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कहानी- एक बार फिर… (Story- Ek Baar Phir…)

                गीता शर्मा

 

रिश्तों को सहेजने का कोई भी मौक़ा हाथ से नहीं जाने देना चाहिए. रिश्तों में ‘देर’ जैसा शब्द न गिरनेवाली दीवार जैसा होता है… देर हो गई यह सोचकर और देर कभी नहीं करनी चाहिए. पहल के लिए कोई मुहूर्त नहीं निकाला जाता…
प्रिया, फिर से आ जाओ मेरी ज़िंदगी में, हमेशा के लिए…

ख़ुद को आज वहीं छोड़ आई मैं, जहां तुम्हारे वजूद की हल्की-सी ख़ुशबू आई मुझे… आज ज़िंदगी को थोड़ा कम जिया, क्योंकि तुम्हारी याद कुछ कम आई, धूप भी कुछ कम खिली, चांद का नूर भी कम बिखरा… सोचा कल थोड़ा-सा ज़्यादा जीने की कोशिश करूंगी.
कल बहुत दिनों के बाद दराज़ में से एक सपना निकाला… तुम्हारी धुंधली यादों से लिपटा था… आंखों के नमकीन पानी से धो-मांजकर कुछ चमकाया उसे और सजा लिया फिर मेज़ पर… एक तेज़ हवा के झोंके ने जैसे ही झरोखे से झांका, झट से टूटकर बिखर गया… टुकड़ों को समेटकर फिर से दराज़ में रख रही हूं शायद फिर कभी न खोलने के लिए. क्यों होता है ऐसा बार-बार… तुम ना होकर भी मेरे साथ होते हो और मैं चाहकर भी तुम्हें अपनी ज़िंदगी से निकाल नहीं पाती.
क्या अब भी तुमसे प्यार करती हूं मैं? मेरी छोड़ो, तुम्हारा क्या? तुम कहां याद करते होगे मुझे. अब तक तो तुम मुझे भूल भी गए होगे. अपनी नई दुनिया भी बसा ली हो शायद.
ख़ैर, मुझे क्या लेना-देना. पर जब लेना-देना नहीं, तो मन में इतनी बेचैनी क्यों रहती है. अक्सर क्यों मन करता है कि किसी अंजान नंबर से फोन करके तुम्हारी आवाज़ सुनूं…? कोई मैसेज भेजकर तुम्हारे जवाब का इंतज़ार करूं…? मन भी कितना बेईमान होता है. चोरी करना चाहता है.
वैसे चोरी का भी अपना मज़ा होता है. चोरी-चोरी तुमसे मिलने आना अच्छा लगता था. फिर चोरी से चुपचाप खिड़की के रास्ते अपने रूम में जाकर सोने की एक्टिंग करना भी अच्छा लगता था. जब चोरी पकड़ी गई, तो सबसे लड़े थे हम दोनों अपने प्यार की ख़ातिर. वो लड़ाई तो हम जीत गए, पर ज़िंदगी की लड़ाई हार गए, रिश्ते की लड़ाई हार गए… प्रेमी से पति बनकर कुछ तुम बदले और प्रेमिका से पत्नी बनकर कुछ मैं भी बदल गई थी शायद… पत्नी से ज़्यादा इंस्ट्रक्टर या ट्रेनर जैसा व्यवहार करने लगी थी और तुम भी तो कहां छोड़ पाए थे अपना मेल ईगो.
ईगो वैसे हम दोनों में ही था, पर मुझमें कुछ ज़्यादा. तुम फिर भी समझदार थे… शायद अब समझ पा रही हूं कि जिसे मैं अपने आत्मसम्मान व अस्तित्व की रक्षा समझती थी, वो दरअसल मेरा ईगो था. नहीं समझ सकी थी कि रिश्तों में एडजस्टमेंट्स ज़रूरी होते हैं, एक-दूसरे का सम्मान और कभी-कभी एक-दूसरे के ईगो को संतुष्ट करना भी ज़रूरी हो जाता है. पर मुझ पर तो बराबरी का सो कॉल्ड भूत सवार रहता था हरदम. अपने घर में भेदभाव की पीड़ा इस क़दर झेली थी कि मन में यह धारणा ही बना ली थी कि जब मैं आत्मनिर्भर हो जाऊंगी, तो कभी किसी पुरुष के सामने झुकूंगी नहीं. यह सोच कब मेरी आदत और फिर कब मेरे स्वभाव के रूप में परिवर्तित हो गई, पता ही नहीं चला.
