कहानी- पतन 2 (Story Series- Patan 2)

कप्तान की शातिर हंसी, “डंडे पड़ने से नज़र खुलती है. सेल्फ कॉन्फिडेंस हाई होता है. डंडे खाकर लोग नेता बन जाते हैं. कोई नहीं पूछता क्या करतूत की थी, जो डंडे पड़े. सुन मनोरथ, मैंने केवल जींस चुराई, दुकानवाला तो लाखों की टैक्स चोरी करता होगा.”

“मंगलवार को ही देखी थी. तुम कर क्या रहे हो?”

प्यारेलाल ने पुचकारा, “एडजस्ट हो रहे हैं. तुम एडजस्ट नहीं हो पा रहे हो, लेकिन पोथन्ना पढ़ना है.”

“रिज़ल्ट बिगड़ा, तो बाबूजी वापस बुला लेंगे. मैं चीकट बनियान पहनकर सुबह से खोआ औटता पाया जाऊंगा.”

प्यारेलाल ने फिर पुचकारा, “रिज़ल्ट बनेगा तब भी खोआ ही औटोगे. काका मिष्ठान भंडार तुम्हारी राह तक रहा है. मेरे कलेजे, तुम पढ़ो. मैं और कप्तान थोड़ा बेव़कूफ़ी करके आते हैं. तुम्हारा थोबड़ा देखकर ऊब गए हैं. मूवी देखेंगे, तो तबीयत हल्की हो जाएगी.”

मनोरथ ने विरोध किया, “तुम दोनों बिगड़ गए हो.”

“हमें बिगड़ने दो. तुम बाबूजी के ऑर्डर को फॉलो करो. एक कप चाय भी पियो, तो उसका ख़र्च डायरी में नोट करो. मासिक बजट और पढ़ने का टाइमटेबल बनाओ. परदेस में हो. लूटनेवाले संगी-साथियों से सावधान रहना.”

कप्तान सिंह ने बाबूजी का ऐसा अभिनय किया कि मनोरथ हंसी न रोक सका, “मेरे बाबूजी को बख़्श दो यार.”

प्यारेलाल ने ज्ञान दिया, “मनोरथ, मैं ये नहीं कहता कि ये बाप लोग बैडमैन हैं, लेकिन हम लोगों को थोड़ा-बहुत अपने तरी़के से जीने का हक़ है. यदि हम मूवी देख लेते हैं, तो ग़ज़ब नहीं करते हैं. तुम इस तरह पप्पू बने रहोगे, तो किसी दिन तुम्हारा अपहरण हो जाएगा. कप्तान गेट रेडी, वरना टिकट नहीं मिलेगी.”

कप्तान सिंह नई जींस पहनकर तैयार हो गया. मनोरथ ने तत्काल पूछा,

“कब ख़रीदी?”

“चुराई है.”

“कब?”

“पिछले हफ़्ते. तुम दोनों भी तो थे. मैंने ट्रायल रूम में छह-सात जींस का ट्रायल लिया था. इस जींस के ऊपर अपना ट्राउज़र पहना और बाक़ी जींस दुकानवाले के सामने रख दी थी कि फिटिंग नहीं जम रही है.”

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प्यारेलाल ने प्रशंसा से देखा, “मैं मोज़े, तौलिया, चॉकलेट जैसी छोटी चीज़ें चुराता हूं. कप्तान, तुमने तो जींस चुरा ली.”

मनोरथ का कस्बाई कच्चापन, “चोरी बुरी बात है.”

“इसे चोरी नहीं मौज-मस्ती कहते हैं.” कप्तान ने इस तरह कहा मानो पदक जीतने का काम किया है.

“टुच्चे हो.”

“इतने बड़े शहर में कौन जानता है कि हम इज़्ज़तदार बाप की औलाद हैं.”

“कभी पकड़े जाओगे, तो डंडे पड़ेंगे.”

कप्तान की शातिर हंसी, “डंडे पड़ने से नज़र खुलती है. सेल्फ कॉन्फिडेंस हाई होता है. डंडे खाकर लोग नेता बन जाते हैं. कोई नहीं पूछता क्या करतूत की थी, जो डंडे पड़े. सुन मनोरथ, मैंने केवल जींस चुराई, दुकानवाला तो लाखों की टैक्स चोरी करता होगा.”

प्यारेलाल ने कप्तान के कंधे ठोके, “तुम्हारे पापा की भी गार्मेंट शॉप है.”

“मैंने कब कहा मेरे बापू दूध के धुले हैं.”

मुश्किल में मनोरथ!

बहकनेवाली उम्र अधिक नहीं सोचने देती.

दिल और दिमाग़ की लड़ाई.

बदलाव की ज़रूरत महसूस होने लगी.

वस्त्र विन्यास, केश विन्यास, चाल-चलन, व्यवहार-आचरण, चेहरे-चरित्र में बदलाव लाते हुए वह पूरी तरह बदल गया. दीपावली पर घर आया मनोरथ दूसरे लोक का वासी जान पड़ता था. चतुर चेहरा, बड़बोली बातें, चपल चाल-ढाल, मशरूम कट बाल, कानों में बालियां, चुस्त जींस और टी-शर्ट.

