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कहानी- आव नहीं, आदर नहीं (Story- Aav Nahi, Aadar Nahi)

उनका दृढ़ विश्‍वास था- माता-पिता की सेवा स्वयं की इच्छाशक्ति से होती है. यह पुत्र का कर्त्तव्य है, याद दिलाने की बात नहीं. पुत्र में यदि सेवा की भावना होगी, तो पत्नी चाहे लाख उग्र या झगड़ालू हो, उसे हर हाल में सेवा करनी होगी. पुत्र ही यदि इसे ‘झंझट’ समझे, दूर रहने की कोशिश करे, तो पत्नी को क्या पड़ी है?

 

सारा सामान आंगन में आ गया था. बप्पा (पिताजी) के इशारा करने पर रंजन भागता हुआ गया और गली के नुक्कड़ पर तिवारीजी के एसटीडी बूथ से ट्रेन के बारे में पूछताछ कर आया. ट्रेन डेढ़ घंटा लेट थी यानी अब चार बजे पहुंचेगी.
चलने के लिए तैयार खड़े दादाजी-दादीजी को सहारा देकर बप्पा ने वहीं बिछी खाट पर बैठाया और स्वयं खंभे के सहारे सिर झुकाकर बैठ गए. रंजन दूसरे कोने में गु़फ़्तगू कर रहे रेवती-टिंकू के पास आया.
रंजन के बैठते ही रेवती ने कुढ़कर कहा, “ट्रेन को भी आज ही लेट होना था.”
“छोड़ री… अब जा तो रहे ही हैं. डेढ़-दो घंटा और सही.”
“अच्छा है बाबा, पिंड छूटा. अब चार-छह माह क्या आएंग़े?”
“मगर मां तो बोल रही थी…” टिंकू रहस्यमय ढंग से फुसफुसाया, “दादाजी-दादीजी अब वहीं रहेंगे, ताऊजी के पास.”
रेवती को सहसा विश्‍वास ही नहीं हुआ. अविश्‍वास से उसे देखती रही. “क़सम से, मैं खिड़की की ओट में खड़ा था…” उसने गले पर हाथ रखा.
“… अभी सुबह ही बप्पा से बोल रही थी.”
बप्पा कमरे में अपना बैग जमा रहे थे. मां कपड़े तहकर उन्हें देती जा रही थी. बैग जमाते हुए बप्पा ने मां से कहा, “… अब देखो, भाभीजी कितने दिन रखती हैं उन्हें?”
“कितने-कितने दिनों नहीं…” मां एकदम उखड़ गई. “उनसे स्पष्ट कह देना. आख़िर वे भी उनके बेटे-बहू हैं. उन्हें भी तो सेवा करनी चाहिए इनकी.”
“मेरी बात सुनो पारो…”
“मैं कुछ नहीं सुनना चाहती, कब तक हम ही सारा ख़र्च वहन करते रहेंगे? क्या उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है? भगवान का दिया सब कुछ तो है उनके पास? फिर संभालते क्यों नहीं अपने माता-पिता को?”
“तुम्हारा कहना सही है पारो…” बप्पा ने निरीह नज़रों से मां को देखा, “पर भाभीजी इस बात को समझती ही नहीं.”
“फिर मैं कैसे समझ जाती हूं?” तमककर मां ने बात काट दी.
बप्पा ने विवशता से नैन झुका लिए. मां भिन्नाकर कमरे से बाहर निकल गई.
रंजन-रेवती के मुख खुले के खुले रह गए यह सुनकर. कुछ क्षणों तक उनके बीच मौन छा गया. रेवती को लेशमात्र भी विश्‍वास नहीं था कि ताईजी डेढ़-दो माह से अधिक दोनों को रखेंगी. पिछली बार भी जब वे गए थे, शायद छह या सात वर्ष पूर्व, दो ही माह में वापस भेज दिया था. अब जब मालूम पड़ेगा कि हमेशा के वास्ते आए हैं तो…?