यही वजह थी कि जब तुमसे प्यार हुआ, तो ठान लिया था कि घरवालों के तमाम विरोध के बाद भी झुकूंगी नहीं. मुझे अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीने का पूरा हक़ है.
ज़िंदगी के अनुभवों ने और तुम्हारी कमी ने अब सिखा दिया है कि रिश्तों को निभाने के लिए समझौते भी ज़रूरी हैं. अब जब तुम जा चुके हो, तो भीगी रेत पर तुम्हारा नाम लिखती हूं, कभी बारिश की बूंदों में तुम्हें ढूंढ़ती रहती हूं… कभी सर्द हवा में तुम्हारी सांसों की तपिश खोजती हूं, तो कभी तेज़ धूप में तुम्हारी बांहों की ठंडक तलाशती हूं… पर तुम तो जा चुके हो. मेरी ज़िंदगी से दूर… मुझसे दूर… बल्कि मैंने ही तुम्हें ख़ुद से दूर कर दिया… पर अब सोचती हूं कि क्यों वो छोटे-छोटे झगड़े हमारे प्यार, हमारे रिश्ते से इतने बड़े थे…? अब तो हंस पड़ती हूं उनको याद करके… “ये क्या है ललित, तुम्हें इतनी भी समझ नहीं है कि आलमारी में अपने कपड़े सलीके से रखो.” मैंने ग़ुस्से में तमतमाते हुए कहा था.

“ओहो प्रिया, इतना ग़ुस्सा क्यों होती हो? तुम जो हो, मुझे सलीका भी सिखा देना और ढंग से रहना भी.” तुमने रोमांटिक होते हुए कहा था.
“मैं तुम्हारी बीवी हूं, मां या आया नहीं, जो छोटे बच्चे की तरह तुम्हारा ख़्याल रखूंगी. सारा दिन ऑफिस में काम करूं और यहां आकर तुम्हारे नखरे झेलूं, यह मुझसे एक्सपेक्ट मत करना.”
जब पहली बार मैंने तुमसे इस अंदाज़ में बात की थी, तो तुम तो जैसे सकपका ही गए थे. तुमने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि मैं इस तरह रिएक्ट करूंगी.
आज तुम्हारी उन्हीं चीज़ों को छूकर तुम्हारी मौजूदगी का एहसास करने की कोशिश करती हूं और तुम्हारे बारे में न सोचने का रोज़ ख़ुद से वादा भी करती हूं, जो रोज़ ही तोड़ देती हूं. पर आज तो तुम्हारे बारे में सोचने की एक वजह है मेरे पास, क्योंकि कल से रोज़ तुमसे सामना जो होगा.
“प्रिया, तुम्हें एक ख़बर देनी थी, हमारी कंपनी के नए सीईओ कल से जॉइन कर रहे हैं हमें.” मेरे दोस्त व कलीग मुकेश ने मुझे बताया था.
“हां मुकेश, मुझे पता है. और यह भी पता है कि वो और कोई नहीं, ललित ही हैं.” इतना कहकर मैं वहां से हट गई. पर जिस दिन से मुझे यह पता चला है, हर पल बस तुम्हारे बारे में ही सोच रही हूं. ज़िंदगी के इन चंद सालों ने मुझे कई सबक दिए हैं. मुझे अपनी ग़लती का भी एहसास है, लेकिन तुम्हें तो यह नहीं पता, हो सकता है तुम्हारी ज़िंदगी में कोई और आ गई हो… या तुमने शादी भी कर ली हो… अचानक यह डर मुझ पर हावी हो गया और मैं पसीने से लथपथ थी… क्यों डर रही हूं मैं…? तुमसे अलग होने का ़फैसला भी तो मेरा ही था. मुझे कोई एडजस्टमेंट नहीं करना था, मुझे झुकना नहीं था और तो और, मुझे तो शायद प्यार भी नहीं करना था तुमसे… बस, बराबरी की लड़ाई लड़नी थी…
“प्रिया, अब मैं चाहता हूं कि हम दो से तीन हो जाएं. तुम्हारी ही तरह प्यारी-सी गुड़िया मुझे पापा कहकर बुलाए.” तुमने हमारी पहली एनिवर्सरी पर अपने दिल की बात कही थी.
