते बढ़कर आगेवाले मकान के इस हिस्से की दूसरी मंज़िल की छत पर अपनी बांहें पसार चुका था और वो बड़ी होती रानी का सबसे अच्छा दोस्त बन गया था. पापा की याद आ रही हो, इम्तिहान का टेंशन हो, घर में मनपसंद खाना बना हो, चाचा घुमाने ले जानेवाले हों… मन की हर चहल-पहल यहीं तो साझा होती थी. ये छत भी तो गवाह है ना, जाने कितनी खुसुर-फुसुर की.
दरअसल, बचपन में एक दिन उसने किसी को ये कहते सुन लिया था कि पेड़ भी सुनते-समझते हैं. यदि आपको कोई बात दूर पहुंचानी हो, तो पेड़ से कह दीजिए, बात उस व्यक्ति तक पहुंच जाएगी. फोन मोबाइल तो होते नहीं थे तब, तो बस उसने भी छत के इस कोने, इस पेड़ को अपना दोस्त बना लिया था. उसे लगता था कि वो सारी बातें, जो वो पेड़ से कह रही थी पापा के पास पहुंचा देगा पेड़. और कब पापा के पास पहुंचते-पहुंचते वो पापा ही बन गया था. मुंबई में बैठे पापा से जब बात करनी होती, तो वो यहीं आ बैठती इस पेड़ के साए में और घंटों बैठी रहती. अपने और शिरीष के रिश्ते के बारे में भी तो सबसे पहले इसे ही बताया था. शिरीष उसे बहुत अच्छा लगता था और शिरीष भी जब घर आता, किसी न किसी बहाने उसके पास चक्कर लगाता रहता. फिर एक दिन जब जा रहा था, तो जाते-जाते उसके पास आकर बोला था, “अब की आऊंगा, तो तुम्हें भी उड़ाकर ले जाऊंगा अपने साथ, पर चिंता मत करो बाकायदा तुम्हारे पापा से तुम्हारा हाथ मांगूंगा. भगाकर नहीं ले जाऊंगा.” और वो स़िर्फ मुस्कुरा के रह गई थी.
फिर सचमुच पापा को न जाने कैसे पता चल गया था. अगली बार जब उनका ख़त आया, तो लिफ़ा़फे में एक अलग पन्ना था उसके लिए, लिखा था- ‘शिरीष अच्छा लड़का है, तुम चिंता मत करो. मैं अब की आऊंगा, तो बात कर लूंगा.’ लेकिन पापा के आने से पहले ही ख़बर आई थी. मोहल्ला चकित रह गया था. अमेरिका से ट्रेनिंग ख़त्म करके आ रहे शिरीष का हवाईजहाज़ दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उसकी कहानी भी बिना शुरू हुए ही ख़त्म. हलक सूखने लगा था उसका. तभी फोन बजा. राकेश का था. “सुनो, ख़ुशख़बरी है. पूरा पेमेंट हो गया है. सब लिखा-पढ़ी भी. एकदम बढ़िया काम हुआ है.” “हूं…!” उसके मुंह से स़िर्फ इतना ही निकला. “सुनो, तुम चाहती थी न कि लोनावला में कोई प्रॉपर्टी ली जाए या यहीं मुंबई में ही तुम्हारे बुटीक के लिए कोई जगह. दरअसल, मैं ये पैसे तुम्हें अपनी 25 वीं शादी की सालगिरह पर देना चाहता हूं. तुमने तो मेरा घर स्वर्ग बनाया. प्यारे-प्यारे दो बच्चे दिए. इतने सालों तक मुझे संभाला. ये गिफ्ट तो बनता ही है.” वो कुछ कह पाती, इससे पहले ही फोन कट गया.
वो जल्दी-जल्दी सीढ़ियां उतरकर नीचे आ गई. हलक की प्यास और राकेश का भावनात्मक फोन. उससे खड़ा नहीं रहा जा रहा था. देखा सामने एक होटल था. बरसों पुरानी चाय की टपरी ही अब एक छोटे-मोटे साफ़-सुथरे होटल में तब्दील हो चुकी थी. कुछ लोग बैठकर चाय-नाश्ता कर रहे थे. वो भी दाख़िल हुई और एक टेबल पर बैठ गई. “थोड़ा पानी मिलेगा?”
“हां-हां, पानी देना भाई.” मालिक ने उसे बैठने का इशारा करके आवाज़ लगाई. वो वहीं किनारेवाली टेबल पर बैठ गई.
“तुम रानी हो न… मुंबईवाली बिटिया?” सामने की टेबल पर बैठे मैले-से कपड़े पहने एक बुज़ुर्ग ने उसे एकटक देखते हुए पूछा.
“जी… अ आ…प?”