रेवती ने चोर निगाहों से बप्पा को देखा. बप्पा सिर झुकाए किसी गहन चिंता में लीन थे. उनके मन में मच रहे तूफ़ान को रेवती भलीभांति महसूस कर रही थी. एक वे ही तो हैं, जो दादाजी-दादीजी को ताऊजी के यहां नहीं भेजना चाहते, मगर ये चारों (मां, रेवती, रंजन, टिंकू) भी क्या करें? घर के हालात ने तो इन चारों को ऐसा सोचने के लिए विवश कर दिया था. बप्पा की पगार इतनी थी नहीं कि सबका गुज़ारा आराम से हो जाता. आधी पगार दादाजी-दादीजी की बीमारी, दवा-डॉक्टर में ख़र्च हो जाती. शेष में घर ख़र्च चलाना भी मुश्किल हो जाता. बच्चों की अधिकांश फ़रमाइशें अधूरी ही रह जातीं. मगर पढ़ाई के ख़र्चों में वे कैसे कटौती कर सकते थे? फ़ीस भी भरना ज़रूरी, कॉपी-क़िताबें लाना भी ज़रूरी…? रंजन कंप्यूटर कोर्स करना चाहता था, रेवती सिलाई… दो-ढाई वर्ष की मेहनत के बाद दोनों घर को सहारा देने लायक हो जाते. मगर काफ़ी खींच-तान करने के बावजूद महीने के आख़िर में कुछ भी बच नहीं पाता. ऐसे में इन क्लासों के लिए फ़ीस के पैसे कहां से आते? धीरे-धीरे उनके दिलों में यह धारणा घर करने लगी कि यदि ताऊजी दादाजी-दादीजी को अपने पास बुला लें, तो ख़र्चों में कितनी बचत हो जाया करे. वे बप्पा को समझाने का यत्न करते, “ताऊजी के पास इतना पैसा है, अच्छी नौकरी है, फ्री मेडिकल सुविधा है, नौकर-चाकर सब तो हैं… दादाजी-दादीजी वहां आराम से रहेंगे.”
“तुम्हारा कहना सही है बेटे…” बप्पा सहमत होते हुए भी विवशता जतलाते “…मगर बिना बुलाए कैसे भेज दूं?”
“हद है!… बेटे के पास जाने के लिए भी आमंत्रण की ज़रूरत?”
“ज़रूरत है बेटे. तुम्हारी ताईजी का जो स्वभाव है…”
“फिर आप ताऊजी से क्यों नहीं कहते कि वे ताईजी को समझाएं?”
“समझाना ताईजी को नहीं है, ‘समझना’ ताऊजी को है.”
“ऐं?”
तीनों को बप्पा की फिलॉसफी कुछ समझ में न आती. बप्पा मुस्कुराकर चुप हो जाते.
उनका दृढ़ विश्‍वास था- माता-पिता की सेवा स्वयं की इच्छाशक्ति से होती है. यह पुत्र का कर्त्तव्य है, याद दिलाने की बात नहीं. पुत्र में यदि सेवा की भावना होगी, तो पत्नी चाहे लाख उग्र या झगड़ालू हो, उसे हर हाल में सेवा करनी होगी. पुत्र ही यदि इसे ‘झंझट’ समझे, दूर रहने की कोशिश करे, तो पत्नी को क्या पड़ी है?
बप्पा अभी भी न भेजते, मगर पिछले दिनों दादाजी चलते-चलते कई बार गिर पड़े. उनका मोतियाबिंद पक गया था, घुटनों का दर्द भी ज़्यादा परेशान करने लगा था. दादीजी का मोतियाबिंद भी धीरे-धीरे पक रहा था. डॉक्टर के अनुसार दोनों का फौरन ऑपरेशन करना अब अत्यंत ज़रूरी हो गया था. इधर रेवती भी बड़ी होती जा रही थी. दो-तीन वर्ष बाद ब्याह लायक हो जाएगी. घर में जो ख़र्चे लगे थे, उसके हिसाब से तो उसकी शादी के वास्ते पांच हज़ार जमा करना भी मुश्किल था. उस पर इन दो ऑपरेशनों के ख़र्चे, कहां से करेंगे ये सब?