“तुम पागल हो गए ललित, अभी स़िर्फ एक साल हुआ है हमारी शादी को. मुझे अपना करियर बनाना है. मैं अभी से इस झंझट में नहीं पड़ना चाहती.”
“पर प्रिया, मैं चाहता हूं, आख़िर मेरी भी तो ख़्वाहिश है कुछ.”
“तुम पुरुषों की यही तो प्रॉब्लम होती है, तुम्हें हम लड़कियां बच्चा पैदा करनेवाली मशीन या तुम्हारी ख़्वाहिशें पूरी करनेवाली कोई चीज़ लगती हैं.”
“प्रिया, तुम बात को ग़लत दिशा दे रही हो. यहां बात स्त्री-पुरुष की है ही नहीं. मैं तुमसे प्यार करता हूं. पति हूं तुम्हारा, मेरा कुछ तो हक़ बनता है तुम पर. लेकिन तुम हो कि अपने कॉम्प्लैक्स से बाहर ही नहीं आतीं.” इतना कहकर तुम चले गए थे और रातभर घर नहीं लौटे थे.
अगली एनिवर्सरी आते-आते मैंने भी यह सोच लिया था कि अब फैमिली बढ़ाने का सही समय है, सो तुम्हारी नाराज़गी भी दूर हो गई कुछ. फिर रानी का जन्म हुआ. फूल-सी नाज़ुक थी वो… गुलाबी होंठ, मखमल जैसी कोमल… इतना प्यार उमड़ा था उसे पहली बार अपनी बांहों में लेकर. धीरे-धीरे वो बड़ी होने लगी…
उस दिन तुम्हारे दोस्त घर आए थे और 3 साल की रानी से लाड़-प्यार जता रहे थे.
“प्रिया, ये क्या तरीक़ा है. तुम सबके सामने से रानी को ज़बर्दस्ती ले गईं. सबको कितना बुरा लगा. तुम्हारी प्रॉब्लम क्या है?”
“ललित, तुम मर्दों की फ़ितरत को अच्छी तरह समझती हूं मैं. बचपन से देखती और सहती आई हूं. छोटी-छोटी बच्चियों को लाड़-प्यार के बहाने एब्यूज़ करते हो.”
“प्रिया, तुम मेंटली सिक हो. तुम्हारे साथ बचपन में अगर तुम्हारे अंकल ने ग़लत करने की कोशिश की, तो क्या स़िर्फ इस वजह से
तुम दुनिया के सारे मर्दों पर शक करोगी?” तुमने ग़ुस्से से कहा.
“जहां तक रानी की बात है, तो मैं कोई रिस्क नहीं ले सकती और ज़रूरत पड़ी, तो तुमसे भी दूर रखूंगी उसे. मैंने जो भुगता. मेरी बेटी नहीं भुगतेगी.” मैंने भी उतने ही ग़ुस्से में जवाब दिया.
तुमने उस दिन पहली और आख़िरी बार मुझ पर हाथ उठाया था. उसके बाद न तुम कभी आए दोबारा, न कभी मैंने ही तुम्हें पुकारा… रानी बहुत मिस करती है तुम्हें. एक व़क्त था, जब सोचती थी कि रानी को अपने जैसा बनाऊंगी और अब चाहती हूं कि वो मेरी तरह बिल्कुल भी न बने. वो तुम्हारी तरह बने. सुलझी हुई, खुले दिलो-दिमाग़वाली, हंसमुख. विश्‍वास करना सीखे, ज़िंदगी को सामान्य इंसान की तरह जीना सीखे. मेरी तरह स्त्री-पुरुष के कॉम्प्लेक्स में न फंसे.
“ममा, क्या सोच रही हो? आप कुछ बात करना चाहती थीं न मुझसे?” रानी की आवाज़ से मैं वर्तमान में लौटी.
“रानी, तुम हमेशा पूछती थी न कि पापा कहां हैं, कब आएंगे? कल तुम्हारे पापा आ रहे हैं. पर बेटा, वो दूसरे घर में रहेंगे, इसलिए अपने घर बाद में आएंगे.”
