कहानी- प्रिया का घर 5 (Story Series- Priya Ka Ghar 5)

मैं जिस शाम खुलकर प्रिया से इस बारे में बात करनेवाली थी, वो‌ शाम अपनी झोली में एक बात छुपाकर बैठी थी. उस शाम बाज़ार से लौटते समय मंदिर के सामने विक्की की कार खड़ी देख मैं चौंक गई! रिक्शा रुकवाकर नीचे उतर ही रही थी कि मंदिर के अंदर, पीपल के चबूतरे पर विक्की के साथ बैठी प्रिया को देखकर मैं सन्न रह गई थी…

विक्की की आंखें ग़ुस्से से लाल हो गई थीं, विक्की के चेहरे पर सब कुछ साफ़ दिखाई दे रहा था, वहां ग़ुस्सा था, दुख था, उदासी थी और प्रिया के लिए बेहिसाब फ़िक्र थी… वो इतना कहकर सीधे अपने कमरे में चला गया था. ना उसने खाना खाया, न ही किसी से बात की. मेरे मन‌ पर अपराध का वज़न थोड़ा और बढ़ने लगा था. मेरा एक ग़लत फ़ैसला कितनी ज़िंदगियों में हलचल मचा चुका था.
मैं पुराने दिन‌ याद करती, तो सब कुछ भरा-भरा-सा दिखाई देता था. प्रिया मेरे सिर में तेल‌ लगाती थी. कुछ भी मेरी पसंद का बनाती, तो आवाज़ देती, “आंटी, डलिया‌ लटकाइए.”
कभी समोसे, कभी फरे, कभी उबले सिंघाड़े… वो नीचे अपने आंगन में गुनगुनाती थी, तो दोनों घर एक साथ रौशन होते थे. कहां खो गया सब? मैंने बहुत कुछ छीना था सबका, ख़ासतौर पर एक बच्ची की मुस्कान, जो मेरी बात पर आंख मूंद कर भरोसा कर लिया करती थी. वो मुस्कान मुझे वापस लानी थी…
“प्रिया, सुनो बिटिया, खाली हो तो ऊपर आ जाओ, एक काम था.”
उस दोपहर मैंने उसे कोई रेसिपी पूछने के बहाने से ऊपर बुलाया. फिर अगले दिन सिर में तेल लगवाने के बहाने और तीसरे दिन किसी बहाने की ज़रूरत नहीं पड़ी. जब सब कुछ एक झटके से टूट गया हो, तो बड़ी मुश्किल से एक-एक तार जोड़ना पड़ता है बड़ी एहतियात से. प्रिया थोड़ा खुलने लगी थी. अपनी मम्मी के साथ बाहर भी जाती थी. मेरे यहां भी आकर बैठती थी. बीच-बीच में ससुराल का बवाल भी सिर उठाता था. मामले का हल कुछ भी निकला नहीं था. बस टाला जा रहा था. प्रिया की मम्मी को मैं काफ़ी हद तक समझाने में कामयाब हो भी रही थी, लेकिन उनके सवालों के जवाब मेरे पास भी नहीं थे.
“आप बताइए भाभीजी, ऐसे कैसे वापस बुला लें? फिर आगे? कह रही है नौकरी करेगी, चलो वो ठीक है. फिर दुबारा शादी तो इतनी आसान नहीं होगी ना?”
वो बोलते-बोलते टूटने लगतीं, तो उनको दिलासा देकर मैं संभालती, लेकिन ग़लत वो भी नहीं थीं. जिस तरह से अकेले उन्होंने प्रिया की परवरिश, पढ़ाई-लिखाई, शादी की थी, ऐसे में किसी की भी हिम्मत जवाब दे जाती! मैं जिस शाम खुलकर प्रिया से इस बारे में बात करनेवाली थी, वो‌ शाम अपनी झोली में एक बात छुपाकर बैठी थी. उस शाम बाज़ार से लौटते समय मंदिर के सामने विक्की की कार खड़ी देख मैं चौंक गई! रिक्शा रुकवाकर नीचे उतर ही रही थी कि मंदिर के अंदर, पीपल के चबूतरे पर विक्की के साथ बैठी प्रिया को देखकर मैं सन्न रह गई थी… लेकिन मुझे हैरत ये हो रही थी कि मंदिर में विक्की और प्रिया को एक साथ देखकर मैं पहले की तरह उफन क्यों नहीं गई? क्यों मैंने वहां जाकर उन दोनों को अपना‌ चेहरा नहीं दिखाया, क्या वो मैं ही थी, जो वापस रिक्शे पर चढ़कर घर आ गई थी? उस रात पता नहीं क्यों मैं गहरी नींद सोई और जब उठी, तो अपने साथ अपने अंदर के उस जासूस को भी उठा लिया, जो सब कुछ समझ जाता था.
