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कहानी- दो ख़त एक मत (Story- Do Khat EK Mat)

 

      अनिल माथुर

 

“इंसान एक ज़ोन से दूसरे ज़ोन में प्रवेश तो ख़ुशी-ख़ुशी करता है, पर पिछली यादों को भुला नहीं पाता, क्योंकि वह उसका कंफ़र्ट ज़ोन बन चुका होता है. कभी-कभी तो वह उन यादों में इतना खो जाता है कि नए वातावरण को आत्मसात् करने का प्रयास ही नहीं करता. फिर कभी वह तीसरे ज़ोन में प्रवेश करता है, तो छूट चुके दूसरे ज़ोन की यादें उसे सताने लगती हैं. तुम्हारे साथ भी यही हो रहा है.”

सना का ईमेल पढ़ने की उत्सुकता में मेरे हाथ जल्दी-जल्दी काम निबटा रहे थे. सना मेल तभी करती थी, जब उसे खुलकर अपने दिल का हाल बताना होता था और वे सब बातें जो फोन पर करना संभव नहीं होता था. लिखने या टाइप करने से भावनाओं का संप्रेषण एकतरफ़ा बना रहता है, जिससे विचार अभिव्यक्ति में लय बनी रहती है. दिल की हर एक धड़कन, मन का हर एक राग शब्दों में गूंथता सामने स्क्रीन पर उतरता चला जाता है और जब सामनेवाला उसे पढ़ने लगता है, तो बिना किसी व्यवधान के उतनी ही आत्मीयता से आत्मसात करता चला जाता है. इसीलिए सना के फोनकॉल्स से ज़्यादा मुझे उसके ईमेल्स की प्रतीक्षा रहती है. फिर अब तो उसका घर बस गया है. सास-ससुर, पति, ननद आदि के घर में होते फोन पर वैसे भी क्या बात हो सकती है? जतिन को ऑफिस रवाना करके मैंने बाई को भी जल्दी ही फ्री कर दिया और फिर फटाफट लैपटॉप खोलकर बैठ गई.
‘ममा, जानती हूं हमेशा की तरह मेरे इस मेल को भी आप बेसब्री से पढ़ रही होंगी. मन में ढेरों उत्सुकताएं होंगी कि आपकी लाड़ली का अपने नए संसार में मन रमा या नहीं? फोन पर मेरे बार-बार यह कहने के बावजूद भी कि मैं बहुत ख़ुश हूं, मानस सहित घर के सभी सदस्य मेरा बहुत ख़्याल रखते हैं, आपको तसल्ली नहीं हुई होगी. हो भी कैसे सकती है? आप मेरी जननी हैं, मेरी रग-रग से वाकिफ़! मैं क्या सोच रही हूं, क्या चाह रही हूं, आप सब पहले से ही अनुमान लगा लेती हैं. मेरी बातों में कितना सच है, कितना झूठ आपको सब पता होता है. लेकिन इस बार मैं वाक़ई थोड़ी उलझन में हूं. मानस सहित घर के सभी लोग वाक़ई बहुत अच्छे हैं. मैं अपने नए घर, नई ज़िंदगी में बहुत ख़ुश भी हूं, पर फिर भी न जाने क्यों ऐसा लगता है कि कहीं कुछ पीछे छूट गया है, कुछ खो जाने की एक कसक-सी दिल में उठती है.’
मेरी आंखें चमकने लगी थीं. मतलब मैंने सही पहचाना था. कुछ है जो सना को बेतरह खल रहा है, वह मिस कर रही है. क्या इस घर को? पर हमसे तो वह नौकरी के सिलसिले में पहले ही दूर जा चुकी है. मेरी उत्सुक नज़रें फिर से स्क्रीन पर उभरते शब्दों पर टिक गई थीं.
