कहानी- बुद्धिबली 1 (Story Series- Budhibali 1)

“क्या करती हो? कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?” नीरज ने टोका.
“क्या कहेगा? ” गरिमा ने मोटरसाइकल से उतर नीरज की ओर देखा, फिर मुस्कुराते हुए बोली, “मंगेतर हूं तुम्हारी. तुम्हें छेड़ने का लाइसेंस मिल चुका है मुझे.”
“ओय लाइसेंस होल्डर, आप किसी पार्क में घूमने नहीं आई हैं, बल्कि कॉलेज में बच्चों को पढ़ाने आई हैं. ज़रा अपने पद की गरिमा बनाए रखिए.” नीरज ने आंखें तरेरीं.
“गरिमा ! यह तो नाम है मेरा और तुम जानते हो कि नाम की रक्षा के लिए मैं जान की बाज़ी भी लगा सकती हूं.” गरिमा ने ड्रामाई अंदाज़ में कहा. आज उसकी नौकरी का पहला दिन था, इसलिए बहुत ख़ुश थी और मस्ती के मूड में भी.

नीरज की मोटरसाइकल फर्राटे से चली जा रही थी. पीछे बैठी गरिमा की आंखों में सुनहरे भविष्य के सपने जगमगा रहे थे. बचपन से उसका सपना डिग्री कॉलेज में अध्यापन करने का था. इसके लिए उसने बहुत मेहनत की थी. अपने ही शहर के महाविद्यालय में जब उसे लेक्चरर की नियुक्ति का पत्र मिला, तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा.
गरिमा ने तय कर रखा था कि एक अच्छी शिक्षिका के रूप में स्थापित होने के साथ-साथ वह अपने विषय की श्रेष्ठ लेखिका भी बनेगी. उसने कुछ विषयों के नोट्स भी तैयार कर रखे थे. उनका पुस्तक के रूप में विस्तार करने की उसकी योजना थी. कॉम्पटिशन की तैयारियों के चलते अभी तक वह अपनी योजना को मूर्तरूप नहीं दे सकी थी, लेकिन अब उसके सारे सपने सच होने के क़रीब थे.
गरिमा के अन्तर्मन में एक के बाद एक योजनाएं आकार ले रही थीं. तभी नीरज ने मोटरसाइकल रोक दी. अपना हेलमेट उतार वह कॉलेज के गेट की ओर इशारा करते हुए बोला, “चलिए मैडम, आपकी मंज़िल आ गई.”

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“मेरी मंज़िल तो तुम हो.” गरिमा नीरज के घुंघराले बालों पर हाथ फेरते हुए खिलखिलाई.
“क्या करती हो? कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?” नीरज ने टोका.
“क्या कहेगा? ” गरिमा ने मोटरसाइकल से उतर नीरज की ओर देखा, फिर मुस्कुराते हुए बोली, “मंगेतर हूं तुम्हारी. तुम्हें छेड़ने का लाइसेंस मिल चुका है मुझे.”
“ओय लाइसेंस होल्डर, आप किसी पार्क में घूमने नहीं आई हैं, बल्कि कॉलेज में बच्चों को पढ़ाने आई हैं. ज़रा अपने पद की गरिमा बनाए रखिए.” नीरज ने आंखें तरेरीं.
“गरिमा ! यह तो नाम है मेरा और तुम जानते हो कि नाम की रक्षा के लिए मैं जान की बाज़ी भी लगा सकती हूं.” गरिमा ने ड्रामाई अंदाज़ में कहा. आज उसकी नौकरी का पहला दिन था, इसलिए बहुत ख़ुश थी और मस्ती के मूड में भी.
यह सुन नीरज का चेहरा गंभीर हो गया. उसने चंद पलों तक गरिमा के खिले हुए चेहरे की ओर देखा, फिर बोला, “जानता हूं इसीलिए डरता भी हूं.”
“नीरज, यह कॉलेज है. शिक्षा का मंदिर. यहां चिंता करने की कोई बात नहीं.” गरिमा ने प्यारभरी दृष्टि से नीरज की ओर देखा और फिर सधे क़दमों से कॉलेज की ओर बढ़ने लगी.
प्रतिभा की धनी गरिमा हर परीक्षा में प्रथम आती थी. वह घर और अपने स्कूल में हमेशा सभी की चहेती रही थी. उसका भी व्यवहार सभी के साथ बहुत मृदु रहता था, लेकिन वह किसी भी तरह की बेईमानी और नाइंसाफ़ी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी. अन्याय होते देख वह हमेशा भिड़ जाती थी. इस कारण कई बार उसे नुक़सान भी उठाना पड़ता था, लेकिन वह अपने सिद्धांतों से हटने को तैयार नहीं होती थी. नीरज कई बार उसे समझदारी से काम लेने की सलाह देता, लेकिन वह ऐसी समझदारी को बुज़दिली मानती थी. नीरज को कई बार यह सोचकर डर लगता कि गरिमा जब नौकरी करने किसी कार्यालय में जाएगी, तो वहां व्याप्त भ्रष्टाचार को देख पता नहीं कैसा हंगामा खड़ा कर दे. किन्तु जब उसकी नौकरी डिग्री कॉलेज में लगी, तो नीरज ने राहत की सांस ली.
कॉलेज में गरिमा का पहला दिन बहुत अच्छा बीता. स्टाफ रूम में सभी ने उसका स्वागत करने के साथ-साथ मार्गदर्शन भी किया. शाम को जब वह घर लौटी, तो बहुत ख़ुश थी. कॉलेज का वातावरण उसे काफ़ी रास आया था. बुद्धिजीवियों के बीच उठना-बैठना उसका सपना था, जो अब सच हो गया था.
दो सप्ताह पश्‍चात् रविवार को कॉलेज में यूपीएससी की एक परीक्षा का सेंटर बनाया गया था. गरिमा बहुत उत्साहित थी. उसने तय कर रखा था कि वह किसी भी क़ीमत पर अपने कक्ष में नकल नहीं होने देगी. उसका मानना था कि नकल भ्रष्टाचार की बुनियाद होती है.
परीक्षा शुरू होने के थोड़ी देर बाद ज़्यादातर निरीक्षक अपने-अपने कक्षों में कुर्सियों पर बैठ गए, लेकिन गरिमा अपनी कक्षा में चक्कर लगाती रही. उसकी दृष्टि एक-एक परीक्षार्थी पर टिकी थी. सभी अपने-अपने प्रश्‍नपत्रों को हल करने में जुटे थे, लेकिन एक लड़के के हाव-भाव कुछ अजीब से थे. उसके माथे पर पसीना चुहचुहाया हुआ था और वह बार-बार अपनी घड़ी को देख रहा था.

संजीव जायसवाल ‘संजय’
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Usha Gupta

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