मुझे पर्दे की ओट से दिखने लगा था कि विक्की के ऑफिस जाने के समय ही प्रिया बाहर आकर, कुर्सियां पोंछती थी. विक्की ऊपर छज्जे की ओर देखता था, वहां मुझे न पाकर धीरे से हाथ हिलाकर प्रिया को बाय कर देता था. शाम को समोसे या मिर्ची वड़े लाता, तो वो तीन न होकर पांच-छह होते, मैं जान-बूझकर टोकती, “इतने कौन खाएगा?”
वो झेंपते हुए कह देता, “अरे, दो नीचे भेज देना.”
ये सब केवल‌ यहीं नहीं चल‌ रहा था, उस दिन प्रिया ने जब डलिया नीचे मंगवाई, तो उसमें गट्टे की सब्ज़ी ऊपर भेजी गई, मैंने टोक दिया.
“हमें नहीं भाती तुम्हारी ये सब्ज़ी.”
प्रिया ने मुस्कुराते हुए कहा, “अब रख लीजिए, किसी को तो भा ही जाएगी.”
असली बात तो तब खुली, जब विक्की डिनर पर वो सब्ज़ी खाते ही बच्चों जैसा उछल गया, “प्रिया ने भेजी है क्या?”
मैं उसका मुंह देखती रही. खाई होगी इसने पहले भी, शायद कहा भी हो भेजने के लिए. सही तो कह रही थी प्रिया, किसी को तो भा ही जाएगी! गट्टे विक्की के मुंह में घुल‌ रहे थे, स्वाद मुझे आ रहा था… विक्की के इर्दगिर्द लिपटी उदासी की बेल छंटने लगी थी. एक बार फिर मैं विक्की और प्रिया के पीछे-पीछे उनके कदमों के निशान तलाश रही थी. लेकिन इस बार वो‌ निशान देखकर मैं ग़ुस्से से बिलबिलाती नहीं थी, बस उन‌ निशानों को छूकर देखना चाहती थी कि ये मेरा वहम तो नहीं है.
कई बार मैंने पहले भी नोटिस किया था, आज भी देख रही थी. विक्की बालकनी पर बैठकर जितनी देर किसी से फोन पर बात करता था, उतनी ही देर प्रिया भी अपने आंगन के कोने में बैठी, फोन पर धीरे-धीरे बात करती रहती थी. ज़ाहिर सी बात थी, इन दोनों में ही बात होती थी. उस रात जैसे ही फोन काटकर प्रिया आंगन से उठकर अंदर गई, विक्की भी बालकनी से उठकर अपने कमरे की ओर बढ़ा, मैंने बिना किसी भूमिका के सीधे पूछ लिया, “प्रिया से बात कर रहे थे ना?”
हैरानी, झेंप और उलझन… तीनों रंग एक साथ आकर उसके चेहरे पर फैल गए, धीरे से कुर्सी पर बैठते हुए बोला, “हां, उसी से बात हो रही थी.”
कुछ पलों के सन्नाटे के बाद मैंने पूछा, “क्या‌ सोचा है उसने आगे का?”
विक्की ने चौंककर मुझे देखा, ठिठका, फिर बोला, “कोई मतलब नहीं है मां उस घर वापस जाने का. अब तो आंटी भी समझ गई हैं इस बात को, उसके ससुराल बात करनेवाली हैं.”

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मैंने फिर से उसको अपने सवाल में घुमाया, “वही तो मैं पूछ रही हूं कि उस घर जाने का कोई मतलब नहीं है तो कहां रहेगी.”
विक्की सकपका गया, “कहां रहेगी मतलब? आंटी के पास रहेगी, वहीं रहना चाहिए.”
मैं अपनी कुर्सी से उठकर उसके पास गई, उसका चेहरा पढ़ते हुए कहा, “मैं तो सोच रही थी, उसे इस घर में ले आऊं, उसी का तो घर है ये…”
विक्की की आंखें हैरत से फैल गई थीं… वो एकटक मुझे देखता रहा फिर आकर मेरा हाथ थाम लिया… मेरे मन‌ पर जमा वज़न हल्का हो रहा था. कमरे की खिड़की से दिखता चांद पूरा गोल‌ था, आज पूर्णिमा थी, सब कुछ रौशन था!..

लकी राजीव

 

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Usha Gupta

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