सोच-सोचकर वे बावले हो उठते. रात-रातभर उन्हें नींद न आती. चिंता के कारण करवटें बदलते या उठकर भगवान के सम्मुख ध्यान लगाकर बैठ जाते. मां बेचारी परेशान हो जाती. उन्हें हिम्मत बंधाने की भरसक कोशिश करती, मगर कब तक? क्या शब्दों की जुगाली से पैसों का इंतज़ाम हो जाता? कष्ट दूर हो जाते?
आख़िर हारकर बप्पा ने दादाजी-दादीजी को ताऊजी के पास भेजने का निर्णय कर लिया.
साढ़े तीन बज गए. गाड़ी का समय हो गया था, जाने के लिए बप्पा उठ खड़े हुए. सहारा देकर उन्होंने दादाजी को उठाया. दादाजी का चेहरा एकदम विवर्ण हो गया, उनके झुर्रीदार चेहरे पर दर्द की असंख्य लकीरें उभर आईं. किसी बूचड़खाने में धकेला जा रहा हो, ऐसी दहशत छा गई उनकी मोतियाबिंद आंखों में.
रेवती का हृदय तड़प उठा. दादाजी के मन की पीड़ा को वह अच्छी तरह समझ रही थी. ताईजी उनके संग कैसा व्यवहार करेंगी, इसकी कल्पना मात्र से ही वे निढाल हुए जा रहे थे. पिछली बार का कटु अनुभव वे भुला नहीं पा रहे थे. तब पहुंचने पर शुरुआती 4-6 दिनों तक बहू अच्छी रही थी. नौकर भी दोनों का सम्मान करते थे. उनके ‘मालिक के माता-पिता हैं’ सोचकर दौड़-दौड़कर उनका काम करते थे. मगर बाद में जब देखा, मालकिन को स्वयं ही फ़िक्र नहीं है, उल्टे चिढ़ती हैं उनके नाम से, तो नौकरों ने भी तवज्जो देनी छोड़ दी.
सच भी है, नौकर अपनी मालकिन के रुख़ के अनुसार ही व्यवहार करेंगे. वे क्यों अपनी नौकरी ख़तरे में डालते? दादाजी आवाज़ लगाते रहते, पर वे अनसुना कर ख़िसक जाते. एक ग्लास पानी के लिए भी दादाजी को उनकी गुहार करनी पड़ती. दादीजी भारी हृदय से सब देखती रहतीं.
घर में सभी तरह के फल आते थे, फ्रिज भरा रहता. नौकर चोरी-छिपे खा लेते, मगर ताईजी दोनों को कभी पूछती तक नहीं थीं. वो जिस तरह तरसा-तरसाकर उन दोनों को रख रही थी, उसे देखकर दादीजी का हृदय अंदर तक विदीर्ण हो जाता. जिस पुत्र को अनेकानेक तकली़फें सहनकर पाला, जिसकी उच्च शिक्षा के लिए अपने गहने तक बेच दिए, योग्य होने पर उसी की पत्नी इस तरह का ओछा व्यवहार कर रही थी.
अपने प्रति की जा रही उपेक्षा को वे सह भी लेतीं, मगर पति के अपमान को अब वे सह नहीं पा रही थीं. उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था कि थोड़े-से फल या दूध के लिए पति नौकरों से बार-बार कहें.
वे पति पर झल्लातीं, “क्यों बोलते हो बार-बार?”
