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कहानी- बस एक पल 2 (Story Series- Bas Ek Pal 2 )

‘‘क्या तुम उसे ढूंढ़ने की भी कोशिश नहीं करोगे?’’ उसके सवाल पर मैंने नज़रें झुका ली थीं, क्योंकि मैं जानता था कि तुम्हारे मिल जाने पर भी मैं तुम्हें पाने की हिम्मत नहीं जुटा सकता था. व़क़्त गुज़रा और मेरी शादी हो गई, पर तुम्हारी यादें मेरे मन से न मिट सकीं. हां, व़क़्त की गर्द ने उन्हें कुछ धुंधला ज़रूर कर दिया था. मैं बस सोचता ही रह गया कि काश, एक बार तुमसे मिल पाता तो कहता कि सिया मुझे माफ़ कर दो! मैं सचमुच कायर था, जो कुछ न कर सका- न अपने प्यार के लिए, न तुम्हारे विश्‍वास के लिए! पर शायद मेरी कायरता की यही सज़ा थी कि मैं जीवनभर इस पश्‍चाताप की आग में जलता रहूं और तुम मुझे कभी न मिलो. कुछ ही दिनों के बाद मुझे बहुत अच्छी नौकरी भी मिल गई. कितने हसीन दिन थे वे. न कोई सोच थी, न कोई चिंता. बस, प्यार ही प्यार बिखरा था हमारे आसपास. तुम जैसा सुंदर और समझदार साथी पाकर मैं बहुत ख़ुश था. देखते-देखते कब दो साल बीत गए, पता ही न चला. कितने वादे थे इन दो सालों के. सब कुछ ठीक ही चल रहा था, फिर अचानक एक दिन जब तुमने मुझे बताया कि घर में तुम्हारी शादी की बात चल रही है और कुछ लोग तुम्हें देखने आनेवाले हैं, तो मुझे लगा मानो किसी ने मुझे अचानक सपनों के आकाश से हक़ीक़त के धरातल पर लाकर पटक दिया हो. मैं कांप उठा था, जब तुमने मेरे सीने पर सिर रखकर रोते हुए कहा था, ‘‘अतुल, इससे पहले कि मेरी शादी कहीं और तय कर दी जाए, अपना लो मुझे! मैं तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती. अगर तुम्हें खो दिया तो मैं ख़ुद को भी खो दूंगी. जो करना है अभी करना है, कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए!’’ मैंने तुम्हें तो किसी तरह समझा दिया था, पर मैं ख़ुद बहुत डर गया था कि कैसे बात करूंगा पिताजी से! बचपन से ही मैं उनसे बहुत डरता था, कोई बात करता भी तो मां को बीच में रखकर. मां तुम्हें पसंद तो करती थीं, पर इस बार वह मेरी मदद करेंगी, इसमें ज़रा संदेह था और ठीक उसी समय आई थी पूना की एक कंपनी में दिए इंटरव्यू में मेरे सिलेक्शन की ख़बर... पूना की नौकरी मुझे मिल गई है. बहुत हिम्मत जुटा कर जब ये बात मैंने सिया को बताई तो उसने ज़ोर से मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा था, ‘‘नहीं अतुल, नहीं... तुम इस तरह मुझे बीच में छोड़कर नहीं जा सकते! कुछ करो अतुल- अपने लिए, हमारे प्यार के लिए!’’ मैंने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘ठीक है, एक काम करते हैं, मुझे परसों शाम को पूना के लिए निकलना है, उससे पहले आकर मैं तुम्हारे पापा से बात करूंगा. यदि वे मान गए, तो मेरे पापा को भी मना लेंगे!’’ इस पर तुमने कहा था, ‘‘अतुल आना ज़रूर, मैं इंतज़ार करूंगी तुम्हारा... मेरा विश्‍वास मत तोड़ना, वरना मैं जीवनभर किसी पर दोबारा भरोसा नहीं कर पाऊंगी!’’ तुम्हारे इन शब्दों ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया था. मैं बहुत हिम्मत जुटाता रहा, तुम्हारे घर आने के लिए, पर न आ सका! कायर था न, इसलिए बुज़दिलों की तरह तुमसे मिले बिना ही पूना चला गया! कई बार सोचता रहा था कि तुमने कैसे सहा होगा इस आघात को, मेरे पलायन को! क्या कभी माफ़ कर सकी होगी तुम मुझे? और फिर एक अरसे तक मैं घर नहीं आया था. डरता था, तुम्हारा सामना करने से! और जब 6-7 माह बाद मैं घर लौटा तो पाया कि तुम्हारे घर में ताला पड़ा है. बाद में मां ने बताया कि तुम लोग यह घर और यह शहर छोड़कर चले गए हो. तुम्हारे पापा का ट्रांसफ़र हो गया था. तुम लोग कहां गए, उन्हें कुछ मालूम न था. मैं तड़पकर रह गया था तुम्हारे इस तरह चले जाने से, जिसका कारण कहीं-न-कहीं मैं ही था. एक दिन मेरे दोस्त मनीष ने मुझसे पूछा था, ‘‘क्या तुम उसे ढूंढ़ने की भी कोशिश नहीं करोगे?’’ उसके सवाल पर मैंने नज़रें झुका ली थीं, क्योंकि मैं जानता था कि तुम्हारे मिल जाने पर भी मैं तुम्हें पाने की हिम्मत नहीं जुटा सकता था. व़क़्त गुज़रा और मेरी शादी हो गई, पर तुम्हारी यादें मेरे मन से न मिट सकीं. हां, व़क़्त की गर्द ने उन्हें कुछ धुंधला ज़रूर कर दिया था. मैं बस सोचता ही रह गया कि काश, एक बार तुमसे मिल पाता तो कहता कि सिया मुझे माफ़ कर दो! मैं सचमुच कायर था, जो कुछ न कर सका- न अपने प्यार के लिए, न तुम्हारे विश्‍वास के लिए! पर शायद मेरी कायरता की यही सज़ा थी कि मैं जीवनभर इस पश्‍चाताप की आग में जलता रहूं और तुम मुझे कभी न मिलो. मुझे अपने विचारों को वहीं रोकना पड़ा, क्योंकि रितु ने आकर कहा कि निशांत की मां आई हैं मुझसे मिलने. मैं बाहर गया तो देखा कि हल्के धानी रंग की साड़ी में लिपटी एक गौरवमयी महिला खड़ी हैं, मैंने कहा, ‘‘जी कहिए...’’ मेरी आवाज़ सुन कर वह मेरी ओर मुड़ी, उसे देखते ही मैं चौंक पड़ा, ‘‘सियाऽऽ...!’’

- कृतिका केशरी

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