बुलाकी ने विकृत मुद्रा बनाई, “मनोरथ, ये क्या धजा बनाए हो.”

“अभी रेलवे स्टेशन में इस धजा का बड़ा इंप्रेशन जम गया जी.  मैं, प्यारे, कप्तान एग्ज़िट से बाहर आए कि ब्रदर ऑटो, ब्रदर ऑटो कहते हुए ऑटोवालों ने घेर लिया (खजुराहो समीप होने से विदेशी ट्रेन से यहां उतर सड़क मार्ग से खजुराहो जाते हैं). मैंने ठेठ बघेली में समझाया हम ब्रदर नहीं, यह शहर के लड़िका आहेन. हुलिया से ब्रदर दिखाई दे रहा हूं.”

बाबूजी भस्मीभूत हुए, “मनोरथ, भगवान ने भली सूरत दी है. मूंछें हटाकर, बालियां पहनकर लड़की लग रहे हो.”

“बाबूजी यह लेटेस्ट है. मैं मूंछें नहीं हटाना चाहता था. लड़के ‘दादूलैंड का वासी’ कहकर चिढ़ाने लगे, तो हटाना पड़ा.”

(बघेलखंड में लड़के को दादू कहते हैं)

“फैशन पढ़ाई चौपट कर देगा.”

“बिल्कुल नहीं. मेरे कॉलेज के लड़के एसी कार से आते हैं. महंगे गैजेट्स रखते हैं. रिज़ल्ट भी अच्छा लाते हैं.”

“बकवास…”

अम्मा बचाव कार्य में तैनात, “बाद में समझाना. बच्चा, सफ़र से थका आया है.”

“मैं इसका इंतज़ार कर रहा था. इसने उत्साह ख़त्म कर दिया. यह जनरेशन किसी लायक नहीं. कान, नाक, भौंह, नाभि में बाली, फटी जींस, मशरूम कट, कटोरा कट, ज़ीरो कट बाल… मुझे तिरछी नज़र से मत घूरो. समझे. हुक्का-पानी बंद कर दूंगा. होश में आ जाओगे.”

“पार्ट टाइम जॉब बहुत मिलते हैं. अपनी पढ़ाई का ख़र्च ख़ुद उठा सकता हूं.” कहकर मनोरथ ने बाबूजी को चुप करा दिया. अम्मा ने उनका उठ गया हाथ खींचा, “जवान लड़के पर हाथ चलाओगे?”

“मैं तुम्हारी तरह इसकी मुंह देखी नहीं कर सकता. न इससे डरकर रहूंगा.”

बेफ़िक्री दिखाता हुआ मनोरथ अपने कमरे में चला गया. अम्मा ने अरज निवेदन कर बाबूजी को शीतलता प्रदान की, “आजकल के लड़के उतावले होते हैं. प्रेम से समझ जाएं, लेकिन मारपीट से भड़कते हैं. अख़बार में रोज़ पढ़ती हूं लड़के-लड़कियां घर से भाग रहे हैं, फांसी में झूल रहे हैं, मर्डर कर रहे हैं…”

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अम्मा की बातों का असर हुआ या क्रोध अपनी हद छूकर बैठ गया. थोड़ी देर बाद बाबूजी मनोरथ के कमरे में गए. वह बिस्तर पर औंधा पड़ा था. वे उसे सुनाकर बोले, “बेटा, मेरी बात का बुरा न मानना. सही चाल चलोगे तो भला है, वरना लोग हंसेंगे. लड़के को पढ़ने बड़े शहर भेजा, बिगड़ गया. बच्चे नासमझी करें, तो माता-पिता को तकलीफ़ होती है. हमें नहीं मालूम तुम वहां क्या करते हो. ईमानदारी से पढ़ोगे, तो संतोष मिलेगा. मुझे भी, तुम्हें भी. तुम यदि ख़ुद के प्रति ईमानदार बन जाओ, तो ग़लत काम करते हुए झिझक होगी. लगेगा ग़लत कर ख़ुद को धोखा दे रहे हो. बेटा, बीता हुआ समय नहीं लौटता और हर काम का एक निश्‍चित समय होता है. उम्र होती है. तुम्हारे लिए यह समय बहुत महत्वपूर्ण है… जानता हूं बड़ी डिग्री लेकर तुम काका मिष्ठान भंडार में बैठना पसंद नहीं करोगे. मैंने अच्छी लोकेशन में ज़मीन ख़रीद ली है. तुम्हारे लिए बढ़िया रेस्टोरेंट बनवाना है.”

बाबूजी सोच रहे थे मनोरथ कुछ बोलेगा. वह निद्रामग्न होने का अभिनय करता औंधा पड़ा रहा. बाबूजी को आग्रह करते देख उसे विचित्र क़िस्म की तुष्टि मिल रही थी. उसे सोता समझ, उसके सिर पर हाथ फेर वे कमरे से चले गए.

    सुषमा मुनीन्द्र

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