कहानी- अंतिम विदाई 2 (Story Series- Antim Vidai 2)

नागपुर आकर मैंने निश्‍चय किया कि मैं मंदिरा को पूरी तरह से दिल से निकाल दूंगा. मेरा बीता कल अब मुझसे कोसों दूर था. ज़िंदगी कोई टीवी सीरियल नहीं कि पुराने आशिक़ ज़िंदगी के किसी मोड़ पर हमारा इंतज़ार करते खड़े फिर मिल जाएं. आगे बढ़ते रहना ही जीवन की सच्चाई है. पर इन सब नेक इरादों के बावजूद और मन के अनेक निश्‍चयों के बावजूद मैं मंदिरा को ज़ेहन से निकाल नहीं पा रहा था. शायद मेरी ईमानदारी में ही कुछ कमी थी. शायद उसे याद करना मुझे अच्छा लगता था. रात को बिस्तर पर लेटा जब मैं इंतज़ार कर रहा होता, तो वह चेहरा चेतना का नहीं मंदिरा का होता और बेख़ुदी में कई बार उसी का नाम भी निकल गया.

जितनी पढ़ाई करनी थी, कर ली थी. अब तो दुनिया की जंग में अपनी योग्यता आज़मानी थी. अच्छा होता यदि मंदिरा का साथ मिला होता, पर वह न हुआ. मैं स्वयं को अकेला और उदास महसूस करने लगा, जब मंदिरा का एक मैसेज आया कि उसका विवाह तय हो गया है. प्रेम विवाह तो नहीं कह सकते, पर उनके परिचितों में कोई था, जिसके लिए उसने ‘हां’ कर दी थी. विवाह दो माह बाद होना था और मंदिरा ने मुझे भी आने के लिए लिखा था, पर इतना मज़बूत नहीं था मैं कि उसका विवाह किसी और के संग होता देख सकूं. अच्छा है उसने संदेशा ही भेजा था. टेलीफोन पर उसकी आवाज़ सुन न जाने मैं क्या प्रतिक्रिया कर बैठता.

मुझे अपनी नई नौकरी के लिए नागपुर पहुंचना था. फिर से नई जगह बसना, नए लोग, काम का नया माहौल, मंदिरा साथ होती तो बात और थी. अकेला होते ही उसकी यादें मुझे आ घेरतीं.

नौकरी लग जाने पर मां विवाह के लिए दबाव डालने लगीं. उनके हिसाब से इस भीड़भरे शहर में उनका बेटा अकेला था, इसलिए शीघ्र ही उसका विवाह कर देना लाज़िमी था. और उनकी नज़र में कब से एक लड़की भी थी- चेतना. उन्होंने मुझ पर कोई दबाव नहीं डाला था, बस इच्छा ही जताई थी. मां के दूर के रिश्ते में ही थे चेतना के पिता और एक शहर में रहने के कारण

आना-जाना था. छुटपन में मैं और चेतना मिलकर ख़ूब धमाचौकड़ी मचाया करते, हालांकि वह मुझसे तीन वर्ष छोटी थी. मेरी दोनों दीदियां मुझसे काफ़ी बड़ी थीं और घर में मेरा कोई संगी नहीं था, शायद इसीलिए चेतना से मेरी बहुत पटती थी. लड़ाई भी ख़ूब होती. थोड़ा बड़े हुए, तो लड़ाई तो क्या वह पहले की तरह मुझसे खुलकर बात भी न करती. झट से सब कुछ मान जाती. उसकी पीठ पीछे बहनें मुझे ‘तुम्हारी चमची’ कहकर छेड़तीं. युवा होते-होते मैं उसकी अनुराग से भरी आंखों की भाषा पढ़ने लगा था, परंतु सच पूछो तो मुझे वह सब अजीब लगता. मुझे उसके लिए ऐसा कुछ भी महसूस न होता था. सीधी-सी, भली-सी लड़की थी वह.

पर मैं ‘थी’ में बात क्यों कर रहा हूं? अब तो वह मेरी पत्नी है.

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अब तक तो मैं मंदिरा के सम्मोहन में बंधा था, पर अब वह कहानी ख़त्म हो चुकी थी. मां का फिर से टेलीफोन आया, कहा कि चेतना के माता-पिता उसके विवाह की सोच रहे हैं. हम से भी पूछा है. निर्णय तुम्हारे हाथ में है. मैं बीते कल को पकड़े कब तक बैठा रह सकता था. निर्णय लेने का सचमुच समय आ गया था. एक ज़रूरी काम निबटा देने की भांति मैंने हामी भर दी और यूं चेतना मेरी पत्नी बनकर आ गई. मन में ढेर सारा प्यार समेटे, एमए पास, घर में ही ख़ुश रहनेवाली, उसकी कोई ऊंची उड़ानें नहीं थीं. घर में वह इस तरह रच-बस गई थी, मानो वह सदा से यहीं रहती आई हो. उसके मन की बात पूरी हो गई थी और वह ख़ुश थी. वह ख़ुश रहती, तो पूरे घर में ख़ुशी का माहौल रहता था.

विवाह के पश्‍चात् पूरा एक महीना मम्मी-पापा के साथ गुज़ारकर हम नागपुर आ गए. यह चेतना का ही सुझाव था कि हनीमून पर जाने की बजाय वह समय परिवार के साथ बिताया जाए. हमारे लिए तो नागपुर ही हनीमून हो जाएगा. घर में ख़ूब रौनक लगी रही उन दिनों. दोनों दीदियां भी प्राय: आ जातीं. बच्चों की छुट्टियां चल रही थीं और वह चेतना से ख़ूब हिलमिल गए थे. कुछ तो था कि बच्चे उसके पास खिंचे चले आते थे.

नागपुर आकर मैंने निश्‍चय किया कि मैं मंदिरा को पूरी तरह से दिल से निकाल दूंगा. मेरा बीता कल अब मुझसे कोसों दूर था. ज़िंदगी कोई टीवी सीरियल नहीं कि पुराने आशिक़ ज़िंदगी के किसी मोड़ पर हमारा इंतज़ार करते खड़े फिर मिल जाएं. आगे बढ़ते रहना ही जीवन की सच्चाई है. पर इन सब नेक इरादों के बावजूद और मन के अनेक निश्‍चयों के बावजूद मैं मंदिरा को ज़ेहन से निकाल नहीं पा रहा था. शायद मेरी ईमानदारी में ही कुछ कमी थी. शायद उसे याद करना मुझे अच्छा लगता था. रात को बिस्तर पर लेटा जब मैं इंतज़ार कर रहा होता, तो वह चेहरा चेतना का नहीं मंदिरा का होता और बेख़ुदी में कई बार उसी का नाम भी निकल गया. पता नहीं कितनी बार चेतना ने मुझे उसको मंदिरा के नाम से संबोधित होते सुना होगा.

 

          उषा वधवा

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