‘…हां ममा, बचपन से ही हर सामान्य लड़की की तरह मैं भी अपनी शादी को लेकर बहुत उत्सुकता महसूस करती थी. मेरी भी ज़िंदगी में कोई प्रिंस चार्मिंग एक दिन घोड़े पर सवार होकर आएगा और मुझे अपने साथ बैठाकर ले जाएगा. एक बहुत ही सुंदर दुनिया में जहां चारों ओर सुंदर-सुगंधित गुलाब होंगे और उनके बीच हम हंसते-खेलते एक सुंदर जीवन व्यतीत कर रहे होंगे. लेकिन आज शादी के 4 महीने गुज़र जाने के बाद मुझे ऐसा लग रहा है कि शादी के बाद की ज़िंदगी फूलों की सेज नहीं होती जैसा कि मैंने बचपन से सोचा था. इसके अलावा भी बहुत कुछ होता है.’
‘अधिकार होते हैं, तो साथ ही कर्त्तव्य भी जुड़े होते हैं. नए रिश्तों से ढेर सारा प्यार और उपहार हासिल होते हैं, तो उनके प्रति कई ज़िम्मेदारियां, समझौते और त्याग भी ज़िंदगी से स्वतः ही जुड़ जाते हैं. अब मैं जब चाहे तब बिस्तर में नहीं घुस सकती. और न ही बेफ़िक्री से सवेरे देर तक सो सकती हूं. हालांकि किसी ने मुझसे इस संदर्भ में कुछ नहीं कहा है, पर मैंने आपको बताया न कि ख़ुद मुझमें ही यह ज़िम्मेदारी का भाव आ रहा है कि मुझे घर में सबसे पहले उठना चाहिए, सबसे पहले नहा-धोकर तैयार हो जाना चाहिए. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जहां शादी के पहले देर तक अलार्म बजने पर भी मैं हिलती तक नहीं थी, अब अलार्म बजने से पहले ही उठ जाती हूं, बल्कि कई बार तो रात में उठकर चेक भी करती हूं कि मोबाइल में अलार्म लगा हुआ तो है न? मोबाइल स्विच ऑफ तो नहीं हो गया?’
‘अब मैं पहले की तरह हर कहीं अपने पायजामे या केप्री में बैठ भी नहीं सकती. मुझे लगता है कि मुझे हर वक़्त प्रेज़ेंटेबल रहना ज़रूरी है. अभी कुछ दिन पहले जब मानस टूर पर थे, मैं ऑफिस से देरी से घर पहुंची तो खाना खाकर, एसी फुल कर, केप्री और स्लीवलेस टी-शर्ट डालकर सो गई यह सोचकर कि अब तो सुबह ही उठना है. गहरी नींद में थी कि मम्मीजी ने आकर हल्के से हिलाया, “बेटी, ज़रा चेंज करके लॉबी में आ जाओगी? भरतपुर वाले ताऊजी-ताईजी आए हैं. वे लोग शादी में नहीं आ पाए थे. नई बहू से मिलना चाहते हैं.”
“जी, आती हूं.” मैंने उबासी लेते, अधखुली आंखों से देखा मम्मीजी हैरत से मेरी वेशभूषा निहार रही थीं. मैंने तुरंत चादर खींच ली, तो वे अचकचाती कमरे से बाहर निकल गईं. अगले ही दिन मैंने अपने सारे पायजामे, केप्री, शॉर्ट्स तहकर आलमारी के एक कोने में पटक दिए. मुझसे कहा तो नहीं जाता, पर शायद उम्मीद की जाती है कि मैं हर वक़्त तहज़ीब और तमीज़ से रहूं, घर के लोगों की आवश्यकताओं और
उम्मीदों का ख़्याल रखूं. मैं सोच भी नहीं सकती कि कोई मुझे राजकुमारी की तरह ट्रीट करेगा, बल्कि मुझे ही सबकी इच्छाओं और भावनाओं का ख़्याल रखना है. और तब मुझे ख़ुद पर ग़ुस्सा आता है कि मैंने आख़िर शादी की ही क्यों? जब पहले की और अब की ज़िंदगी में तुलना करती हूं, तो बहुत हैरानी होती है. पहले मेरे पास स़िर्फ आप द्वारा दी गई पॉकेटमनी होती थी, पर मैं ख़ुश थी. अब मेरी सैलरी के साथ मेरे पास ख़र्च करने के लिए मानस की भी पूरी सैलरी है, फिर भी मैं पहले की तरह बेफ़िक्री से शॉपिंग नहीं कर पाती? पहले मेरे मोबाइल में लिमिटेड प्रीपेड कार्ड था, अब पोस्टपेड पैकेज है, लेकिन मेरे कॉल्स और मैसेजेस करने की संख्या आश्‍चर्यजनक रूप से घट क्यों गई है? पहले मैं घंटों पुराने-से डेस्कटॉप पर बैठी रहती थी. अब मेरे पास नया लैपटॉप है, पर उस पर ज़्यादा वक़्त गुज़ारने को दिल क्यों नहीं करता? पहले मेरे ढेर सारे फ्रेंड्स थे. अब सास, ननद, देवर आदि भी दोस्त बन गए हैं, पर फिर भी मैं ख़ुद को इतना अकेला क्यों पाती हूं? घर से बाहर तो मैं पहले भी रहती थी… स्कूल जाती थी, कॉलेज जाती थी, पर आपको और पापा को पहले कभी इतना मिस नहीं किया, जितना अब करती हूं…’
मेरी आंखें भीगने लगी थीं. जिस सच्चाई से ख़ुश होना चाहिए था, वह रुलाने लगी थी. अक्षर धुंधले पड़ने लगे, तो मैंने अपनी आंखें पोंछी और आगे पढ़ने लगी.
