कहानी- पारितोषिक 2 (Story Series- Paritoshik 2)

“कैसी हो दर्शना?” एक मुस्कान के साथ दर्शना ने देखा, तो अचकचाकर उसने अपनी नज़रें झुका ली थीं. जाने क्या था उस मुस्कुराहट में कि भावेश अपनी नज़रें दर्शना के चेहरे पर टिका नहीं पाया. “भावेश, आज मैं तुम्हें थैंक्स बोलना चाहती हूं कि जो परिस्थितियां तुमने उत्पन्न की थीं, वो ना होतीं, तो मैं कितना कुछ खो देती. अपना वजूद, एक ऐसा व्यक्ति, जो मेरी ज़िंदगी में न आता, तो शायद मैं प्रेम का अर्थ ही ना समझती.”

“और मैं भी…” अचानक आई एक आवाज़ ने दोनों को चौंका दिया था. हर्ष खड़े मुस्कुरा रहे थे. दर्शना ने अपना हाथ हर्ष की ओर बड़े भरोसे से बढ़ाया, जिसे हर्ष ने बख़ूबी थाम लिया.

दर्शना देर तक हर्ष को देखती रह गई थी कि कितनी आसानी से उसके मन में चल रहे झंझावातों को हर्ष शांत कर देता है. काश! वो भी भावेश के साथ रिश्ता जोड़ने से पहले ख़ुद को समय रहते उसके बाह्य रूप से प्रभावित हुए बग़ैर भीतर झांकने की कोशिश करती. काश!

आधुनिक जामे के भीतर छिपे संकुचित, स्वार्थी और संकीर्ण व्यक्ति को पहचान पाती. काश! पर वो ख़ुशक़िस्मत थी, जो हर्ष उसके जीवन में आया नहीं… वो ज़रूर जाएगी और देखेगी कि उसका अतीत वर्तमान के सम्मुख किस प्रकार खड़ा होगा.

दूसरे दिन शाम को दर्शना अपने वर्तमान के साथ अपने अतीत के सम्मुख खड़ी थी. तब दर्शना ने महसूस किया कि हर्ष ने ठीक ही कहा था कि उसका अतीत दम तोड़ चुका था, उसे तो कोई दर्द महसूस नहीं हुआ था. एक लंबे अंतराल के बाद भावेश को उसकी पत्नी अंतरा और छह साल की बेटी रिया के साथ देखा था. “अंतरा को ज़्यादा बाहर निकलना पसंद नहीं है. मैंने इस पर काम करने की कोई पाबंदी नहीं लगाई है. भई, आजकल औरतें हर क्षेत्र में मर्दों से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं. ऐसे में मेरी मजाल जो मैं अपनी पत्नी को पर्दे में रखूं.” भावेश के ये शब्द दर्शना के कानों में पड़े थे. शायद किसी ने अंतरा के हाउसवाइफ होने का कारण पूछा, तो भावेश ने सफ़ाई दी थी. अंतरा चुप थी, पर भावेश अब भी बोल रहा था, “बहुत सिंपल है. उसकी सादगी पर ही तो मैं मर मिटा था. वैसे सच बताऊं, तो घरवाली घर में ही अच्छी लगती है.” कहकर एक ठहाका लगाया भावेश ने, तो एक बार फिर दर्शना का मन उसके प्रति वितृष्णा से भर गया. भावेश अभी भी वैसा ही है, विरोधाभाषी बयानों से उसका व्यक्तित्व पहले से अधिक लिजलिजा हो गया है.

दर्शना को देखकर अंतरा कुछ सोचते हुए बोली, “लगता है, आपको कहीं देखा है.” अंतरा के कहे शब्दों से भावेश असमंजस में पड़ गया और उसके चेहरे पर कुछ अटपटे भाव आए… शायद वो याद करने की कोशिश कर रहा था कि अंतरा को ऐसा क्यों लगा.

