“मम्मी, क्या मैं अपनी कोई पहचान बनाए बिना ही शादी कर लूंगी?” मैं सुबकने लगी, तो मम्मी भी विह्वल हो गईं. हालांकि उनकी आंखों में ये प्रश्न थे कि मैं कौन सी पहचान बनाना चाहती हूं और उसके लिए क्या करना चाहती हूं? पर सच ही वो मेरी बेस्ट फ्रेंड थीं. उन्होंने ये प्रश्न पूछे नहीं, क्योंकि उन्हें पता था कि उत्तर मुझे पता नहीं है. अपनी पहचान की खोज मेरे दिल का वो शांत ज्वालामुखी था, जिसे वो छेड़ना नहीं चाहती थीं.
आख़िर पापा ने मौन तोड़ा.
“बेटा तुम समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान लेकर स्नातक करो. तुम अभी से इतना अच्छा लिखती हो कि लगता है कि ये विषय तुम्हारी रूचि के हैं. तुम लेखिका बन सकती हो.”
“सिर्फ़ लेखिका?” मैंने इतना बुरा-सा मुंह बनाया जैसे अभी रो पडूंगी.
“लेखिका नहीं तो पत्रकार बन जाना. पत्रकारिता का एक अच्छा कॉलेज तुम्हारे ताऊजी के शहर में है.” अवि अंकल ने मेरा मूड ठीक करने का प्रयास करते हुए कहा.
“लेकिन उसकी प्रवेश परीक्षा स्नातक के बाद होती है.”
पेड़ की शाख को जहां से काट दो वहीं से नई कोंपलें निकल आती हैं. बोंसाई बनाने के लिए बस निश्चित समय पर ये सिलसिला ज़ारी रखना होता है. कॉलेज में आकर नया माहौल मिला. सभी छात्रों को किसी एक क्लब का सदस्य बनना आवश्यक था. मेरे लेखन को देखकर मुझे लिटरेरी क्लब दिया गया. मैंने ख़ुशी से काॅलेज मैगजीन के लिए रिपोर्टिंग का काम ले लिया. लेकिन फिर उसी समस्या ने मुंह बा दिया. कॉलेज में आकर किसी भी अतिरिक्त गतिविधि में भाग लेने या दायित्व लेने का मतलब होता है कॉलेज के रेगुलर समय के बाद रुकना. और उसका मतलब था अकेले घर लौटना. अबकी मैंने हिम्मत दिखाई. “मुझे मोपेड ले दो.” मेरा दृढ स्वर में कहना था कि मोपेड आ गई.
भइया छुट्टियों में एक महीने के लिए घर आया हुआ था. तय हुआ वो कार से थोड़ी दूरी पर रहा करेगा. एक महीने बाद देखते हैं कि क्या करना है. वो लड़का बहुत दिनों से दिखाई नहीं दिया था. मैं थोड़ा निश्चिंत हो गई थी.
लेकिन जिस तरह अक्ल बादाम नहीं, ठोकर खाने से आती है, उसी तरह हिम्मत मोपेड ख़रीदने से नहीं, समस्या से भागने का विकल्प न होने से आती है. मोपेड अगर लड़की को ख़रीद कर दी जा सकती है, तो लड़कों को भी दी जा सकती है. इस बार मैं मोपेड पर थी, तो वे मोटर साइकिल पर. किराए का गुंडा नहीं, बिगड़े रईसजादे सही. वो भी एक नहीं कई. फिर वही सिलसिला चल निकला. फब्तियां, ज़िग-ज़ैग चला कर गिराने की कोशिश करना और एक दिन फिर वही हुआ, जिसका डर था. मैं उनकी हरकतों को सम्हाल नहीं पाई और मोपेड समेत गिर पड़ी. इस बार वे एक नहीं, चार थे. मेरी चोट भी चौगुनी थी और ग़ुस्सा भी पर थप्पड़ जड़ने का साहस खो चुका था. इत्तेफ़ाक से उस दिन कुछ दूरी पर पीछे आ रहे भइया की कार में उसके पांच दोस्त भी थे, इसलिए उनके रुकते ही वे लड़के भाग गए. लेकिन मेरी उसके बाद न किसी अतिरिक्त गतिविधि के लिए कॉलेज में रुकने की हिम्मत पड़ी, न ही मोपेड उठाने की.
सुलगते मन का धुआं अंदर ही अंदर तूफ़ान बन के मुझे नेस्तनाबूद कर देता. अगर कलम ने उसे बाहर निकालने में मेरा साथ न दिया होता.