“फिर क्या करूं?” दादाजी विवशता से दवा की गोली दिखलाते, “डॉक्टर ने खाली पेट दवा लेने से मना किया है. गांव में तो ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी बोलने की? पार्वती स्वयं ही सब…” दादीजी चुप रह जातीं. आख़िर हारकर उठतीं और रसोई में जा फल ले आतीं. फ्रिज़ खोलते समय उनका हृदय अपराधबोध से भर जाता. ऐसा लगता, मानो चोरी कर रही हों.
मगर उस दिन तो हद हो गई. यूं ताईजी दादाजी के लिए जब भी दूध भेजती, पानी मिला देती थी. पहली बार दादीजी को मलाई जमी हुई नज़र आई. दादीजी का माथा ठनका. आज बहूरानी इतनी मेहरबान कैसे हो गई?
कुछ सोच उन्होंने दादाजी को ग्लास ढंककर रख देने को कहा और स्वयं दबे क़दमों से चलते हुए रसोई के क़रीब जा उधर की टोह लेने लगीं. ताईजी धीमे स्वरों में मुंह लगे नौकर को घुड़क रही थी, “टॉमी (कुत्ता) अंदर घुस कैसे गया?”
“पता नहीं मैडम, इधर से माली गया था बगीचे में… उसी ने जालीवाला दरवाज़ा…”
“ज़रा भी ध्यान नहीं रखते तुम लोग…” ताईजी फुफकारी, “अब एक
काम करना. बाकी दूध का दही जमा देना. दोपहर में उसी की लस्सी बना देंगे दोनों के लिए…”
दादीजी ने सुना तो सन्न रह गईं. काटो तो ख़ून नहीं. यह इ़ज़्ज़त? पेट काट-काटकर जिस लड़के को इतना पढ़ाया-लिखाया, सम्मानजनक ओहदे के लायक बनाया, उसी की पत्नी ऐसा बर्ताव कर रही है?
अपमान से उनका तन-मन सुलग उठा. छोटी बहू पार्वती दूध में मक्खी गिर जाने मात्र पर वह दूध नहीं देती थी और यह बड़े घर की बेटी… कुत्ते का मुंह मारा हुआ दूध… छीः…
क्रोध से भभकती हुई वे कमरे में आईं और दादाजी के हाथ से ग्लास छीन लिया.
“अब जाने दो सुमेर की मां…” दादाजी ने उन्हें शांत करने का यत्न किया, “हम स्वयं नाली में फेंक देते हैं.”
“नहीं!” अपमान से उनकी आवाज़ दहक रही थी, “… फिर उस काले दिलवाली को महसूस कैसे होगा? उसे भी तो मालूम पड़ना चाहिए कि हमें उसकी काली करतूत पता चल गई है…”
दादाजी समझाते रहे, ईश्‍वर का वास्ता देते रहे. मगर पति-अपमान से विदग्ध दादीजी ने एक न सुनी. ग्लास लेकर धम्-धम् करती हुई रसोई में गई. उनकी चढ़ी मुखमुद्रा और हाथ में दूध का ग्लास देखते ही श्यामलवर्णीय ताईजी का चेहरा पूर्ण श्यामली हो गया.
दादीजी ने किसी तरह स्वयं को संयत करते हुए उन्हें तीखी नज़रों से घूरा, “बड़ी बहू! इनका पेट ठीक नहीं है. दूध नहीं लेंगे. बाकी दूध में मिला लो…”
“अरे रे, यह क्या कर रही हो?” ताईजी सकपकाई, “यह शक्करवाला है…”
“फिर सागर (ताई का पुत्र) को दे देती हूं, ले बेटा…” वहां से निकल रहे पोते की ओर दादीजी ने ग्लास बढ़ाया.
“सागर अभी नहीं लेगा…” ताईजी बौखलाकर आगे बढ़ी.
“क्यों?”
“वह… वह बाद में लेगा…”
“बाद में क्यों? अभी क्यों नहीं?” दादीजी का स्वर थोड़ा उग्र हो गया.