कुछ देर वहीं ठहरने के बाद दर्शना खुली हवा में सांस लेने के लिए बाहर लॉन में आ गई थी. खुली हवा में सांस लेना अच्छा लगा कि तभी भावेश की आवाज़ आई, “कैसी हो दर्शना?” एक मुस्कान के साथ दर्शना ने देखा, तो अचकचाकर उसने अपनी नज़रें झुका ली थीं. जाने क्या था उस मुस्कुराहट में कि भावेश अपनी नज़रें दर्शना के चेहरे पर टिका नहीं पाया. “भावेश, आज मैं तुम्हें थैंक्स बोलना चाहती हूं कि जो परिस्थितियां तुमने उत्पन्न की थीं, वो ना होतीं, तो मैं कितना कुछ खो देती. अपना वजूद, एक ऐसा व्यक्ति, जो मेरी ज़िंदगी में न आता, तो शायद मैं प्रेम का अर्थ ही ना समझती.”

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“और मैं भी…” अचानक आई एक आवाज़ ने दोनों को चौंका दिया था. हर्ष खड़े मुस्कुरा रहे थे. दर्शना ने अपना हाथ हर्ष की ओर बड़े भरोसे से बढ़ाया, जिसे हर्ष ने बख़ूबी थाम लिया. भावेश प्रकंपित व स्तब्ध खड़ा अपने समक्ष दर्शना और हर्ष को एकटक एक साथ जाते तब तक देखता रहा, जब तक कि वे आंखों से ओझल नहीं हो गए. पता नहीं सर्द हवाओं का असर था या हर्ष और दर्शना का एक-दूसरे पर किया अटूट विश्‍वास, जिसने भावेश को भीतर तक कंपकंपा दिया था. कहीं ना कहीं दर्शना के क़द से आहत भावेश अपने सामने उसके टूटे विश्‍वास को देखना चाहता था, लेकिन समय-चक्र कुछ यूं घूमा कि दर्शना ने वो सब सूद समेत पाया, जिसकी वो हक़दार थी. वापसी में दर्शना की आंखों में संतोष भरी मुस्कान देख हर्ष ने उसके हाथों को थामा, तो वो आह्लादित-सी बोल उठी, “आज का दिन जैसे नियति ने मेरे निमित्त ही बनाया था. ना जाती तो शायद प्रकृति के इंसाफ़ को यूं ना देख पाती. एक बात तुमने बिल्कुल सही कही थी कि अतीत से भागने पर ही वो एक प्रेत की तरह पीछा करता है.”

दूसरे दिन क्लीनिक में अंतरा आई. दर्शना को देखते ही उसके दोनों हाथों को बड़ी व्यग्रता से पकड़कर बोली, “आपको पहचानने में मुझे कुछ समय लगा था, अगर पहले ही जान जाती, तो शायद आपके सामने ना आती. देर बाद जब मुझे एहसास हुआ कि आप मेरे बीते दिनों की राज़दार हैं, तो डर गई थी. मेरे प्रति आपकी आंखों में अपरिचय के भाव देख समझ गई थी कि आप मेरे पति के सामने मुझे पहचानकर भी नज़रअंदाज़ कर रही हैं. उस उपकार ने मुझे रातभर सोने नहीं दिया.”

“मैं कुछ समझी नहीं…” बड़े ही निर्विकार भाव से दर्शना ने कहा, पर अंतरा जैसे सब कुछ एक साथ कह देना चाहती हो, “आप समझ नहीं सकती हैं कि मैंने कितने झंझावातों के बाद अपने अतीत के बोझ को अपने मन में दबाकर रखने का निर्णय लिया है. भावेश जैसे पति के सामने अपने अतीत को स्वीकारने का निर्णय लेना…” एक सिसकी के साथ आधी बात उसी में डूब गई थी.

 

 

 

 

 

मीनू त्रिपाठी

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