‘जानती हूं, यह सब पढ़कर आप रो रही होंगी, पर मैं भी क्या करूं? जब फोन पर कहती हूं ख़ुश हूं, सब ठीक है, तो आपको तसल्ली नहीं होती. न मैं फोन पर झूठ बोल रही होती हूं और न अब झूठ लिख रही हूं. दोनों के पीछे एकमात्र सच यही है कि मैं अपनी शादी से पहले के बेफ़िक्री के दिन भुला नहीं पा रही हूं. तब दिनभर दोस्तों के साथ मस्ती करके लौटती, पर फिर भी आपसे सबके लिए चाउमीन या पावभाजी बनाने की फ़रमाइश बड़े अधिकारभाव से कर डालती. यहां तो कभी एक-दो सहेलियां आकर बैठ जाती हैं और मम्मीजी बिना कहे उनके लिए चाय भी बनाकर ले आती हैं, तो मैं संकोच से गड़ जाती हूं. मैं आपके साथ ज़्यादा ख़ुश थी ममा. क्या ज़रूरत थी मुझे शादी करने की? पहलेवाली ज़िंदगी कितनी अच्छी थी. न कोई चिंता, न कोई ज़िम्मेदारी, अभी भी मन कर रहा है भागकर आपके पास आ जाऊं, आपकी गोद में छुप जाऊं और आप पहले की तरह मेरे बालों में उंगलियां फिराती मुझे दुलारती रहें, मेरी पसंद की डिशेज़ पूछती रहें, बनाती रहें… अच्छा, अब बंद करती हूं. मानस नींद में कुनमुना रहे हैं. मैं भी भूल ही जाती हूं कि यह मेरे अकेले का बेडरूम नहीं है. मुझे औरों की सहूलियत का भी ख़्याल रखना है. ओके गुडनाइट!’
पत्र समाप्त हो चुका था, लेकिन मेरी आंखों से गंगा-जमुना का प्रवाह अभी भी जारी था. दुनिया के दस्तूर भी कितने अजीब हैं. बेटियां तो घर की रौनक़ होती हैं. उनकी चहकती आवाज़ मधुर संगीत की तरह घर को गुंजायमान बनाए रखती है. पर एक न एक दिन उन्हें घर छोड़कर जाना ही होता है. जब सना नॉनस्टॉप बोलती थी, तो मैं टोकती थी, “अब चुप भी हो जाओ.” जब वह ख़ामोश रहती थी, तो मैं पूछे बिना नहीं रह पाती थी, “तेरी तबीयत तो ठीक है न?” उसके पापा घर में घुसते ही बोल उठते थे, “आज इतनी ख़ामोशी क्यों है? सना बाहर गई है क्या?” मनु पूछने लग जाता था, “दीदी नाराज़ हो क्या?” और अब जब वह शादी करके चली गई है, तो बाहर से आनेवाला हर आदमी घर में घुसते ही पहली बात यही कहता है, “ऐसा लगता है इस घर की रौनक़ ही चली गई है.” जब हंसते हुए मैं सना को फोन पर यह सब बताती हूं, तो वह इठलाकर बोलती है, “अब पता चला आपको कि घर की सारी रौनक़ मुझसे ही थी. मैं ही तो थी घर का रियल
नॉनस्टॉप म्यूज़िक.”