“मैं केशव… उस कोनेवाले मकान में…”
“ओह… केशव अंकल आप..!” विश्‍वास नहीं हो रहा था. अपने ज़माने के रौबदार, पढ़े-लिखे, इतने ज्ञानी अध्यापक आज इस हालत में.
“आपको क्या हुआ… आंटी कैसी हैं?”
“कुछ नहीं, मैं बिल्कुल ठीक हूं बेटा और आंटी तो रही नहीं. पहले शिरीष चला गया, फिर उसकी मां. रह गया अकेला मैं इतनी बड़ी दुनिया में.” उसने एक नज़र उस घर पर डाली, जिस घर के दरवाज़े पर बोर्ड लगा रहता था. ‘प्रोफेशर केशव राय.’ उन्होंने उसे उस तरफ़ देखते हुए देख लिया था शायद, बोले, “ये घर भी लिटिमेशन में चला गया. रिश्तेदार कहते हैं उनके पास चला जाऊं. दोस्त-यार अपने पास बुलाना चाहते हैं और मेरे विद्यार्थी अपने पास, पर मैं जीवन की संध्या में ये गली नहीं छोड़ूंगा. यहां के दिन-रात, शाम, हवा-पानी सब अपने लगते हैं. लगते क्या हैं, अपने हैं. बातें करते हैं मुझसे. मेरी सांसें ही तब तक चलेंगी, जब तक मुझे यहां का हवा-पानी मिलता रहेगा.”
“आप रहते कहां हैं अंकल, घर तो…?”
“वहीं एक कमरा खुला छोड़ दिया है कोर्ट ने मेरी उम्र को देखते हुए.” उन्होंने प्रश्‍न ख़त्म होने से पहले ही उत्तर दिया. “घर के बाहर, जो चबूतरा है विद्यार्थी आ जाते हैं सुबह-शाम. कुछ ट्यूशन कर लेता हूं वहीं.”
“और खाना-पीना?”
“यह होटल है ना. होटल नहीं, मेरा घर है.”
“यहीं खा-पी लेता हूं सुबह-शाम.”
“और तुम यहां?”
“यूं ही… बस, ये घर देखने चली आई थी.”
“हां, अब यहां भी तो बिल्डर आ रहे हैं, सुना है बेच रहे हैं ये लोग.”
“हूं…”
“तुम लोग इस मोहल्ले, इस मकान की शान थे. तुम्हारे पापा… वाह!… आज कहां हैं ऐसे लोग! चरित्रवान, कर्त्तव्यपरायण, सभी का ध्यान रखनेेवाले. तन से तो वे फिल्मनगरी मुंबई में थे और मन, यहां अपने परिवार के पास. माता-पिता के संस्कार और परंपरा को निबाहने में. तुम्हारे पापा की बात आज भी हम मोहल्लेवाले बड़ी शान से करते हैं.” अंकल बोले जा रहे थे. “हूं…” उसके मुंह से बस इतना ही निकल पाया कि यादों में खो गई.
तभी केशव अंकल की आवाज़ ने उसे सचेत किया, “अरे वो देखो, वो लोग क्यूं जमा हो रहे हैं यहां?”
“हां… वो तो उसी घर की तरफ़ जा रहे हैं… जाकर देखती हूं.” वो भागकर पहुंच गई वहां.
“आप लोग ये क्या करने जा रहे हैं यहां?”
“ये मकान तोड़कर यहां शॉपिंग मॉल बनेगा. फ़िलहाल हम यहां के सारे पेड़ काटने जा रहे हैं.” तब तक काफ़ी लोग जमा हो चुके थे.
“नहीं…” वो दौड़कर उन लोगों के सामने खड़ी हो गई. “ये… ये वाला पेड़ नहीं.”
“ये पेड़ मेरे पापा की निशानी है. निशानी क्या… मेरे बुज़ुुर्ग ही हैं. बहुत कुछ पाया है इससे. मैं नहीं काटने दूंगी ये पेड़…”
“पर ये मेरे हाथ में नहीं है. हमें ऑर्डर मिला है ये पेड़ काटने का. हमें अपना काम करने दीजिए.”
“आप… आप स़िर्फ एक दिन के लिए रुक जाइए. प्लीज़ यकीन मानिए आप पर किसी तरह की आंच नहीं आएगी.”
फिर दौड़ती हुई पहली मंज़िल पर पहुंच गई. घर के मालिक भी आ चुके थे.
“मुझे आपके पति से मिलना है.”
“वो तो घर पर नहीं… पर आप?”
“मैं रानी, रानी अग्रवाल. 25 साल पहले इसी घर से डोली उठी थी मेरी. उसके पहले मैंने एक-एक पल इसी घर में बिताया है. ये, ये जगह, ये कोना, ये बालकनी, ये दीवारें, ये स़िर्फ ईंट और पत्थर नहीं हैं. मेरे सपने आराम कर रहे हैं यहां. मेरे अपने, उनकी परछाइयां, मेरी यादें, मेरे जज़्बात, प्लीज़… प्लीज़… इन्हें मरने से बचा लीजिए.”