“ममा, अब पापा हमेशा यहीं रहेंगे ना? मैं उनको जाने नहीं दूंगी. ममा क्या आपका मन नहीं होता उन्हें देखने का, उनसे बात करने का…?” रानी महज़ 6 साल की ही थी, पर इतनी कम उम्र में भी पारिवारिक अनुभवों ने उम्र से पहले ही कुछ परिपक्व बना दिया था उसे. मेरी तन्हाई, अपना ख़ुद का सूनापन सब समझती थी वो.
“रानी चलो अब बहुत रात हो गई, सो जाओ. कल बात करेंगे.” रानी के सवाल टाल दिए मैंने, पर ख़ुद से कैसे झूठ बोलती मैं भला. मन तो हमेशा बहकाता ही रहता है इंसान को. अपने मन के चोर को ख़ुद से ही कैसे छिपाती. कल जब तुम मेरे सामने होगे, तो कैसे रिएक्ट करूंगी? सारी रात बस सोचते-सोचते बीत गई.
सुबह 9 बजे ही ऑफिस पहुंच गई थी मैं. नए सीईओ का स्वागत जो करना था. तुम्हें मैं फ़िज़ाओं में महसूस कर रही थी. तुम्हारी आहट, तुम्हारी ख़ुशबू… तुम्हारा वजूद… नज़रें उठाईं, तुम सामने खड़े थे, बेहद शांत. तुम्हारे व्यक्तित्व में ठहराव तो पहले से ही था, व़क्त और अनुभव के साथ आई इस परिपक्वता ने तुम्हें और भी आकर्षक बना दिया था. सबने अपना परिचय दिया, फिर तुम्हारी स्पीच हुई. पर मैं न कुछ सुन पाई, न देख पाई… अलग ही दुनिया में खोई हुई थी.
“मिसेज़ खन्ना, प्लीज़ मेरी केबिन में आएं.” तुम्हारे मुंह से मिसेज़ खन्ना जैसे ही सुना, तो होश आया.
“सर, आपने बुलाया.” मैं तुम्हारे सामने नज़रें झुकाए खड़ी थी.
“प्रिया, कैसी हो तुम? कुछ अजीब लग रहा है न यूं बरसों बाद मिलना… और रानी कैसी है?”
“मैं कैसी हूं, पता नहीं. रानी बहुत ख़ुश है तुम्हारे आने की ख़बर से.” मैं क्या कहूं तुमसे कि तुम्हारे बिना अपना वजूद अब तक नहीं तलाश पाई, जिस वजूद की ख़ातिर तुमसे अलग हुई, उसका एक बड़ा हिस्सा तो तुम्हारे साथ ही चला गया था. अब बस चंद कतरनें और एकाध टुकड़े बचे होंगे… तुम गए तो मेरी दुनिया, मेरा व़क्त और मैं वहीं थम गए.
“क्या सोच रही हो प्रिया? शेरनी की तरह दहाड़नेवाली मेरी प्रिया इतनी गंभीर और शांत? बदली-बदली-सी लग रही हो.” क्या कहा ललित ने…‘मेरी प्रिया’ … क्या अब भी तुम मुझे अपना समझते हो…? इतने साल अलग रहने के बाद भी मैं तुम्हारी ज़िंदगी में हूं कहीं?…
“प्रिया, क्या हुआ? कुछ बोलोगी नहीं?” तुम्हारी आवाज़ से मैं लौटी.
“मैं बदल भी गई हूं और बिखर भी गई हूं ललित. जिस झूठे दंभ में मैं जी रही थी, उसने मुझसे सब कुछ छीन लिया… काश, ये समझ मुझे पहले आ गई होती, तो आज…”
“प्रिया, संभालो ख़ुद को. सबको क्या लगेगा कि नए सीईओ ने आते ही तुम्हें रुला दिया. चलो, लंच में बाहर चलते हैं.”
ललित ने ड्राइवर को रानी के स्कूल भेजकर रानी को भी लंच पर बुला लिया था. एक बजते ही हम लंच के लिए निकले. रानी तो अपने पापा को देखते ही मचल उठी.
“पापा, अब आपको कभी जाने नहीं दूंगी. आप यहीं रहो, हमारे साथ.”
“बेटा, आपकी मम्मी मुझे अपने घर में रहने देंगी तब न.” सब हंस पड़े.
“शाम को डिनर आप घर पर ही करोगे. मैं आज आपके पास ही सोऊंगी. ममा, बोलो न पापा को.”