हां सना हां, मैं मान गई. मैं मान गई तू मेरी प्रिंसेस थी, अपने डैड की नन्हीं-सी एंजल थी, अपने भाई की आइडियल थी. पर तुझे भी मानना होगा कि अब तू अपने पति की डार्लिंग है, अपने ससुराल की शोभा है. तुझे इस बात का एहसास करवाना मेरी ज़िम्मेदारी है. मैंने एक झटके से ही अपने आंसू पोंछ डाले. लैपटॉप के कीबोर्ड पर मेरी उंगलियां थिरकने लगी थीं.
प्यारी बेटी सना,
‘तुम्हारा प्यारा-सा ख़त पढ़कर बहुत तसल्ली मिली. अपने दिल की हर बात इसी तरह खोलकर रखती रहना. ऐसा लग रहा था, तुम मेरे सामने ही बैठी हो. कई बार पास बैठा, साथ रह रहा इंसान भी इतनी आत्मीयता का एहसास नहीं करा पाता, जितना दूर बैठा इंसान अपनी संवेदनाओं से करवा जाता है, क्योंकि भौतिक उपस्थिति से ज़्यादा आवश्यक है, भावनाओं का संप्रेषण. तुम्हारा भावनाओं में बहकर लिखा एक-एक शब्द मैंने दिल से आत्मसात् कर, बहुत सावधानी से सहेजकर दिल के कोने में रख लिया है. इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम्हारा लिखा एक-एक शब्द सच है, पर एक सच्चाई तुम भूल रही हो. इंसान एक ज़ोन से दूसरे ज़ोन में प्रवेश तो ख़ुशी-ख़शी करता है, पर पिछली यादों को भुला नहीं पाता. क्योंकि वह उसका कंफ़र्ट ज़ोन बन चुका होता है. कभी-कभी तो वह उन यादों में इतना खो जाता है कि नए वातावरण को आत्मसात् करने का प्रयास ही नहीं करता. फिर कभी वह तीसरे ज़ोन में प्रवेश करता है, तो छूट चुके दूसरे ज़ोन की यादें उसे सताने लगती हैं. तुम्हारे साथ भी यही हो रहा है. तुम जब घर छोड़कर बाहर नौकरी करने जा रही थी, तब कितनी ख़ुश थी कि अब आज़ाद परिंदे की तरह खुले आसमां में उन्मुक्त उड़ान भरूंगी. पर महीनेभर बाद ही तुमने सोशल नेटवर्किंग साइट पर कमेंट पोस्ट कर दिया कि ‘दुनिया में अपने घर से बढ़कर दूसरी कोई जगह नहीं है और यह एहसास मुझे तब हुआ है, जब मैंने पहली बार घर से बाहर क़दम रखा है.’
‘तुम्हें सुबह जल्दी उठकर दूध-नाश्ता बनाकर खाना अखरने लगा था. देर रात ऑफिस से लौटकर टिफिन का ठंडा खाना गरम करके खाना दुखी करने लगा था. ऑफिस में देर तक डेस्कटॉप पर बैठना, सीनियर्स से निर्देश लेना चुभने लगा था. छुट्टी के दिन कपड़े धोना, कमरा साफ़ करना खलने लगा था. फिर धीरे-धीरे तुम इन सबकी अभ्यस्त होती चली गई. साथी लड़कियों के साथ आउटिंग और शॉपिंग पर जाना तुम्हें सुहाने लगा. अपनी कमाई से नए कपड़े-जूते ख़रीदना तुम्हें गर्व की अनुभूति कराने लगे. ऑफिस में संगी-साथियों का साथ, ऑफिस की गॉसिप, पार्टीज़ तुम्हें भाने लगी. लेटनाइट चलनेवाली डिस्को, पायजामा पार्टीज़ तुम्हें मस्त करने लगीं. न कोई देरी से लौटने या सोने पर टोकनेवाला था और न ही कोई जल्दी उठानेवाला. कभी भी कुछ भी पहने बिस्तर में घुस जाओ. मनचाहा ऑर्डर करो या पकाओ और खाओ. जो पसंद हो, वही चैनल चलाकर बैठ जाओ. कुछ भी साझा नहीं करना होता था, न खाना, न सोना, न मनोरंजन.
