कहानी- होम स्वीट होम 3 (Story Series- Home Sweet Home 3)

प्रतिमाजी विस्फारित नेत्रों से रोशनी में नहाए अपने घर को निहार रही थीं. रिया ट्रॉली में सूप और स्नैक्स ले आई थी, पर प्रतिमाजी की नज़रें घर से हट ही नहीं रही थीं. अचानक एक जगह उनकी दृष्टि स्थिर हो गई. जहां पहले ‘होम स्वीट होम’ टंगा रहता था, वहां बड़े-बड़े सुनहरे अक्षरों में कुछ लिखा था. बिना चश्मे के भी प्रतिमाजी ने उसे पढ़ ही लिया- ‘अ….प्र…ति….म’

“प्रकाश और प्रतिमा के आशियाने के लिए मुझे इससे सुंदर उपमा नहीं सूझी.” दीपक ने कहा, तो प्रतिमाजी को अचानक सुनहरे अक्षर धुंधले पड़ते नज़र आने लगे

रिया उनका हाथ पकड़कर ले जाने लगी. प्रतिमाजी को उसकी आत्मीयता अच्छी लगी, पर तभी उनकी निगाह एक कोने में ड्रॉइंगरूम से उतारी सारी पारिवारिक तस्वीरों पर पड़ी. कितने उत्साह से उन्होंने अलग-अलग फ्रेम में ये तस्वीरें सजाई थीं. उनके क़दम वहीं ठिठक गए. रिया शायद उनकी मनःस्थिति ताड़ गई थी.

“दीपक बता रहे थे आपको इन तस्वीरों से बहुत लगाव है, लेकिन मांजी ड्रॉइंगरूम में पारिवारिक तस्वीरों का क्या काम? देखिए मैंने यहां यह वॉलपेपर लगवाया है.”

प्रतिमाजी को मन ही मन स्वीकारना पड़ा कि फूलों वाले वॉलपेपर से ड्रॉइंगरूम की शोभा दुगुनी हो गई है. लेकिन तस्वीरों की दुर्दशा से मन अभी भी व्याकुल था.

“इनमें से हमारी शादी की ये दो तस्वीरें मैं अपने बेडरूम में लगवा लूंगी. बाकी आप चाहें, तो आपके बेडरूम में लग सकती हैं, पर फिर आपका रूम स्टूडियो लगने लग जाएगा. इससे तो बेहतर है कि इनका एक कोलाज़ बनवाकर आपके रूम में लगवा देते हैं. आप बताइए क्या करें?”

तस्वीरों के लिए अब तक बुरा महसूस कर रही प्रतिमाजी अचानक अच्छा महसूस करने लगी थीं. यह देखकर कि बहू को न केवल उनकी भावनाओं की परवाह है, वरन उनकी रुचि, अरुचि, उनके कमरे के लुक को लेकर भी वह चिंतित है.  किसी भी इंसान को समझने में सचमुच थोड़ा वक़्त तो लगाना ही चाहिए.

“तुम जैसा ठीक समझो.”

“ठीक है, फिर मैं कोलाज ही बनवा देती हूं. सब घरवालों के बीच में पापाजी की बड़ी-सी तस्वीर होगी.” रिया आगे कुछ बता पाती, इससे पूर्व ही दीपक ने उसे किसी कार्यवश बुला लिया. प्रतिमाजी अपने कमरे में जाने लगीं, तभी एक आदमी अपने हाथों में बाहर टंगा ‘होम स्वीट होम’ लिए दाख़िल हुआ. प्रतिमाजी का मूड फिर उखड़ गया. “इसे क्यों उतार लाए?”

“ज… जी मैडम ने कहा था.” वह सकपका गया.

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प्रतिमाजी के होंठ कुछ कहने के लिए खुलने को आतुर हुए, पर फिर उन्होंने उन्हें कसकर भींच लिया और तेज़ी से अपने कमरे में पहुंच गईं. जहां उनका मोबाइल न जाने कब से बज रहा था. प्रतिमाजी ने झपटकर फोन उठा लिया. दीया का फोन था. “कैसी हो मां? कहां व्यस्त हो? फोन ही नहीं उठा रहीं? आपके तो सवेरे से ही घर-गृहस्थी के काम शुरू हो जाते हैं.”

