कहानी- पारितोषिक 1 (Story Series- Paritoshik 1)

“तुम्हें ऐसा क्यों लगा कि मैं तुम्हारे घरवालों के साथ नहीं निभा पाऊंगी?” ऐसे अनेक प्रश्‍न दर्शना पूछती और वो जवाब देता. दर्शना समझती थी कि विरोधाभासी बयानबाज़ी करनेवाला भावेश एक संकीर्ण, संकुचित हृदय रखता है. आशंका से सिहर उठी दर्शना… भावेश को ग़ौर से देखती और सोचती कि क्या ये वही भावेश है, जिसकी बड़ी-बड़ी बातों, आधुनिक ज़माने में बदली और विस्तृत सोच का हवाला देते कथ्यों से वह प्रभावित हुई थी और जिसके प्यार की मीठी बातों के रस दर्शना के हृदय में कुछ यूं घुले कि वो सोचने-समझने की शक्ति ही बिसरा बैठी.

 “दर्शना… मिस्टर भावेश ने कल बुलाया है. चलोगी ना…’ कल रात हर्ष ने क्या कहा… दर्शना के मन में उमड़ती-घुमड़ती अतीत की लहरें शांत होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. हर्ष के इतने पास होने पर भी भावेश से जुड़ी अतीत की परछाइयां रह-रहकर गुज़रती उसे सिहरा रही थीं.

“दर्शना, अब हमें इस रिलेशनशिप को और नहीं खींचना चाहिए.” भावेश बोल रहा था और दर्शना डूबते सूरज की ओर टकटकी लगाए शायद इसी परिणाम की प्रतीक्षा कर रही थी. जानती थी कि ये डूबता सूरज उसके और भावेश के रिश्ते को एक ऐसे गर्त की ओर ले जा रहा है, जहां से दोबारा उठना संभव नहीं था. भावनाहीन दर्शना फिर भी बोली थी.

“मैं बेव़कूफ़ इस रिलेशनशिप के एक-एक पल को जी रही थी.”

“दर्शना, हम पढ़े-लिखे लोग हैं, हमारा रिश्ता एक दोस्ती की तरह निभ सकता है. उसे शादी के झमेलों में मत डालो. तुम मॉडर्न हो… मेरे घर के पुरातन पंथी माहौल को अपनाना तुम्हारे वश में नहीं होगा और मैं तुम्हें ख़ुश देखना चाहता हूं.”

“तुम्हें ऐसा क्यों लगा कि मैं तुम्हारे घरवालों के साथ नहीं निभा पाऊंगी?” ऐसे अनेक प्रश्‍न दर्शना पूछती और वो जवाब देता. दर्शना समझती थी कि विरोधाभासी बयानबाज़ी करनेवाला भावेश एक संकीर्ण, संकुचित हृदय रखता है. आशंका से सिहर उठी दर्शना… भावेश को ग़ौर से देखती और सोचती कि क्या ये वही भावेश है, जिसकी बड़ी-बड़ी बातों, आधुनिक ज़माने में बदली और विस्तृत सोच का हवाला देते कथ्यों से वह प्रभावित हुई थी और जिसके प्यार की मीठी बातों के रस दर्शना के हृदय में कुछ यूं घुले कि वो सोचने-समझने की शक्ति ही बिसरा बैठी. सभी वर्जनाओं और सामाजिक बंधनों को दक़ियानूसी क़रार देनेवाले भावेश के प्यार के आगे वो कहां सही-ग़लत देख पाई थी. दैहिक संबंधों की सीमाओं को तोड़ता उनका प्यार बाढ़ के पानी की तरह वेग से चढ़ा और जब रुका, तो छोड़ गया दुर्गंधयुक्त भयानक आभास… दर्शना को महसूस हुआ कि आधुनिक और विस्तृत सोच का जामा यकायक खुल चुका है. उसके भीतर एक ऐसा व्यक्तित्व छिपा था, जो प्रेमिका से दैहिक संबंध बनाने के लिए उकसा सकता था, पर उसी प्रेमिका को पत्नी के रूप में स्वीकारना उसके लिए एक दुखद स्वप्न समान था. आज कितने दिनों के बाद अपने अतीत को सामने देखकर दर्शना संज्ञाशून्य खड़ी थी. मन में चल रहे क्रंदन और आंसुओं के वेग को संभाले वितृष्णा से भरी थी. अपने अतीत से कहे अंतिम शब्द उसे याद आए, “अफ़सोस रहेगा भावेश कि तुम्हारे जैसे इंसान के साथ कुछ दूरी तय की है मैंने. जिस राह पर फूल समझकर पांव रखा था, उस पर कांटे बिछे थे, जिसका दंश सहना ही मेरी सज़ा है. तुम्हारे जैसे व्यक्ति पर भरोसा करना मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी और भूल को भुलाकर आगे बढ़ना आता है मुझे.”

