कहानी- चाभी 1 (Story Series- Chabhi 1)

“कैसी औरत है आपकी लतिका! आज भी नहीं आई!! आप बेकार ही उसका इंतज़ार करते हैं. वो नहीं आनेवाली. गांठ बांध लो बेटा… महीनेभर तो हमें चाभी रखते हो गए.”

‘टिंग-टॉन्ग…’ रोज़ की तरह ठीक नौ बजे बेल बज उठी थी. रिनी ने दरवाज़ा खोला, तो पड़ोसी निहार ने सकुचाते हुए फिर चाभी उसे थमा दी.

“वो लतिका छोटी बहन समीरा के साथ शायद आज आ जाए, तो आप चाभी दे देना. सॉरी, मैं आपको रोज़ परेशान करता हूं.”

“नहीं, इसमें परेशानी की क्या बात. हैव अ गुड डे. वैसे दो दिन तो आप गए ही नहीं, फिर तबीयत बिगड़ गई थी क्या?” कहकर रिनी मुस्कुरा दी.

“वही बाहर का खाना खा-खाकर फिर से…” उसने मुस्कुराते हुए अपने पेट की ओर इशारा किया.

वह चला गया, तो रिनी दरवाज़ा बंद करके सोचने लगी. ‘अजीब बात है, आज महीनेभर हो गए उसे चाभी देते-देते. बेचारा रोज़ ही पत्नी का इंतज़ार करता है. और वो है कि इसे बेवकूफ़ बनाए जा रही है. उसकी अंजान पत्नी के लिए ग़ुस्सा उसके मन में भरता जा रहा था. एक दिन ज़रूर पूछंगी कि ऐसी पत्नी का वो इंतज़ार ही क्यों करता है. ख़ुद जाकर उसे ले ही क्यों नहीं आता? अच्छा-ख़ासा दिखता है. टिपटॉप रहता है. गाड़ी भी रखी है. अच्छा कमाता ही होगा, स्वभाव भी

ठीक-ठाक लगता है, पर बीवी आना क्यों नहीं चाहती इसके पास? जाने कैसे मैनेज करता है. कभी उल्टा-सीधा बनाकर खाता होगा, तो कभी बाज़ार से अनहाइजीनिक फूड ले आता होगा. इससे अच्छा, तो रामासरे टिफिन ही लगा ले.

कम-से-कम थोड़ा बेहतर तो होता है उसका खाना. शुरू में एक महीना पहले मैंने भी कुछ दिनों के लिए उसका टिफिन लगाया था. पर ऐसे किसी को राय देना ठीक नहीं… चल अपने को क्या…’ उसने चाभी अपने की होल्डर पर लटका दी. ‘चल यार जल्दी. आज तो बहुत सारे तैयार आर्टिकल्स मेल करने हैं, फटाफट नाश्ता करके बैठ जाती हूं.’

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रिनी स्वतंत्र लेखिका थी. पेपर और मैगज़ीन के लिए लिखा करती. उसके पांच-छह उपन्यास, कुछ अनुवाद की हुई पुस्तकें व एनसीईआरटी के लिए लिखी पुस्तकें भी मार्केट में आ चुकी थीं. अधिकतर वह घर ही में रहती. घर पर किताबों की

अच्छी-ख़ासी लाइब्रेरी बना रखी थी. साथ में बस, मम्मी सुलोचना रहती थीं, जो पापा के गुज़रने के बाद से ही उसके साथ थीं. और कोई था नहीं.

एक दिन रिनी घर पर नहीं थी. निहार चाभी वापस लेने आया, तो सुलोचना ने चाभी थमाते हुए लतिका के लिए चार बातें अच्छे-से सुना दीं उसे, “कैसी औरत है आपकी लतिका! आज भी नहीं आई!! आप बेकार ही उसका इंतज़ार करते हैं. वो नहीं आनेवाली. गांठ बांध लो बेटा… महीनेभर तो हमें चाभी रखते हो गए.”

“जी, वो… छोटी को कुछ काम ही होगा वहां, छुट्टियां हैं उसकी अभी.”