पर फिर अचानक शादी तय हो गई. तुम्हें एक नए वातावरण में ख़ुद को ढालना पड़ रहा है. और एक बार फिर तुम्हारी कसमसाहट शुरू हो गई है. पर क्या तुमने कभी सोचा है, जिस घर की मधुर स्मृतियां तुम्हें इतना लुभाती हैं, उस घर को ऐसा किसने बनाया? उसकी गृहलक्ष्मी के त्याग, समझौते और कर्त्तव्यवहन ने. जब एक अल्हड़-सी किशोरी यानी मैं एक भरे-पूरे संयुक्त परिवार का अंग बनी, तो शुरू में मैं भी ऐसे ही छटपटाती थी, ख़ुद को बेड़ियों में जकड़ा-सा महसूस करती थी. पर धीरे-धीरे घरवालों का ख़ुद पर प्यार, विश्वास व अपनापन देख मैं झुकने लगी. उन सबसे लगाव महसूस करने लगी. घर के काम मुझे बोझ नहीं अपनी ज़िम्मेदारियां और कर्त्तव्य
लगने लगे.
सासूमां तो मुझ पर आंख मूंदकर भरोसा करने लगी थीं और धीरे-धीरे पूरी गृहस्थी ही मुझे सौंप ख़ुद को पूजा-पाठ में व्यस्त कर लिया. मैं देवर-ननद का छोटे भाई-बहन की तरह ख़्याल रखने लगी. तुम्हें और फिर मनु को जन्म देने का साहस जुटाया. इस सबका सुपरिणाम भी जल्दी ही देखने को मिला. घर के हर छोटे-बड़े निर्णय में मेरी राय महत्वपूर्ण समझी जाने लगी. बाहर नौकरी के लिए गए देवर-ननद घर आने से पूर्व जानकारी लेने लगे कि उन दिनों भाभी घर पर मिलेंगी, तो ही आएं. दोनों ने अपने जीवनसंगी तय करने में भी मेरी राय ली. आज भी घर के हर छोटे-बड़े ख़ुशी या ग़म के अवसर पर हमारी उपस्थिति अनिवार्य होती है. हम भी अपना कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारी समझकर एक फोन पर दौड़े चले जाते हैं. आज वही महती ज़िम्मेदारी तुम्हें निभानी है. जितना उस घर को, घरवालों को अपनाओगी, उससे कहीं ज़्यादा वे तुमसे जुड़ते चले जाएंगे.’
मेल भेजने के कुछ ही देर बाद सना का फोन आ गया था. “थैंक यू ममा! मैं समझ गई हूं वही प्यार, वही कंफ़र्ट, वही ख़ुशी और वही आत्मीयता मुझे अपने इस नए परिवार से भी मिल सकती है. बस, ज़रूरत है आप ही की तरह मुझे भी कुछ समझौते व त्याग करने की. मुझे उम्मीद है, कुछ समय बाद मैं अपने इस नए परिवार को भी उतना ही प्यार करने लगूंगी, जितना अपने पुराने परिवार को करती हूं. बस, आप हमेशा इसी तरह मेरी ताक़त और मार्गदर्शिका बने रहना.”
पहली बार सना का फोन मुझे मेल से ज़्यादा तसल्ली दे गया था.

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कहानी- दो ख़त एक मत (Short Story- Do Khat EK Mat)
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"इंसान एक ज़ोन से दूसरे ज़ोन में प्रवेश तो ख़ुशी-ख़ुशी करता है, पर पिछली यादों को भुला नहीं पाता, क्योंकि वह उसका कंफ़र्ट ज़ोन बन चुका होता है. कभी-कभी तो वह उन यादों में इतना खो जाता है कि नए वातावरण को आत्मसात् करने का प्रयास ही नहीं करता.
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