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छले जाने का दंश लिए दर्शना ने ख़ुद को मेडिकल की पढ़ाई में डुबो दिया. पूना में हर्ष से मुलाक़ात एक मरहम बनकर आई. कहां जानती थी वो कि उस दिन डूबा सूरज एक नई सुबह लेकर आएगा. हर्ष उसके जीवन में न आता, तो शायद दर्शना प्रेम के सात्विक अर्थ को जीवनभर न समझ पाती. हर्ष से कभी कुछ छिपाया नहीं दर्शना ने, यहां तक कि अपने कड़वे अतीत को भी साझा किया. तब हर्ष ने कहा था, “क्या एक पाखंडी प्रेमी की सज़ा तुम ख़ुद को या मुझे जीवनभर दोगी? जीवन में कांटे की पीड़ा को महसूस कर क्या क़दम ज़मीन से हमेशा के लिए उठा लेने चाहिए?” हर्ष ने दर्शना में ऐसा मंथन उठाया कि उसने तय कर लिया कि वो एक बार फिर जीएगी. हर्ष क्या उसके जीवन में आया मानो पतझड़ के बाद वसंत अपने सभी मनमोहक रंगों को लेकर दर्शना के मन-आंगन में उतर आया हो.

अब एक लंबे अंतराल के बाद फिर भावेश का सामना… तभी हर्ष की आवाज़ आई, “मैंने बताया था ना मिस्टर भावेश ने डॉक्टर एसोसिएशन को आज लंच पर बुलाया है. आज ख़ुद निमंत्रण देने आए थे. बात हुई तो पता चला, तुम्हें जानते हैं. एक ही मेडिकल…”

“पर मैं पहली बार यह नाम सुन रही हूं हर्ष…” एक ठंडे और सपाट वाक्य से दर्शना ने हर्ष की बात काटी, तो ग़ौर से दर्शना को देखता हर्ष उसके हृदय में चुभते दंश के कारण को समझ चुका था. ये क्या हो गया उससे, जिस अतीत की टूटी किरचें अपने प्यार और समर्पण से एक-एक करके निकाल दी थीं, आज अनजाने में ही उसके उस भरे घाव को कुरेदकर दर्शना के मन व आत्मा को दुखा दिया. “भावेश को हां कर दूं?” दर्शना के मौन को हर्ष ने तोड़ा. विस्मय से ताकती दर्शना की आंखों में झांकते हुए हर्ष ने कहा, “जिस अतीत की चादर में लिपटे समय को हम दोनों ने अपने सुखद वर्तमान की गांठ लगाकर कस दिया था, वो अतीत अब दम तोड़ चुका है. उसका हमारे जीवन में कोई महत्व ही नहीं है और ऐसी महत्वहीन चीज़ों को मन में रखने से नकारात्मक ऊर्जा प्रवेश करती है.”

   मीनू त्रिपाठी

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