प्रकृति अपने नियम कभी नहीं तोड़ती. शाखा के काटे जाने और नए कल्ले फूटने का क्रम जारी था. कई काॅलेजों की पत्रकारिता की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मुझे लगा पापा की परी ने बरसों से जो पंख उतार कर रख दिए थे, उन्हें दोबारा पहनने का समय आ गया है. पर पड़ताल की गई, तो पता चला कि केवल ताऊजी के शहरवाला कॉलेज ही लड़कियों के योग्य था. ख़ैर! इससे क्या फ़र्क पड़ता है. पढाई तो एक ही कॉलेज में करनी है. मैं ख़ुश थी. हांलांकि हॉस्टल वहां भी नहीं था, इसलिए सब थोड़े परेशान थे पर तनाव में नहीं थे. तभी पता चला कि ताऊजी का तबादला हो गया है और माहौल में फिर तनाव पसर गया.
इस बार सबने हिम्मत की. “मेट्रो सिटी है. बसें और ऑटो चलते हैं. भीड़भाड़ रहती है. वहां किस बात का डर?” जिस लड़की ने कैशोर्य की दलहिज पर कदम रखने के बाद से कभी घर के बाहर कदम न रखा हो, वो अनजान शहर में अकेले रहने जा रही थी. तैयारियां चल रही थीं. मन के भीतर भी और मन के बाहर, घर के भीतर भी. मम्मी ने अकेले रहने के व्यावहारिक नियम समझते-समझाते कब अपना डर मेरे मन में हस्तांतरित कर दिया, उन्हें पता नहीं चला. और मेरी तरह घर के बाकी सदस्यों के मन में चलती उहापोह भी कब एक भयानक अंतर्द्वंद्व में बदल गई, मुझे पता नहीं चला…
फिर उस अजनबी शहर जाना, मेरे लिए कमरे की तलाश, हर कमरे में सुरक्षा की दृष्टि से कोई न कोई कमी होना, फिर एक कमरा पसंद किया जाना, पापा के साथ विश्वविद्यालय से पहले बस फिर ऑटो करके फिर पैदल घर आना. आज भी वो दिन मेरे मानसपटल पर ऐसे अंकित हैं जैसे कोई सपना हों. वास्तविकता से उनका कोई रिश्ता ही न रहा हो. सारी औपचारिकताएं पूरी हो गई थीं.
पापा ने एक बार फिर पूछा, “रास्ता तो ठीक से समझ गई हो न? जवाब में मैंने हां में सिर तो हिला दिया, पर चेहरे पर लिखी सच्चाई पढ़ ली थी पापा ने. और इतने दिनों से मैं मम्मी-पापा के चेहरे पर जो तनाव पढ़ रही थी, वो शब्दों में ढल कर मेरे सामने आ गया था.
“मैं सोच रहा था अर्थशास्त्र बहुत अच्छा विषय है. तुम अपने ही शहर में चलकर स्नातकोत्तर करतीं, तो कैसा रहता? मैं भी डेप्यूटेशन से वापस आ गया हूं. अब गाड़ी और ड्राइवर है. तुम काॅलेज में अतिरिक्त गतिविधियां ज्वाइन कर सकती हो.”
महापुरुषों ने यों ही नहीं कहा है, नम्र बनो. अकड़ तोड़ देती है और नम्रता झुक कर टूटने से बच जाती है. यही बात तोड़ने पर भी लागू होती है. जब आप कोई सख़्त चीज़ तोड़ना चाहते हैं, तो उसकी सख़्ती आपकी चुनौती बन जाती है, जो आपको और ताकत लगाने के लिए प्रेरित करती है. पर उस मुलायम डाल को कोई कैसे तोड़े, जो बिना कोई प्रतिकार जताए पूरी की पूरी मुड़ गई हो. विरोध करती भी तो किस दिल से? एक अपने डर से तो लड़ा नहीं जा रहा था. किस किस के डर से लड़ती मैं!..
स्नातकोत्तर करते-करते रिश्ते देखने लगे थे मम्मी-पापा. जब एक जगह बात पक्की होने को आई तो जैसे मेरे अंदर जमी बर्फ की शिला आंखों से बह निकली.
“मम्मी, क्या मैं अपनी कोई पहचान बनाए बिना ही शादी कर लूंगी?” मैं सुबकने लगी, तो मम्मी भी विह्वल हो गईं. हालांकि उनकी आंखों में ये प्रश्न थे कि मैं कौन सी पहचान बनाना चाहती हूं और उसके लिए क्या करना चाहती हूं? पर सच ही वो मेरी बेस्ट फ्रेंड थीं. उन्होंने ये प्रश्न पूछे नहीं, क्योंकि उन्हें पता था कि उत्तर मुझे पता नहीं है. अपनी पहचान की खोज मेरे दिल का वो शांत ज्वालामुखी था, जिसे वो छेड़ना नहीं चाहती थीं.