“कहा न…”
“साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती…” दादीजी पहली बार सास के तेवर से दहाड़ीं, “यह कुत्ते का मुंह मारा हुआ दूध है.”
ताईजी का चेहरा तवे-सा काला हो गया.
दादीजी अंगारे-सी लाल हो गईं, “हमारी जगह तुम्हारे मां-बाप होते, क्या तब भी यही करती?”
“आप अनाप-शनाप इल्ज़ाम लगा रही हैं…”
“फिर तुम स्वयं पी लो इसे… लो… पियो.” क्रोधित दादीजी ने ग्लास उनके होंठों से लगा दिया.
ताईजी ने पूरी ताक़त से ग्लास पर हाथ मारकर दूर फेंक दिया. ग्लास टन से सामने दीवार पर जा टकराया. पूरी रसोई में दूध बिखर गया.
इसी के साथ सास-बहू में वाक् युद्ध आरंभ हो गया. आठ-दस मिनट तक यह संग्राम चलता रहा. ताईजी पैर पटकती हुई अपने कमरे में गई और ज़ोर से दरवाज़ा बंदकर उसे कोप भवन में तब्दील कर दिया. वो बड़बड़ाए जा रही थी.
“मेरे ही घर में आकर मेरा अपमान कर रही हैं. समझती क्या हैं अपने आपको?”
उसने तमतमाते हुए ताऊजी को द़फ़्तर फ़ोन लगाया. थोड़ी ही देर बाद ताऊजी दुम हिलाते भागे-भागे आए. आते ही पहले ताईजी के कमरे में घुस गए. दोनों में आधे घंटे तक गु़फ़्तगू होती रही. फिर दोनों दादाजी-दादीजी के कमरे में आए. ताईजी अंदर नहीं गई, बाहर खड़ी रही. ताऊजी धीर-गंभीर मुद्रा में अंदर दाख़िल हुए.
दादीजी भरी हुई बैठी थीं. आख़िर इतने बड़े ऑफ़िसर की मां हैं, उसकी जन्मदात्री! उसे पालने-पोसने लायक बनानेवाली मां के अपमान को भला कौन बेटा सहन कर सकता है? पूर्ण आत्मविश्‍वास से दादीजी ने शिकायती लहजे में कहा, “बेटा सुगन? आज तेरी घरवाली ने…”
“मुझे सब मालूम है अम्मा.”
“अब तू ही बोल बेटा…”
“अम्मा?” ताऊजी का आदरयुक्त झल्लाया स्वर गूंजा, “अच्छा लगता है ये सब? इस तरह लड़ते हुए? आस-पास दूसरे ऑफ़िसरों के बंगले हैं. क्या सोचेंगे वे? कितनी जगहंसाई होगी मेरी? फैक्टरी के डायरेक्टरों को जब यह मालूम पड़ेगा तो मेरी पोज़ीशन…”
दादीजी फटी विस्फारित नज़रों से बेटे को देखती रह गईं. क्षण मात्र में वे समझ गईं कि बेटे को कितना कुछ मालूम है. अपनी जन्मदात्री मां को कितना पहचानता है? कोखजाया ही आज उन्हें ‘इ़ज़्ज़त… अदब… क़ायदे… ऊंच-नीच’ समझा रहा था.
उनकी आंखें भर आईं. एक शब्द भी न कहा. क्या फ़ायदा कहने से? कोई पराया हो, तो दोष भी दें, बहस करें. अपनी ही औलाद के सामने क्या सफ़ाई पेश करें?