“छोटी को काम है, तो लतिका फोन कर सकती है. कौन-से जंगल में रहती है? तुम कैसे रह रहे हो? क्या खाते हो? कोई फ़िक्र ही नहीं उसे… एक भले इंसान को बेवकूफ़ बनाए जा रही है… बैठो, मैं चाय बनाकर लाती हूं. रिनी भी आती ही होगी. वैसे भी जाकर क्या करोगे, जैसे कि तुम्हारी लतिका प्रतीक्षा में बैठी हो.” वह अपनेपन से लतिका पर ग़ुस्सा दिखाते हुए किचन की ओर बढ़ गईं.

सुलोचना चाय, कचरी नमकीन, पेड़े के साथ गरमागरम उपमा भी बना लाईं. “लो कुछ खा लो पहले. भूख लगी होगी… उपमा पसंद है न?”

“जी, मां अक्सर बनाती थीं. बहुत दिनों बाद उपमा खाऊंगा.”

“ये तुम्हारी लतिका को कुछ बनाना भी आता है या बस, खाली मेकअप कर ऑफिस में बैठना जानती है?”

“अरे नहीं, बिल्कुल नहीं. जी वो…” वह अचकचा गया. कुछ कहना चाह रहा था कि लौट आई रिनी बोल पड़ी, “अरे मम्मी, ऐसे कोई बात करता है क्या? कितना जानती हैं इनके घर-परिवार के बारे में… कोई नहीं. आप बुरा न मानें. मम्मी को बड़ा बुरा लगता है जब आपकी चाभी लेने और कोई नहीं आता तो… जिसका आपको रोज़ ही इंतज़ार रहता है.”

“जी… वो…”

“अच्छा छोड़िए ये सब. पहले नाश्ता कीजिए और चाय पीजिए. ठंडी हो रही है.”

“कहां काम करते हैं आप?” वह इधर-उधर की बातें करने लगी. “आप रामासरे टिफिन सर्विस लगवा लो. ठीक-ठाक खाना देता है, रीज़नेबल भी है. शुरू में मैंने भी लगाया था, जब तक मम्मी नहीं आई थीं.”

“पत्नी को छोड़ आपके घर में कौन-कौन है? किसी को बुला क्यों नहीं लेते?” सुलोचना ने बहुत देर से पेट में रोका प्रश्‍न पूछ

ही लिया.

“उसे छोड़कर सब हैं न.” वह झटके में बोल गया.

“मतलब?”

“मेरा मतलब भैया-भाभी, मम्मी-पापा और एक छोटी बहन समीरा. उसे ही सब छोटी कहते हैं.”

“कहां पर?”

“हम लोग कोटा के रहनेवाले हैं, वहीं पर.”

“तो लतिका को किसी की परवाह नहीं, सास-ससुर की भी नहीं?”

“नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है. वो तो मेरे साथ ही रहना चाहती है, बहुत प्यार करती है मुझे, पर…”

“पर क्या?”

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“छोटी उसे आने नहीं देती और वो छोटी के साथ ही आ सकती है. छोटी के बोर्ड्स के एग्ज़ाम ख़त्म हुए हैं. यहां फाइन आर्ट्स में एडमिशन लेने आनेवाली है. अभी छुट्टियां एंजॉय कर रही है. रोज़ ही कहती है, पर आने का मन नहीं बन पाता उसका. वो आ जाए, तो घर में नौकरानी रख दूं. साफ़-सफ़ाई करे और खाना बनाकर चली जाए. मैं भी सुकून से रह सकूं कि घर में कोई है. अकेला आदमी हूं, तो नौकरानी से काम कराने में अजीब लगता है.”

“आपकी लतिका और छोटी दोनों ही अजीब हैं. लतिका आती क्यों नहीं और वह छोटी उसे आने क्यों नहीं देती? आपका ज़रा भी ख़्याल नहीं उन्हें? मम्मी-पापा भी अजीब हैं, जो कुछ बोलते नहीं. न लतिका को और न छोटी को…” सुलोचना को अच्छा नहीं लग रहा था. वह हैरान थीं.

डॉ. नीरजा श्रीवास्तव ‘नीरू’

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