“हां ललित, आ जाओ शाम को, अगर कोई और प्रोग्राम न हो, तो…”
शाम को रानी अपने हाथों से पापा के लिए ग्रीटिंग कार्ड, ड्रॉइंग और न जाने क्या-क्या बनाने में जुटी थी और मैं अपने बिखरे अस्तित्व को कुछ समेटने की कोशिश में ही थी. क्या पहनूं… ये नीली साड़ी, तुम्हें बेहद पसंद है ये रंग… और खाने में कोफ़्ते, जो तुम्हारे फेवरेट हैं.
“प्रिया, तुम आज ये ब्लू वाली साड़ी पहनो. मुझे अच्छा लगता है ये कलर.” तुमने एक बार कहा था मुझे.
“ललित, पर मुझे तो ये कलर ज़्यादा पसंद नहीं है. मैं वही पहनूंगी, जो मुझे पसंद होगा.” कितनी आसानी से तुम्हारा दिल दुखा दिया था मैंने एक छोटी-सी बात पर भी. और आज हर चीज़ तुम्हारी ही पसंद की करने का दिल करता है…
डोरबेल बजी, तो रानी ने लपककर दरवाज़ा खोल दिया. तुम आते ही घर को निहारने लगे. रानी तुम्हारे दिए हुए गिफ्ट्स में खो गई.
“प्रिया, अच्छी लग रही हो इस नीली साड़ी में.”
“तुम्हें पसंद है न ये रंग…” मुंह से अचानक निकल गया, तो मैं झेंप गई.
“प्रिया, मैं बिना किसी लाग-लपेट के तुमसे कुछ पूछना चाहता हूं… ईमानदारी से जवाब देना…”
“पूछो ललित.”
“मुझे मिस करती हो? क्या कभी दिल नहीं किया मुझे फोन करने का… मुझसे मिलने का…?”
“क्या जवाब देने की ज़रूरत है? रही बात तुमसे मिलने की, तो तुम तो यह शहर ही छोड़ चुके थे. मुकेश से तुम्हारे बारे में पता चलता रहता था. पर पहले तो मेरे ईगो ने तुम तक पहुंचने से रोका और जब लगा कि तमाम झूठे आवरणों से ख़ुद को मुक्त करके तुम्हारे पास चली आऊं, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. इतना व़क्त बीत चुका था कि माफ़ी जैसा शब्द बहुत छोटा था अपनी ग़लतियों के सामने… और मुझमें हिम्मत भी नहीं थी तुम्हारा सामना करने की… पर तुम भी तो पहल कर सकते थे न…?”
“कर तो सकता था, पर मैं बेहद आहत था, दुखी था, बस ख़ुद को काम में झोंक दिया सब कुछ भुलाने के लिए. पर नहीं भुला पाया… जितना ज़्यादा तुम्हारी यादों से भागने की कोशिश की, रानी की भोली मुस्कान उतना ही मुझे उसके क़रीब लाती गई. पर मैं किस तरह पहल करता, तुमने लौटने के सारे रास्ते बंद जो कर रखे थे.”
“तो क्या अब नहीं लौट सकते? या बहुत देर हो चुकी है? तुम्हारी ज़िंदगी में अगर कोई और…”
“प्रिया, क्या तुम मेरे सिवा किसी और की हो पाई इस दौरान? तो भला मैं कैसे अपनी नई दुनिया बसाता… रिश्तों को सहेजने का कोई भी मौक़ा हाथ से नहीं जाने देना चाहिए. रिश्तों में ‘देर’ जैसा शब्द न गिरनेवाली दीवार जैसा होता है… देर हो गई यह सोचकर और देर कभी नहीं करनी चाहिए. पहल के लिए कोई मुहूर्त नहीं निकाला जाता… प्रिया, फिर से आ जाओ मेरी ज़िंदगी में, हमेशा के लिए… चलो, एक और मौक़ा दें अपने रिश्ते को, न स़िर्फ रानी की ख़ातिर, बल्कि ख़ुद अपने प्यार की ख़ातिर. बोलो, फिर से शादी करोगी मुझसे?”
मैं तुम्हारी बांहों में थी और ग़म का दरिया बह चुका था आंखों से… अब ख़ुशी के आंसू थे, जिन्हें छलकता देख रानी मुस्कुरा रही थी. सच कहा तुमने ललित, रिश्तों में देर जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं, न होनी चाहिए.

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