कहानी- बदलाव की आहट 4 (Story Series- Badlav Ki Aahat 4)

“तुम मेरी कमी स्वीकारने को तैयार हो न? अथवा यह जानकर कि मैं तुम्हें संतान देने में अक्षम हूं मुझे छोड़ जाओगी? यदि पत्नी अपने पति को उसकी सम्पूर्णता में स्वीकारती है, तो पति क्यों नहीं स्वीकार सकता?”

 

 

सांझ की चाय हम अक्सर ही अपने लॉन में बैठ कर पीते हैं, विशेषकर छुट्टी के दिन. पूरा दिन तो मैंने स्वयं को ज़ब्त किए रखा, परन्तु अब मेरे सब्र का अंत हो चुका है. वैदेही चार वर्ष की हो चुकी, काफ़ी कुछ समझने लगी है. मुझे स्वयं को सामान्य दिखाना मुश्किल हो गया है. इस वक़्त वह सामनेवाले पार्क में अपने संगी-साथियों के साथ खेल रही है. अवसर पाकर मैंने पूछ ही लिया, “अब आपने क्या सोचा?”
“किस बारे में?” कपिल ने प्रत्युत्तर में पूछा.
“मेरे और वैदेही के बारे में? वह जो कल मैने आपको बताया था, उस बारे में?”
“उस बारे में क्या सोचना है? दरअसल, तुमने तो मेरे मन से एक बड़ा बोझ उतार दिया. यह जानकर कि मेरे लिए पिता बनना संभव ही नहीं, निश्चय ही मुझे ज़बर्दस्त धक्का लगा था. यह प्रश्न भी उठा मन में- वैदेही मेरी नहीं, तो फिर किसकी बेटी है?’ और यह प्रश्न पिता न बन पाने के सच से भी अधिक कड़वा था. एक बार सोचा कि शायद तुम्हारी पसन्द कोई और लड़का था और ज़बर्दस्ती तुम्हारा विवाह मुझसे करा दिया गया. पर विवाह के बाद भी तुम उससे मिलती रही, यह बात हज़म करना ज़्यादा मुश्किल था. और इतने गहरे थे तुम्हारे साथ उसके संबंध कि… वैदेही प्रमाण थी उसका.
तुम्हारी बात सुनकर यह बोझ तो कम हुआ. संतोष हुआ कि ऐसा नहीं है. जो कुछ भी हुआ तुम्हारी इच्छा से नहीं हुआ.”
“पर जो हादसा हुआ वह..?”
“उसका क्या?” कपिल ने फिर प्रत्युत्तर किया.
बहुत असमंजस में थी मैं. कपिल क्यों नहीं समझ पा रहे बात को? और कितना स्पष्ट करूं मैं? पर मुझे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी. उन्होंने स्वयं ही कहा, “उस हादसे के लिए तुम अपराधी नहीं हो. तुमने तो उसे निमंत्रित नहीं किया था न?”
बोल कर वह फिर से चुप हो गए. मेरी दुविधा ज्यों कि त्यों बनी रही.
“असली दोषी तो वह समाज है, हमारा पारिवारिक माहौल है, जिसमें ऐसी सोच को पनपने दिया जाता है कि लड़कियों का जन्म पुरुषों की सुख-सुविधा के लिए होता है. उनकी अपनी इच्छा का कोई महत्व नहीं, अपना कोई अस्तित्व नही, वह वस्तु मात्र हैं पुरुषों के आमोद-प्रमोद के लिए.
बेटों को संस्कारित करने की बजाय उन्हें लाड़-प्यार से बिगाड़ दिया जाता हैं और यदि वह लड़कियों की शारीरिक दुर्बलता का लाभ उठाते हैं, तो उन्हें दंडित करने की बजाय दण्ड स्त्री को दिया जाता है.”
सच में कपिल वही कह रहे हैं, जो मैं सुन रही हूं या मैं किसी काल्पनिक लोक में विचरण कर रही हूं, सपना ही देख रही हूं? सच कह रहे हैं कपिल. इस कर्म की प्रतिक्रिया होनी भी यही चाहिए. पर कब होगा ऐसा, नहीं जानती. जानने का कोई उपाय नहीं.
पर मेरी एक बड़ी चिन्ता अभी बाकी है, “और वैदेही?” मुझे स्वयं से अधिक उसकी चिन्ता थी. उसके भविष्य की चिन्ता.
“अब वैदेही का क्या? मुझे अपना पापा मानती है न वह? मैं भी उसे प्राणों से बढ़कर चाहता हूं यह तुम जानती हो. लोग गोद लिए बच्चे को प्यार नहीं करते क्या? और वैदेही का तो इसमें कोई दोष नहीं है न!”
फिर थोड़ा रुक कर बोले, “तुम मेरी कमी स्वीकारने को तैयार हो न? अथवा यह जानकर कि मैं तुम्हें संतान देने में अक्षम हूं मुझे छोड़ जाओगी? यदि पत्नी अपने पति को उसकी सम्पूर्णता में स्वीकारती है, तो पति क्यों नहीं स्वीकार सकता?”

यह भी पढ़ें: शादी से पहले और शादी के बाद, इन 15 विषयों पर ज़रूर करें बात! (15 Things Every Couple Should Discuss Before Marriage)

विधि का विधान तो देखो. हमने अपनी बेटी का नाम अनजाने में ही वैदेही रखा था. सीताजी ही कहां विदेहराज जनक की अपनी कन्या थी. पृथ्वी से निकली थी या मंदोदिरी की बेटी थीं. इस बात पर विवाद हो सकता है, पर राजा जनक की दुलारी थी इस बात पर कदापि नहीं. सम्मानित जीवन जिया उन्होंने. श्रीराम ने स्वयं उनका वरण किया था. अपनी इच्छा से. आज भी श्रद्धेय हैं वह.
क्या सामाजिक बदलाव की आहट है कपिल की यह नई सोच?

 

उषा वधवा

 

 

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