“देखिए ये मकान हम बेच चुके हैं.”
“कितने… कितने रुपयों में बेच रही हैं आप लोग इस मकान को. 30, 35, 50 कितने में प्लीज़ बताइए. अगर उससे ज़्यादा पैसे मैं आपको दे दूं, तो मुझे मिल सकेगा मेरा ये… सपनों का घर. बताइए… बताइए…” और झट से उसने मुंबई राकेश को फोन लगा दिया.
“राकेश, तुम मुझे तोहफ़ा देना चाहते हो न. 25 साल तुम्हारा घर, तुम्हें संभालने के लिए, तो दे दो मुझे 25 साल पहलेवाला मेरा घर. मेरे बुज़ुर्गों की निशानी, वो पेड़ जिसके साए में मैंने सांसें लेना सीखा.”
“क्या कह रही हो?” राकेश कुछ समझ नहीं पा रहे थे.
और फिर दो दिनों की दौड़-भाग के बाद वो मकान श्रीमती रानी अग्रवाल का हो चुका था. इस सब औपचारिकताओं के लिए मुंबई से राकेश भी आ गए थे. लिखा-पढ़ी हो गई.
दूसरे दिन मां को उस घर में लेकर आई. “देख लो मां, तुम मेरे साथ मुंबई ज़रूर जा रही हो, पर यहां सब कुछ वैसा ही रहेगा. तुम्हारी दुनिया, देखो मां.”
“देखा मां…” आंखों में आंसू भरे आंगन की दीवार सहला रही थी.
“समझ गई मां. यही सोच रही हो ना मां कि यहां इसकी देखभाल कौन करेगा. तुम चिंता मत करो. मैंने सब सोच लिया है.”
दौड़कर वो उस कोनेवाले घर की तरफ़ गई. केशव अंकल ट्यूशन पढ़ा रहे थे. हाथ पकड़कर ले आई. “अंकल, अब आप यहां रहेंगे. यहां भी
मिलेगी आपको सांसें देने वाली हवा, क्योंकि वो हवा तो एक ही है, जो हम सबको सांसें देती रही है. बताइए ना अंकल, आप यहां अपना कोचिंग क्लासेस चलाएंगे. बताइए आप, आएंगे ना. सहेजेंगे ना हमारी यादों को?”
और फिर दूसरे दिन वहां पूजा हो रही थी. बोर्ड टांगा जा रहा था- शाइनिंग कोचिंग क्लासेज़. अचानक मां के गले में बांहें डाल दीं रानी ने. “मां, तुम्हें तो पता है पापा को पढ़ने-पढ़ाने का कितना शौक़ था. वो कहते भी थे कि पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती. इस घर में अंकल जब बच्चों को पढ़ाएंगे, तो ज्ञान से भर जाएगा ये घर. समय पर बच्चे आएंगे, समय पर जाएंगे. एक अनुशासनभरी चहल-पहल हर वक़्त रहेगी यहां. मतलब पापा और चाचा हमेशा के लिए रहेंगे इस घर में. ज्ञान और अनुशासन के रूप में और वो पेड़, वो तो जैसे उस घर की बांहें हैं. ना जाने कब से हमें संभाल रहा है. हमारे आने पर बांहें हिलाकर हमारा अभिवादन करता है और जाने पर प्यारभरा टाटा.”
“देखो… देखो, आपसे भी हाय कह रहा है.” मां एकटक उधर देख रही थीं.
“मुझे तो ये पेड़ नहीं, रखवाला लगता है.” वो मां की तरफ़ देखती रह गई.
मां कहीं खो गई थीं. “बचपन में तुम्हारी रखवाली करता रहा, तुम्हारे सपनों की, तुम्हारी इच्छाओं की, फिर हम सबके अकेलेपन की और अब… अब इस घर की रखवाली. बचा लिया इस पेड़ ने इसको नेस्तनाबूद होने से…” वो सुन मां को रही थी, पर देख एकटक ऊपर रही थी ख़ामोश रखवाले को.
“चलो फ्लाइट छूट जाएगी.” राकेश ने चेताया, तो दोनों आत्मविभोर कार में बैठ गईं.
“अब यूं ही रखवाली करते रहना हमारी यादों की पोटली की…” वो बुदबुदाई और कार आगे बढ़ गई.
“यादों की पोटली नहीं, पूरा का पूरा दस्तावेज़ है यादों का तुम्हारे लिए तो.” शायद उसकी बुदबुदाहट राकेश ने सुन ली थी. उन्होंने एक नज़र उस पर डाली और मुस्कुरा दिए.

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