उन्होंने किसी तरह आंसुओं को गिरने से रोका. ऐसे व़क़्त पति ने सहारा दिया. उनके ज़ख़्मों पर मलहम लगाना चाहा. बीच में दख़ल दे ताऊजी से कहा, “सोच रहा हूं बेटा, गांव छोड़े बहुत दिन हो गए हैं, अब हमें वापस भेज देते तो…”
ताऊजी ने चैन की सांस ली. वे ख़ुद भी तो यही चाह रहे थे. और अगले ही दिन दादाजी-दादीजी वापस लौट आए. पहली और आख़िरी मर्तबा गए थे ताऊजी के यहां. ऐसा मर्मांतक घाव लेकर लौटे थे कि दुबारा कभी इच्छा भी नहीं की वहां जाने की, मगर अब उन्हें वहां जाना पड़ रहा था. उसी अपमानभरे घुटनयुक्त माहौल में, हमेशा-हमेशा के लिए. कैसे रहेंगे वहां? जब तक बप्पा रहेंगे, एक या दो दिन… मानसिक सहारा रहेगा. उसके बाद? बप्पा के लौटने के बाद?
रेवती के आंसू ढुलक पड़े. कैसे सहन करेंगे दोनों ताईजी के उपेक्षापूर्ण बर्ताव को?
छोटे-से बच्चे हों, तो घर से कहीं भाग भी जाएं. इस उम्र में… जब दो क़दमों का नहीं सूझ पाता… बिन सहारे उठा नहीं जाता… कैसे काटेंगे ज़िंदगी?
रेवती को गले में कुछ चुभन-सी महसूस हुई. यद्यपि दादाजी-दादीजी के जाने के बाद यहां उन पर होनेवाले ख़र्च की बचत हो जाएगी, यानी बप्पा की आधी की आधी पगार बच जाएगी. बरसों के दबाए कई अरमान धीरे-धीरे पूरे होंगे. मगर दादाजी-दादीजी को वैसे उपेक्षाभरे माहौल में रख क्या वे सब यहां सुखी रह पाएंगे? उनसे सुख का एक कौर भी खाते बनेगा? रेवती का हृदय भर आया.
बाहर तांगेवाला भोंपू बजाकर गुहार लगा रहा था. दादाजी-दादीजी ने अंतिम बार तुषित नज़रों से घर की ओर निहारा. जहां सम्मानपूर्वक पूरी ज़िंदगी बिता दी, अब उसी दरो-आंगन को छोड़कर जाना पड़ रहा था! वाह रे बुढ़ापा!
एक-एक करके सब उनके चरण स्पर्श करने लगे. रेवती… रंजन… टिंकू… दादाजी-दादीजी निर्मल हृदय से उन सबको आशीर्वाद देते गए. सबके पीछे मां आईं, अपनी सूती पैबंद लगी साड़ी में.
मां को देखते ही दादीजी की रुलाई फूट पड़ी. बेटी सरीखी बहू, पिछले जन्म में पता नहीं कितने पुण्य कर्म किए होंगे, जो इतनी सेवामयी बहू मिली थी. शादी के बाद एक दिन भी बेचारी मनचाहा खा-पी या पहन न सकी? हे प्रभु! अब इसके दिन भी फेर दे, यह भी कुछ सुख-चैन से रह ले. आशीर्वाद देने के लिए दादीजी ने ज्यों ही हाथ बढ़ाया, मां ने लपककर उन्हें बांहों में भींच लिया, “नहीं अम्माजी, नहीं… मैं नहीं जाने दूं आपको उस नर्क में!”
सुनते ही तांगे में सामान जमा रहे बप्पा ने पलटकर देखा. मां दादीजी को बांहों में भर बेतहाशा चूमे जा रही थीं. बप्पा की आंखों में हठात् गंगा-जमुना बह चली. रेवती-रंजन-टिंकू की आंखों से भी बादल बरस रहे थे.
सामने मंदिर में पंडितजी सस्वर गा रहे थे, … आव नहीं, आदर नहीं, नैनन नहीं सनेह… तुलसी तहां न जाइए, कंचन बरसे मेह…

        प्रकाश माहेश्‍वरी

 

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