“बेटा, तू एक बार मिल ले. ये लड़का तेरे भइया की पसंद है, उसका दोस्त है.” मैं जानती थी कि भैया मुझे लेकर कितना संवेदनशील है. अगर ये उनकी पसंद है, तो उसके वर्षों के शोध का परिणाम होगा. इनसे मिलकर अनुमान सत्य साबित हुआ. सौम्य, गंभीर और मितभाषी! स्वभाव में उन लफंगों जैसा एक भी पुट नहीं था, जिससे मुझे नफ़रत थी. हां, करते समय दिल में फिर हूक सी उठी कि क्या अब बस एक गृहिणी की ज़िंदगी जीना ही मेरी नियति में है? पर मना करने का भी कोई कारण नहीं समझ आया.
… और फिर धूमधाम के साथ मेरा एक पिंजरे से दूसरे पिंजरे में तबादला हो गया. जैसे बोंसाई का गमला जड़ें तराशने के बाद बड़ी ही एहतियात साथ बदल दिया जाता है.
फ़िर तो ज़िंदगी एक ढर्रे पर चल निकली. कॉलेज की अतिरिक्त गतिविधियों के रूप में पत्रकारिता के वो कुछ माह और मंच की नृत्य कलाकारा के रूप में बचपन और कैशोर्य के कुछ साल ट्राफियां बनकर कॉर्निश पर सज गए थे. जैसे संग्रहालय में कोई सदियों पुराना दो पत्थरों के बीच दब कर सुरक्षित बच गया अवशेष (फॉसिल) हो. पर मेरे दिल की गहराइयों में वे वर्ष अभी भी जीते जागते ख़बसूरत लम्हे थे, जो एक छटपटाहट और बेचैनी बनकर घुमड़ते रहते थे.
“फोन सुनो! तुम कहां खोई हो.” पति और फोन की सम्मिलित आवााज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई. बेटी के शिक्षक का फोन था. धड़कते दिल से उठाया और स्पीकर पर डाल दिया. “आप लोग यहां आ सकते हैं? वैसे परेशान न होइएगा. आपकी बेटी को थोड़ी चोट लग गई है. हमारे पास डॉक्टर्स की टीम है…”
“मेरी बेटी से बात कराइए.” पति ने उनकी बात काट कर कहा. “बात तो नहीं हो सकती. वहां पर सिग्नल नहीं हैं. मैं वहां से दो किलोमीटर दूर आकर फोन कर रहा हूं.” एक झिझकता हुआ सौम्य स्वर था. “जरूरत क्या थी ऐसी जगह कैम्प करने की जहां सिग्नल नहीं आते. ठीक है हम पहुंच रहे हैं.” पति द्वारा शिक्षक के सौम्य प्रश्न का ऐसे लहजे में उत्तर सुनकर मैं चकित थी. मैंने कभी अपने पति को इतने सभ्य वक्तव्य का इतने तिक्त स्वर में उत्तर देते नहीं सुना था. क्या हो गया था इन्हें? इतने मृदुभाषी इन्सान को? मैं याद करने की कोशिश करने लगी कि इन्हें इतना व्यथित कभी देखा है क्या? मगर स्मृति पटल पर ऐसा कोई दृश्य नहीं दिखाई दिया. वहां तो सारे मधुरिम रंग बिखरे थे.
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ये एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जैसा जीवनसाथी हमें मिलता है, हम प्रायः स्त्री या पुरुष के सम्पूर्ण वर्ग के लिए वैसी ही धारणा बना लेते हैं. विवाह के बाद मैंने सभ्य और सौम्य प्रणय का स्वाद चखा. दो वर्ष सुखी दाम्पत्य जीवन जीने के बाद मेरे मन से लड़कों के लिए डर बहुत कम हो गया था. साथ ही रास्तों पर अकेले निकलने का भी. शायद इसीलिए उस दिन संगीत-नाटक अकादमी का विज्ञापन देखकर मन मचल गया.
पति ने सुना तो आश्चर्य से बोले, “ये राष्ट्रीय स्तर का प्रसिद्ध विद्यालय है. तुम्हें प्रवेश मिलेगा?”
“मुझे प्रवेश नहीं मिलेगा?” मैंने ‘मुझे’ पर ज़ोर देकर बस इतना ही बोला. आगे के शब्द गले में अटक गए. आंखों में वो तूफान उमड़ पड़ा, जिसे देखकर पति घबरा गए.
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
भावना प्रकाश
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