आश्चर्य यह हुआ कि पूरी बात सुनकर भी कपिल निश्चिन्त हो सो गए, बिना कुछ कहे. परन्तु मुझे रातभर नींद नहीं आई. मैं चुपचाप लेटी तो रही, ताकि कपिल की नींद में कोई ख़लल न पड़े, किन्तु मन और बुद्धि में चक्रवात चलता रहा. अब क्या होगा मेरा? और वैदेही का? क्या कपिल हमसे नाता तोड़ देंगे अथवा मुझे ही परेशान हो घर त्यागना पड़ेगा?
चार बजे के क़रीब मैं और चारू घर जाने के लिए बस स्टॉप की ओर चलीं. वह मुझसे एक ही स्टॉप पहले उतरती थी. कॉलेज के दिनों में तो अक्सर आगे-पीछे आना-जाना हो जाता, पर आज संग ही निकली थीं कॉलेज से कि जाने कहां से सुधीर आ टपका. वह हमसे बातें करने लगा. मुझे विवाह तय होने की मुबारकबाद दी. इतनी शिष्टता तो मैंने भी निभानी थी कि अब अलग होते समय उससे ठीक से बात करूं, उसकी बातों का उत्तर दूं. एकदम सामान्य-सी बातें, सामान्य ढंग से कही हुई. अधिकतर तो वही बोल रहा था और मैं सुन रही थी, सिवाय दो-एक बातों के उत्तर देने के. इतने में बस स्टॉप आ गया और वहां बैठे मूंगफली बेचनेवाले ने बताया कि बस अभी ही गई है और दिन के उस समय बस सर्विस धीमी पड़ जाने के कारण अगली बस के आने की अभी कोई संभावना नहीं. सुधीर ने प्रस्ताव रखा कि उसकी कार कॉलेज के बाहर ही खड़ी है और उसे जाना भी उसी तरफ़ है, सो वह हम दोनों को छोड़ देगा. गर्मियों के चार बजे न तो अंधेरा होता है और न ही सड़कें वीरान. प्रत्येक दिन तो उसी रास्ते से घर आना-जाना होता था. मैंने चारू की ओर देखा, तो उसने भी हामी भर दी. वह कार ले आया और हम उस में बैठ गए. चारू को उतारने के पश्चात सुधीर ने कार की गति अचानक बहुत तेज़ कर दी और एक सुनसान सड़क पर मुड़ गया. आगे वीराने में जाकर उसने मुझे दबोच लिया और ज़बर्दस्ती शारीरिक संबंध बनाया. साथ-साथ कहता भी रहा, “मुझे ठुकराने का दंड तो तुम्हें मिलना ही चाहिए. मेरी भावनाओं को ठेस पहुंचाई है तुमने… मित्रों के बीच मेरा अपमान हुआ है… खिल्ली उड़ाई है उन्होंने मेरी… यह उसी का बदला लिया है मैने…”
घर पहुंचकर मैने मां को पूरी बात बताई. उलझन में पड़ गईं वह. विवाह को एक ही सप्ताह शेष था. निमंत्रण पत्र बंट चुके थे. सब प्रबंध हो चुका था. मां ने मुझे मुख बंद रखने की सलाह दी. यहां तक कि पापा को भी नहीं बताया गया. अब समय नहीं था कि विवाह रोका जाए और जब विवाह रोकना नहीं है, तो बात फैलाने से क्या लाभ?
तो क्या वैदेही कपिल की नहीं सुधीर की बेटी है?
यह प्रश्न बार-बार हथौड़े की तरह बज रहा है मेरे मस्तिष्क में. मस्तिष्क में बज रहा है, पर मन स्वीकार करने को तैयार नहीं. परन्तु उससे क्या? डाॅक्टर ने कहा है कि कपिल पिता बनने में अक्षम हैं. अर्थ स्पष्ट है- वैदेही उनकी बेटी नहीं हो सकती. तो फिर? विश्वास करना नहीं चाहती, परन्तु यही सच है. मानना न चाहूं, तो भी यही सच है कि वह सुधीर की ही बेटी है. विवाह के नौ महीने पूरे होने के अगले सप्ताह ही हुआ था उसका जन्म. पर इतना आगे-पीछे तो हो ही सकता है न! अब लगता है मामला कुछ और था. यह बात मेरे दिमाग़ में क्यों नहीं आई कभी? मैने इस घटना को भुलाने का निश्चय किया था क्या इसलिए? उस कटु स्मृति को भीतर दबा उसके आगे एक बड़ी-सी चट्टान रख कर उसे छुपा देने का प्रयत्न किया था. पर आज मुझे स्वयं ही चट्टान को हटा कर उस हादसे को उजागर करना होगा. कपिल के सामने और कौन जाने पूरे जग के सामने ही.
विवाह पश्चात बहुत अच्छा बीता जीवन. जितना मैंने कपिल से प्यार किया, उससे अधिक पाया भी. सिर्फ़ प्यार ही नहीं, बहुत सम्मान करती हूं मैं कपिल का. संभ्रान्त और संस्कारी- एक सम्पूर्ण मानव हैं वह. ऐसे ही लोगों के कारण ही यह दुनिया आज तक क़ायम है.
और आज इस मानव की कठिनतम परीक्षा की घड़ी थी.
और मैंने कपिल को पूरी बात ब्योरेवार कह सुनाई. आश्चर्य यह हुआ कि पूरी बात सुनकर भी कपिल निश्चिन्त हो सो गए, बिना कुछ कहे. परन्तु मुझे रातभर नींद नहीं आई. मैं चुपचाप लेटी तो रही, ताकि कपिल की नींद में कोई ख़लल न पड़े, किन्तु मन और बुद्धि में चक्रवात चलता रहा. अब क्या होगा मेरा? और वैदेही का? क्या कपिल हमसे नाता तोड़ देंगे अथवा मुझे ही परेशान हो घर त्यागना पड़ेगा? वैदेही के भाग्य में क्या लिखा है इत्यादि प्रश्न रातभर मन को मथते रहे. सवाल यह नहीं था कि मैं दोषी हूं या नहीं? सत्य यह था कि क़ानूनी रूप से बराबर होने पर भी स्त्री-पुरुष के लिए अलग-अलग क़ानून हैं. हमारे समाजिक ढांचे में.
दूसरे दिन छुट्टी थी. देर से उठे कपिल. सोने के बहुत शौक़ीन हैं. बच्चों सी नींद सोते हैं. उठे भी तो सामान्य ही बने रहे. मेरे ही भीतर खदबद होती रही. आज जाना कितनी दुष्कर होती है अनिश्चय की स्थिति…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
उषा वधवा
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