कहानी- भ्रांति 2 (Story Series- Bhranti 2)

“बस चिंता है, तो मेहुल की. मैं उसे टूटता-बिखरता नहीं देख सकती. उसका आत्मविश्‍वास बिखरने न पाए, इसके लिए मैंने क़दम-क़दम पर अपने आत्मसंयम को बांधे रखा. अंदर से आम औरत की तरह अपने दुर्भाग्य पर आंसू बहाती रही, पर उसके सामने हमेशा सुपर वुमन बनकर खड़ी रही. उसका हर बढ़ता क़दम मुझे जीने का हौसला देता. उसके बढ़ते क़दमों का एक-एक पल मेरी आंखों के सामने आज भी तस्वीर की भांति अंकित है…’’

मौसाजी के देहांत के बाद गीता मौसी अकेली हो गई थीं, तो मैंने उन्हें मां की देखरेख हेतु हमेशा के लिए अपने पास रहने के लिए बुला लिया. इससे मां को पर्याप्त व़क्त न दे पाने का अपराधबोध भी काफ़ी कुछ कम हो गया था. दोनों बहनें सारा दिन दुनिया-जहां की बातों में खोई रहतीं. मां की ओर से निश्ंिचत हो, मैं एक बार फिर अपने काम में डूब गया था.

और तभी एक दिन मां पर यह हृदयाघात का हमला हो गया था. स्ट्रेचर पर आईसीयू में ले जाते समय भी मां मुझे बेहद निरीह और मासूम नज़र आ रही थीं. उनके इस रूप को पचा पाना मेरे लिए बेहद मुश्किल हो रहा था, क्योंकि मैं ही उनके सर्वशक्तिमान दैवीय रूप से लेकर इस असहाय अवस्था तक के सफ़र का एकमात्र साक्षी रहा हूं. इसलिए ज़ेहन में दोनों स्मृतियां बार-बार आ-जा रही थीं. कभी टूव्हीलर, फोरव्हीलर चलाती मां, तो कभी व्हीलचेयर और स्ट्रेचर पर ले जाई जाती मां… अचानक मैंने देखा परिदृश्य बदल गया है. चार लोगों के कंधों पर मां की अर्थी जा रही है. मैं सबसे आगे हूं. लोग ‘राम नाम सत्य है’ बोल रहे हैं. मैं चिल्ला उठता हूं, “नहीं.”

“क्या हुआ? मेहुल, होश में आओ बेटा! मां ठीक हो जाएंगी.” गीता मौसी मेरा कंधा झिंझोड़ रही थीं. अब मुझे होश आया. मैं आईसीयू के बाहर बेंच पर बैठे-बैठे ख़्यालों की दुनिया में जाने कहां पहुंच गया था. इससे पहले कि अंदर का भय मुझ पर फिर से हावी हो, मैं उठकर टहलने लगा था. तभी डॉक्टर आती दिखीं, तो मैं और गीता मौसी उनकी ओर लपके. कान जो नहीं सुनना चाह रहे थे, आख़िर वही उन्हें सुनना पड़ा. मां कुछ ही दिनों की मेहमान थीं. मैं अपने आंसू छुपाता बाहर निकल गया था. मन हो रहा था इसी व़क्त मां के पास जाकर, उनके गले लगकर फूट-फूटकर रोऊं. पर बुद्धिजीवी मस्तिष्क ऐसा करने की इजाज़त नहीं दे रहा था.

मां को कॉटेज वॉर्ड में शिफ्ट कर दिया गया था. मैं उनके सामने जाने से कतरा रहा था. कैसे सामना कर पाऊंगा उनका? कैसे दिलासा दे पाऊंगा उनको? अभी तो मुझे दिलासा की सख़्त आवश्यकता थी. मन हो रहा था मां के आंचल में मुंह छुपाकर फूट-फूटकर रोऊं. भारी क़दमों से मैं कमरे के बाहर आकर रुक गया था. अंदर जाने का साहस नहीं हो रहा था. लहराते हरे पर्दे के पीछे खड़ा मैं अंदर जाने का साहस जुटा रहा था, तभी अंदर से आते मां और गीता मौसी के स्वरों ने मेरे कान खड़े कर दिए, क्योंकि उसमें बार-बार मेरे ही नाम का उल्लेख हो रहा था. मां धीमे स्वर में गीता मौसी से मेरा ख़्याल रखने को कह रही थीं.

…तो क्या गीता मौसी ने मां को डॉक्टर की बात बता दी? मैं मन ही मन गीता मौसी पर ग़ुस्सा होता, इससे पूर्व ही उनके स्वर ने मेरा ग़ुस्सा ठंडा कर दिया, “ऐसी दिल दुखानेवाली बातें क्यों कर रही हो दीदी? तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगी.”

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“मैं कोई बच्ची हूं, जो तू मुझे बहला रही है? मुझे अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो चुका है. मुझे दुनिया छोड़कर जाने का डर भी नहीं है. जो आया है, वो तो जाएगा ही. मैंने कोई अमृत तो पी नहीं रखा है?”

“हैं?” मैं चौंका था. मैं तो बचपन से इसी भ्रांति में जीता आ रहा हूं कि मां अमृत पीकर इस दुनिया में आई हैं. मेरी दुविधा से सर्वथा अनजान मां अपने प्रलाप में व्यस्त थीं. “बस चिंता है, तो मेहुल की. मैं उसे टूटता-बिखरता नहीं देख सकती. उसका आत्मविश्‍वास बिखरने न पाए, इसके लिए मैंने क़दम-क़दम पर अपने आत्मसंयम को बांधे रखा. अंदर से आम औरत की तरह अपने दुर्भाग्य पर आंसू बहाती रही, पर उसके सामने हमेशा सुपर वुमन बनकर खड़ी रही. उसका हर बढ़ता क़दम मुझे जीने का हौसला देता. उसके बढ़ते क़दमों का एक-एक पल मेरी आंखों के सामने आज भी तस्वीर की भांति अंकित है. कब और कैसे वह पहली बार घुटनों के बल चला, फिर दो पांवों पर खड़ा हुआ, फिर तीन पहियों की साइकिल पर, फिर दो पहियों की साइकिल, फिर टूव्हीलर, फिर फोरव्हीलर…” मां की सांस भरने लगी थी. गीता मौसी ने उठकर उन्हें पानी पिलाया और आगे बोलने से मना किया. मैं अंदर जाकर मां को ढांढ़स बंधाना चाहता था. मैंने चुपके  से झांककर देखा, मां का चेहरा आंसुओं से तर था. मुझे पहली बार वे बेहद असहाय-सी नज़र आईं. मन भर आया. मां के आगे के सधे शब्दों ने मेरे क़दम फिर रोक दिए. मैंने फिर पर्दे की आड़ ले ली.

“आज मत रोक गीता मुझे. बरसों का दबता-सुलगता लावा है, आज सब बहकर निकल जाने दे… उसे चढ़ते, गिरते-उठते देखती तो आशंकित मन हर बार कांप उठता. दिल करता उसे बांहों में भींच लूं और कोख से नीचे उतरने ही न दूं. पर फिर मन कड़ा कर लेती. कोख में ढांपकर रख लूंगी, तो ज़िंदगी की चिलचिलाती धूप में चलने का साहस कैसे जुटा पाएगा वह? मैं अपनी कमज़ोरी को ख़ुद पर हावी होने से पहले ही रोक लेती. स़िर्फ इसलिए कि मेहुल कमज़ोर न पड़ जाए.”

   संगीता माथुर

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