“किसका घर और किसकी गृहस्थी?” प्रतिमाजी की मानो किसी ने दुखती रग पर हाथ धर दिया हो. “यहां मुझे पूछनेवाला है कौन? सारे घर के परदे बदल गए हैं, सजावट बदल गई है. कितने प्यार से तू गोवा से ‘होम स्वीट होम’ लाई थी, वो भी बहू ने उतरवा दिया है.” प्रतिमाजी पूरी तरह उखड़ गई थीं.

“शांत मां. वो डेकोरेटिव पीस तो मैंने भी कब का उतार फेंका. पुरानी चीज़ों को कोई कब तक सहेजकर रखेगा?”

“तो किसी दिन मुझे भी बाहर फेंक दोगे?”

“किसकी तुलना किससे कर रही हो मां?” दीया का दुखी स्वर था.

“वे निर्जीव चीज़ें हैं. उनसे कैसा मोह! दीपू का फोन आया था. इंटीरियर पूरा होने पर वह ऑफिसवालों की एक पार्टी रखना चाहता है. मुझसे पूछ रहा था कि मैं कब तक आ सकती हूं? मैंने कहा भी कि ऑफिशियल पार्टी में मेरा क्या काम? पर वह नहीं माना. रिया ने भी बहुत आग्रह किया है कि आपके आने से मांजी को भी अच्छा लगेगा. तो मैं अगले सप्ताह आने की सोच रही हूं.”

दीया ने फोन रख दिया था, लेकिन प्रतिमाजी सोच में डूब गई थीं. निगाहें सामने दीवार पर लगी पति की तस्वीर पर स्थिर हो गई थीं. वे मानो कह रहे थे- ‘प्रतिमा, तुम हमेशा से ऐसी ही हो. तुम्हारा ग़ुस्सा, तुम्हारी संवेदनाएं समुद्र की लहरों की भांति पल में उफ़ान भरती हैं और पल में नीचे बैठ जाती हैं. कभी गहराई में उतरने का तो प्रयास ही नहीं करतीं. ईंट-पत्थर की चारदीवारी घर नहीं होता. उस चारदीवारी में रहनेवाले सदस्यों का आपसी प्यार, समझदारी, सामंजस्य उसे घर बनाता है.’ दीया के आने तक प्रतिमाजी यह संवाद मन ही मन कई बार दोहरा चुकी थीं.

दीया पार्टीवाले दिन शाम तक अकेले ही पहुंच पाई थी. रिया ने रसोई की, तो दीपक ने अंदर-बाहर की व्यवस्था की कमान संभाल रखी थी. ख़ुशी से चहकती दीया घर में घुसी, तो पीहू को भाई की गोद में पकड़ाकर मां को खींचते हुए बाहर ले आई. “बाहर चलकर देखो मां, हमारा घर कितना सुंदर लग रहा है!”

प्रतिमाजी विस्फारित नेत्रों से रोशनी में नहाए अपने घर को निहार रही थीं. रिया ट्रॉली में सूप और स्नैक्स ले आई थी, पर प्रतिमाजी की नज़रें घर से हट ही नहीं रही थीं. अचानक एक जगह उनकी दृष्टि स्थिर हो गई. जहां पहले ‘होम स्वीट होम’ टंगा रहता था, वहां बड़े-बड़े सुनहरे अक्षरों में कुछ लिखा था. बिना चश्मे के भी प्रतिमाजी ने उसे पढ़ ही लिया- ‘अ….प्र…ति….म’

“प्रकाश और प्रतिमा के आशियाने के लिए मुझे इससे सुंदर उपमा नहीं सूझी.” दीपक ने कहा, तो प्रतिमाजी को अचानक सुनहरे अक्षर धुंधले पड़ते नज़र आने लगे. वे कुछ समझ पातीं, इससे पहले ही पीहू को उनकी गोद में पकड़ाने के बहाने दीया ने उनके आंसू पोंछ डाले. निस्संदेह ये ख़ुशी के आंसू थे.

    अनिल माथुर

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